________________
जीबंधर स्वामि परित
अश्व पूंछ से मूछ के, बाल कठोर महांन । देख्यो जाय न दुष्टधी, दुरजन पाप निधान ॥१२५।। आय परै जब गांव परि, थांभि सके नहिं कोय । लूटै धन पिरपरे तनौं, संक घरं नहि सोय ।।१२६।। काल कूट विष सारिखौ, काल कूट इह भील । अति कुसोल अति नीच नर, दीखे महा कुचील 11१२७।। जानि जेक इह तिमर ही, धरि मानुष को काय । रवि किरणनि कार डरि कुधी, विचरे नाम छिपाय ॥ १२८।। निरदय सेना जा कने, सींगी नाद करत । अभख अहारी गौ हतक, करै पसुनिको अंत ॥१२६।। ज्यौं तमाल वृक्षांनि को, वाम होय अति स्याम । त्यौं कारी भीलांनि को, दल प्रायो अध धाम ।।१३०।। डरे नगर के लोक सब, देखि भील को जोर । नहीं जानिये ह कहा, उपज्यो परि घरि सोर ॥१३१॥ घेरी गाय सुनम्र की, घेरे पसू अछेह । तव काष्टांगारिक नृपति, करी घोषणा एह ।।१३२।। जो लरि दुष्ट किसतस., गाय छुड़ावै कोय ।
सो मेरी गोदावरी, पुत्री को पति होय ।।१३३।। जीवंधर द्वारा उपद्रव का दमन--
इहै घोषणा सुनि सुधि, जीवंधर सुकुमार । सात सखा जुत साह सुत, ले प्रायुध रण सार ।।१३४।। चले तुरत भीलांनि परि, ज्यौं तम परि रविद्यांम । इनके पीछे भूप सुत, कासांगारिक नाम ॥१३५।।