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अध्यात्म बारहखड़ी
विहित मिथ्यामत सबै विहित शिवागम सार तू । जिन आगम भासक विभो अस्ति नास्ति नयधार तू ।।३२३||
तू प्रतिभूमि क्षमा जु क्षांतिधर एक तुही जो । तू अप तुल्य' दयाल पापमल नाशक हो जो ॥ तपति हरण अति श्रमल जीव सम तू जग जीवन । अनलः समो भगवान दहन कर कर्म महावन ॥
सिमो विनु संग तु महावली हुत भुज सखा । वात वलय आधार जो लोक सुकल दायक सुखा ॥ ३२४ ॥
तु अभतुल्य * अलिप्त तू जु श्रभमांन अमांनो | नभ है तेरे मांहि तू जु नभ मांहि वषांनो || अनुपम मांनो तू जु पूज तु अचलपती जित | अकल समानो नाथ अकुल सम तू जु जगत हित ।। नोकिसी सौ पूज तू अखिल सरीस हे प्रभू । ज्ञेयाकार श्रनंन जो ज्ञान भाव तेरे विभू || ३२५।।
अर्को प्रतिभास मोह तिमर जुको हता। ममता रजनी मेटि बोध दिवस सु प्रगटता ॥ भव्य कमल प्रतिफुल्ल करण जो पथ चलावं । वि विनोद मिटाय नादि सुते जु जगावे ॥ जीव जु चकवो मति प्रिया विषम विरविनको हरे | भवि उलूकानहि लखें. अर्क अमित द्यति तू धरै ।।३२६ ।।
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प्रति जु अनंत प्रताप ताप नहि तेरे सबड़ी । मिथ्या भवजु राहु तोहि बेठे नहि कबही ॥
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जल तुल्य निर्मल शीतल छं
अनल श्रमनि कौ नांम छ ।
अनिल पोन को नम है ।
ग्रभ कहता आकाश |
१ अप कहजे जीव ऋहजे जल का नांम चं | मूल प्रति की टोका]
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