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महाकवि दौलतराम कासनीयाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
लगे । चारों और अमन चैन व्याप्त हो गया। लेकिन यह शान्ति प्रधिक समय तक नहीं रह सकी और संवत् १८२६ में एक वगं ने धार्मिक विद्वषता की फिर आग फैला दी । चारों और मन्दिरों को लूटा जाने लगा और मूर्तियों को तोड़ डाला गया | इन लोगों ने किसी की बात नहीं सुनी और कहने लगे कि उन्हें राजा का यही प्रादेश है। जयपुर, आमेर, सवाईमाधोपुर एवं खण्वार के मन्दिरों को उसी समप्र लूटा गया । लेनिन महाराजा जयपुर की फिर सारे गज्य में दुहाई फिरी जिससे लूट खसोट होना बन्द हो गया और राज्य में फिर साम्प्रदायिक सद्भावना स्थापित हो गयौं । कुनि भई छब्बीसा के साल, मिले सकल द्विज लधु र बिसाल । सबनि मतो यकः पक्को कियो, सिव उठांन फुमि दुगन दियो ।।१३०७।। द्विजन प्रादि वह मेल हजार, बिना हुकम पाय दरबार । दौरि देहुरा जिन लिय लूदि, मूरति विघन करी बहु टि ।।१३०८।। काहू की मांनी नही कानि, कहीं कम हमका है जानि । असा म्लेछन हूँ नहीं करी, वहरि दुहाई नृप की फिरी ।।१३०६ ।।
दोहा लुटि फूटि सबढे चुके, फिरी दुहाई बोस । कहनावति भई लुटि गए, भाग्यो बारह कोस ।।१३१०।।
कवि बखताराम के अतिरिक्त तत्कालीन कवि थान सिंह ने भी अपने 'सूबुद्धिप्रकाश में उस समय की राजनैतिक सामाजिक एवं धार्मिक स्थिति का अच्छा वर्णन किया है। सर्व प्रथम कवि ने महागाजा जयसिंह के शासन का, जयपुर नगर की स्थापना की, एवं वहां व्यापार की बड़ी प्रशंसा की है। कवि ने लिखा है कि महाराजा जयसिंह ने अामेर और सांगानेर के मध्म में जयपुर नगर बसाया तया सूत बांवकर नगर के बाजार, दरवाजे प्रादि बनाये अपने लिये सात मंजिल वाला महल बनवाया तथा राज्य के बाहर से बड़े २ रोठ साहूकारों को बुलाकर नगर में बसाया। न्यायसंगत हैक्स लगाये जिससे नगर का छ्यापार खूब बढ़ गया और सांगानेर एवं आमेर उजड़ने लगे। राज्य के शासन की बागडोर जैनों के हाथों में थी। राजा शैव धर्मानुयायी था। नगर में शव एवं जैनों के अनेक शिखर बत्र मन्दिर थे जयसिंह की मृत्यु के पश्चात् ईश्वरीसिंह ने शासन की बागडोर सम्हाली और राज्य में शान्ति रही तथा प्रजा भी प्रानन्द से रहती रही । ईश्वरीसिंह के पश्चात् महाराजा सवाई