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महाकवि दौलतराम कासलीवाल - व्यक्तित्व एवं कृतित्व
रारिता तटि तरवर सघन, मगन भावमय होय । विषतरु रूप न भाव खल, कंटिक एक न कोय ||४६१||
समता रूप लता महा, जिसी न ग्रमृत वेलि । सो तटनी तटि लहलहैं, है हंसनि की केलि १४६२७
शुद्ध स्वभावमई महा परम हंस मुनिराय । राजें न तटिनी की तटा भव आलाप बुझाय ॥४६३॥
माया वेलिन विषमइ, नहीं कलपना जाल । नांहि कलिमा कीट प्रर से रूप सिवाल || ४६४ ॥
उटै परम द्रह मांहि तें मिले महोदधि मांहि । इह प्रमूर्ति गंगा भया, चेतन पुरुष लहांहि ||४६५||
नांहि रजोगुण रूप रज, नांहि तमो गुण मेल ।
नदी निकट नहि नीच नर, नांहि कोइ बद फैल ||४६६||
नदी अनादि अनंत इह, छेह न जाकी होय । वहै भाव की भूमि में, बिरला वृर्भ कोय ॥४७॥
सरिता सत्ता रूप यह प्रति कल्लोल स्वरूप केलि और चिप की, एक ने जहां विरूप ॥४६८।।
महा रतन की खांनि इह महा मुखनि की खांनि । गुण मानिक की रामि इह रस रूप परवानि ॥४६॥
हरै जनम मरणादि भय, हरे पाप संताप |
हरे रोग रागादि सहु, यह तीरथ निपाप ।।२००११ याहि गगन गंगा कहें, निज रस रसिया धीर । मगन होहि जे या विष, ते न लहँ भत्र पीर ।। ५०१३। निरमल नभ सम रूप निज, तामें करें बिहार | तेहि विहंगम दुर्लभा सरिता तीर असार ।। ५०२|| कमल समान कलंक विन, विमल भाव जे होय । तेइ सरिता मैं रमै, अदभूत सरिता सोय ॥ ५०३ ।।