________________
जीबंधर स्वामि चरित
अब ह्या ते मागें चाले, अतुली वल निसि कौं पाले । काहू सौं नाहि जतायो, एकाकी गमन कगयो ।।१७।। कितीयक कोसनि पहुँचे जी, जीवंधर श्रीधर से जी। इक खेम नगर सुर पुर सौं, सब ही वातनि अति सरसों ।।१८।। इक बन है पुर ते नीरा, देखत ही मेटै पीरा ।
जो नाम मनौरम कहिया, अति सुंदर तरवर सहिया ।।१६।। सहस्रकूट चैत्यालय के कपाट खुलना--
तामैं जिन मंदिर सोहै, सो सहस सिखर मन मोहैं । लखि जीवंधर जिन गेहा, कीयो वंदन धरि नेहा ॥२०॥ दे तीन प्रदक्षण भाई, दरसन को भाव धराई । देवल के पाट विसाला, ते खुले सहज ततकाला ।।२१।। हूबो दरसन जिनवर को, भवत्तारन त्रिभुवन मुर को । जिन सतवन करनै लागौ, अति भक्त शांत रस पागौ ।।२२।। फूल्यो चेपा इक अब हो, दरसातौ राग अधिक ही। कोकिल चुप होय रहे हे, मधु रति को विरह गहे हे ।।२३।। ते लगे बोलने मधुरा, सुनि करि राजी ह्र सुघरा । अर जिन मंदिर के निकटा, इक सरवर प्रति ही सुघटा ।।२४।। सो निर्मल जल करि पूरी, हूवो आतप चक चूरौ । मांनी फटिक द्रव भरियो, गुन निपुन नरनि को करियो ।२५।। तामै फूले ततकाला, कमलादिक गंध बिसाला । अति भमर करें गुजारा, लखतां ह्र हरष अपारा ।।२६।। करिके जु सनांन विसुद्धी, ले आठौं द्रव्य सुबुद्धी । जिनवर का पूजि सुग्यांनी, थुति करन लगी गुण खांनी ॥२७॥ ता खेमनगर को बासी, इक समुद सेठ जस रासी । जाक निरवृति सेठांनी, तार्क पुत्री मतिवांनी ॥२६।।