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विवेक विलास
विश्व प्रदीपक भाव सौ दीप न सुख की खानि ।
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क्षेत्र न कोई स्वक्षेत्र सौ, अक्षय अभय प्रवान || १२ |
खण्डन भाव प्रखण्ड सौ, परमानन्द निवास | स्व प्रदेश सौ देश नहिं जहां अनन्त विलास ||१३|| पुरन अभैपुर सारिखो, जहां काल में नाहि । निराकार निज रूप सौ नृप घर नांहि कहांहि || १४ || पुरपति निज चिद्रूप सौ और न दूजो भूप । पुरपति पदरानी महा, सत्तासीन सुरूप ।।१५।। सत्ति अनतानंत सौ श्रन्तहपुर नहि कोइ । महिमा अतुल पार सौ सखा समूह न जोइ ॥ १६ ॥ सखा न समरस भाव सौ, एकीभाव लखांहि । पासवान परिणाम से, नांहि जगत के मांहि ॥१७॥
निज विशेषता शुद्धता, प्रति अनन्तता कोछ । बहु विस्तीरणता सदा, ता सम सेनन होइ ||१८|| प्रति प्रतापमय भाव जे, महा प्रभाव स्वरूप । उमरावन तिन सारिखे अद्भुत अचल नहि प्रधान निज ज्ञान सी, नहि प्रोहित आनन्द सौ,
अनूप ।। १६ ।।
व्यापक सब में सोइ । धमें मूरती होय ॥ २०॥ नहिं अनन्त वीरज जिसी, सेनापति जयरूप | अगम अगोचर भाव सौ और न दुर्ग अनूप ||२१||
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नहि गम्भीर स्वभाव सी, खाइ प्रति गम्भीर | निश्चल अजित स्वभाव से दुर्गपाल नहि वीर ।। २२ ।। द्वारन श्रातम ध्यान सौ, अध्यातम को सार । निरवति रूप अनूप है जग परव्रति के पार ||२३|| भाव प्रच्छेद्य अभेद्य से, और न कोई कपाट | दरसन बोध चरित्र सौ और न दूजो वाट ||२४||
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