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महाकवि दौलतराम कासलीवाल-पक्तित्व एवं कृतित्व
५. द्रव्यसंग्रह वचनिका, धानमा कृष्णा १४ में० १८६३ ६. समयसार बच निका, कार्तिक कृष्णा १० सं० १८६४ ७. देवागम स्तोत्र (ग्राप्त मीमांसा), चैत्र कृष्णा १४ सं० १८६६ . प्रष्ट पाहुड़ बनिका, भाद्रपद शुबला १२ सं० १९६७ ६. ज्ञानार्णव वचनिका, माघ कृष्णा ५ सं० १८६६ १०, भक्तामर स्तोत्र वचनिका, कार्तिक कृष्णा १० सं० १७० ११. पद संग्रह, १२. सामायिक पाठ व नका, १३. पत्रपरीक्षा वाचनिका १४. चन्द्रप्रभ चरित द्वि० सर्ग, १५. धन्यकुमार वचनिका,
उक्त ग्रन्थों की नामावली के अाधार पर कवि के व्यक्तित्व एवं कृतित्व का स्वतः ही प्राभास मिल जाता है । उन्होंने सैद्धान्तिका, तात्विक, प्राध्यात्मिक स्तुति परक, दार्शनिक एवं धरित-प्रधान सभी ग्रन्थों की राजस्थानी भाषा में वनिकाए' लिखीं और उनके पठन-पाठन का सर्वत्र प्रचार किया । इनके ग्रन्थों की भाषा अत्यधिक सरल, सरस एवं सुगम्य है।
तत्कालीन जयपुर दरबार से उनका मधुर सम्बन्ध था। अपनी एक कृति में उन्होंने महाराजा सवाई जगतसिंह के शासन की अच्छी प्रशंसा की है । कधि के अनुसार राज्य में सर्वत्र अमन चैन था तथा सभी धर्मावलम्बियों को अपने २ धर्म पालन की पूरी छूट थी। राजा के कितने ही मंत्री थे और उनमें परस्पर में मैत्री भावना थी। संवत् १५६१ में जयपुर में जो प्रतिष्ठा महोत्सब हुआ था, उसमें कवि का विशेष योग था।
करी प्रतिष्ठा मन्दिर नयो, चन्द्रप्रभ जिन थापन थयो। ताकरि पुण्य बढ़ौ यश भयो, सर्व जैनिन को मन हरयो ।।
दीवान रायचन्द से भी कधि का विशेष सम्बन्ध था इन्होंने कवि को सभी चिन्ताओं से मुक्त कर दिया पीर साहित्य निर्माण पर विशेष जोर दिया।
ताके -हिंग हम थिरता पाय । करी बचनिका यह मन लाय ।।