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प्रस्तावना
थकारान्त में श्रद्धा पर प्रकाश डालते हुये कवि ने लिखा है, कि षद्धा से भगवान जिनेन्द्र का नाम जपना चाहिए । श्रद्धापूर्वक ही किसी को कुछ देना चाहिये । श्रद्धा से ही बत एवं तप की धाराधना की जानी चाहिए ।
श्रद्धा करि जिन नांव जपि, श्रद्धा करि कछु देहु । श्रद्धा करि व्रत शील धरि, नर भव लाही लेहु ।।
कवि जिनेन्द्र की भक्ति में इतने सन्नद्ध थे कि इन्हें यह प्राश्चर्य लगने लगा था कि लोग उन्हें छोड़कर अन्य की कैसे माराधना करते हैं
ते नर नीच शृगाल सम, जे नहिं ध्यावे तोहि । तोहि छोडि औरहि भजें, इह अचरजि अति मोहि ।।१०।। एक दूसरे प्रसंग में कवि ने फिर उनका स्तवन निम्न प्रकार किया हैतेरी निर्माता नहीं, रचिता जग में कोय । अनिर्मातृ भगवान तू, अनिवाच्य वो होय ।।३६१।।
जिनेन्द्र का वर्णन कर सकने में असमर्थ प्रपने प्रापको कवि निम्न प्रकार प्रस्तुत करता है
प्रोजस्वी तुम वर्णना, कथि न सके जनि कोय। मैं मति हीन अजान जो, किम कहि सकि हो तोय ।।३।।
"जिनेन्द्र' के स्तवन में कवि के कुछ प्रत्यधिक सुन्दर, सरल एवं भावपूर्ण पद्य देखिए
'ख' कहिए आकास को, तू प्राकाम स्वरूप 1 सद्ध चिदातम बोधमय, परम हंस जगभूप ।।२। स्व कहिए इन्द्रीनि को, तुम इन्द्रीनि ते दूर । मन पर बुधि ह के पर, घटि घटि अन्तर पूर ।।३।।
घर घर की सेवा करत, उपज्यो अति गति खेद । अब तू अपनी टहल दे, ले निज माहि अभेद ।।१।।
धर धरणी मै हम लगे, धन धरणी को चाहि । . चाहि हमारी मेदि सब, बहु भरमावे काहि ॥२॥