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महाकवि दौलतराम कासलीवाल व्यक्तित्व एवं कृतित्व
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नीर निवारण सो बनराई, वेलि गुलाब चमेली जाई । चंपो मरो अरु सेवति, यो हो नाना विधि किती || बहु मेवा बहुविधि सार, वरात मोहे लागे बार । गढ़ मन्दिर कछु कह्यौ न जाइ, मुखिया लोग बसे अधिकाई ॥ तामें जिन मन्दिर इकसार, तहां विराजे नेमि कुमार । स्याम मूर्ति शोभा प्रति घरणी, ताकी दोषमा जाइ न वणी ।। खुशालचन्द काला :
खुणालचन्द राजस्थान के गौरवमान कवि थे । श्रपने जीवन के बीस से भी अधिक बसन्त ऋतुयें इन्होंने साहित्य निर्माण में व्यतीत की थी। कवि को एक नगर में रहने का अवसर नहीं मिला। इनके पूर्वज टोडारायसिंह के निवासी थे, लेकिन फिर जिहानाबाद - जयसिंहपुरा में जाकर रहने लगे थे । कवि का जन्म संभवतः यहीं हुआ होगा । इनके पिता का नाम सुन्दरदास एवं माता का नाम सुजानदे था । काला इनका गोत्र था। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा दीक्षा जयसिंहपुरा में ही हुई थी; लेकिन फिर भट्टारक देवेन्द्रकीति के साथ से सांगानेर आ गये और कविवर लक्ष्मीदास चांदवाड़ के शिष्य बनने का इन्हें सौभाग्य प्राप्त हुआ। इन्हीं के पास इन्होंने शास्त्र ज्ञान प्राप्त हुआ, जिसका उल्लेख कवि ने अपनी रचनाओं में बड़ी कृतज्ञता से किया है
जिन सु भये तहां नाम लिखमीदास,
चतुर विवेकी श्रुत ज्ञान कू उपाय के । तिने पास मै भी कछु ग्रहम सौ प्रकाश भयो,
फेरि मैं बस्यो जिहानाबाद मध्य श्रायके ||
इसके पश्चात् कवि फिर वापिस जयसिंह पुरा चले गये। वहां सुखानन्द घर में गोकुलचन्द श्रावक रहते ये; उन्ही के श्राग्रह से काँच ने संवत् १७५०
नाम के उत्तम वणिक थे। उन्हीं के जिनको कवि शास्त्र सुनाया करते थे। में हरिवंश पुराण की रचना की थी
सरह मध्य इक वणिक वर साह सुखानन्द जानि । ताके गेह विष रहै, गोकुलचंद सु जांनि ॥१०॥