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अध्यात्म बारहखड़ी
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अट्ठावन के आधे स्वामी,
गुणतीसौं रतनश्रय नामी । ते सब भेद हेतु किरपा कारि.
फुनि अभेद रूपो करि भवहरि ।।१७०।। एक घाटि करिये जु अठांवन,
जीव समास जु हसत्तावन । जीव रक्षगा तेरौ पंथा,
तू योगीश्वर हित जु गंथा ।।१७१।। * एक अधिक अढ़सठि सौ उपरि,
ए निश्च पावै शिव भवतरि । कैयक तदभव कैयक जन्म,
पावें तुव पर हतो तन्मैं ॥१७२।। अळसाठि वर्ष जु ऊपरि एका,
गुणहत्तरी जीवी जु विवेका । एकादशमौं रुद्र ज स्वामी,
पारवती प्राणेश्वर नामी ॥१७३।।
तोहि ध्याय हासी तो सरिषा,
तू तीर्थकर पूरण पुरिषा । अढसठि के प्राधे चौतीसा,
येहैं अतिशय तो करि ईशा ॥१७४।।
* १६६ जीब-मोक्षका अधिकारी छ ...२४ तीर्थ कर, २४ पिना
२४ माता, २४ कामदेव, ६ वासुदेव, ६ प्रतिवासुदेव, १ नारद, ६ बलभद्र, ११ रुद्र, १४ कुसकर १२ चकी
[ मूल प्रति की टीका |