________________
अध्यात्म बारहखड़ी
२२५
तू जु अडंकित है जु अपित देव अझपित नित्य अलंपित । तू जु अदंडित है जु अकिंचित नाय अबंचित वोध विभित ।। तू जु अक्रषित है जु असंखित ईश अविचित राय अपित । तू जु अभवृत स्वामि अखंहित एक अजवित धीश निशेकित ।। ३५७।। तु जु अलुटक तात प्रबंचक है जु अभंडक नित्य अभंजक । देव अचित क ईश अनंतक नाथ अरंजक भूप अडकः ।। पूज अभंजित स्वामि असंगित है जु महाध्रिप एक अमंधक। संघ उधारक आप अकारक पार उतारक सूत्र अलंधक ।।३५८।। दोष अमंडित है गुण मंजित नित्य असंचित ई अरंजन । नाथ अटंकित तात अरंगित स्वामि अजित पाप निरंजन ।। नांहि विकार विभाव जु जामहि एक अनेक स्वरूप अकिंचन । नादि नार का नाममा सहभ , अजन ।।३५६ ।।
छंच अरिल्ल लप्पो जाय नहि नाथ, तू जु अलपित सही । अलप बहुत नहि तृ जु तू जु द्रु है वहीं ।। अत्युज्जल तू देव, अभिक्षमी है विभौ। प्रत्युत्कर जगदीस, अतीयमी है प्रभो ॥३६०।।
अतितेजस प्रतिसीत अतिदमी अतिगुरु । अति ठाकुर अतिजीत, अतिसमी अति धुरू ।। अतिसाहिव अधिकार, उपरमी लू सही । अति सागर बिधि रूप, अति जती है तुही ।। ३६१६ अतिलायक अरणगार, अग्रगाशे तु नहीं । तुही प्रागरौ देव, गुणनिको है सही ।। अतिनागर निज रूप, गुणागर सांईयां । अतिजोगी जगजीत, अलेष गुसांइयां ।।३६२५॥