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पालदाराही
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छंद त्रिभंगी
जब लग्गि अत्तिद्रिय बोध निरिद्रिय,
इंद्रिय निद्रिय रहित जिना । जीवो नहि पावत तोहि सुतावत,
अखिलन पावत रूप दिना ।। तु ही जु अवाच्यो मुनिहि जु जाच्यो,
कितहु न राच्यो सर्वगुरु । तू अम्बिल सुवाच्यो नाथ अजाच्यो,
निजरस राच्यो देवघुरु ॥३६५1 जो साधु अतंद्रा बसहिजु कंद्रा,
मत जिनचंद्रा दिढनु धरै। ते जपहि जु तोही,
ह निरमोही छोडि सवोही ध्यान करें। तु है अनुभूती रूप बिभूती,
नांहि प्रसुती न धरै । अतिरिक्त विभावो शुद्ध स्वभावो,
अमित प्रभावो कालहरे ।।३६२।।
तु है अकलंक को ईशचिदं,
को नित्य अपंको देवहरी । तु असमजु नाथो है अति साथो.
अति बडहाथो रहित अरी ।। तू ही अपरा पर है जु मुधाहर,
पूज सुधाकर लोकपती । प्रभूजी अतिपात्रो है अति छात्रो,
ज्ञानहि मात्रो शुद्ध जतो ।।३१३॥