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जीवंधर स्वामि चरित
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सकल सखा जुत अद्भुत बालक, प्रति मन भावन पर दुख टेलिक । . तहां बाल लीला :कर लौटे, रोवत खिजत महागुरण मोटे ||१०१ || उस्न अन्न हूँ जीमों कैसे, मांसौं बोलं वचन जुसे । माको प्रतिबिह्वल जब कीनी, तब तापस इह सिक्षा दीनी ॥ १०२ ॥ तो कौं रोबो जोगिन लाला, तू मंगल मूरति गुणमाला |
यद्यपि तेरी वय है छोटो, तौ पनि तो मैं मति अति मोटी ।। १०३ । १ धीरज आदि गुणनि करि भाई, तू सब जग को सिखर दिखाई । सुनितापस के वचन विवेकी, वोले आप भाव करि एको ।। १०४ || रोवे के लुन तुम नहि जानी, मेरी बात हिये परवानी ।
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जाय सलेम जो दुख दाई, नेत्र विमल प्रति अधिकाई ॥ १०५१। तिते श्रहार हु सीतल होई, यांमैं तो श्रीगुन नहि कोई |
इन बचनांने तापस सुख पायो, अर भाता का हियो सिहायो ॥ १०६ ॥
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सकल. सख्य जूत पुत्र जिमाए, पाछें श्रेष्ठी को पत्रराए । तापस करें प्रति तिरपत कीयो, प्राछो विधि तें भोजन दीयो ॥ १०७॥
तव तापस बोल्यो सुभ ना, कंबर देखि हरखे मुझ नैना ||१०८ || देखि जोगि ता मोहित हूंवो, भयो जाय नहि यातें जूवो । जो तुम आज्ञा द्यो सुखदाता, तो मैं याहि पढ़ाऊ ताता ।। १०६ । सूत्र समुद के जल तें याकी, धोऊ सनमति सुगुरा भरा को । सुनि करि बोले सेठ प्रवीनां, मैं हों जिन मारग श्राधीनां ।। ११० ।। अनमती को सिर नहि नांऊ, प्रांत धर्म के पासि न जाऊ | नमसकार विन अभिमांनी, दुख पावें मन मांहि निदांनी ।।१११ ।। तब वोल्यो आपस सुभ देनां बात हमारी सुनिदि जैनां | नगर सिंहपुर को में भूपा, श्ररिजकर्मा नांम परूपा ॥ ११२ ॥ | बोरनंदि के मुनि व्रत लीयो, पतिषेण सुतर्कों नृप कीयो । सम्यक सहित मुनीसर व्रत्ता, पाले जगतें होय निवृत्ता ।। ११३ ॥