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म एवं कृतित्व
काष्टांगारिक राजा भयो, कृतघन स्वामि धर्म तें गयो । जैसे सठ करि सविष ग्रहार, चाहे भूख त परिहार ||४३|| जिम कोई करि कपटी मित, चाहे जड़मनि भयो नचित । ज्यों हिंसक मत धरि खल होइ, चाहे सुगति सु कैसे होय ॥४४॥ | तैसे मंत्री प्रथम अयांन लियो राज तजि धर्म विधान ।
स्वामि द्रोह सौ और न पाप पापी लहैं नरक संताप || ४५ ।।
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विजया रानी की रक्षा
गरुड यंत्र परिकार असवार, जविरणी हूँ रानी की लार । ले गई जु मसांरानि मांहि, रोवत राखी संसै नाहि ||४६ ||
पुत्रोत्पत्ति
करी रात्रि की रक्षा महा, तहां पुत्र में जनम जु लहा । महा मनोहर रूप रसाल, मांनी ऊग्यो चंद्र विसाल || ४७||
रानी के नृप की जु वियोग, पति विछोह सौ और न सोग । तातें उच्छव कछु नहि कियो, बारबार भरि याहियाँ ||४५ || तुरत उठायो जखिणी बाल, रतन दीप जोये ततकाल । देखी रानी विमनो इसी, दीं करि जरी लगा हूँ जिसी ॥४६॥
यक्षिणी द्वारा उदबोधन
तव जखिरि दीयो उपदेश, सुनि हे रानी धर्म जिनेस |
सब संबंध विनश्वर जानि, सब थानक दुस्थानक मांनि ||५०||
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धन जोवन क्षरण भंगुर देह, दीप सिखा सम जीतब एह ।
अर इह काय प्रसुचि कौठांम, यासौं प्रीति तजें गुरधाम ।। ५.१ ।।
राज जगत में जानों इसी चपला चमतकार
जिसी ।
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वि पुन्य बीमूढ़ मति देह, सब वस्तुनि स्यों कियो सनेह ||५२ || ते सब जांहि अवसिह रीति, दाह दायनी जग की प्रीति ।
छति वस्तु स रति नहि करें, अर श्रछती की चाह न धरें ।। ५३ ।।
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