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जीवंधर स्वामि चरित
तेरे नृप की सुता धारिहे धारणा,
जो तर बीन वजाय होय चित हाररणा ।
सो बहु गुण को नाथ हाथ मेरी गहूं,
जग
बीन बजाय रिझाय ताहि परनें सही
सुनि परतज्ञा एह श्राय हैं बहु नरा,
वीन स्वयंवर मांहि भूचरा खेचरा । कोई ताहि रिझाय सके नहि नागरा,
सत्यंधर की पूत गुणनिकों सागरा ||११ ।।
१७
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होनहार ए वात सकल मोर्सी कहीं 1 समुझाय को मुनिरायजी,
मैं तुम सों को सु श्रीसर पायजी ||१२|
सुनि मंत्री के बैन सोच करि भूपती,
बोल्यो सुति मंत्री सचित्त धरि सुभमति । लाको झन इहां होइ किस रीति सौं,
कैसे सो गुरणवांन विवाह प्रीति सों ॥। १३ ।। प्रकट को परधान भूपपं यों तवै,
कहयो मोहि संजोग साधुन यो सबै नगर 'रामपुर' मांहि महा धरमातमा,
'वृषभदास' इक सेठ दास परमात्मा ।। १८ ।।
सागरसेन सु नांम ज्ञान के सागरा
जाकं सुन्दर नारि नांम 'पदमावती',
ताकै सुत 'ति' सकल ए जिनमती । एक दिवस पुर पासि प्रीतिवर्द्धन वना
तहाँ विराजे आय केवली निजघना || १५||
त्रिभुवन गुरु जगदीस गुपनिके आगरा ।