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महाकवि दौलतराम कासलीवान-व्यक्तित्व एव कृतित्व
कहा रंक ए मौसौं लरे, मेरे बारानि तें सव मरै । पनि हिंसा सौ और न पाप, जीवनि को करणी न सत्ताप ।।१०३।। सातै कोई उपाय बिचारि, मेटौं पाप कारिणो रारि । करौं शांत या सठ की सही, तव सुमरथो उर में सुर वहीं ।।१०४।। जो अपनौं निज मित्र विसाल, जक्ष सुदरसन प्रीति रसाल । पायो तुरत महा बलवान, सकल रारि मेटी मतिवांन ।।१०५।। अर जवि करी बीनती एह, एक बार लखिए मुझ गेह । जीवंधर का चन्द्रोदय पर्वत पर जानाचंद्रोदय परवत सुभथान, तुब परसाद लह्यो गुणवान ।१०६।। तव जीवंधर जग सुखदैन, जखि कौं सुख देवे मृगर्नेन । ताकी वात करी परमान, तब वह लेय गयो निज थान ।।१०७।। नाम बिगिर हस्ति चढ़ाय, इह मित्रनि की रीति कहाय । मित्रनि को पधरावे गेह, दे सुभ वस्तु कर अति नेह ।।१०८।। किनही नहि जांनी इह वात, मात तात अर सातौं भ्रात । करन लगे आकुलता महा, विना कंवर नहि थिरता गहा ।।१०६ ।। जैसे नव पल्लव लहि वाय, अति ही होंहि चलाचल काय । तसे निज जन अथिर जु भये, हमहि जतायें विनु कित गये ।।११।। तव गंधर्वयसा खग सुता, अति विद्या निधि अति गुण जुता । निमत ज्ञान से जांनी बात, कंबरे नाही कछू उतपात ॥१११।। रही निराकुल चित्त सयांन, समुझाये निज जनहित बांन । कंवर लाभ ले आवै सही, या माहै कछु संस नहीं ।।११२।। कबहू मैं जानौं गति कोय, रही हरष सौं थिर चित होय । तव थाके गनि वचन प्रमान, सधनि लाह्यो संतोष निधान ।।११३॥ जीवंधर जस्ति के घरि जाय, कैयक दिवस रहे सुखपाय । बहुरि भयो चलिवे को चित्त, अभिप्राय तब जान्यौं मित्त ।।११४।।