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प्रध्यात्म वारहखड़ी
महा जु विष्णु व्यापको, अध्यापको अलिप्त जो। तु ही स्त्रयोग है समाधि, रूपदेव तृप्त जो ॥ निरीह को अनीहको, प्रतीह को अवीह को । निरीश्वरो अनीश्वरो, अतीश्वरो नसीह को ।।४।। तु ही जु राम नाम है, सही विराम काम को। तु ही जु सर्वधाम है, सही सु एक धाम को ।। तुही अनंत ग्राम है, सही सु एक ग्राम को। न ही जु काम क्रोध रूप, राम है प्रकाम को ॥६५॥ सुसिद्ध तू प्रसिद्ध तू, विरूद्ध की विनाश तू। सही जु अर्हदेव है; सदा स्वचक्षु भासतू' ।। सुसूरि तू प्रभूरि तू, सदाजू तू अध्यापको । सु साधु तू अबाध तू, अलोक लोक मापको ।।६६।। असाध को असाध्य तू, सही जू योग साध्य है । अराधि तू उपाधिना, तूही मुनी अवाध्य है ।। तुही जु नां अराधको, सबै तुझे अराधहीं । कभी जुनां विघातको, महा जु साधु साधहीं ॥६॥ प्रजापती सुगोपती, सदा च गोरखोयती । तुही अनंतज्ञान दो, सुदत्त है धरपती ॥ सु पौरषो अपार तू, महास्व परिषेश तू । मन्नै प्रकृत्य चूर को, अरूप को जिनेश तू ।।६८॥ अमरतो अधूरतो, असूरतो निरंतको । महा अनंत अमूरतो, सर्व विभाव अंतको ।। स्वरूपदी अरूपदो, स्वभावदो विभाश्वरो । अरंजको निरंशको, अनंतभा प्रभाश्वरो ||६६ ।।