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प्रस्तावना
जयचन्द छाबड़ा:
महा पंडित टोडरमल एवं दौलतराम के पश्चात् जिन विद्वानों को समाज द्वारा सर्वाधिक सम्मान प्राप्त हुआ; उनमें जमचन्द छाबड़ा प्रमुख विद्वान हैं। इनका भी समुचा जीवन ही साहित्य-देवता को समर्पित था और साहित्य एवं ममाज की मेवा ही उनके जीवन का प्रमुख लक्ष्य था । महाकवि दौलतराम एवं महा पंडित टोडरमल दोनों का ही इनके जीवन पर सर्वाधिक प्रभाव पड़ा और साहित्यिक क्षेत्र में इन्हीं का उन्होंने अनुसरण किया।
जयचन्द छाबड़ा का जन्म जयपुर से . मील दक्षिण की प्रोर जयपुर मालपुरा रोड़ पर स्थित फागी ग्राम में हुया था। यह समय ऐसा था जब दौलतराम की गौरव गाथा चारों ओर फैल चुकी थी और टोडरमल के साहित्यिक के क्षेत्र में पदार्पण की भूमिका बन रही थी। इनके पिता का नाम मोतीराम था । गोन छाबड़ा एवं जाति खण्डेलशन थी। ११ वर्ष की अवस्था मे ही मे अपने ग्राम के मन्दिर में जाने लगे और तत्वचर्चा में रूचि लेने लगे । कुछ समय पश्चात् वे जयपुर में प्रागये और यहां प्राने के पश्चात् तो उन्हें ऐसा लगने लगा कि मानों उन्हें अपनी प्रभोष्ट वस्तु मिल गई हो । अब वे जयपुर पाये तो उन्हें अपने आपको विद्वानों की गोद में पाया । पं० वंशीधर, टोडरमल, दौलतराम, भाई रायमल्ल, बस्तराम आदि सभी शास्त्रज्ञ एवं सत्वोपदेशी थे। फिर क्या था जयचन्द ने भी अपने-अपको इन्हीं विद्वानों के समर्पित कर दिया । सर्व प्रथम इन्होंने तत्वार्थ मूत्र पर संवत् १८५६ में बपनिका लिली और फिर इसके दो वर्ष पश्चात् सवार्थसिद्धि पर विस्तृत वनिका लिखी जो अर्थ प्रकाशिका के नाम से अधिक प्रसिद्ध है । फिर तो वे एक के पपवान् दूसरे ग्रन्थ की भाषा टीका लिखने लगे और अपने १२-१३ वर्ष के साहित्यिक काल में १५ ग्रन्थों पर भाषा टोकायें लिख दी । ऐसा मालूम होता है कि उनका मस्तिष्क सैद्धान्तिक ज्ञान से भर चुका था और अब तो. केवल निकलने की देरी घो । अब तक उनके निम्न घय प्राप्त हो चुके है
रचनाकाल
१, सस्वार्थ सूत्र व नका, सं० १८५६ २. सर्वार्थसिद्धि वनका, चैत्र शुक्ला पंचमी १८६१ ३. प्रमेयरत्नमाला वनिका, प्राषाढ़ शुक्ला ४ सं०१८६३ ४. स्वामी कातिकेयानुप्रेक्षा भाषा, श्रावण कृष्णा ३ सं० १८६३