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महाकवि दौलतराम कासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
___ दौलतराम युवावस्था में पदार्पण करते ही किसी कार्य यश जब प्रागरा गये, तब उन्होंने वहां पुग्यास्रव कथा कोश सुना । सुनकर उन्हें अत्यधिक प्रानन्द माया पौर अत्यधिक रुचि के साथ उन्होंने इसकी भाषा टीका लिखी । काव्य-रचना में पांव रखने का उनका यह प्रघम अवसर था । इसलिए उन्होंने अत्यधिक ध्यान पूर्वक इसकी भाषा टीका लिखी और संवत् १७७७ भादवा सुदी पंचमी शुक्रवार के शुभ मुहत में उन्होंने इसे पूर्ण करके हिन्दी भाषा भाषी पाठकों को भेंट किया।
संवत् सत्रहसे विख्यात, ता परि धरि सत्तरि अरु सात । भादव मास कृष्णा पक्ष जांनि, तिथि पांचै परवो परवानि ।।२८।। रवि सुत को पहिलो दिन जोय, अर सुर गुरु के पीछे होय ।
वारैह गनि लीज्यो सही, ता दिन समापत लही 1॥२६ ।। रचना का प्रमुख कारण :
कवि के प्रागरा जाने पर उन्हें वहां संचालित अध्यात्म शैली में जाने का सुअवसर प्राप्त हुआ। इस घोली के जिन प्रमुख सदस्यों के नाम दौलतराम ने गिनाये है ; उसमें सर्व प्रथम कविवर भूबरदास का उल्लेख पाता है, जिनके लिए लिखा गया है कि वे स्याहगंज में रहते थे तथा जो जिन स्मरण एवं पूजन में लगे रहते थे और अपने प्रशुभ कर्मों को नष्ट किया करते थे। ये कवि भूघरदास के ही है जिन्होने संवत् १७८६ में भागरा में 'पार्श्वपुराण' की रचना की थी और जिन्होंने अपने मागका "नागरे में बाल बुद्धि भूधर खण्डेलवाल" पंक्तियों से परिचय दिया था। इनके अतिरिक्त सदानन्द, अमरपाल, बिहारीलाल, फतेचन्द, चतुर्भुज आदि उस शैली के प्रमुख सदस्य थे, जो वहां पाकर परस्पर परचा किया करते थे ।
भूधरदास जिनधर्मी ठीक, रहै स्याहगंज में तहकीक । जिन सुमरिन पूजा परवीन, दिन प्रति करै असुभ को छीन ।।१५।। हेमराज साधर्मी भल, जिन बच मांनि असुभ दल मले । अध्यातम च चा निति करे, प्रभु के चरन सदा उर धरै ।।१६।। सदानन्द है प्रानन्द मई. जिन मत की प्राज्ञा तिह लही । अमरपाल भी यामै लिख्यो, परमागम को रस तिन चल्यो ।।१७।।