________________
जीवंधर स्वामि चरित
1
एहैं तुम लायक नी राखौ दीनें नृप तीकें । तब राखें जीवंधर ने प्रति जुद्ध कला ततपर नें ॥ ४६ ॥
हाॅ प्रति संतुष्ट सुज्ञानी, कैयक दिन थिरता यांनी
सुख सौं निवसे ससुरा के प्रति सज्जन भाव भराके ।। ४२ ।।
J
कवहुक विद्याधर पुत्री, प्रति विद्या रूप विचित्र । गंधर्वदत्ता गुणश्रामा, जाके पति ही विसरामा ||४३||
करि प्रिय दरसन को भावा, भाई विद्या परभावा । लख वलभक वह सखिया, हरखित कीनी निज अखिया ॥ १४४ ॥
बिनु मिलें गई फुनि घर को, श्रावो न जतायो वरकौं । घर हूँ तैं परछन आई ह्यां हूं तें परछन जाई ।। ४५ ।।
जानौं ए हित की रीती, जिन के उर प्रेम प्रतीती । देखें प्रीतम उछाहा, नहि और वसत की चाहा ||४६ ||
शुभ लेमसुंदरी गेहा, तिष्टे सुंदर धरि नेहा । कैयक दिन रहि गुणवंता, जीवंधर जगत महंता ॥४७॥
काहू को नांहि जनायो, पर द्रव्य नही अपनायो । ले धनुष वन वरवीरा, निसि कौं उठि वाले धीरा ॥ ४५ ॥ |
है सुजन नांम इक देसा, हेमाभ नगर सुभ भेसा । मित्र नांम है राजा, जाके निति उत्तम काजा ।।४६ ॥
३३
नलिना रांनी गुणधामा, पुत्री हेमाभा नामा |
जाके जनमत ही निमती यों कहत भयो इक सुमती ||५०||
P
है नाम मनोहर वन जो, अति हरे लोक को मन जो ।
तां भीतर बहुत विसाला, आयुध अभ्यास जु साला १५१ ।।
अति करें धनुष अभ्यासा, बहु सस्त्र सूत्र अभ्यासा । जा धनुषधार को वाह्यो, अति सीघ्र हि जाय उमा
||१२||