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महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
भाव अनंत महाभडा, मोह विदारण सूर । कुबुधि कुभाव प्रभाव से, रहै तो थकी दूर ।।८६८।। 4 सर्व विदक पें, जहां सुबुधि प्रबोध । सेरे पुर मैं सर्वही, वसं बिभाव अबोध ।।८६६ पटरानी तेरै दुरी, कुबुध कलंक निवास ।
रौ कुभाव प्रधान है, धरै मोह की प्रास ।।६०७।। बैठी सुवृधि अनादि की, घर विवेक के वीर । तेरे सुभ चिंतक सवै, है विवेक के तीर ||६७१।। करै राज बेग तु, निजपुर को सुघि नाहि । अविवेकी अज्ञान तू, होय रह्यो भव मांहि ॥६०२। छाडि कुवुधि को संग अब, मेल्हि मोह के याहि । निज वसि करि मन चपल कौं, ठाट कुभाव उठाहि ॥६०३॥ वसती काढ़ि विभाव की, काम क्रोध कौं ठेलि । नोरि मोह की पासि अब, तज कुवुद्धि की केलि ॥६०४।। सम्यक गढ़ मैं वास करि, लेहु सुबुधि बुलाय । करहु तरि मंत्री कुमन, ज्ञान मंत्रि ठहाय ।।६०५|| करि विवेक कौं राजगुर, पापहि तुरंत उथापि । प्रोहित पद दं धर्म कौं, शुद्ध स्वभाव सथापि ।।६०६।। सेनापति तप संजमा, भड़ कर अपने भाव । निज प्रभाव उमराव करि, इह उपाय है राव ।।६०७।। शुभाचार कुटबाल करि, दुराचार सहु मेटि । दरसन रूप उघारि दग, चारित सज्जन भेटि ।।६०८।। हर प्रभाव विभाव को, मोह राव की कांरिण । मति राखौ महिपाल तुम, गुर प्राज्ञा उर प्राणि ।।६०६।।