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प्रस्तावना
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माधोसिंह जयपुर के शासक बने। उनके शासन में शेव धर्मावलम्बी शासन में प्रधान बन गये और जैनों से विरोध करने का महाराजा से प्रदेश ले लिये। इसके पश्चात् वेद, धर्म, गुरु, एवं शास्त्रों का अपमान किया गया। महाराजा मंत्रियों के रहस्य को समझ नहीं सके धर उनके कहने में प्राकर नगर के निवासियों से डंड वसूल किया गया। इससे नगर के निवासी अत्यधिक दुखी हो गये। बहुत से लोग नगर छोड़कर चले गये। स्वयं कवि को जयपुर छोड़कर भरतपुर जाना पड़ा । सवाई माधोसिंह के पश्चात् सवाई प्रतापसिंह जयपुर महाराजा बने । वे भी अत्यधिक लोभी थे और सभी धर्मावलम्बियों के मन्दिरों का ब्राह्मणों का एवं अतिथियों के धन को भी जबरन से लिया था इससे नगर में लोग श्रोर भी दुखी हो गये और उदास होकर नगर छोड़ने लगे ।
उक्त दोनों वनों से ज्ञात होता है कि संवत् १८१५ में लेकर संवत् १८२६ तक जयपुर राज्य का धार्मिक वातावरण काफी उत्तेजनापूर्ण रहा। तथा शासन में जो व धर्मावलम्बी थे उन्होंने शासन का फायदा उठाकर दूसरे वर्ग को अधिक से अधिक नुकसान पहुंचाने का प्रयास किया। लेकिन यह स्थिति अधिक समय तक नहीं रही और जयपुर निवासी एक दूसरे प्रति गही सद्भावना के साथ रहेने लगे। इसके अतिरिक्त जयपुर के तत्कालीन शासकों ने कभी सम्प्रदाय विशेष का पक्ष नहीं लिया और राज्य में जैनों को शासन के उच्चस्थ पद पर नियुक्त किया जाता रहा। राव कृपाराम, रामचन्द्र छाबड़ा, बालचन्द छाबड़ा, रतनचन्द्र जैसे व्यक्ति दीवान के पद पर कार्य करते रहे । और धर्म विशेष का शासन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा ।
माधव आगे सिव धरमी मुखियो भयो । जैन्यासों करि द्रोह वच मैं ले लियो । देव धर्म गुरु श्रुत को विनय विगरियो । कोयौ नांहि विचारि पाप विस्तारियो ॥ भूप रथ समभयो नहीं मंत्री के बसि होय । खंड सहर मैं नाखियो दुखी भये सब लोय | विविध भांति धन घटि गयी पायी बहुत क्लेस 1 दुखी होय पुर को तजो तब ताक परदेस ||
सुबुद्धिप्रकाण