SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 376
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६. महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्य घने दिन के तिसाए पपैये कों मेष की बूद प्यारी लाग, सो पति के वचन मनकरि अमृत समान पीवतो भई, हाथ जोड़ि चरणारविंद वी ओर दृष्टि धरि गदगद वारणीकर डिगते डिगते वचन नीठि नीठि कहती भई-हे नाथ ! जब तुम यहां विराजते हुते, तब में वियोगिनी ही हुती; परन्तु अाप निकट हैं सो अाशाकरि प्राण कष्टतं टिक रहे हैं, अव प्राप दूर पधारं हैं मैं कैसे जीऊगी। मैं तिहारै वचनरूप यमृत के ठायस्वादने की अति प्रातुर, तुम परदेश को गमन करते समय स्नेहत दयालु चित्त होयकर बस्ती के पशु पक्षियों को भी दिलासा करी, मनुष्पों की तो कहा बास ? सबको अमृत समान वचन कहे, मेरा चित्त तिहारे चरणारविंद विषै है, मैं तिहारी अप्राप्तिकार अति दुःसी, औरनिकी श्रीमुखत एती दिलासा करी, मेरी औरनिफे मुखतही विलासा कराई होती। जब मोहि प्रापन सजी तब जगत मे शरण नाहीं, मरण ही है। तब कुमार ने मुख संकोचकर कोपसों कही, मर | तब यह सत्ती वेद-खिन्न होय धरती पर गिर पड़ी । पवनकुमार यासों कुमयाही विर्ष चाले। बड़ी ऋद्धि सहित हाथी पर असवार होय सामंतों सहित पयान किया। पहले ही दिनविर्ष मानसरोवर जाय डेरे भए, पुष्ट हैं वाहन जिनके, सो विद्यापरिनी की सेना देवों की सेना समान अाकाश उतरती सती प्रति शोभायमान भासती भई । कैसी है सेना? नाना प्रकार के जे वाहन पर पास्त्र तेई हैं आभूषण जाके । अपने २ वाहनों के यथायोग्य यत्न कराए, स्नान कराए, खानपान का यत्न कराया। __ अथानंतर विद्या के प्रभावतं मनोहर एक बहुलणा महल बनाया, चौड़ा और ऊंया सो आग मित्र सहिल महल कपर विराजे ? संग्राम का उपज्या है अति हर्ष जिनके, झरोखनि की जाली के छिद्रकरि सरोवर के तट के वृक्षनिकों देखते हुते, शीतल मंद सुगंध पवनकारि वृक्ष मद मंद हालते छुते पर सरोवरवि लहर उठती हुनो, सरोवर के जीव कदुवा, मीन, मगर पर अनेक प्रकार के जलचर गर्व के धरण हारे सिनकी मुजानिकरि किलोल होय रही हैं । उज्जवल स्फटिकमरिण समान निर्मल जल है जामें नाना प्रकार के कमल फूल रहे हैं, हंस, कारंड, क्रौंच, सारस इत्यादि पक्षी सुन्दर शरद कर रहे हैं जिनके सुनने ते मन पर कर्ण हर्ष पा– अर भ्रमर गुजार कर रहे हैं। तहां एक चकवी, चकवे बिना अकेली वियोगरूप अग्नित तप्तायमान प्रति आकुल, माना प्रकार चेष्टा की करगाहारी, अस्ताचल की और सूर्य गया सो वा तरफ लग रहे हैं नेत्र जाके पर कमलिनी के पत्रनिके रिश्रद्रों विर्षे बारंबार देख है, पस्त्रिनिकों हलावती उट है पर पड़ है। . पर मृणाल कहिए कमल को नाल का तार ताका स्वाद विष-सभान देन है, अपना प्रतिबिम्ब जलविौ देख करि जाने है कि यह मेरा प्रीतम है,
SR No.090270
Book TitleMahakavi Daulatram Kasliwal Vyaktitva Evam Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand Kasliwal
PublisherSohanlal Sogani Jaipur
Publication Year
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth, History, & Biography
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy