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जोवंधर स्वामि चरित
महावत मुनि धर्म है, अणुव्रत श्रावक धर्म । श्रावक धर्म ग्यारह विधि, ताकी सुनि अव मर्म ॥७४।। स्याग कुविमान सर्वही, तजे अभक्ष अहार । सम्यक द्रिय निरपरै, पहनी गाडिमा धार ।।७।। वसुमद वसुमल पायतन, षट अर मूढ़त तीन । ए पचीस सम्यक मला, तजे प्रथम परवीन ।।७।। दूजी पडिमा धार फुनि, धरै अगुव्रत पंच । तीन गुण व्रत च्यारि फुनि, सिक्षा ब्रत सुभ संच ।।७।। अस हिंसा परघात वच, परधन अर परनारि । अप्रमाण परिंगह तज्यां, अगुव्रत सुखकारि ॥७८|| दसों दिसा परमारण जो, भोगुपभोग प्रमाण । अनरथ सवही त्यागिवौ, तोन गुण ब्रत जारण 11७६।। तीनों संध्या जिन भजन, पोसह च्यारि प्रमानि । अतिथि विभागर नेम निति, चउ सिक्षा व्रत जानि ।।८०॥ अंतकाल सल्लेखणा, इह व्रत प्रतिमा रीति । सुनि तोजी सामायका, धरि करि उर मैं प्रोति ।।८।। सामायक समये महा, मुनि सम थिरता होय । सो तीजौ श्रावक को, लहै सुगति सुख सोय ॥२॥ षट चउ हूँ घटिका प्रमा, व्है सामायक काल । सोलह बारह बसु पहर, इह पोसह की चाल ।।३।। सामायक की सी दसा, पोसह समये होय । चौथी पडिमा धार सो, श्रावक सुभमति सोय ।।८४॥ सचित त्याग है पंचमी, छट्ठी दिन तिय त्याग । पर निसि कौं भोजन तजन, घार ते बड़ भाग ॥८॥ सदा सर्वथा नारिकी, त्याग सप्तमी जांनि । तजन सकल प्रारंभ कौ, ताहि अष्टमी मांनि ॥८६॥