SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 183
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जीवधर स्वामि चरित अंधा विनु नहि होय घर, सो हिंसा को मूल । हिंसा श्री जिनधर्म तं, है अति ही प्रतिकूल IIREN इह विचार नृप के भयो, तव ही ता वन मांहि । एकः ठौर देखे मुनी, चारण ऋद्धि धरांहि ॥१०॥ संसार से विरक्ति है प्रशस्त बंकजु महा, मुनि को नाम रसाल । अवधिज्ञान धारक गुरु, जीवदया प्रतिपाल ।।१०१।। तीन प्रदक्षण देय नृप, करि चंदन कर जोरि । म हुते लग मुन जा. गुजि मुख सुनें बहोरि ॥१०२५ जाय धरै जिन पूजि करि, बढ़ी सुद्धता जोर । सुन्या राव सुभ भावने, वीर मोह मद मोर ।।१०३।। वरधमान सनमति प्रभू, महावीर प्रतिवीर । अंतिम तीरथ नाथ जो, तिष्ठे गुण गम्भीर ॥१०४।। वन सुर मलय विर्षे त्रिभू, तब आयो तिह और । जीवधर धरणीवती, वदे त्रिभुवन मौर ॥१०५।। सुनि वांनी जगदीस की, उपज्यो अति वैराग । जगत भोग अर देह तं, तूटी मन को राग ।।१०६।। पटरांनी को पुत्र जो, नाम वसुधर ताहि । सौंपी अाप वसुधरा, लख्यो नीति घर जाहि ।।१०।। है निरमोही सवनितें, करि सर्व परिगह त्याग । आठौं ससुरा प्रादि वहु, राजनि जुत बड़ भाग ॥१८॥ मधुरादिक नंदाग्य जुत, लीयो चारित भार । भये महाव्रत धारमुनि, जीवंधर जगतार ।।१०।। वड पुरनिको रीति इह, तजि करि जग के भोग । करि निरवांछक भाव अति, धारै उत्तम जोग |११०।।
SR No.090270
Book TitleMahakavi Daulatram Kasliwal Vyaktitva Evam Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand Kasliwal
PublisherSohanlal Sogani Jaipur
Publication Year
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth, History, & Biography
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy