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परमात्म प्रकाश भाषा टीका
अंतिम भाग:
अथानन्तर य के प्रतिमंगल के अणि मासीर्वाद रूप नमस्कार है ।।
।। मालिनी छन्द ।
परम पय गवारगं भास उ दिव्बकाउ । मणि सि मुगि बराणं मुख दो दिन जोउ ।। विसय सूहरयाणं दुल्ल होजो हलोए ।
जयउ शिब सरूवो के वलोको विवोहो ।।४३।।
अर्थः-जहत कहिए सभोन्द्र, राति जति माता वाला है वह परमतत्व दिव्य काउ कहिए दिग्य है ग्यान प्रानन्द रूप शरीर जाकै अथवा अरहंत पद की अपेक्षा दिव्य काय कहिए परम प्रौदारिक गरीर, कु धारे है। बहुरि कैसा है हजारौ मूर्यनित अधिक है, तेज जाका सकल प्रकासी है । जे परम पद कूप्रापत भए है, केवली तिनिकू' तो साक्षान् दिव्य काय भास है पुरषाकार भासि रहा है । परजे महा मुनि है तिनिके मन वि द्वितोय सुकल ध्यानरूपी धीतराग निर्विकल्प समाधियोग रूप भास्या है। कैमा वह तत्व मोश दो कहिए मोक्ष का देनहा रा है अर फेवल ग्यान है स्वभाष जाका ऐगा प्रपूर्व ग्यान योति सदा कल्याण रूप शिव स्वरूप अनते परमात्म भादनां ताकार उत्पन्न जो परमानंद प्रतिद्री सुख तातै विमुख जे पंच इंदौनि के विषय निनि सूजे प्रासक्त है सिनिफू सदा दुर्लभ है ।। या लोक विषइजीव जा न पावं ऐसा वह परम तत्व सो जयवंत होऊ ।। या भाति या परमात्मा प्रकामनामा नथ विष प्रथम ही जे जाया, झरिमाए इत्यादिक एक सौ तेईस दोहा १२३ पर प्रक्षेपक तीन ३ तिनि सहित पहला अधिकार कह्या । बहुरि एक सौ चौदा ११४ दोहा पर प्रत्येक ५ पांच तिनि सहित दूसरा महा अधिकार कहया ।
अरं पर जाणं तु वि परम मुरिण, पर ससम्म चयति । इत्यादिक एक सो सात १०७ दोहा नि में तीसरा महा अधिकार का प्रक्षेपक अर मति की दोय काव्म तिनि सहित तीन से पंतालीस ३४५ दोहानि में परमात्मा प्रकास का व्याख्यान ब्रह्म देवकात टीका सहित संपूर्ण भरा ।। छ।।
या ग्रंथ विष प्रचुरताकरि पदनि की संधि करनी ।। अर वचन भी भिन्न भिन्न कहिए जुदे जुबे धरे सुख सू समझिवे के मथि कठिन संस्कृत न धर्या तात इहा लिंग वचन क्रिया कारक संधि समास विसेव्य विशेपण दूपा