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विवेक विलास
निकस गिर अभिलाष ते, पासा तदिनि एह । पइस सागर सोच मैं, धारै अति संदेह ।।५२६।। वहै सदा भव वन विर्षे, आसा अति असराल । रोके सिवपुर को यथा, नदी महा विकराल ||५२७।। मोखहू की पासा महा, मोख मोह दे नाहि । कसे भव भोगानि की, पासा दोष हरांहि ।।५२८।। प्रासा आकुलता भरी, वांछा विकलप रुप । त्रिश्ना ताप मई महा, तजें सदा मुनि भूप ॥५२६ ।। तुछ प्रति झींगर जहां, भाव लोलपी मीन, मोडक वाचाली तहां, तथा वर्क मति हीन ॥५३०।। भाव कठोर जुकाछिबा, कृमि कुभाव मय मांनि । कीट कालिमा सौं भरी, पासा नंदी प्रवानि ।।५३१।। काम क्रोध लोभादि से, और न धीवर नीच। ते बारे भ्रम जाल खल, पासा तटनी बीच ।। ५३२।। मृत्यु समान ना लोक मैं, महा मगर नहि कोइ । विचरै पासा मैं सदा, निगलै सबकी सोइ ।।५३३।। तिमर सारिखे तिम नहीं, तिनको तहां निवास । जड़ सुभाव जलचर घने, करें मास मैं वास ।। ५३४|| नांहि अविद्या सारिवी, जलदेवी खल भाव । वसे पास मैं सासती, धारें अतुल कुभाव ।।५३५।। मैं वासी नहि मोह सौं, मारे मारग मोष । दौरे दुष्ट सदा जहां, हरै प्रारण धन कोष ।।५३६॥ नाहि विभावनि से भया, जग मैं वितर कोय । वसै आस मैं सासती, इह निश्च अवलोय ।। ५३७।। पर बस्तुनि के ग्राहका, अभिलाषी परिणाम | तिन से चोर न वंचका, पासा तिनको धाम ||५३८।।