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प्रस्तावना
:
११. आदिपुराण
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भरत तथा जैन सभाज
प्रत्येक श्रावक
महापुरुषों का
'श्रादि पुराण' संस्कृत में प्राचार्य जिनसेन की रचना है। काव्य, भाषा एवं वर्णन की दृष्टि से यह रचना संस्कृत भाषा की अनूठी कृति है इस में ४७ प हैं तथा प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव धौर उनके पुत्र सम्राट महायोगी बाहुबलि आदि कर जीवन विस्तृत रूप से श्ररित है । का यह एक प्रत्यधिक प्रिय ग्रम्य है, जिसका स्वाध्याय करना एवं श्राविक के लिए श्रावश्यक माना है। त्रेसठ शलाका जीवन जानने के लिए यह एक महत्वपूर्ण कृति है। ऐसे पुराण की भाषा टीका का कार्य महाकवि दौलतराम ने अपने हाथ में लेकर हिन्दी भाषा भाषियों के लिए महान उपकार का कार्य किया । कवि ने जब संस्कृत में रचित प्रादिपुराण की स्वाध्याय एवं प्रवचन किया तो सभी श्रोताओं ने विशेषतः दोवान रतनचन्द ने उनसे इस पुराण की भाषा टीका करने का अनुरोध किया। कुछ अन्य श्रोताओं एवं स्वाध्याय प्रेमियों ने भी इसके लिए आग्रह किया । उस राम अयपुरका प्रभाव था महाविद्वान टोडरमल का प्रभाव चरमोत्कर्ष पर था। इसलिए कवि को तत्कालीन स्वाध्याय प्रेमियों के आग्रह को मानना ही पड़ा और उन्होंने इसकी भाषा टीका प्रारम्भ करदी ! संवत् १०२३ में पद्मपुराण की रचना के ठीक ७ मास पश्चात् ही उन्होंने यह एक और विशाल गद्य कृति पूर्ण की।
प्रठारह से सम्वता ता ऊपर चौवीस |
कृष्ण पक्ष आसोज की पुष्य नक्षत्र वरीश । शुक्रवार एदादशी पूरण भयो ये ग्रंथ ||
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कवि
इस ग्रन्थ के निर्माण की प्रेरणा में पं० टोडरमल के दोनों पुत्र हरिचन्द एवं गुमानीराम तथा देवीदास गोधा का नाम विशेषतः उल्लेखनीय है । ने भाषा टीका के प्रारम्भ में अपनी जिस रूप में लघुता प्रगट की है । उल्लेखनीय है ।
यह
ला परिभाषा वचनका भाष' मैं मति मन्द | लेहु सुधारि सूपंडिता, ज्ञान रूप निर्द्वन्द || महिमा महापुराण की, मो पं कही न जाय । जानें श्री जिन केवली, तीन भुवन के राय । निज मति माफिक कछू मैं, भाष भाषा रूप । सुनहु भव्यजन भावघर, भजहु भजहु जिन रूप ||