Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
15 SEPE SORD श्री हर्ष पुष्पामृत जैन ग्रन्थमाला ग्रन्थाङ्कः ८७ ।। श्री महावीर जिनेन्द्राय नमः ॥
तपोमूर्ति पूज्याचार्यदेव श्रीविजयकर्पूरसूरिभ्यो नमः । हालारदेशोद्धारक पूज्याचार्यदेव श्रीविजयामृतसूरिभ्यो नमः । सुविहितशिरोमणिसूरिपुरन्दर श्री शीलाङ्काचार्यविरचित वृत्ति समेतं श्रुतकेवलि - पञ्चमगणभृत्श्रीमत्सुधर्मस्वामि-प्रणीतं
॥ श्री श्राचाराङ्ग सूत्रं सटीकम् ॥ ( द्वितीयो विभागः प्रथमश्रुतस्कन्धस्य - षष्ठाध्ययनतः सम्पूर्णः )
MEERCOOOOOOOOMMOD
सम्पादकः संशोधकञ्च
पूज्याचार्यदेव श्रीविजयकपूरसूरीश्वर - पट्टधर - पूज्याचार्यदेव श्रीविजयामृतसूरीश्वर - विनेयः पन्न्यास - श्रीजिनेन्द्रविजय - गणी
EDGOOOOOOODRAADLARADHN0000000
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥२
॥
प्रकाशिका :-- श्री हर्षपुष्पामृत जैन ग्रन्थमाला लाखापावल-शांतिपुरो (सौराष्ट्र) गुजरात
वीर सं० २५०६
विक्रम सं० २०३६
सन् १९८०
आ आगमना अधिकारी योगवाही गुरुकुलवासी सुविहित मुनिराजो अने साध्वीजी महाराजो छ ।
मूल्य रु.१०)
मुद्रक: गौतम पार्ट प्रिन्टर्स न्यावर (राजस्थान)
॥२
॥
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________
पा
सम्पादकीय - श्री जिनेश्वरदेवोए अर्थथी प्ररूपेल अने गणधरदेवोए सूत्रथी रचेल द्वादशाङ्गीमां श्री आचारागसूत्र ए बीजु अंग छे. सूत्रो ऊपर नियुक्ति भाष्य चूर्ण टीका रचाया छे. अने ए पंचांगी श्री जैन शासननो आधार छे। आ श्री आचारांगसूत्र ए द्वादशांगी मां बीजु अंगसूत्र छे. ते उपर पूज्यपाद सूरीश्वर श्री शीलांकाचार्यजीए टीका रची छे. ते टीकाना प्रथम श्रुतस्कन्धना पांच अध्ययन स्वरूप प्रथम भाग गइ साल प्रगट थयेल अने प्रथम श्रुतस्कन्धना छट्ठा अध्ययनथी सम्पूर्ण श्री आचारांग सूत्र आ वीजा भागां प्रगट थाय छ ।
आ ग्रन्थना सम्पादन माटे पृ० आगमोद्धारक आचार्यदेव श्रीमत्सागरानन्दसूरीश्वरजी म. सम्पादित सटीक श्री आचारांग सूत्र तथा श्री आगममंजुषा तथा वाबु श्री धनपतसिंहजी प्रकाशित टीका तथा डभोई श्री आचार्य जंबूस्वामी जैन ज्ञानभण्डारनी हस्तप्रत आदिनो उपयोग करी यथामति संशोधन कयु छ।
परम पूज्य व्या० वा० कविकुलकिरीट पू० पाद आचार्यदेवेश श्रीमद्विजयलन्धिमरीश्वरजी महाराजाना पट्टधर तीर्थ प्रभावक पू० पाद आचार्यदेव श्री विजयविक्रमसूरीश्वरजी महाराजना शिष्यरत्नो पू० पाद विद्वद्वर्य पं. श्री स्थलभद्रविजयजी गणिवर तथा तेमना संसारी पिताश्री मुनिराजश्री कमलयशविजयजी महाराज आदिना सदुपदेशथी श्री आचारांग सूत्र सटीक माटे जे भमूल्य सहकार मल्यो छे तेनी अनुमोदना करीए छीए ।
॥३
॥
Page #4
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीआचा. राजवृत्तिः (शीलाका.)
मुनिराजश्री कमलयशविजयजी म० ए पोताना पुत्रने १८ वर्षनी उमरे दीक्षा अपाची जे पू० पं० श्री स्थूलभद्रविजयजी गणिवर तरीके विचरे के अने पोते वि० सं० २०३१ महा सुद १२ ना ६८ वर्षनी उमरे राधनपुरमा भव्य महोत्सव साथे दीक्षा लइ पू० पाद आचार्यदेव श्री विजयविक्रमसूरीश्वरजी महाराजना शिष्य बनी आत्मलक्षी बनी भव्य आराधना करी रह्या छ।
॥४॥
फागण सुद १०
सोमवार हा. वि. प्रो. तपगच्छ
जैन उपाश्रय ४५, दिग्विजय प्लॉट जामगनर
लि. हालारदेशोद्धारक पूज्य आचार्यदेव
श्री विजयामृतसूरीश्वर विनेय । पं० जिनेन्द्रविजय गणी
॥४॥
Page #5
--------------------------------------------------------------------------
________________
।। ५ ।।
* प्रकाशकीय ★
अमारी ग्रन्थमाला तरफथी गइ साल श्री आचारांग सूत्र सटीक भाग प्रथम प्रगट थयेल अने आ साल आ बीजो भाग प्रगट थाय छे ।
आ ग्रन्थनुौं संशोधन संपादन, हालार देशोद्धारक पू० आचार्यदेवश्री विजयअमृतसूरीश्वरजी महाराजाना शिष्यरत्न पू० पं० श्री जिनेन्द्रविजयजी गणिवर श्रीए घणी खंतथी क छे ।
प्राचीन श्री आगम आदि साहित्यना उद्धारमां प्रेरणा आपवा माटे पू० पाद तीर्थप्रभावक आचार्यदेव श्रीविजयविक्रमसूरीश्वरजी महाराजना शिष्यरत्नो विद्वान पू० पन्न्यास श्री स्थूलभद्रविजयजी महाराज तथा पू० मुनिराज श्री कमलयशविजयजी महाराजनो खूब आभार मानीए छीए अने सहकार आपनारा भाग्यशालीओनी शुभ भावनानी अनुमोदना करी धन्यवाद आपीए बीए ।
कालजीथी मुद्रण काम, करवा माटे गौतम आर्ट प्रिन्टर्स ब्यावरना व्यवस्थापकोनी खंत माटे आभार मानीए छी ।
लि०
महेता मगनलाल चत्रभुज
܀܀܀܀
॥ ५ ॥
Page #6
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥६॥
******************
तीर्थप्रभावक पूज्य आचार्यदेव श्रीविजयविक्रमसूरीश्वरजी महाराजना शिष्यरत्न पू० मुनिराज श्री कमलयशविजयजी महाराजना सदुपदेशथी शुभ सहकार आपनारा
* भाग्यशालीयोनी शुभ नामावली "
रकम रु०
दाता
३०००) जुदा जुदा संघना ज्ञानखाता तरफथी
१००० ) श्री उण जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक संघ ज्ञानखातेथी १०००) श्री इडर जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक संघ ज्ञानखातेथी ५०१) श्री सरदारपुर जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक संघ ज्ञानखातेथी ३०१) श्री बीलोद्रा जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक संघ ज्ञानखातेथी २५१) श्री करबटीया जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक संघना ज्ञानखातेथी
प्रवर्तिनी पू० साध्वीजीश्री सुव्रताश्रीजी महाराजना शिष्या १०८ वर्धमान तप ओलीना आराधक विदुषी पू० साध्वीजी श्री सुभद्राश्रीजी महाराजना सदुपदे शथी मलेल सहकार ५००) रु० श्री चाण्यस्मा श्राविका संघमा ज्ञानखातानी उपजमांथी ५००) रु० सुश्रावक बाबुसाल गभरूचन्द हरडे
**********************************
॥ ६॥
Page #7
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ ७ ॥
*❖❖❖❖❖❖❖❖❖❖❖❖❖❖❖❖❖❖❖❖❖❖❖❖·
सादर वंदना सह समर्पण
परम पूज्य तपोनिधि पू० पं० श्री मणिविजयजी दादाना शिष्यरत्न शासनशिरोमणि पू० पाद पं० श्री बुद्धिविजयजी ( बुटेरावजी ) गणिवरना शिष्यरत्न निस्पृही शिरोमणि पू० पं० श्री आणंदविययजी गणिवरना शिष्यरत्न मुनिगण सरदार पू० मुनिराज श्री हर्षविजयजी महाराजना शिष्यरत्न कलिकाले उग्रतपःकारक पू० आचार्यदेव श्री विजयकर्पूरसूरीश्वरजी महाराजना पट्टधर हालारदेशोद्धारक कविरत्न
पू० आचार्यदेव श्री विजयामृतसूरीश्वरजी महाराजाने
अगणित उपकारोनी पुण्य स्मृति रूपे सादर वंदना सह समर्पण
-- जिनेन्द्रविजय
********
****
॥७॥
Page #8
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ ८
॥
५ अनुक्रमणिका
पृष्ठं
५५४ ५५६
पृष्ठं
५६७
५७१
प्रथम ब्रह्मचर्य श्रुतस्कन्धः
६ धृताध्ययनम् क्रमः उद्देशक नाम १ निजकविधूननोद्देशकः २ कम्मविधूननोद्देशकः ३ उपकरणशरीरविधूननोद्देशक: ४ गौरवत्रिकविधूननोद्देशकः ५ उपसर्गसन्मानविधूननोद्देशकः
७ महापरिज्ञाध्ययनं व्युच्छिन्नम्
८ विमोक्षाध्ययनम् . १ समनुज्ञविमोक्षोद्देशकः २ अकल्पनीयविमोक्षोद्देशक:
पिण्बदानप्ररूपगोद्देशकः ४ बहानसगाई पृष्ठमरणोद्देशक:
क्रमः उद्देशक नाम ५ भक्तपरिज्ञामरणोद्देशकः ६ इङ्गितमरणोद्देशकः
७ प्रातिमापादपोपगमनोद्देशक: ४५६ ८ कालपर्यायमरणोद्देशकः
8 उपधानश्रुताध्ययनम् १ चर्यानामोद्देशक: २ शय्यानामोद्देशकः ३ परीषहोद्देशक: . चिकित्सानामोद्देशकः
द्वितीयोऽग्रश्रुतस्कन्धः ॥ ५१४ ५४२ १ पिण्डैषणाभ्ययनम् ५४७१ पिण्डोद्देशक:
Ex.do '100xmmm
५८५
६०५
६११ ५१६
५३५
चूलिका १
॥
८
॥
Page #9
--------------------------------------------------------------------------
________________
पृष्ठं
॥8॥
पृष्ठं
क्रमः उद्देशक नाम २ पिण्डविशुद्धिनामोद्द शकः ३ पिण्डविशुदिनामोद्देशकः . ४ पिण्डग्रहणविधिनामोद्देशकः
७७२
७७६
६६६
६७८
1
६८५
७८६ ७६६
७०१ .७०८ ७१४
द
क्रमः उद्देशक नाम २ नावयतनानामोद्देशक: ३ उपधावप्रतिबन्धोद्देशकः
... ४ भाषाजाताध्ययनम् १ वचनविभक्तिनामोद्देशकः २ क्रोधाद्य त्पत्तिवर्जनोद्देशक:
५ वस्त्रैषणाध्ययनम् १ वस्त्रग्रहणोद्देशक: २ वनधरणोद्देशक:
६ पात्रेषणाध्ययनम् १ पात्रनिरीक्षणोद्देशकः २ पात्रयतनोद्देशकः ।
७ अवग्रहप्रतिमाध्ययनम् । १ अवग्रहोद्देशकः २ अवग्रहयतनोद्देशका
६ संयमविराधनानामोद्देशकः : ७ संयमात्मदातृविराधनोद्देशकः ८ पानकविचारोद्देशक: ६ अनेषणीयपिण्डोद्देशकः १० लब्धपिण्डविधिनामोद्देशकः ११ लब्धपिण्डविशेषविधिनामोद्देशकः
२ शय्यैषणाध्ययनम् १ संसक्तप्रत्यपायोद्देशक: २ शौचवादिदोषोद्देशकः छलनापरिहारोद्देशकः
३ इर्ष्याध्ययनम् १ अन्वयत्नानामोद्देशक:
२०
७२२ ७३५ ७४५
८२५
२७
७६.
Page #10
--------------------------------------------------------------------------
________________
।। १० ।।
*****
क्रमः
उद्देशक माम
२ द्वितीया सप्तसप्तका चूला
१ स्थानाध्ययनम्
२ निषीथिकाध्ययनम्
३ उच्चारप्रश्रवणाध्ययनम् ४ शब्दाध्ययनम्
पृष्ठ
८४१
८४४
८४६
८५४
क्रमः उद्देशक नाम
५ रूपाध्ययनम्
६ परक्रियाध्ययनम् ७ अन्योऽन्यक्रियाध्ययनम्
11711
३ तृतीया भावना चूला
पृष्ठ
८६१
८६३
८७०
८७१
**********************
॥ १० ॥
Page #11
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ शुद्धिपत्रकम् ॥
॥११॥
परिधास्यामि
वैतत्सूत्रं
पत्र पंक्तिः प्रशुद्ध ४५६ ५ षष्ठमध्ययने ४६४ ३ क्षक्षामप्येक ४६८ १४ ताल. ४६६ ११ विकलेन्द्रिायाणामपि ४७० ६ नृ कविधैः ४७२ ७ गरयस्यपि ४७७ १२ सट्ठव्वग्रो ४८३ १० अचेल ४८३ ११ कम्मक्यय. ४८४ ५ योषयितव्यं ४८४ ८ श्राविकादिकं ४८४ १. व्युण्कर्ष
षष्ठाध्ययने क्षणमप्येक •तालु.. विकलेन्द्रियाणामपि नेकविधैः गरीयस्यपि सव्वो अचेले कम्मक्खय० झोषयितव्यं श्रावकादिकं व्युत्कर्ष
पत्र पंक्ति। मशुद्ध ४८४ १० परिधास्यमि ४८४ १२ वेतत्सूत्रं ४८५ ११ भिसहते . ४८६ ५ एाणे ४६० ३ ०ऽव्यच्छेदे० ४६१ १२ र्शद्द० ४६८ २ पुतरेतदेवं ४६६६ स्मयमेव ५०१ २ लूगसा ५०२ २ परत्तद० ५०६ ५ गणिया ५०६ ११ आहारत्
ऽधिसहते पाणे ०ऽव्यवच्छेदे० •दर्श० पुनरेतदेवं स्वयमेव लूसगा परदत्त गणिका आहारात्
॥ ११ ॥
Page #12
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ १२ ॥
शुद्ध
पत्र पंक्तिः अशुद्ध ५०६ ३ जणुवीइ ५०९६ अचल चल ५१० ११ विशिष्टण. ५११ ७ मिथ्याहिष्टिरसौ
११ ६ ०ग्रथिता ५१३ ५ पादपोगम५१५ ३ पुनश्च ५१५ ५ परीत्यागः ५१५ ६ कथनीको ५१५ १० न्यासग्द्० ५१५ १४ संलेखनक्रमः ५१७ ३ विमुक्ते. ५१८ ४ सिण्धारा० ५१८ १३ नावव्वं ५२१ १ माघाइय. ५२१ ५ बाह्वयो
अनुवीइ अचले चले विशिष्टगुण. मिथ्यादृष्टिरसौ ग्रंथिता पादपोपगमपूनश्च० परित्यागः कथनीयो (न्यासाद् संलेखनाक्रम. •विमुक्तते •सिधारा. नायव्वं वाघाइय. बह्वयो
पत्र पंक्तिः अशुद्ध ५२२ १ सु . ५२२ ६ खनया० ५२६ ४ सोए ५२९ ११ मितिनिङ्गम् ५२६ १४ केशिन्दु ५३५ ६ पायपुख्लणं ५४१६ वेयाडियं ५४५ १ क्षुद्वहनीय. ५४६ ११ ०मात्मान ५५५ ६ प्रतिपन्नना. ५५६ ११ महारपरिजुन्नं ५८८ १३ बन्धन् ५८६ १ .निवृत्त. ५६३ ७ चतभिरेव
५६४ १३ अणधम्मियं | १५० २ हयपुप्वे
संलेखनया० लोए मितिलिङ्गम् केचिद्भू० पायपुच्छणं वेयावडियं क्षुद्वेदनीय०
मात्मन •प्रतिपन्नाना० अहापरिजुन्न बध्नन् । निवृत्ति चतुभिरेव अणुधम्मियं हयपुग्वे
॥१२॥
Page #13
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ १३॥
पत्र पंक्ति: 'अशुद्ध
६०१ १ बीजण्हणेन
६१० ६ प्राश्वनाथ०
६१२ ७ काष्ठानि
६१७ ६ सकृद्वा६१७
मुख्यत्ययेन
६१८ २ दुप्रालसमेण ६२१ १४ त्रिलोक्यामस्कन्दन्तं
६२४ १ क्रयैव
६२६ १० हीउ
६३१ ३ तुम्भाट्ठाए ८विधा०
६३२
६३२
०वाक्कय •
६३३ ७ पञ्चमा
६३४ १२ भिक्षुणि ६४१ २ ० हयति०
६४१ ३ - भिक्षु०
शुद्ध
बीजग्रहणेन
पार्श्वनाथ •
काष्ठानि च
सकृद्व्यासुब्व्यत्ययेन
दुवालसमेण त्रिलोक्यामास्कन्दन्तं
क्रियैव
होउ
तुम्भट्ठाए
द्विधा
०वाक्काय०
पचमी
भिक्षुणी
गृहपति ० -स भिक्षु०
पत्र पंक्ति
६४१ १४ ताप्य०
६५० ११ सत्षु
६५२
८ नास्मिान्
६५३ ४ सोलुपतया
६५३ १४
६५७
६६४ १२ मा
६६७ १२ पिंडयायं
६८५ ३ चामम०
अशुद्ध
६६२ ६ त्वभेरेदं
६९४
५ विधीयन्त
७०४
५ अपकम्य
७०५ ८ कालेन नु०
७२३
७३०
७०८ २ दा २
० प्रतेशे
•मेतत्प्रति०
६
क्षद्रद्वारा:
तस्थि०
६
शुद्ध
नाप्य०
सत्सु
नास्मिन्
लोलुपतया क्षुद्रद्वारा
तत्थि०
वा
पिडवायं
चायम०
त्वमेवेदं
विधीयन्त
अपक्रम्य
कालेनानु०
वा २
प्रदेशे
•मेतत्प्रति•
॥ १३ ॥
Page #14
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४॥
पत्र पंक्तिः अशुद्ध ७३४ । मेहुणधमं मेहुणधम्म ७३८ ४ पुज
•पुजेसु ७४० २ (वक्कयकम्मंताणि) वंक्कयकम्मंताणि ७४० १२ पण्यापणा
पण्यापणा: ७४. १४ विविक्तिगृह विविक्तगृह ७४५ ७ नो खलु
नो य खलु ७४६ ७ सर्वज्ञ
सर्वत्र ७४६ ७ गुण नां ७४७ ५ संस्ता कस्तव संस्तारकस्तत्र ७५० १२ उवस्ययं ।
उवस्सयं ७५२६ मेहणधस्म मेहुणधर्म ७६३ १ तृणफलवडगलक तृणफलकडगलक
भस्मात्रकादि. भस्ममात्रकादि० ७६३ ११ वासावसं
वासावासं ७६७ १३ संथरमाणेणि
संथरमाणेहि ७७७ १३ गवाह
गहाय
पत्र पंक्तिः अशुद्ध ७८१६ से सदि ७८१ १० पडिवहिया ७८३ ६ पडिपहिया ७८५१ नवोन्मार्गेण ७८५ ११ व . ७८६ ७. .च्छिद्य याव. ७६६ ३ भाषते ७६६ १० पायच्चिनेत्ति ७९८ १०दर्शनायादिकां ८०२ ३. 'ठालानि' ८०३ १. तिबेमि ८०४.६ निष्पनं, ८०५ ५. अहं . ८०८ ९ विभूषितन ८१३ १३. चत्वारी ८१७ ६ नवरं पत्र
सद्धि पाडिवहिया पारिपहिया न्लेवोन्मार्गेण वा. च्छिन्युर्याव. भाषेत पायच्छिन्नेति
दर्शनीयादिकां 'टालानि त्तिबेमि ॥ सू०१४० निष्पन्नं
गुणानां
मह
विभूषितानि चत्वारो नवरं तत्र
।।१४।।
Page #15
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ १५ ॥
थंडिलंसि नइयायतणेसु भेदस्तन्त्री० गायनादिकाः प्राधान्यतया
सायए
पत्र पंक्तिः अशुद्ध
शुद्ध ८२० १० तत्यनेन इत्यनेन ८२१ ३ तो
'नो ५२७३-८-१ पतग्द्रह पतद्ग्रह ५३० ३ करिष्यामि० न करिष्यामी ८३० ४ गृह्मामी० न गृहामी. ८३२ ६ अण्पणा
अपणो ८३२ ८ भूमाए । भूमीए ८३३ १ हिज वा हिजा वा ८३६ ३ गन्तारादौ पूर्वमेम गन्तारादौ पूर्वमेव
विचिन्त्येवंभूतः विचिन्त्यैवंभूतः ८४१ १० द्ध स्थानेना० दद्र्वस्थानेना. ८४५ २ प्रालिगिज्ज वा प्रालिगिज्ज वा
विलिंगिज्ज वा ८४५ १० यदसो
यदसौ ८४६ (२ ०सताण य संताणयं
पत्र पंक्तिः प्रशुद्ध ८५. ११ थंडिलंलि ८५१ ५ नइयायतणसु ८५५, १३ भेदस्त्रन्त्री० ८६०६ गायानादिकाः ८६४ ४ ०प्रधान्यतया ८६४ १३ सयाए ८६६ ११ यसाए ८६७ ६ दाहाइ ८७८ १० उसमदत्तस्स ८८२ १२ बभंमि ८८६ १४ विग्गं ८८७ ५ तरेणं ८८६६ रथणि(णी) ८६७ १४ पञ्चमदश. १०. ६ वलम्बनः
सायए दोहाई उसमदत्तस्स बंभंमिय
.वग्गं
तवेणं रयणि(णी) पञ्चदश० •वलम्बमानः
Page #16
--------------------------------------------------------------------------
Page #17
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५४॥
॥ अहम् ॥ सूरिपुरंदरश्रीमत्शीलाङ्काचार्यविरचितवृत्तिसमेत ॥ श्रीमदाचाराङ्ग सूत्रम् ॥
॥ द्वितीयो विभागः ॥ ॥ अथ धूताख्ये षष्ठमध्ययने प्रथमोद्देशकः ॥ उक्तं पञ्चममध्ययन, साम्प्रतं षष्ठमारभ्यते, अस्प चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तराज्ययने लोकसारभूतः संयमो मोक्षश्च । प्रतिपादितः, स च निःसङ्गताव्यतिरेकेण कर्मधुननमन्तरेण च न भवतीस्यतस्तत्प्रतिपादनार्थमिदरपक्रम्यत इत्यनेन | सम्बन्धेनायातस्यास्पाभ्ययनस्य चत्वार्यनुयोगद्वाराणि भवन्ति, तोपक्रमेाधिकारी द्वेषा-अध्यपनार्थाधिकार उद्देशाधिकारश्च, तबाध्ययनार्थाधिकार प्रागमाणि, उद्देशार्थाधिकारं तु नियुक्तिको विमणिपुराहपहमे नियगविणणा कम्माण वितियए तइयगंमि । उवगरणसरीराणं पउत्पए गारवतिगस्स ॥२५॥
Page #18
--------------------------------------------------------------------------
________________
उह शव
BA प्रथमोद्देशके मिजको:-स्वजनास्तेषां विधूननेत्ययमर्थाधिकार, द्वितीये कर्मणां, तृतीये उपकरणशरीराणा, चतुर्थे । बीआचा
गौरवत्रिकस्य, विधूननेति सर्वत्र सम्बन्धनीयम्, उपसः सन्माननानि च, यथा साधुभिर्विधूतानि तथा पञ्चमोद्देशके राजवृत्तिः
प्रतिपाद्यत इत्यर्थाधिकारं परिसमापय्य निक्षेपमाह-स च त्रिधा, तत्रौषनिष्पन्नेऽध्ययनं, नामनिष्पन्ने तु धृतं, तच्च, (शीला.
चतुर्दा, तत्रापि नामस्थपने सुगमत्वादनादृत्य द्रव्यभावधूतप्रतिपादनाय गाथासकलम्.४६. ॥ अवसग्गा सम्माणयविरमाणि पञ्चमंमि उद्देसे। दन्वधुयं वत्थाई भावधुयं कम्म अवविहं ।२५१॥
द्रव्यधृतं द्विधा-आगमतो नोप्रागमतश्च, आगमतो ज्ञाता तत्र चानुपयुक्तः, नोआगमतस्तु ज्ञशरीरंभव्यशगैरव्यतिरिक्तं द्रव्यधृतं द्रव्यं च तद्वस्त्रादि धूर्त च रजोऽपनयनार्थ द्रव्यधूतं, आदिग्रहणावृक्षादि फलाथ, भावधूतं कर्माष्टविधं, तद्विमोक्षार्थ ध्यत इति गाथाशकलार्थः॥ पुनरप्येतदेवार्थ विशेषतः प्रतिपादयितुमाहअहियासित्तुवसग्गे दिव्वे माणस्सए तिरिच्छे य । जो विहुणइ कम्माई भावधुयं तं वियाणाहि ॥२५॥
अधिकमासखात्यर्थ सोढवा, कानतिसरा -उपसर्गान् , किंभूतान् ? -दिव्यान्मानुषास्तैरश्चांश्च यः कर्माणि संसारतरुवीजानि विधुनाति--अपनयति तद्भावधुतमित्येवं जानीहि, क्रियाकारकयोरमेदाद्वा कर्मधूननं भावधूतं जानीहीति भावार्थः॥ गतो नामनिष्पन्नो निक्षेपः, साम्प्रतंत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारयितव्यं, तच्चेदम्
ओबुज्झमाणे इह माणवेसु आघाइ से नरे, जस्स इमाओ नाइमओ सव्वओ सुपडिलेहियाओ भवंति, आघाइ से नाणमणेलिसं, से किइ तेसिं समुट्ठियाणं निक्वित्त
HEON
Page #19
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ya,
दंडाणं समाहियाणं पन्नाणमंताणं इह मुत्तिसग्गं, एवं अवि एगे महावीरा विप्परिकमंति, पासह एगे अवसीयमाणे अणत्तपन्ने से बेमि, सेवि कुमेहरए विणिविट्ठचित्ते पच्छन्नपलासे उम्मग्गं से नो लहइ भंजगा इव संनिवेसं नो चयंति, एवं अवि एगे अणेगस्वेहिं कुलेहिं जाया स्वेहिं सत्ता कलणं थणंति, नियोणओ ते न लभंति मुक्खं, अह. पास तेहिं कुलेहिं आयत्ताए जाया। सु. १७२ ।। गंडी अहवा कोढी, रायंसी अवमा.. रियं । काणियं झिमियं चेव, कुणियं खुज्जियं सहा ॥१॥ उदरिंच पास मूयं च, सुणीयः च गिलासणिं । वेवई पीढसपि च, सिलिवयं महुमेहणि ॥ २॥ सोलस एए रोगा अक्खाया अणुपुव्वसो। अहणं फुसंति आयंका, फासा य असमंजसा ॥३॥ .
मरणं तेसिं संपहाए उववायं चवणं च नच्चा, परियागं च संपेहाए । स. १७३-१७६ ॥ · स्वर्गापवग्! तत्कारणानि च तथा संसारं तत्कारणानि चावबुध्यमानोऽनावारकज्ञानसद्भावाद् 'इहेति मर्त्यलोके मानवेषु विषयभूतेषु धर्ममाख्याति स नरो भवोपग्राहिकर्मसद्भावात् मनुष्यमावव्यवस्थितः सन् धर्मामाचष्टे, न पुनर्यथा शाक्यानां कुडयादिम्योऽपि धर्मदेशनाः प्रादुण्यन्ति, यथा वा वैशेषिकाणामुलुकभावेन पदार्थाविर्भावनम् , एवमस्माकं नाक-घातिकर्मक्षये तूत्पमनिरावरणक्षानो मनुष्यभावापन्न एव कृतार्थोऽपि सचहिताय सदेवमनुजायां पर्षदि कथयतीति । कि तीर्थकर एव धर्मामाचष्टे उतान्योऽपि, अन्योऽपि यो विशिष्टज्ञानः सम्यक्पदार्थपरिच्छेदी स धर्मा
aliuY.
Page #20
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीबाचा
(डीलारा) .४६२॥
विर्मावनं करोतीति दर्शयितुमाह-यस्यातीन्द्रियज्ञानिना श्रुतकेवलिकोपा इमा:' शस्त्रपरिज्ञायां साधितत्वात् प्रत्यक्षवाचिनेदमाऽमिहिताः 'जातयः' एकेन्द्रियादया 'सर्वतः सर्वैः प्रकारे एमवादरपर्याप्तकापर्याप्तकरूपैः सुष्टु-शादिव्युदासेन 'प्रत्युपेक्षिताः' प्रति उप--सामीप्येन ईक्षिता--ज्ञाता भवन्ति स धर्ममाचष्टे नापर इति । इदमेवार'भाब्याति' कथयति 'स' तीर्थकत्सामान्यकेवली अपरो बातिशयज्ञानी श्रुतकेवली वा, किमाख्याति -शानं' ज्ञायन्ते परिच्छिद्यन्ते जीवादयः पदार्थाः येन तज्ज्ञानं-मत्यादि पशधा, किम्भूतं ज्ञानमाख्याति?-'अनीहशं' नान्यत्रेदृशमस्तीत्यनीरशं, यदिवा सकलसंशयापनयनेन धर्ममाषाण एव स आत्मनो बानमनन्यसरशमाख्याति । केषां पुनः स धर्ममाषष्ट इत्यत आह-'स' तीर्थकुद्गणधरादिः 'कीर्तयति' यथावस्थितान् भावान् प्रतिपादयति 'तेषां' धर्माचरणाय सम्यगुत्थिताना, पदिवा उत्थिता द्रष्यतो भावतध, द्रव्यतः शरीरेण भावतो झानादिभिः, तत्र स्त्रिया समवसरणस्था उभयथाऽप्युस्थिताः शृण्वन्ति, पुरुषास्तु द्रव्यतो भाज्या:, भावोत्थिताना तु धर्ममावेदयति उत्तिष्ठासना चं देवाना तिराव येऽपि कौतुकादिना भूपवन्ति तेभ्योऽप्याचष्टे, भावसमस्थितान् विशिशेषयिषुराह--निक्षिप्ता:संयमिताः मनोवाकायरूपाः प्राण्युपमर्दकारित्वाइण्डा इव दण्हा यैस्ते तथा तेषां निक्षिप्तदण्डाना, तथा 'समाहिताणं' सम्यगाहिता:--तपासयम उद्युक्ताः समाहिता अनन्यमनस्कारतेषां, तथा प्रकर्षेण ज्ञायतेऽनेनेति प्रज्ञानं तद्वतां सश्रुतिकानाम् 'इ' अस्मिन्मनुष्यलोके 'मुकिमार्ग' शानदर्शनचारित्रात्मकं कीर्चयतीति सम्बन्धः । तस्य च तीर्थकृतः साक्षादर्ममावेदयतः केचन लघुकर्माणस्वथैव प्रतिपद्य धर्मचरणायोगच्छन्त्यपरे त्वन्यथेत्येतत्प्रतिपादयितुमाह--अपिशब्दश्चार्थे,
Page #21
--------------------------------------------------------------------------
________________
܀܀
४६३॥
܀
܀
܀܀
܀
܀
܀
܀
܀܀
चशब्दश्च वाक्योपन्यासाथें, एवं तीर्थकृताऽऽवेदिते सत्येके-लम्धकम्मविवरा विविधं संयमसङ्ग्रामशिरसि पराक्रमन्ते, परान् वा इन्द्रियकर्मरिपन् आक्रमन्ते पराक्रमन्त इति । एतद्विपर्ययमाह--साक्षात्तीर्थकरे सकलसंशयच्छेत्चरि धर्ममावेदयति सत्येकान् प्रबलमोहोदयावृतान् संयमेऽवसीदतः पश्यत यूर्य, किम्भूतानित्याह--नात्मने हिता प्रज्ञा येषां ते अनात्मप्रज्ञास्तानिति, कुतः पुनः संयमानुष्ठानेऽवसीदन्ति इत्यारेकायां सोऽहं ब्रवीमि । अत्र दृष्टान्तद्वारेण सोपपत्तिक कारणमित्याह-सेशन्दस्तच्छब्दार्थे, अपिशब्दश्चार्थे, सच वाक्योफ्न्यासाः, तद्यथा च कूस्मों महादे विनिविष्टं चित्तं यस्यासौ विनिविष्टचित्तो--गाद्यपगतः पलाशैः-पत्रैः प्रच्छनः फ्लासपच्छमा, सूत्रे तु प्राकृतत्वाद्वथत्ययः, 'उम्मग्गति विवर उन्मज्यतेऽनेनेति वोन्मज्यम् , ऊर्ध्व वा मार्गमुन्मार्ग, सर्वथा अरन्ध्रमित्यर्थः, तदसौ न लभत । इत्यक्षरार्थः । भावार्थस्त्वयम्--कश्चिद् हृदो योजनशतसहस्रविस्तीर्णः प्रबलशेवालयनकठिन वितानाच्छादितो नानारूपकरिमकरमत्स्यकच्छपादिजलचराश्रयः, तन्मध्ये चैकं वित्रसापरिणामापादितं कच्छपग्रीवामात्रप्रमाणं विवरमभूत् , तत्र 8 चैकेन कर्मेण निजयथात प्रश्रप्टेन वियोगाकुलतयेतस्ततश्च शिरोधरी प्रक्षिपता कुतश्चित्तथाविधभवितव्यतानियोगेन । तद्वन्ध्र ग्रीवानिर्गमनमाप्त, तत्र चासौ शरच्चन्द्रचन्द्रिकयाः क्षीरोदसलिलप्रवाहकल्पयोपशोभितं विकचकुमुदनिकर कृतोपचारमिव तारकाकीर्ण नमस्तलमीक्षाचक्रे, दृष्ट्वा चातीव मुमुदे, आसीच्चास्य मनसि-यदि तानि मदाण्येतत्स्वर्गदेश्यमष्टपर्व मनोरथानामप्यविषयभृतं पश्यन्ति ततः शोमनापद्यत इत्येतदवधार्यतूर्णमन्वेषणाय बन्धूनामितश्चेतश्च वभ्राम अवाप्य च निजान् पुनरपि वहिवरान्वेषणास तः पर्यटतिन प.सद्विधरं विस्वीणत्या हृदस्य प्रचुरतया यादसामीक्षते,
܀
܀
܀܀
܀
܀
Page #22
--------------------------------------------------------------------------
________________
मोबाचा
धुता. उहेका
राजत्तिः
(शीलासा.) १४६४॥
तत्रैव च विनाशमुपयात इति । अस्यायमोंपनया--संसारहदे बीवकूर्म कर्मपालविवरतो मनुष्यार्यक्षेत्रसुकुलोत्पत्तिसम्यक्त्वावसाननमस्तलमासाच मोहोदयात् शात्यर्थ विषवीपमोगाय वासदनुष्ठानविकलोन सफलतां नयति, तस्यागे कुतः पुनः संसारहदान्तवर्तिमस्तदवासित, तस्मादवाप्य मवातदुरापं कर्मविवरभूतं सम्यक्त्वं चचामप्येकं तत्र न प्रमादवता भाव्यमिति तात्पर्यार्थः। पुनरपि संसारानुषङ्गिणां दृष्टान्तान्तरमाह-भागा' पक्षास्त इच शीतोष्णप्रकम्पनच्छेदनशाखाकर्षणदोमामोटनमञ्जनरूपानुपद्रवान् सहमाना अपि सनिवेश स्थानं कर्मपरतन्त्रतया न स्यजन्ति, एवमित्यादिना दार्शन्तिकमयं दर्शयति-'एव'मिति वृक्षोपमया 'अपि सम्भावने, 'एके कर्मगुरवोऽनेकरूपेषु कुलेघूच्चावचेषु जाता धर्माचरणयोग्या अपि रूपेषु पहुरिन्द्रियानुकूलेषूपलक्षणार्थत्वाच्छन्दादिषु प विषयेषु 'सका अध्युपपना शारीरमानसदुस्खदु:खिता राजोपयोपद्धताः अग्निदाहदग्धसर्वस्वा नानानिमित्ताहिताषयोऽपि न सकलदुःखावासं गृहवासं कर्मानिघ्नास्वस्तुमलम् । अपि तु तत्स्था एव तेषु वेषु व्यसनोपनिपातेषु सत्सु करणं स्तनन्ति' दीनमाक्रोशन्ति, तद्यथाहा तात! हा मातःहा देव! न युज्यते मयत एवं विधेऽवसरे एवम्भूतं व्यसनमापादयितु, तदुक्तम्-"किमिदमचिन्तितमसहशमनिष्टमतिकष्टमनुपमं दुःखम् । सहसैवोपनतं मे नैरयिकस्वेव सत्त्वस्य ॥१॥" इत्यादि, यदिवा रूपादिविषयासक्ता उपचितकाणो नरकादिवेदनामनुभवन्तः करुणं स्तनन्तीति, नच करुणं स्तनन्तोऽप्येतस्मात् दुःखान्मुच्यन्ते इत्येतदयितुमाह-दुःखस्य निदानम्-उपादानं कर्म ततस्ते विलपन्तोऽपि न लभन्ते 'मोक्ष' दरखापगमं मोचकारणं वा संयमानुष्ठानमिति । दुःखविमोक्षामावे च यथा नानाव्याध्युपसष्टाः संसारोदरे प्राणिनो
४६५॥
Page #23
--------------------------------------------------------------------------
________________
विवर्तन्ते तथा दर्शयितुमाह-'अप' इति वाक्योपन्यासाथै पश्य त्वं चावचेषु कुलेषु, आत्मत्वाय-मात्मीयकर्मानुभवाय जाता, तदुदयाच्चेमा अवस्थामनुभवन्तीत्याह-पोरशरोगवक्तव्यतानुगतं श्लोकत्रय, वातपित्तश्लेप्मसाथपातजं चतुर्दा गण्ड, तदस्यास्तीति गण्डी-गण्डमालाबानित्यादि, अथवेत्येतत्प्रतिरोंगममिसम्बध्यते, अथवा तथा 'कुष्ठी' कुष्ठमष्टादशमेदं सदस्यास्तीति कुष्ठी, तब सप्त महाकुष्ठानि, तद्यथा-अरुणोदुम्बरनिश्यजिहरूपालकाकनादपौण्डरीकद्रष्ठानीति, महत्त्वं वैषां सर्वधात्वनुप्रवेशादसाध्यत्वाच्चेति, एकादश बुद्रष्ठानि, तयथा-स्थूलारुष्क १ महाकृष्ठ काष्ठ ३-धर्मदल ४ परिसर्प ५ विसर्प ६ सिध्म ७ विचचिका ८ किटिमह पामा १० शतारुक ११ संज्ञानीति, सर्वाण्यप्यष्टादश, सामान्यतः कुष्ठं सर्व सत्रिपातजमपि वातादिदोषोत्कटतया तु मेदभाग्मवतीति । तथा-राजांसोराजयक्ष्मा सोऽस्यातीति गजांसी, चयीत्यर्थः, सच क्षयः समिपातजश्चतुयः कारणेभ्यो भवति इति, उक्तंच"त्रिदोषो जायते यक्ष्मा, गयो हेतुचतुष्टयात् । गरोधात् भयाच्चैव, साहसाविषमासनात् ॥"
या-अपस्मारो वातपित्तश्लेम्मसमिपात जत्वाच्चतुर्दा, तद्वानपगतसदसद्विवेकः भ्रममूर्छादिकामवस्थामनुमवति प्राणीति, A उक्तं च-"भ्रमावेशः ससंरम्भो, मेषोद्रेको हतस्मृतिः। अपस्मार इति शेयो, गंदो घोरचतुर्विधः ॥१॥ तथा 'काणिय'ति अधिरोगः, स च द्विधा-गर्भगतस्योत्पते जातस्य च, तत्र गर्भस्थस्य दृष्टिभागमप्रतिपन्नं तेजो बास्पन्धं करोति, तदेवकाधिगतं काणं विधते, तदेव रक्तानुगत रक्ताक्षं पिचानुगतं पिङ्गाक्ष श्लेष्मानुगत शुक्लाक्षं वातामुगले विकृताक्ष, बातस्य वातादिमियोऽमिष्यन्दो मवति, तस्माच्छ सर्वे रोगाः प्रादुष्यन्तीति, उक्तंच
Page #24
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीजाचाराङ्गवृत्तिः
(शीलाङ्का.)
