SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 377
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पद्म-पुराण-भाषा सो ताहि बुलाये है सो प्रतिबिंद कहा यावं । तदि अप्राप्तिः परम शोक को प्राप्त भई है। कटक प्रार्य उत्तर्मा है सो नाना देशनिके मनुष्यों के शब्द पर हाथी घोड़ा आदि नाना प्रकार के पशुवनि के शब्द सुनकर अपने वल्लभ कया की पाशा कर भ्रम है चित्त, जाफा, अश्रुपात सहित हैं लोचन जाके, तट के वृक्ष पर चदि चढिकरि दर्शों दिशा की और देखें है, प्रीतम को न देखकरि प्रति शीघ्र ही भूमिपर प्राय पड़े है, पांख हलाय कमलिनी को जो रज शरीर के लागी है सो दूर कर है सो पवनकुमार ने बनीवर तक दृष्टि धारि चकबी की दशा देखी, दयाकर भीज गया है चित्त नाका, चित्त में ऐसा विचार है कि प्रीतम के वियोग करि यह शोक रूप अग्निविर्षे बलं है। यह मनोश मानसरोवर पर चंद्रमा की चादनी चंदन-समान शीतल सो या वियोगिनी चकमी को दावानल समान है, पति विना याकों कोमल पस्लव भी खड्ग समान भास है। चन्द्रमा की किरण भी बज के समान भास है, स्वर्ग हू नरकरूप होय आचर है। ऐसा चितवरकर याका मन प्रिया विर्ष गया । पर या मानसरोवर पर ही विवाह भया हुता सो वे विवाह के स्थानक दृष्टि में पड़े सो याको अति शोक के कारण भा. मर्म के भेदनहारे दामह करीत समान लागे। चित्तविष विचारता भया-हाय ! हाय ! मैं करचित्त पापी, वह निर्दोष वृथा तजी, एक रात्रि का वियोग चकवी ने सहार सके तो बाईस-वर्ष का वियोग वह महासुन्दरी कस राहार ? कदुक वचन वाकी सस्तीने कहे हुते, वाने तो न कहे हुने, मैं पराए दोषकरि काहे को ताका परित्याग किया । धिक्कार है मो सारिखे मूर्ख को, जो विना विचार काम करें । __ ऐसे निष्कपट प्रासगी को विना कारण दुःख अवस्था कगे, मैं पापचित्त हैं, वन समान है हृदय मेरा जो मैंने एते वर्ष ऐसी प्रामावल्लभा को वियोग दिया, अब क्या करू', पितासों विदा होगकर घरत निकस्या हूं, मैं पाछा जाक, बड़ा संकट पङ्या, जो मैं वासौं मिले बिना संग्राम में जाऊ तो वह जीव नाहीं पर वाकै प्रभास भये मेरा भी प्रभाव होगया. जगत विष जीसव्य समान कोई पदार्थ नाहीं तात सर्व संदेह का निवारणहारा मेरा परम मित्र प्रहस्त विद्यमान है वासिवं भेद पूछू । बह सर्वप्रीति की रीति में प्रवीण है । जे विचार कर कार्य करें हैं, ते प्राणी सुख पावें हैं ऐसा पवनकुमार कों विचार उपज्या सो प्रहस्त मित्र ताके सुखवि सुखी दुखविर्षे दुखी याको चितावान देख पूछता भया कि हे मित्र ! तुम रावण की मदद करने को वरुण सारिसे योधासों लड़ने को जावो हो, सो अति प्रसन्नता चाहियें तब कार्य की सिद्धि होय । आज तिहारा बदन रूप कमल क्यों मुरभाया दीख है, लज्जा को
SR No.090270
Book TitleMahakavi Daulatram Kasliwal Vyaktitva Evam Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand Kasliwal
PublisherSohanlal Sogani Jaipur
Publication Year
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth, History, & Biography
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy