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जीवंधर स्वामि चरित
दोहा
काम मुद्रिका प्राप्ति
काम रूपिणी मुद्रिका, महाक्रांति को रूप । सकल अरथ साधन करी, दीनी अतुल अनूप ।।११।। पर उतारि परवत थकी, किती दूरि पहुँचाय । जांनी इनकी भै नहीं, लाभ हौंहि अधिकाय ।।११६।। तवं सीख करि र्धार गयो, जक्ष प्रीति प्रतिपाल । शील कंवर के चरण जुग, जीवनि के दुखटाल ॥११७।।
इति श्री जोवंधर स्वामी चरित्रे महापुराणानुसारेण वासावयोष भाषायां, 'बीन प्रयीनता', 'गंधर्ववत्ता बिबाह', 'सुगंध परीक्षा, स्थानोपगार अक्षमित्रता, गंध हस्ती विजय, सुरमंजरी विवाह, कौति प्रकाश, काष्टांगारिक कोपरणोधम, यक्षागमन युद्धप्रशांति यक्षग्रहेगमम काममुदिकालाम निरूपरणो माम द्वितीयोध्यायः ॥
बीसरा अध्याय
छन्द-चालि
अव चले कंवर गुण पूरा, पहुंचे केतीयक दूरा । इक नगर नाम 'चंद्राभा', दीखं जाकी वहु प्राभा ॥१॥ अति धौले उजले गेहा, व्है सरद चांदनी जेहा ।
राजा 'धगपत्ति' पुर स्वामी, सो लोकपाल सौ नामी ।।२।। पदमोत्तमा को विषधर द्वारा डसना
अर है 'तिलोतमा रानी, राजा के रूप निघांनी । शुभ 'पदम' उत्तमा पुत्ती, अति सुदर वहुगुण जुत्ती ।।३।। इक्र दिवस गई ही वन मैं, क्रीडा को चाव जु मन में । सो इसी दुष्ट विषधरने, जव सोच हवो नरवर नें ॥४॥