________________
३०८
महाकवि दौलतराम फासलीवाल-व्यक्तित्व एवं कृतित्व
देय होनहार बाथीसमें तीर्थकर तितिका ध्यान करता मिरिकी बंदना करी ॥१०२।। रोमी कपडे पर रेशमी कपड़े पर चीन पाटवर इत्यादि अनेक प्रकारके बस्त्र भेंटकरि भूपति भूपेंद्रका दर्शन करते भए ।।३। फेयकनिकू सन्मान दानकरि के इकनिक स्नेहवचनरि कंक्रनिकू कृपाकी दृष्टिकरि अत्तिहर्षित करता भया ।।४।। पर नानाप्रकारके गज पर. ऐराकी घोडे पर नानाप्रकारले रत्न तिनिफरि पश्चिमदिशा के राजा सोरटमैं आया नृपतिका नाथ ताहि पूजते भए ||५।। महासेजस्वी शरीर जिनिका अतिसुन्दर बुद्धिमान तरुण वय पराकमगुणाकरि मंडित तुरुङ्कादेशके उपजे तुरंगम तिनिकरि कैटकराजा राजेश्वरकू पूजते भए ।१६।। पर कैयक राजा कांबोजदेश के बोडे भर पाल्हीकदेश के बोर्ड तथा तंतिनदेशके पर अट्टदेशके सिंधुदेशक बनायुदेशके गांधारदेश के कारण देशके इत्यादि अनेक देशनिके तुरंगम तिनिकरि भूपेंद्र कू पागयते भए ।।१०७।। महाकुलीन पैराकी जातिके घोडे नानादेशके विचरणहारे पूर्ण है यंग जिनके सिनिकरि भूप भूपेंद्र सेवते भए ।। १०८॥ प्रयारा प्रयारण प्रति या कै केवल रत्ननिहीका लाभ न भगः ए. का अ भयानमा हुने ग़पने बलत सब वशि कीए ।।। जल और पलके गंथ तिनिकू सब पौरतै रोकि अपनी जीनिके माधनकरि गए सिंधुके सब राजानिकू सेनापति जोतता भया ।।१२।।
नानाप्रकारके देश भर वन नदी पर्वत निनिकू उलंधि सेनापति पश्चिमके रामानिक पृथ्वीपतिकी प्राजा सुनावता भया । १११।। जो काहू ठौर कछु अपराध न होय, हिंसादिक पाप पर अनीति को ऊ करि न सके, चोरी जोरी न होय, या भाति आज्ञा सुनाय जैसे पूर्वके भूपाल वशि की हुते ते में पश्चिमके अनुकमत वशि कोए, हर्या है तिनिका मानधन, या भांति सबनिकू वशिकरि राजेंद्र पपिचमके समुद्र पाया ।।१२।। सो समुद्र तरंगनिरूप कर तिरिकू विस्तारता दूरहीत भानू नरेंद्रका सत्कार करता भया तरंगनिमैं नानाप्रकारके रत्न विस्तरे सो मानू समुन्द्र अर्घपाचही कर है ।।१३।। जवाहिनिकरि प्रशंसायोग्य जे बड़े जवाहरी तिनिकरिया समुद्र के रत्न अल्पमूल्य गिनिये हैं अर या चक्रेश्वरके रत्न बहुमूल्य गिनिये हैं ।।१४।। पर इह नामकरि लनगासमुद्र सो लघु भया तात तासमै नृपनि धैमा माना जो इह चडी रत्नाकर है अनेक रलनिकी राशि है, या भांति सब गजनि बहुत प्रशंसा करी ।।१५।।
या पश्चिदिशाविर्ष सूर्य पात्र है तब मुहका तंज मंद होय जाय है सो पाहू दिशिमैं नृपेंद्रका तेज अति देदीप्यमान होता भया, पश्चिमके सन्न राजा जीते ।।१६।। इह चक्रेश्वर शत्रुनिक तीव उदग' उपजावता सूर्पसमान दिपता