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महाकवि दौलतराम कासलीवाल - व्यक्तित्व एवं कृतित्व
निज समीप गंगा सदा व अखंडित धार ।
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करें सनान जुता तिष, सो पावै भव पार ।। ५१६७
॥ इति निज गंगा मिरूप
दोहा
आशा वैतरणी विप नदी वन
आसा नाहि घरे प्रभू, सत्र वांछा ते दूर बंदौ परमानंद जो, गुरण अनंत भरपूर ||५.१७ | विष कलोलनी विश्व मैं नहि बांछा सी कोय ।
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विष नहि विषै विकार सौ भव भव दुख दे सोय ।।५१८ || प्रासासी न तरंगनी, त्रिषा सीन तरंग । भवरण न संसं सारिखो, नहि तिरिब को ढंग ।।५१६।।
भरी चा विष नीर तें, नहीं ताप हर एह । कपट कीच कालिम मइ, भवि जन करें न नेह ।। ५२०॥ विकलप संकलपाति से, और नहीं दुख रूप । सो द्वय तट धारे सदा, आसानंदी विरुप ।। ५२१||
विष वन विषम विभाव से, और नहीं जग मांहि । सो याकै तटि दीसइ, जिनमे छाया नांहि ३५२२॥
विष वेलिन ममता जिसी, सो आसा कँ तीर ।
फलै सदा दुख बिषफला, जहां न अमृत नीर ।। ५२३|| राग दोष की खानि 1
प्रारण हरा परबानि ।। ५२४ ।।
भ्रांति रूप जगवाय | इह भासें मुनिराय ।।५२५३३
उपजावै जड़ता इहै, क्षार महा दुरगंध है, वाजें जहा विरुष प्रति सोइ उड़ाई जगत कौं,
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