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अध्यात्म वारहखड़ी
तू अबिज्ञेय प्रछेय नाहि परमादसु तो मैं । तू अप्रमत्त जिनिंद नित्य निवस प्रभु मोमैं 11 मैं परमादी मूड नाहि लखीयो पद तेरौ । अविषय अतिशय रूप तू जु रि तिमिर जु मेरौ ।। जा करि तोहि लखों प्रभू, वहै दृष्टि द साक्ष्यां। नाम अपार जू जासु के सो तू जगत गुसाइयां ।। ३३१।। अतिठामो अतिग्राम तू जु अतिधाम अनामा । अतिहित मंत सू संत नांहि तेरै धन धामा ।। अस्वादिक तुरग सेन तजि सोहि पाने । ध्यावे तन मन लाय होंहि प्रभु पति विटपाजे ।। अष्टम घर लहि सामती सिद्ध भाव पांवहि तिके । सर्व त्याग तोहि ज भजै, है तो सम जिन बन जिके ॥३३२॥
तू जू अगोचर नाथ एक गोचर केवल में । न जु अनालस भाव नित्य निवस देवल मैं ।। अलंकार नहि कोय होय तेरं न अभूषन । भूख न प्यास न कोय नांहि को वसन न दूषन ।। तू देवल मैं सिद्धलोक मैं है सही । घटि घटि अंतर सांइयां वसै अनाशक्तो तुही ।।३३३।।
. सोरठा
प्रज्ञानवदिक भाव नाहि जुतु तो मैं पाइए । ज्ञानमूल जगराव, तू अनंत भाव जु धरै ।।३३४।। तू जु प्रदर्शन नाहि, सदा सुदर्शन है प्रभू । दरशन' तेरै माहि, केवल एक अनंत धी ।। ३३५।।