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. जीवंधर स्वामि परित
तव सुधर्म गुरु बोलिया, सुनि हो श्रेणिक भूप । कहीं कथा जोगिन्ा की, अद्भुत प्रति रस रूप ॥११॥
चौपई
कथा का प्रारम्भयाही 'भरतमोत्र' के मांहि, हेमांगव' इक देश वसांहि । तहां 'राजपुर' नगर अनूप, सज करै सत्यंधर भूप ।।१२।। पटरानी 'विजया' गुग्ण स्वांनि, जा समान रति रूप न मानि । मंत्री 'काष्टांगारिक' एक, प्रोहित 'रुद्रवत्त' अविवेक ।।१३।। महारानी विजया द्वारा स्वप्न दर्शनएक समै विजयो पटरानि, देखे सुपना दुख सुखदांनि । अाप उतारि धरयो मुझ सोस, मुकुट जु सत्यंधर धरणीस ।।१४।। अष्ट हेम घंटा जुत सोहि, चिह्न राज को मुस्त्रि इह होहि । बहुरि लख्यो सुपिनों मैं एक, तरु असोक प्राश्रित अविवेक ।।१५।। ताने तरु काट्यो ता माहि, ऊग्यो बालवृक्ष सक नाहि ।
लह लहाट करतो तत्काल, अति सुदर रसरूप रसाल ।।१६।। स्वप्न फल
प्रात समैं राजा हिग जाय, सुपिन भेद भाखे समुझाय । नृप बोले रानी सुनि बात, निश्च होय हमारी धात ।।१७।। अष्ट लाभ हैं तुमकौं सही, लहि हौ सुत राजा अतिमही । सुनि करि नृप वियोग नृपनारि, भई सोक जुत अर्थ विचारि ||१८|| राजा सुभ वचननि ते पोषि, सोक रहित कोनी अति तापि । कयक दिवस वीतिया अब, रह्यो गर्भ रानी को तब ।।१६।। चय करि सुर्ग थको सुरमहा, उयर मझार बास जिह लहा। जैसे सरद विष सर मांहि, राज हंस थिरता जुधरांहि ।।२०।।