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प्रस्तावना
चैतन्य दशा से दूर रखने वाले, संसार में रुलाने वाले अवगुणों का बुराइयों का एवं दुस्साधनों का जिस स्पष्टता से उल्लेख किया है, वे कवि के गम्भीर चिन्तन की ओर संकेत करते हैं। वास्तव में यह विलास एक ऐसी कृति है । जिसका धर्म एवं सम्प्रदाय कोई सम्बन्ध नहीं । वह केवल अपने हो मे निवास करने वाले ग्राम लक्ष्य तथा उसमें निहित परम शक्तियों का दर्शन कराना चाहता है | वह मनुष्य मात्र को बार-बार चेतावनी देता है कि
निज गुर में बुधि मैं बसे, ताहि न पावो ताप । तातें सकल विलास तजि, सेवो आपनि श्राप ॥ विषे पांच इन्द्रीनि के कालकूट विष तेहि । विष को भूल भयंकरा, भव कानन है एहि ॥
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५ श्रेणिक चरित :
यह कवि की प्राथमिक रचनाओं में से हैं। 'पुण्यालकथाकोश' की भाषा - टीका के पश्चात् उन्होंने इस काव्य की रचना की थी। यह एक प्रबन्ध काव्य हैं जिसमें महाराजा श्रेणिक का जीवन चरित निबद्ध है इसमें ५०१ छन्द हैं तथा बिना किसी सर्ग अथवा अध्याय-भेद के कवि ने एक हो प्रवाह में शिक को जीवन कथा को छन्दोबद्ध किया है । कवि को यह रचना अधिक लोकप्रिय नहीं हो सकी; क्योंकि अभी तक राजस्थान के विभिन्न ग्रन्थ भण्डारों में इसकी केवल दो ही पाण्डुलिपियां मिली हैं
१. एक पाण्टुलिपि भरतपुर के पंचायती मन्दिर में हैं, जिसकी पत्र सं २५६ तथा लेखनकाल संवत् १८८८ है ।
२. दूसरी पाण्डुलिपि 'यशः कीर्ति सरस्वती भवन, ऋषभ देव' में सहीत है। इसमें ४६ पत्र है तथा लेखनकाल संवत् १८०७ कार्तिक सुदी है।
प्रस्तुत परिचय दूसरी गाण्डुलिपि के आधार पर है । पर यह पाण्डुलिपि भी अशुद्ध लिखी हुई है तथा उसकी लिपि भी अच्छी नहीं है । कवि ने 'श्रेणिक चरित' की रचना संवत् १७५२ चैत्र शुक्ला ५ के दिन पूर्ण की थी । इस दिन चन्द्रवार था ।
संमत सतरेस बीमासी श्री चैत्र सुकल तिथि जान । पचमी दिने पुरण करी, वार चन्द्र पहचान || ५०१।।