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जीवंधर स्वामि चरित
छंद वेसरी
अव तुम सुनौं और इक वाता, जा विधि मिल प्रष्ट ही भ्राता। विजया की हूँ सौकि वखानी, सत्यं घर को ल्हौरी रांनी ॥७।। रति इक अवर अनग पताका, तिनक पुण्य कर्म परिपाका । मधुर धकुल टू पुत्र विसुद्धा, सुनि जिन धर्म भये प्रतिबुद्धा ॥७९॥ धारे श्रावक वृत्त सबैही, जिनके धारै मोह दवही । नर सेनापति हौ राजा के नाम विमति सुभ मति तांक ॥८॥ होती नयावसी सुभ नारी, ताके वेवसेन सुत भारी। अर प्रोहित हो सागर नांमा, हुती श्रीमती ताक भामा ॥१॥ जांके पुत्र महा परवीना, बुडिषेण विद्या लवलीना। अर इक श्रेष्ठी हो धनपाला, ताकै श्रीदत्ता सुभचाला १८२॥ हुती नारि ताके गुणवंता, पुत्र भये वरदत कुलवंता। अर आगे मतिसागर नांमा, मंत्री हो नृप के अभिरामा ॥८३॥ ताकै नारि अनुपमा रूपा, जाकै मधुमुख पुत्र प्ररूपा। मधुर वकुल अर ए चउ जोधा, मिलि हूये पद सुभट प्रबोधा ।।८।। षट द्रव्यनि से भास भाई, एक क्षेत्र बासी सुखदाई । रहैं सेठ परि कला विसुद्धी, जीवधर के सखा सुयुद्धी। जीवंधर जुत सातौं एही, सत्य सुरूपी परम सनेही ।।५।। सप्त तत्व ज्यों लोक मझारे, सौहैं सातौं अति गुण भारे। बालकेलि अति चाव कराए, महा परायण प्रीत धराए ।।८६॥ राति दिवस विछुरै न कही, जिनकी बहुतहि विरद फवही । बहुरि सेठ की नारि जुनंबा, ताक सुत मंदाव्य अनंदा ।।८७१। भयो महाहितकारी वीरा, तब ए पाठ भये अतिधीरा । अष्ट गुणनि से पार्टी एही, सब सुरूप सुन्दर सुचि देही ।।८।।