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प्रस्तावना
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सद्गुरु ने पूछा । इसके उत्तर में इन्होंने बतलायो कि मोह की सुता मायानारी भव जाल से निकलने में सबसे बड़ी बाधा है। इसलिये अपने हृदय से मोह पर विजय प्राप्त करो । कुमित्रों की प्राज्ञा को मत मानो और ज्ञान को अपना प्रधानमंत्री बनायो : सुदिकाही स्पो सुला करो। विवेक को पुरोहित पौर अपनी प्रात्मशक्ति को ही सेनापति रखो। भगवद् भक्ति के सहारे मोह पर विजय प्राप्त करे सभी जाकर इस भव से मुनि मिल सकती है । इसके पश्चात् इस जगत में कौन कौन से पदार्थ सर्वोत्तम हैं उनका भी इसमें वर्णन मिलता है।
धेनु नहीं सुर धेनु सी, रस अमृत सो नाहि उदधि न क्षीरोदनि जिसे, पंडित लोक कहाहि ।।८७॥ ऐरावत से गज नहीं, सुरपुर से पुर नाहि ।
वन नहीं सुरवन सारिखो, क्रीडा रूप लखाहि ।। ७८ वे पद्य मे १०३ पद्यों तक इसी प्रकार का वर्णन मिलता है। पूरी रचना १.४ पद्यों में समाप्त होती है । इसमें रचना काल नहीं दिया हुवा है किन्तु अन्तिम पद्य में अपने नामोल्लेख के साथ ही रचना समाप्त करदी गयी है।
सार समुच्च यह कह्यो, गुर आज्ञा परवान ।
पानंद सुत दोलति में, भजि करि श्रीभगवान ||१०४।। इस पंथ की एक प्रतिलिपि जयपुर के बर्धाचन्द जी मन्दिर के शास्त्र भण्डार में १०८२ संख्या वाले एक गुटके में संग्रहीत है। कवि की विचारधारा
___ महाकवि दौलतराम साहित्य की किसी एक धारा मे नहीं बहे ! पौर न वे किसी परम्परा से ही बचे रहे ! उन्होंने अपना जीवन कथाकोप लिखने से प्रारम्भ किया और अन्त हरिवंश पुराण से किया ! ५२ वर्ष के लम्बे साहित्यिक जीवन में कितने ही उतार चढ़ाव नाय लेकिन उनकी साहित्यिक घारा अजस्र बहती रही। वे रीति कालीन कवि थे ! मुगल बादशाहों एवं राजा महाराजामों की शान शौकत का युग था ! भामेर के दरवारी कवि बिहारी की सतसई ने तत्कालीन जनता पर जादू जैसा कार्य किया या ! चारों योर मस्ती थी ! रंगीन एवं शृगार रस से प्रोत प्रोत कविताए थी और उनमें डूबा हुआ था सारा हिन्दी समाज ! लेकिन दौलतराम राज दरबार में रहते हुए हुए भी इस भरिणक मस्ती से दूर थे! वे जानते थे कि यह जीवन निर्माण का मार्ग नहीं है ! सरागता जीवन की सच्चाई तक नहीं पहुँचने देती