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हाकवि दौलतराम कासलीवाल - व्यक्तित्व एवं कृतित्व
तब वसंतमाला या प्रति व्याकुल जानि हाथ पकड़ कहती भई, हे स्वामिनि ! तू डरें मत मेरे पीछे पीछे चली आबो ।
तब यह सखीके कांधे हाथ मेलि चली जाय, ज्यों ज्यों डाभ की अपी जल के चुभे त्यों त्यों प्रति दखिन होय, विलाप करती, देहकों कष्टतं धारती, नीभरने जे अति तीव्र वेग संयुक्त व तिनकों प्रति कष्टते पार उतरती, अपने जे सब स्वजन अति निदेई तिनका नाम विहार अपने प्रशुभ कर्मकों बारंबार निंदती, बेलों को पकड़ भयभीत हिररणी कैसे हैं ने जाके, अंगविषै पसेव को धरती, कांटों से वस्त्र लगि जांय सो छुड़ावती, लहूते लाल होय गए हैं चरण जाके, शोकरूप अग्निके दाह्करि श्याम ताकों धरती पत्र भी हानं तो त्रासकों प्राप्त होती, चलायमान है शरीर जाका, बारंबार विश्राम लेती, ताहि सखी निरंतर प्रिय वाक्य कर धैर्य बंधावे, सो धीरे धीरे अंजना पहाड़ीकी तलहटी आई, तह भर कर गई। कहती भई में एक ग धरने की शक्ति नाहीं, यहां ही रहूंगी, मरगा होय तो होय । तब सखी अत्यंत प्रेमकी भरी महा प्रवीर मनोहर बचननिकरि याक शांति उपजाय नमस्कारकरि कहती भई हे देवी! यह गुफा नजदीक ही है, कृपाकर इहां उठकर वहां सुनसों तिष्ठो, यहां क्रूर जीव विचरं हैं लोकों गर्भंकी रक्षा करनी है, तातें हठ मतिर ।
ऐसा कह्या तब वह आताप की भरी सखी के बचनकरि र सघन वनक भयकरि चलत्रेको उटी, तब सखी हस्तावलंबन देशकर याकों विषमभूमित निकासकर गुफा के द्वारपर लेय गई। बिना विचारे गुफा में बैठने का भय होय सो दोनों बाहिर खड़ी विषम पाषाण के उलंघ कर उपज्या है खेद जिनको तातें बैठ गई । वहां दृष्टि घर देख्या । कैसी है दृष्टि ? श्याम श्वेत बारक्त कमल सम्मान प्रभाकों घर से एक पवित्र शिला पर विराजे चारणमुनि देखे । पल्कासन धरे अनेक ऋद्धि संयुक्त निश्चल हैं श्वासोच्छवास जिनके, नासिकाके श्र भागपर धरी है सरल दृष्टि जिनने, शरीर स्तंभ समान निश्चल है, गोदवर ध को बांमा हाथ ताके ऊपर दाहिना हाथ, समुद्र समान गंभीर, अनेक उपमा सहित विराजमान आत्मस्वरूप का जो यथार्थ स्वभाव जैसा निजशासनविषे गाया है तैसा ध्यान करते, समस्त परिग्रह रहित पवन जैसे प्रसंगी, आकाश जैसे निमंस, मानों पहाड़ के शिखर ही हैं सो इन दोनों ने देखे । फँसे हैं वे साधु ? महापराक्रम के धारी, महाशांत ज्योतिरूप है शरीर जिनका ये दोनों मुनि के समीप गई । सर्व दुःख विस्मरण भया। तीन प्रदक्षिण देय हाथ
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