॥ ४६६ ।।
"वातात्पितात्कफाद्र कादभिष्यन्दश्चतुर्विधः । प्रायेण जायते घोरः, सर्वने श्रामयाकरः ॥ १ ॥” इति, तथा'झिमिय'ति, जाडयता सर्वशरीरावयवानामवशित्वमिति, तथा 'कुणियं 'ति गर्भाधान दोषाद् हस्यैकपादो न्यूनैकपाणिर्वा कुणि, तथा 'खुखियं' ति कुब्जं पृष्ठादावस्यास्तीति कुब्जी, मातापितृशोणितं शुक्रदोषेणं' गर्भस्थदोषोद्भवाः कुन्जवामनकादयो दोषा मवन्तीति उक्तं च--"गर्भे वातप्रकोपेन, दौहवे वाऽपमानिते । भवेत् कुब्जः कुणिः पङगुमूको सन्मन एव वा ॥ १ ॥ मृको मन्मन एवेत्येतदेकान्तरिते सुखदोषे रगनीयमिति । तथा-'उदरिं 'च'ति' चः समुच्चये वातपित्तादिसमुत्थमष्टधोदरं तद्स्यास्तीत्युदरी, तत्र 'नलोदर्यसाध्यः - शेर्पास्त्व चिरोत्थिताः साध्या इति, ते चामी मेदाः* पृथक समस्तैरपि चानिलाद्ये, प्लीहोर बडगुदं तथैव । आगन्तुक सप्तममष्टमं तु, जलोदरं वेति भवन्ति तानि ॥ १ ॥” इति, तथा 'पास मूयं च 'त्ति पश्य - अवधारय मृकं मन्मनभाषिणं वा, गर्भदोषादेव जातं तदुत्तरकालं च, पञ्चषष्टिमुखे रोगाः सप्तस्वायतनेषु जायन्ते तत्र्ायतनानि ओष्ठौ दन्तमूलानि देन्ता जिह्वा तालुकण्ठः सर्वाणि चेति तत्राष्टावोष्ठयोः पश्चदश दन्तमूले अष्टौ दन्तेषु पश्च जिह्वाया' नव तालुनि सप्तदश कण्ठे त्रयः सर्वेष्वायतनेष्विति, 'सुणियं च ' ति शूनत्वं श्वयथुर्वातपित्तश्लेग्नसन्निपातरक्ताभिघातजोऽयं षोढेति, उक्तं च"शोफः स्यात् षड़िधो घोरो, दोबर से लक्षणः । व्यस्तैः समस्तैश्वापीह, तथा रक्ताभिघातजः ॥ १॥" इति, तथा 'गिलासणि 'ति भस्मको व्याधिः, स च वातपित्वोत्कटतया श्लेष्म न्यूनतयोपजायत इति, तथा 'वेवई 'ति वातसमुत्थः शरीरावयवानां कम्प इति उक्तं च- प्रकामं वेपते यस्तु, कम्पमानश्च गच्छति । कलापख
धुता है।
उद्दे शका १
॥ ४६६ ॥
Page #25
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ ४६७ ॥
***
'
तं विद्यान्मुक्त सन्धिनिबन्धनम् ॥ १ ॥” इति, तथा 'पोढसप्पि च'त्ति जन्तुर्गर्मदोषात् पीढसपित्वेनोत्पद्यते, जातो वा कर्मदोषाद्भवति, स किल पाणिगृहीतकाष्ठः प्रसप्र्पतीति, तथा 'सिलिवयं 'ति श्लीपदं - पादादौ काठिन्यं, तद्यथा- प्रकुपितवातपित्तश्लेष्माणोऽधः प्रपन्ना वणो (वक्षो) रुजङ्घास्ववतिष्ठमानाः कालान्तरेण पादमाश्रित्य शनैः शनैः शोफ (प) मुपजनयन्ति तच्छ्लीपदमित्याचक्षते - "पुराणोदक भूमि (य) ष्ठाः, सर्वषु च शीतलाः । ये देशास्तेषु जायन्ते, श्लीपदानि विशेषतः ॥ १ ॥ पादयोर्हस्तयोश्चापि श्लीपदं जायते नृणाम् । कर्णोष्ठनाशास्वपि च, केचिदिच्छन्ति तद्विदः ॥ २ ॥" तथा 'महुमेहणिं' ति मधुमेहो- बस्तिरोगः स विद्यते यस्यासौ मधुमेही, मधुतुन्यप्रस्राववानित्यर्थः, तत्र प्रमेहाणां विंशतिर्भेदाः, तत्रास्यासाध्यत्वेनोपन्यासः, तत्र सर्व एव प्रमेहाः प्रायशः सर्वदोषोत्थास्तथापि वाताद्युत्कटभेदाद्विंशतिर्भेदा भवन्ति, तत्र कफादश षट् पित्तात् वातजाश्चत्वार इति सर्वेऽपि चैतेऽसाध्यावस्थायां मधुमेहलमुप्रयान्तीति, उक्तं च- "सर्व एव प्रमेहास्तु, कालेनातिकारिणः । मधुमेहत्वमायान्ति तदाऽसाध्या भवन्ति ते ॥ १ ॥ " इति । तदेवं षोडशाप्येते - अनन्तरोक्ता: 'रोगा' व्याभयो व्याख्याताः 'अनुपूर्वशो' अनुक्रमेण 'अर्थ' अनन्तरं 'न' इति वाक्यालङ्कारे 'स्पृशन्ति' अभिभवन्ति 'आतङ का' आशुजीवितापहारिणः शूलादयो व्याधिविशेषाः 'स्पर्शाश्च' गाढप्रहारादिजनिता दुःखविशेषाः 'असमञ्जसाः' क्रमयौगपद्यनिमित्तानिमित्तोत्पन्नाः स्पृशन्तीति सम्बन्धः । न रोगातकैरेव केवलैमुच्यते, अन्यदपि यत् संसारिणोऽधिकं स्यात्तदाह--तेषां कम्गुरूणां गृहवासासक्तमनसामसमञ्जसरोगैः क्लेशितानी 'मरण' प्राणत्यागलक्षणं 'संप्रेक्ष्य' पर्यालोच्य पुनरुपपात
॥ ४६७ ॥
Page #26
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीआचाराजवृत्तिः शीलावा.)
४६८॥
च्यवनं च देवानां कर्मोदयात् सश्चितं ज्ञात्वा तद्विधेयं येन गण्डादिरोगाणां मरणोपपातयोश्चात्यन्तिकोऽभावो भवति, किंवा च-कर्मणां मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाययोगाहितानामबाघोत्तरकालमुदयावस्थायां परिपाकं च सम्प्रेक्ष्य' शारीरमानस
धुता.
उद्देशका ! दुःखोत्पादकं पर्यालोच्य तदुच्छित्तये यतितन्यम् ॥ स च करुणं स्तनन्तीत्यादिना ग्रन्थेनोपपातच्यवनावसानेनावेदितोऽपि पुनरपि तद्गरीयस्त्वख्यापनाय प्राणिनां संसारे निर्वेदवैराग्योत्पत्यर्थमभिषित्सुकाम आह-. ..
सुह जहा तहां संति पाणा अंधा तमसि वियाहिया, तामेव सहः असइ भइअच्च उच्चाषयफासे परिसंवेएइ, बुद्धहिं एवं पवेइयं-संति पाणावासगारसगा उदए उदएचरा
आगासगामिणो पाणा पाणे किलेसंति, पास लोए महन्मयं ॥ सू. १७७॥ 'त' कर्मविपाक यथावस्थितं तथैव ममावेदयतः शृणुत यूयं, तद्यथा-नारकतियङ्नरामरलमणाश्चतस्रो गतया, तत्र नरकगतौ चत्वारों योनिलक्षाः पञ्चविंशतिकुलकोटिलक्षाः त्रयविंशत्सागरीपमाण्युत्कृष्टा स्थितिः वेदनाश्च परमाधार्मिकपरस्परोदीरितस्वाभाविकदुःखाना नारकाणां या भवन्ति ता. वाचामगोचराः, यद्यपि लेशतश्विकथयिषोरभिधेयविषयं न वागवतरति तथाऽपि कर्मविपाकावेदनेन प्राणिनां वैराग्यं यथा स्यादित्येवमर्थ श्लोकैरेव किश्चिदभिधीयते-"श्रवणखवनं नेत्रोतारं करक्रमपाटनं, हृदयदहनं नासाच्छेदं प्रतिक्षणदारुणम् । कटविदहन तीक्ष्णापातत्रिशलविभेवन, वहनववना कोरैः समन्तविभक्षणम् ॥ १॥ तीक्ष्णैरसिभिर्दीप्तः कुन्तैर्विषमैः परश्वधे
SR श्चक्रः। परशनिशलमुद्गरतोमरवासीमुषण्डीमिः ॥२॥ सम्भिन्नतालशिरस छिनभुजाश्छिन्नकर्णना
Page #27
--------------------------------------------------------------------------
________________
सौष्ठाः । भिन्नहृदयोवरात्रा मिन्नाक्षिपुटाः सुदुःस्वार्ताः ॥ ३ ॥ निपतन्त उत्पतन्तो विष्टमाना महीतले दोनाः। नेक्षन्ते त्रातारं नैरयिकाः कर्मपटलान्धारा ४॥ छिद्यन्ते कृपणाः कृतान्तपरशोस्तीक्ष्णेन धारासिना, क्रन्दन्तो विषवीचि(वच्छव)भिः परिवताः संभक्षणव्यापतः। पाठ्यन्ते क्रकचेन वारुवदसिप्रच्छिन्नबाहुबयाः, कुम्भीषु अपुपानदग्धतनवो मूषासु चान्तर्गताः ॥ ५ ॥भृज्ज्यन्ते ज्वलवम्बरीषहुतभुगज्वालाभिराराविणो, दीप्ताङ्गारनिभेषु वज्रभवनेष्वङ्गारकेषत्थिताः। दह्यन्ते विकृतोर्ववाहुवदनाः क्रन्दन्त आर्सस्वनाः पश्यन्तः कृपणा दिशो विशरणास्त्राणाय को नो भवेत् ॥६॥" इत्यादि । तथा तिर्यग्गतौ पृथिवीकायजन्तूनां सप्त योनिलक्षा द्वादश कुलकोटिलक्षाः स्वकायपरकायशस्त्राणि शीतोष्णादिका वेदनाः, तथाऽपकायस्यापि सप्त योनिलक्षाः सप्त चकुलकोटिलक्षाः वेदना अपि नानारूपा एव, राथा तेजस्कायस्य सप्त योनिलक्षाः प्रयः कुलकोटीलक्षाः पूर्ववद्वेदनादिकं, वायोरपि सप्त योनिलक्षाः सप्त च कुलकोटिलक्षाः वेदना अपि शीतोष्णादिजनिता नानारूपा एव, प्रत्येकवनस्पतेर्दश -योनिलक्षाः साधारणवनस्पतेश्चतुर्दश उभयरूपस्याप्यष्टाविंशतिः कुलकोटीलक्षाः, तत्र च गतोऽसुमाननन्तमपि काल छेदनभेदनमोटनादिजनिता नानारूपा वेदना अनुभवमास्ते, विकलेन्द्रिायाणामपि द्वौ द्वौ योनिलक्षौ कुलकोटथस्तु द्वीन्द्रियाणां सप्त त्रीन्द्रियाणामष्टी चतुरिन्द्रियाणां नव, दुःखं तु सुस्पिपासाशीतोष्णादिजनितमनेकाऽध्यक्षमेव तेषामिति, पञ्चेन्द्रियतिरश्चामपि चत्वारो. योनिलक्षाः कुलकोटीलक्षास्तु जलचराणाम त्रयोदश पक्षिणा द्वादश चतुष्पदाना दश उरःपरिसर्पाणां दश भुजपरिसप्पाणां नव वेदनाचं नानारूपा यास्तिरां सम्भवन्ति ता:
Wwwwwwwwwwww
200000
Page #28
--------------------------------------------------------------------------
________________
. धुता. ६. उद्देशका १
प्रत्यक्षा एवेति, उक्तं च-"क्षुतृहिमात्युष्णमयादिताना, पराभियोगव्यसनातुराणाम् । अहो ! तिरश्चा श्रीआचा
मतिदुःखितानां, सुखानुषङ्गः किल वार्तमेतद् ॥ १॥" इत्यादि । मनुष्यगतावपि चतुर्दश योनिलक्षा द्वादश राजवृत्तिः
कुलकोटीलक्षाः, वेदनास्त्वेवम्भृता इति-"दुःखं स्त्रीकुक्षिमध्ये प्रथममिह भवे गर्भवासे नराणां, पालत्वे चापि शीलाबा.)
