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जीवंवर स्वामि चरित
पकरें पापी याहि, ते तैलोक जु श्राइया | प्रति हि डरायो ताहि, गयो भागि प्रति नीच जो ।। ११५ ।। इक दिन पापिनि पासि, रची पार घ्यांवन विषं । तामैं सो गुणारासि, आय गयो परवी व्रती ।।११६ ।। रतिवेगा धरि प्राय दरसाइ लिखि च सौं
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तजी कबूतर काय, निश्चै चारी सज्जना | | ११७ || करी दिलासा साह, सर्वानि सतोषी पक्षणो । श्रति उपज्यो पतिदाह, त्यागे प्राण कबूतरी ॥। ११८ || सो जिनधर्म प्रभाव, श्रीचंद्रा पुत्री भई तुम्हरे सरल सुभाव, महागुणवती मतिवती ॥११३॥ आजि क्रीडते देखि, सुघट परेवा दंपती । निज पूरव भव पेखि, पाय मूरछा भै परी ।। १२० ।। मोसौं निह संदेह, भासी परभव वारता । मैं तुम एह कही जथारथ नाथ जी ||१२१ ।। अलक सुंदरीन, सुनि करि चिंतातुर भये । क्यों लहिये सुख देन, पूरव भव पति पुत्रको ।। १२२ ।। ता विनु या भव मांहि नहि परने इह सुभमती । या कानांहि और पुरष की चित्त मैं ।। १२३ ।। पुरव भव वृत्तांत, श्रीचंद्र को पट्ट में । लिखवायो अति कांत, तवें सुमित्र सुबुद्धि नं ।। १२४ ।। रगतेज इक नाम, नटवर गनि मैं अधिक जो । भदन लता एक धांम, नटनी नृत्य तिन को करि सन्मान, दानादिक सौंप्यो पट्ट निधान, सब ब्योरों समृजाय के ।। १२६ ।।
बहु देव ।
नट नटनी पडलेय पुहपक वन फैलायो चित देय, नात्रन लागे
मैं जाय के 1 रीति सौं । १२७ ।।
प्रवीन सो ।। १२५ ।।
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