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प्रस्तावना
सौरठा : दिये दिवाये दांन, जस प्रगट्यो दसह दिसनि ।
उर्व जगत परिभान, राज कियो यम मुलक परि ।। १७५।। मागै नृपति अनंत, जतन किये आयो न गढ़।
रणथम्भौर महंत, सो माधव सहजै लह्यौ ।।१७६ । कवित्त : अंसी मौज कळत सवाई माधवेस कर,
सुवरन-झर ज्यौं प्रबाह नदी नद के । मान-वेस भान जयसाहिक समान स्थाम, हरत गुमांन निज दांन सौं धनद के ।। मोती अनहद के जराऊ साज सदके, कर द्वार रदके अनाथ दीन दरदके । जोन जम्बूनदके तुरंग करी-कदके,
मतंग मंति मद के कढत सदा सदके ।। : ७७।। सोरठा : चढी फौज करि कोप, भिरि भागे जट्टा प्रबल ।
नई चढी यह वोप, कछवाहन की तेग को ॥१७८11
लेकिन महाराजा पुरोहितों से अधिक प्रभावित थे। एक बार उन्होंने अपना सारा राज्य ही श्याम तिवारी को सौंप दिया; जिसने जैनों पर अनेक जुल्म डाये। मन्दिरों को लूटा गया और मूर्तियों को तोड़ डाला गया । लेकिन महाराजा ने सदैव जनों का पक्ष लिया। जब उन्हें श्याम तिवारी द्वारा किये गये अत्याचारों का पता चला तो उसे उन्होंने तत्काल अपने नगर से निकाल दिया और राज्य में साम्प्रदायिक सदभाव को पुन: उत्पान किया । महापण्डित टोडरमल ने अपनी अधिकांश रचनायें इन्हीं के शासन काल में लिखी थी। इसी तरह महाकवि दौलतराम ने भी श्रीपान चरित (सं. १८२२॥ पद्मपुराण (सं० १८२३) एवं याटिपुराण (सं० १८२४) जैसे महत्वपूर्ण मन्थों की रचना की थी। भाई रापमल्ल ने महाराजा माघोमिह के गासनकाल का वर्णन करते हुए जो लिखा है, वह अत्यधिक महत्व है तथा उस समय शासन पर जैनों के प्रभाव का स्पष्ट द्योतक है--
__''राजा का नाम माधवसिंह है । ताके राज विषं वर्तमान एते कुविसन दरबार की प्राज्ञात न पाईए है। पर जैनी लोग का समूह वस है।