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वियेक विलास
नांहि प्रपंच स्वरूप ठग, मायाचार न चोर । लोभ लुटेरा नहिं जहां, नहीं काहू को जोर ।।५०४।। मांन मनोभव मन महा, मैं वासी भव मांहि । ते तटिनी तटि दुरमती, कयहूं दौरें नाहि १५०५।। प्रासा रूप जु प्रामुरी, असुभ असुर जे कोय । वांछा रूप जु वितरी, वितर विषय जु होय ।।४.०६।। रसना रक्ति जु राक्षसी, रक्ष सरोज जुधूत । भ्रांति तो नी, गर्म लपी भूत ॥५० ।। दुरजनता जो देत्यनी, दत्य दंभ दोषादि । पातक नति पिसाचनी, फुनि पिसाच पिसुनादि ।।५.०८॥ एनहि निज सरिता नषै, सरिता निज पुर पास । इनि पापिनि को सर्वथा, भव वन माही वास ।।५०६ ।। ऋ र भाव जे केसरी, व्याघ्र विभाव स्वरुप । व्याधि रुप जे व्याघ खल, हिंसक महा विरुप ।।५१०।। अर अपराधी पारधी, अति निरदय परिणाम । विष दर्प सादि फुनि तिनको तहां न काम ।।५११।। फुलि रहे तनि तहौं, भाब प्रफुल्लित फूल। ममैं विचक्षश भाव अलि, रसिक भाव के मूल ।।५१२।। है निज धाम नदी महा, रमैं प्रातमाराम । सुधा रूप सरिता यहै, संतनि को विधाम ॥५१३।। गुण अणंत मरिणको महा, अमि मालिनी खानि । परम स्वरूप पयोधि मैं, करै प्रवेस प्रयानि ।।५१४।। निज अनुभूति अनूपमा, अमर बौलति होय । निज अनुभूति लख्या बिना, सरिता केलि न कोय ॥५१५।।