दाखं मललुलिततनुस्त्रीपयःपानमिश्रम् । तारुण्ये चामि दुःखं भवति विरहजं वृद्धभावोऽप्यसारः, संसारे ४७० ॥ रे मनुष्या! वदन यदि सुख स्वल्पमप्यस्ति किशित् ॥ १॥ पाल्यात्प्रभृति च रोगैदष्टोऽभिभवश्व
यावविह मृत्यु । शोकवियोगायोगैर्दुर्गतदोषैश्च कविधैः ॥२॥ क्षुत्तहिमोष्णानिलशीतदाहदारिद्रयशोकप्रियविप्रयोगैः । दौर्भाग्यमौयानभिजात्यदास्यवैरूप्यरोगादिमिरस्वतन्त्रः ॥३॥” इत्यादि । देवगतावपि चत्वारो योनिलक्षाः षड्विंशतिः कुलकोटीलक्षाः तेषामपीऱ्यांविषादमत्सरच्यवनभयशन्यवितुद्यमानमनसा दुःखानुषङ्ग एव, सुखाभासाभिमानस्तु केवलमिति, उक्तं च-"देवेषु च्यवनवियोगदुःखितेषु, क्रोधेामदमदनातितापितेषु । आर्या नस्तदिह विचार्य संगिरन्तु, यत्सौख्यं किमपि निवेदनीयमस्ति ॥१॥" इत्यादि । तदेवं चतुर्गतिपतिताः संसारिणो नानारूपं कर्मविपाकमनुभवन्तीत्येतदेव. सूत्रेण दर्शयितुमाह-'सन्ति' विद्यन्ते 'प्राणा: प्राणिनः 'अन्धा चचुरिन्द्रियविकला भावान्धा अपि सद्विवेकविकलाः तमसि अन्धकारे मरकगत्यादौ भावान्धकारेऽपि च मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषायादिके कर्मविपाकापादिते व्यवस्थिता व्याख्यातासचि-तामेवावस्था कुष्ठायापादितामेकेन्द्रियापयसिकादिकां वा सकृदनुभूय कम्र्मोदयासामेव असकृद्-अनेको तिगत्योचावचान-तीव्रमन्दान्
॥४७॥
Page #29
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥४७१ ॥
स्पर्शान-दाखविशेषान 'प्रतिसंवेदयति' अनुभवति । एतच्च तीर्थकृद्भिरावेदितमित्याह-'धु: तीर्थकृद्धिः 'एतद्' | अनन्तरोक्तं प्रकणादौ वा वेदितं प्रवेदितम् । एतच्च वक्ष्यमाणं प्रवेदितमित्याह-'सन्ति' विद्यन्ते 'प्राणाः' प्राणिनो 'वासकाः' 'वास शब्दकुत्सायो' वासन्तीति वासका:-भाषालब्धिसम्पन्ना द्वीन्द्रियादयः, तथा रसमनुगच्छन्तीति ।
रसगा:-कटुतिक्तकषायादिरसवेदिनः संजिन इत्यर्थः, इत्येवम्भूतः कर्मविपाकः संसारिणां सम्प्रेक्ष्य इति सम्बन्धः, तथाA 'उदके उदकरूपा एवैकेन्द्रिया जन्तवः पर्याप्तकापर्याप्तकमेदेन व्यवस्थिताः, तथा उदके चरन्तीत्युदकचरा:-पूतरकच्छेद
नकलोइणकत्रसा मत्स्यकच्छपादयः, तथा स्थलजा अपि केचन जलाश्रिता महोरगादयः पक्षिणश्च केचन तद्गतवृत्तयो द्रष्टव्या, अपरे तु आकाशगामिनः पक्षिणा, इत्येवं सर्वेऽपि 'प्राणा: प्राणिनोऽपरान् प्राणिनः आहाराद्यर्थ मत्सरादिना वा 'क्लेशयन्ति' उपतापयन्ति । यद्येवं ततः किमित्यत आह–'पझ्य' अवधारय 'लोके' चतुर्दशरज्वात्मके, कर्मविपाकात्सकाशात् 'महद्भयं नानागतिदुःखक्लेशविपाकात्मकमिति ॥ किमिति कर्मविपाकान्महद्भयमित्याह--
बहुदुक्खा हुजन्तवो, सत्ता कामेसु माणवा, अबलेण वहं गच्छन्ति सरीरेणं पभंगुरेण अट्टे से बहुदुक्खे इह पाले पकुव्वइ एए रोगा बहू नच्चा आजरा परियावए नालं पास,
अलं तवेएहिं एवं पास मुणी ! महन्भयं नाइवइज कंचण ॥ सू०१७ ॥ बहनि दुःखानि कर्मविपाकापादितानि येषां जन्तूनां ते तथा, हुर्यस्मादेवं तस्मात्तत्राप्रमादवता भाव्यं । किमित्येवं ।
||४७१. भूयो भूयोऽपदिश्यत इत्यत आह-यस्मादनादिभवाम्यासेनागणितोत्तरपरिणामाः 'सक्ताः' गृद्धाः 'कामेषु' इच्छामदन
Page #30
--------------------------------------------------------------------------
________________
धुता.
रूपेषु 'मानवाः पुरुषा इत्यतो न पुनरुक्तदोषानुषङ्गः । कामासक्ताच बदवाप्नुवन्ति तदाह-बलरहितेन निःसारेण श्रीआचा
तुषमुष्टिकल्पनौद्रारिकेण शरीरेण 'प्रभंगुरेण स्वत एव भङ्गशीलेन तत्सुखाधानाय कर्मोपचित्याऽनेकशो वधं गच्छन्ति | राजवृत्तिः
उद्देशका १ कः पुनरसौ विपाककटुकेषु कामेषु यो रतिं विदध्यादित्याह-मोहोदयादातः, अगणितकार्याकार्यविवेकः सोऽसुमान्बहु शीलासा.)
दुःखं प्राप्तव्यमनेनेति बहुदुःख इत्येनं कामानुषङ्ग प्राणिनां क्लेशं वा 'बालो' रागद्वेषाकुलितः प्रकर्षण करोति प्रकरोति, H४७२॥ तज्जनितकर्मविपाकाच्च अनेकशो वधं गच्छति, यदिवा रोगेषु सत्सु इत्येतद्वक्ष्यमाणं बॉलोऽज्ञः प्रकरोति तदाह-एतान्
गण्डकुष्ठराजयक्ष्मादीन रोगान बहुनूत्पन्नानिति ज्ञात्वा तद्रोगवेदनया आतुराः सन्त: चिकित्सायै प्राणिनः परितापयेयुः, 8 'लावादिपिशिताशिनः किल क्षयव्याध्युपशमः स्यादित्यादिवाक्याकर्णनाज्जीविताशंया गरयस्यपि प्राण्युपमर्देश
प्रवर्तेरन्, नैतदवधारयेयुः यथा-स्वकृतावन्ध्यकर्मविपाकोदयादेतत् , तदुपशमाच्चोपशमः, प्राण्युपमर्दचिकित्सया च किल्मिषानुषङ्ग एवेति, एतदेवाह-पश्यैतद्विमलविवेकावलोकनेन यथा 'नालं' न समर्थाः चिकित्साविधयः कर्मोदयोंपशमं विधातु, यद्येवं ततः किं कर्तव्यमिति दर्शयति-'अलं' पर्याप्त 'तव' सदसद्विवेकिनः 'एभिः' पापोषादानभूतश्चिकित्साविधिभिरिति । किं च-एतत् प्रण्युपमर्दादिकं 'पश्य' अवधारय हे 'मुने! जगत्त्रयस्वभाववेदिन, महत्-बृहद्भयहेतुत्वाद्भय, यद्येवं ततः किं कुर्यादिति दर्शयति–नातिपातयेत्' न हन्यात् कश्चन प्राणिनं, यत एक स्मिमपि प्राणिनि-इन्यमानेऽष्टप्रकारमपि कर्म बध्यते, तच्चानुत्तारसंसारगमनायेत्यतो महाभयमिति, यदिवा एए रोगे
॥४७२॥ बहू णच्चेत्यादिको प्रन्थः कामानधिकृत्य नेयः, एतान् रोगरूपान् कामान् बहून् ज्ञात्वा आसेवनाप्रज्ञयेति आतुरा:
Page #31
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ ४७३ ॥
'कामेच्छान्धा अपरान् प्राणिनः परितापयेयुः इत्यादिना प्रक्रमेणेति ॥ तदेवं रोगकामातुरतया सावद्यानुष्ठानप्रवृतानामुपदेशदान पुरस्सरं महाभयं प्रद्र्श्य तद्विपर्यस्तानां सस्वरूपां गुणवत्ता दिदर्शयिषुः प्रस्तावमार चयन्नाह -
आया भो ! भो धूयवायं पवेयइस्सामि (धूतोवायं पवेयंति) इह खलु अत्तत्ता तेहिं तेहिं कुलेहिं अभिसेएण अभिसंभूया अभिसंजाया अभिनिव्वुडा अभिसंबुड्डा अभिसंबुद्धा अभिनिक्कंता अणुपुव्वेण महामुनी ॥ सू० १७९ ॥
“भोः” इति शिष्यामन्त्रणे, यदहमुत्तरत्रा वेदयिष्यामि भवतस्तद् 'आजानीहि ' - अवधारय, 'शुश्रूषस्व' श्रवणेच्छां विधेहि 'भो:' इति पुनरप्यामन्त्रणमर्थ गरीयस्त्वख्यापनाय, नात्र भवता प्रमादो विधेयो, धूतवादं कथयिष्याम्यहं धृतम्अष्टप्रकार कर्म्मधूननं ज्ञातिपरित्यागो वा तस्य वादो धूतवादः तं प्रवेदयिष्यामि, अवहितेन च भवता भाव्यमिति । नागार्जुनीयास्तु पठन्ति - "धूतोवायं पवेयंति" अष्टप्रकार क धूननोपायं निजधूननोपायं वा प्रवेदयन्ति तीर्थकरादयः । कोऽसावुपाय इत्यत आह- 'इह' अस्मिन् संसारे 'खलुः" वाक्यालङ्कारे आत्मनो माव आत्मता - जीवास्तिता स्वकृतकर्म्मपरिणतिर्वा तयाऽभिसम्भूताः सञ्जाताः, न पुनः पृथिव्यादिभूतानां कायाकारपरिणामतया ईश्वरप्रजापतिनियोगेन घेति तेषु तेषूच्चावचेषु कुलेषु यथास्वं कम्र्म्मोदयापादितेषु 'अभिषेकेपा' शुक्रशोणितनिषेकादिक्रमेणेति, तत्रायं क्रमः-- "सप्ताहं कललं विन्द्यात्ततः सप्ताहमवु दम् । अबु दाज्जायते पेशी, पेशीतोऽपि धनं भवेत् ॥ १ ॥" इति, तत्र यावत्कललं तावदभिसम्भूताः, पेशीं यावदभिसञ्जताः, ततः साङ्गोपाङ्गस्नायुशिरोरोमादिक्रमाभिनि
॥ ४७३ ॥
Page #32
--------------------------------------------------------------------------
________________
भोजाचा राजचिः (बीलाका.)
