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महाकवि दौलतराम कासलीवाल - व्यक्तित्व एवं कृतित्व
श्रथ श्री विवेक विलास भाषा दोहा
निज वाम वर्णन -
प्रामि परम (ऋषि) शांत कौं प्रणमि धर्म गुरु देव । करि सारद की सेव || ११|
वरण सुजस सुसील को,
दाय
सील व्रत को नाम है, ब्रह्मचयं सुख जाकरि प्रगटे ब्रह्मपद, भव वन भ्रमण नसाय
ब्रह्म कहावे जीव सहु, ब्रह्म का सिद्ध । ब्रह्म रूप केवल महा, ज्ञान सदा परसिद्ध ||३|| ब्रह्मचर्य सी व्रतां न परम ब्रह्म सौ कोय | नतिन ब्रह्म लवलीन सौ तिरे भवोदधि सोय || ४ || विद्या ब्रह्म विज्ञान सी नहीं जगत में जांनि 1 विज्ञ नहीं ब्रह्मज्ञ से छह निश्चें परवांनि ॥ ५ ॥
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|| २ ||
ब्रह्म वासना सारिखी और न रस की केलि । विषे वासना सारिखी, और न विष की वेलि ||६||
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प्रतम अनुभव सिद्धसी, और न अमृत वेलि । नहीं बोध सौ बलवता, देहय मोह को ठेलि ||७|| अध्यातम चरत्रा समा, चरचा और न कोय | अरचा जिन धरना समा नहीं जगत में होय ||८|| चरचा कारक लोक मैं नहिं गरणधर से धीर । नांहि दूसरे वीर ॥६॥
अरचा कारक इन्द्र से,
लोक न चेतन लोक सौं, निज अवलोकनि जा विषै,
विश्वविलोक निरूप । केवल तत्व स्वरूप ||१०||
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परकासक दुति घार को प्रति ददप्यि जु मान । भाव सोइ निज दीप है, भरयो अनन्त निधान ।।११।।