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विवेक विलास
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ऐकेंद्रीय बिकलत्रय, पसु नारक दुख रूप । जन्म अनंत निगोदि मैं, धरै मोह बसि भूप ॥८८६ ।। कवहुक कोइक जीवकी, भ्रांति दूर द जाय । जाने निज विरतांत सो, ठांने मोख उपाय ||१०|| पूरण भाग प्रभाव तें, सतगुर दरसन होय ।
करै बीनती तब यहै, सुनै दयाकरि मोय ।।८६१) जीवो वाचा--
स्वामिन इह संसार है, अति प्रसार भ्रमजार । भरमू कोह वति, लहूं वजन पार ।।६।। कैसे पहुंचू निजपुरा, भ्रमण मिटै किम नाथ । मोह पासि तुटै कवं, अवलोकू निज साथ ||८६३।। सो उपाय भाषौ प्रभु, तुम हो करुणा सिंधु । लुटि सके नहि मोह खल, टूटि जाय सव बंध ।।८६४||
।। इति बहिरारमा दशा वर्णनं ॥
।। श्री गुरु वाचा।।
दोहा
श्री गुरु बाचा--
तू अनादि वंध्यौ भया, भ्रम करि भव के माहि । निज स्वरूप निज भाव भड़, ते अवलोके नाहि ।।८६५।। सुबुधि महाराणी शुभा, पतिवरता परवीन । ताकी तोहि न सुधि कडू, ता विन तू अति दीन ।।८९६।। है प्रवोध मंत्री महा, ताको ताहि न भेद । यक छिन मैं सो साहसी, कर करम दल छेद ।।८६७।।