घेता.६ उद्देशक
॥
५४॥
नादभिनिताः, ततः प्रमुताः सन्तोऽभिसंवृद्धाः, धर्मश्रवणयोग्यावस्थायां वर्चमाना धर्मकथादिक निमित्तमासा घोपलब्धपुण्यपापतयाऽमिसम्बुद्धाः, ततः सदसद्विवेक जानाना:- अभिनिष्क्रान्ता, ततोऽधीताचारादिशास्त्रास्तदर्थभावनोपवृहितचरणपरिणामा अनुपूर्वेण शिक्षकगीतार्थक्षपकपरिहारविशुद्धिककाकिविहारिजिनकल्पिकावसाना मुनयोऽभूवमिति ॥ अभिसम्बुद्धं च प्रविजिषुमुपलभ्य यमिजाः कुयुस्तदर्शयितुमाह
तं परिकमंतं परिदेवमाणा मा चयाहि इय ते वयंति-छंदोवणीया अझोववन्ना अक्कदकारी जणगा व्यंति, अतारिसे मुणी (ण य)ओहं तरए जणंगा जेण विप्पजढा, सरणं तत्थ नो समेह, कहं नु नाम से तत्थ रमह, एयं नाणं सया समणवासिज्जासि
त्तिबेमि ॥ सू०१८०॥ इति प्रथम उद्देशकः ॥६-१॥ . 'तम्' अवगततस्वं गृहवासपराङ्मुखं महापुरुषसेवितं पन्थान पराक्रममाणमुपलभ्य मातापितृपुत्रकलत्रादयः परिदेवमाना माऽस्मान् परित्यज 'इति' एतन् ते. कृपामापादयन्तो वदन्ति, किं चापरं वदन्तीत्याह-छन्देनोपनीता: छन्दोपनीता:-तवाभिप्रायानुवर्तिनस्त्वयि चाभ्युपपनाः, तदेवम्भूतानस्मान्माऽवमंस्था इत्येवमाक्रन्दकारिणो 'जनका' मातापित्रादयो जना वा रुदन्ति । एवं च वदेयुरित्याह-न तादृशो मुनिर्भवति, न चौघं संसारं तरति, येन पाखण्डविप्रलब्धेन 'जनका' मातापित्रादयः 'अपोढा.' त्यक्ता इति । स चावगतसंसारस्वभावो यत्करोति तदाह-न बसावनरक्तमपि बन्धवर्ग 'तत्र' तस्मिन्नवसरे शरणं समेति, न तदभ्युपगमं करोतीत्यर्थः । किमित्यसौ शरणं नैतीत्याह-कथं नु
॥४७४॥
Page #33
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥४७५॥
नामासौ 'तत्र' तस्मिन् गृहवासे सर्वनिकारास्पदे नरकप्रतिनिधौ शुभद्वारपरिघे रमते ?, कथं गृहवासे द्वन्द्वैकहेतौ | विघटितमोहकपाटः सन् रति कुर्यादिति ? । उपसंहारमाह-'एतत्' पूर्वोक्तं ज्ञानं सदा आत्मनि 'सम्यगनुवासये: व्यवस्थापयेः, इतिरधिकारपरिसमाप्तौ, नवीमीति पूर्ववत् । धूताध्ययनस्य प्रथमोद्देशकः समाप्तः ॥ ६-१॥
॥ अथ षष्ठाध्ययने द्वितीयोद्देशकः ॥ उक्तः प्रथमोद्देशकः, साम्प्रतं द्वितीय आरम्पते, अस्य चायमभिसम्बन्धः, इहानन्तरोद्देशके निजकविधूनना प्रतिपादिता, सा चैवं फलवती स्याघदि कर्मविधुननं स्याद्, अतः कर्मविधननार्थमिदमुपक्रम्यत इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्योद्देशकस्यादि स्त्रम्
आउर लोगमायाए चइत्ता पुव्वसंजोगं हिचा उवसमै पसित्ता बंभचेरंसि वसु वा .
अणुवसु वा जाणितु धम्मं अहा तहा अहेगे तमचाइ कुसीला ॥ सू० १८१ ॥ 'लोक' मातापितापुत्रकलत्रादिक तमातुर स्नेहानुषणतया वियोगात् कायर्यावसादेन वा यदि वा जन्तुलोक कामरागा. तुरम आदाय' ज्ञानेन 'गृहीत्वा' परिच्छिय तथा त्यक्त्वाः च 'पूर्वसंयोगं मातापित्रादिसम्बन्धं, तथा 'हित्वा' गत्वोपशम उषित्वापि ब्रह्मचर्ये, किम्भूतः सन्निति दर्शयति-वसु द्रव्यं तद्भूतः कषायकालिकादिमलापगमाद्वीतराग इत्यर्थः
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
॥४७५॥
Page #34
--------------------------------------------------------------------------
________________
धुता.
उद्देशक: २
श्रीआचा
राजवृत्तिः (शीलाका.) ॥ ४७६ ॥
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
तद्विपर्ययेणानुवसु सगग इत्यर्थः, यदिवा वसुः-साधुः अनुवसुः-श्रावका, तदुक्तम्-'वीतरागो वसुज्ञेयो, जिनो वा संयतोऽथवा। सरागो धनुवसुःप्रोका, स्थविरः पावकोऽपि वा ॥१॥" तया ज्ञात्वा 'धम्म' श्रुतचारित्राख्यं यथातथावस्थितं धर्म प्रतिपद्याप्यथैके मोहोदयात्तथाविधभवितव्यतानियोगेन 'त' धर्म प्रति पालयितुन शक्नुवन्ति, किंभृताः १-कुत्सितं शीलं येषां ते कुशीला इति, यत एव धर्मपालनाशक्ता अत एव कुशीलाः ॥ एवम्भूताश्च सन्तः किं कुयु रित्याह
पत्थं पडिग्गहं कंबलं पायपुछणं विउसिज्जा, अणुपुव्वेण अणहियासेमाणा परीसहे दुरहियासए, कामे ममायमाणस्स इयाणि वा मुहत्तण वा अपरिमाणाए भेए, एवं
से अंतराएहिं कामेहिं आकेवलिएहिं अपना चेए । सू० १८२॥ केचिद्भवशतकोटिदुरापमवाप्य मानुषं जन्म समासाद्यालब्धपूर्वां संसारार्णवोत्तरणप्रत्यला बोधिद्रोणीमङ्गीकृत्य मोक्ष| तरुबीनं सर्वविरतिलक्षणं चरणं पुनदुर्मिवारतया मन्मथस्य पारिसवतया मनसो लोलुपतयेन्द्रियग्रामस्यानेकभवाभ्यासा- 8 पादितविषयमधुरतया प्रबलमोहनीयोदयादशुभवेदनीयोदयासन्नप्रादुर्भावादयशःकीयुत्कटतया अवगणय्याऽऽयतिमविचार्य कार्याकार्य उररीकृत्य महाव्यसनसागरं साम्प्रनेक्षिनयाऽधाकृतकुलक्रमाचारास्तत्त्यजेयुः, तत्यागश्च धर्मोपकरणपरित्यागाद्भवतीत्यतस्तदर्शयति-वस्त्रमित्यनेन क्षौमिकः कल्पो गृहीतः, तथा 'पतद्ग्रहः' पात्रं कम्बलं' औणिक कल्पं पात्रनिर्योग वा 'पावपुञ्छनक' रजोहरणं एतानि निरपेक्षतया व्युत्सृज्य कश्चिद्देशविरतिमभ्युपगच्छति, कश्चिद्दर्शनमेवाल
॥ ४७६ ॥
Page #35
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ ४७७ ॥
म्बते, कश्चित्ततोऽपि भ्रश्यति । कथं पुनदुर्लभं चारित्रमवाप्य पुनस्तत्त्यजेदित्याह - परीषहान् दुरधिसहनीयान् 'अनुकमेण' परिपाट्या यौगपद्येन वोदीर्णाननधिसहमानाः - परीपदैर्भग्ना मोहपरवशतया पुरस्कृत दुर्गतयो मोक्षमार्ग परित्यजन्ति । भोगार्थ त्यक्तवतामपि पापोदयाद्यत्स्यात्तदाह – 'कामान्' विरूपानपि 'ममायमाणस्स' त्ति स्वीकुर्वतो मोगाध्यवसायिनोऽन्तरायोदयात् 'इदानीं' तत्क्षणमेव प्रब्रज्या परित्यागानन्तरमेव भोगप्राप्तिसमनन्तरमेव वा अन्त
न वा कस्येवाहोरात्रेण वा ततोऽप्यूर्ध्वं शरीरभेदो भवत्यपरिमाणाय, एवम्भूत आत्मना सार्द्धं विवक्षितशरीरभेदो भवति येनानन्तेनापि कालेन पुनः पञ्चेन्द्रियत्वं न प्राप्नोति । एतदेवोपसंजिद्दीषु राह - ' एवं ' पूर्वोक्तप्रकारेण 'स' भोगाभिलाषी आन्तरायिकैः कामैः- बहुप्रत्यपायैः न केवलमकेवलं तत्र भवा आकेवलिका:- सद्वन्द्वाः सप्रतिपक्षा इतियावत् असम्पूर्णा वा, तैः सद्भिरवतीर्णाः संसारं तान् वा द्वितीयार्थे तृतीया, 'चः' समुच्चये, 'एस' इति भोगाभिलाषिणः, कामैरतृप्ता एव शरीरभेदमवाप्नुवन्तीति तात्पर्यार्थः ॥ अपरे स्वासन्नतया मोक्षस्य कथञ्चित्कुतश्चित् कदाचिदवाप्य चरणपरिणामं प्रतिक्षणं लघुकर्म्मतया प्रवर्द्धमानाध्यवसायिनो भवन्तीति दर्शयितुमाह
अहेगे धम्ममायाय आयाणप्पभिसु पणिहिए घरे, अप्पलीयमाणे दढे सव्वं गिद्धिं परिनाय, एस पणए महामुणी, अहअच सहव्वओ संगं न महं अस्थिति इय एगो अहं, अहिंस जयमाणे इत्थ विरए अणगारे सव्वओ मुडे रीयंते, जे अचेले परिवुसिए संचिव ओमोयरियाए से आकुडे वा हए वा लुचिए वा पलियं पकत्थ अदुवा
॥ ४७७ ॥
Page #36
--------------------------------------------------------------------------
________________
धुता०६ उद्देशका २
पकत्थ अतहेहिं सहफासेहिं इय संखाए एगयरे अन्नयरे अभिन्नाय तितिक्खमाणे श्रीआचा
परिव्वए जे य हिरो जे य अहिरीमाणा ॥सू. १८३॥ राजवृत्तिः
'अथ' अनन्तरमेके विशुद्धपरिणामतया मासनापवर्गतया 'धर्म' श्रुतत्रारित्राख्यं 'आदाय' गृहीत्वा वस्त्रपतद्ग्रहाशीलाका.)
दिधर्मोपकरणसमन्विता धर्मकरणेषु प्रणिहिताः परीषहसहिष्णवः सर्वज्ञोपदिष्टं धर्म चरेयुरिति । अत्र च पूर्वाणि .४७८0a प्रमादत्राण्यप्रमादाभिप्रायेण पठितव्यानीति, उक्तं च-"अत्र प्रमादेन तिरोऽप्रमादा, स्यावाऽपि यत्नेन पुनः
प्रमादः। विपर्ययेणापि पठन्ति तत्र, सूत्राण्यधीकारवशादिधिज्ञाः॥१॥" किम्भूताः पुनर्धर्म चरेयुरित्याह-कामेषु मातापित्रादिके वा लोके न प्रलीयमाना अप्रलीयमानाः-अनभिषक्ता धर्माचरणे 'दृढाः' तपासयमादौ द्रढिमानमालम्बमाना धर्म चरन्तीति, किं च-सा 'गृद्धि' भोगकाता दुःखरूपतया ज्ञपरिज्ञया परिज्ञाय प्रत्याख्यानपरिज्ञया परित्यजेत् । तत्परित्यागे गुणमाह-'एष' इति कामपिपासापरित्यागी प्रकर्षेण नतः-प्रह्वः संयमे कम्मधुननायां वा महामुनिर्भवति नापर इति । किं च-'अतिगत्य' अत्येत्यातिक्रम्य 'सर्वतः सर्वैः प्रकारैः 'सङ्ग' सम्बन्धं पुत्रकलत्रादिजनितं कामानुषगवा, किं भावयेदित्याह-न मम किमप्यस्तीति यत्संसारे पतत आलम्बनाय स्यादिति, तदभावाच्च 'इति' उक्तक्रमणकोऽहमस्मिन्-संसारोदरे, न चाहमन्यस्य कस्यचिदिति । एतद्भावनामावितश्च यत्कुर्यातदाह-'अन' अस्मिन् मौनीन्द्रे प्रवचने विरतः सन् सावद्यानुष्ठानाद्दशविधचक्रवालसामाचार्या यतमानः, कोऽसौ?'अनगार' प्रवजितः, एकत्वमावना भावयन्नवमोदर्ये संतिष्ठत इत्युत्तरसूत्रेण सम्बन्धः, इयमेव क्रिया अनन्तरसूत्रेष्वपि
aln४७८.
Page #37
--------------------------------------------------------------------------
________________
४७६॥
लगयितव्येति, किंच-'सर्वतः' द्रव्यतो भावतश्च मुण्डो 'रोयमाणः' संयमानुष्ठाने गच्छन्, किम्भूत इत्याह-यः | 18 'अचेल.' अल्पवेलो जिनकल्पिको वा 'पर्युषितः' संयमे उद्युक्तविहारी अन्तप्रान्तभोजी, तदपि न प्रकामतयेत्याह
'संचिक्खइ' संतिष्ठते अवमौदर्ये । न्यूनोदरतायां वर्तमानः सन् कदाचित्प्रत्यनीकतया ग्रामकण्टकैस्तुद्यतेत्येतद्दर्शयितुमाह-'स' मुनिर्वाग्भिराक्रुष्टो वा दण्डादिभिर्हतो वा लुश्चितो वा केशोत्पाटनतः पूर्वकृतकर्मपरिणत्युदयादेतदवगच्छन् सम्यक्तितिक्षमाणः परिव्रजेदिति, एतच्च भावयेत् , तद्यथा- 'पाषाणं च खलु भो कडाणं कम्माणं पुद्धिचिन्नाणं दुप्पडिक्कताणं वेदयित्सा मुक्खो, नस्थि अवेयइत्ता, तवसा वा शोसइत्ता" इत्यादि । कथं पुन- 2 ग्भिराक्रश्यत इत्याह-'पलिअंति कर्म जुगुप्सितमनुष्ठानं तेन पूर्वाचरितेन कुविन्दादिना प्रकथ्य जुगुप्स्यते, तद्यथाभो कोलिक ! प्रव्रजित ! त्वमपि मया सामेवं जल्पसीति, अथवा जकारचकारादिभिपरैः प्रकारे प्रकथ्य निन्दा विधत्ते, एभिर्वा वक्ष्यमाणैः प्रकाररित्याह–'अतथ्यः वितथैरसद्भूतैः शब्दैश्चौरस्त्वं पारदारिक इत्येवमादिकैः स्पर्शेश्च असद्भूतैः साधो कर्तुमयुक्तैः करचरणच्छेदनादिभिः स्वकृतादृष्टफलमित्येतत् ‘सङ्ख्याय' ज्ञात्वा तितिक्षमाणः प्रव्रजेदिति, यदिवा
पानां च खलु भोः कृतानां कर्मणां पूर्व दुश्चीर्णानां दुष्पराक्रान्तानां वेदयित्वा मोक्षः, नास्त्यवेदायित्वा, तपसा वा क्षपयित्वा ।
Page #38
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शीलाङ्का.)
॥ ४८० ॥
एतत् सङ्ख्याय, तद्यथा - ""पंचहिं ठाणेहिं उमत्थे उप्पन्ने उवसग्गे सहइ स्वमइ तितिक्खइ अहियासेइ, तंजहा- जक्खाइट्ठे अयं पुरिसे, उम्मायपत्ते ( वखित्तचित्ते ) अयं पुरिसे २, दित्तचित्तं अयं पुरिसे ३, मंचणं तन्भववेणीयाणि कम्माणि उदित्राणि भवंति-जन्नं एस. पुरिंसे आउसाह बंधइ तिप्पह पिes परितावेह ४, ममं च णं सम्मं सहमाणस्स जाव अहियासेमाणस्स एगंतसो कम्मणिज्जरा हवइ ५ | पंचहि ठाणेहिं केवली उदिने परोस हे उवसग्गे जाव अहियासेजा, जाव ममं च णं अहियासेमाणरस बहवे छउमत्था समणा निग्गंथा उदिन्ने परीसहोवसग्गे सम्मं सहिस्संति जाव अहियासिस्संति" इत्यादि, परीषहाश्चानुकूल प्रतिकूलतया भिन्ना इत्येतद्दर्शयितुमाह-एक तरान् - अनुकूलान् अन्यतरान् - प्रतिकूलान् परीषहानुदीर्णानभिज्ञाय सम्यक्तितिक्षमाणः परिव्रजेत् यदिवाऽन्यथा परीषदाणां द्वैविध्यमित्याह-ये च परिषहाः सत्कार पुरस्कारादयः साघोहरिणो-मन आह्लादकारिणो ये तु प्रतिकूलतया अहारिणो-मनसोऽनिष्टां, यदिवा
१ पञ्चभि: स्थानेश्वद्मस्थवत्पन्नानुपसर्गान सहते क्षमते तितिक्षते अभ्यासयति, तथथा-यक्षाविष्टोऽयं पुरुषः, उन्माद प्राप्तोऽय पुरुषः, प्तचित्तोऽयं पुरुषः मम च तद्भव वेदनीयानि कर्माण्युदीर्णानि भवन्ति यदेष पुरुष आक्रोशति बध्नाति तेपते विट्टयति परितापयति, मम च सम्यक् समानस्य यावदध्यासीनस्यैकान्ततः कर्मनिर्जरा भवति । पञ्चभिः स्थाने: केवली उदीर्णान् परीषहानुपसर्गान् यावदध्यासयेत् यावत् ममाध्यास्यतः बहवस्त्रद्मस्थाः श्रमणा निर्ग्रन्था उदीर्णान् परीषहोपसर्गान् सम्यक् सहिष्यन्ते यावद् अध्यासिष्यन्ते ।
धुता ६ उद्द शकः २
*****
॥ ४८०
Page #39
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥४८१॥
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
हीरूपा:-याचनाऽचेलादयः, अहीमनसश्च-अलज्जाकारिणः शीतोष्णादयः इत्येतान् द्विरूपानपि परीषहान् सम्यक तितिक्षमाणः परिव्रजेदिति ॥ किंच
चिच्चा सव्वं विसुत्तियं फासे समियदसणे, एए भो णगिणा वुत्ता जे लोगंसि अणागमणधम्मिणो आणाए मामगं धर्म एस ऊत्तरवाए इह माणवाणं वियाहिए, इत्थो वरए तं झोसमाणे आयाणिज्जं परिन्नाय परियाएण विगिंचइ, इह एगेसिं एगचरिया होइ तत्थियरा इयरेहिं कुलेहिं सुद्धसणाए सव्वेसणाए से मेहावी परिव्वए मुभि अदुवा दुभि अदुवा तत्थ भेरवा पाणा पाणे किलेसंति, ते फासे पुट्ठो धीरे अहिया
सिज्जासि तिमि ॥ सू० १८४ ॥ इति द्वितीय उद्देशकः ॥ ६-२॥ त्यक्त्वा सा परीषहकृतां विस्रोतसिका परीषहापादितान् स्पर्शान्-दुःखानुभवान् 'स्पृशेत्' अनुभवेत् सम्यगधिसहेत, स किम्भूतः -सम्यग् इतं-गतं दर्शनं यस्य स समितदर्शन:, सम्यग्दृष्टिरित्यर्थः । तत्सहिष्णवश्च किम्भृताः स्युरित्याह-'भो' इत्यामन्त्रणे 'एते' परीषहसहिष्णवो निष्किञ्चना निर्ग्रन्था भावनग्ना 'उक्ताः' अभिहिताः, यस्मिन्मनुष्यलोके अनागमनं धम्मो येषां तेऽनागमनधर्माणः, यथाऽऽरोपितप्रतिज्ञाभारवाहित्वान्न पुनह प्रत्यागमनेप्सव इति. किंच-आज्ञाप्यतेऽनयेत्याज्ञा तया मामकं धर्म सम्यगनुपालयेत् तीर्थकर एवमाहेति, यदिवा धनिष्ठाय्येवमाह-धर्म एवैको मामकः अन्यत्तु सर्व पारक्यमित्यतस्तमहमाज्ञया-तीर्थकरोपदेशेन सम्यक्रोमीति, किमित्याज्ञया
४८५॥
Page #40
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीआचारावृत्तिः (शीलाङ्का.)
धुता०६ उद्देशक: २
॥४८२॥
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
धर्मोऽनुपाल्यत इत्यत आह-'एष:' अनन्तरोक्तः 'उत्तरवाद' उत्कृष्टवाद इह मानवानां व्याख्यात इति । किं च-- 'अन' अस्मिन् कर्मधुननोपाये संयमे उप-सामीप्येन रत उपरतः तद्-अष्टप्रकारं कर्म 'झोषयन्' झपयन धर्म चरेदिति, किं चापरं कुर्यादित्याह-आदीयत इत्यादानीयं-कर्म तत्परिज्ञाय मृलोत्तरप्रकृतिभेदतो ज्ञात्वा 'पर्यायेण' श्रामण्येन विवेचयति, क्षपयतीत्यर्थः । अत्र चाशेषकर्मधुननासमर्थ तपस्तद्वाह्यमधिकृत्योच्यते-'इह' अस्मिन् प्रबचने 'एकेषां' शिथिलकर्मणामेकचर्या भवति-एकाकिविहारप्रतिमाऽभ्युपगमो भवति, तत्र च नानारूपाणिग्रहविशेषास्तपश्वरणविशेषाश्च भवन्तीत्यतस्तावत्याभृतिकामधिकृत्याह--'तत्र' तस्मिन्नेकाकिविहारे 'इतरे' सामान्यसाधुभ्यो विशिष्टतरा 'इतरेषु' अन्तप्रान्तेषु कुलेषु शुद्धेपणया दशेषणादोषरहितेनाहारादिना 'सर्वैषणये ति सर्वा याऽऽहारायद्गोत्पादनग्रासैपणारूपा तया सुपरिशुद्धेन विधिना संयमे परिव्रजन्ति, बहुत्वेऽप्येकदेशतामाह--स मेधावी मर्यादाव्यवस्थितः संयमे परिव्रजेदिति, किं च-स आहारस्तेधितरेषु कुलेषु सुरभिर्वा स्यात् अथवा दुर्गन्धः, न तत्र रागद्वेषो विदश्यात् , किं च-अथवा तत्रैकाकिविहारित्वे पितृवनप्रतिमाप्रतिपन्नस्य सतो 'भैरवा' भयानका यातुधानादिकृताः शब्दाः प्रादर्भवेयुः, यदिवा 'भैरवा' बीभत्साः 'प्राणा: प्राणिनो दीप्तजिह्वादयोऽपरान् प्राणिनः ‘क्लेशयन्ति' उपतापयन्ति, त्वं तु पुनस्तैः स्पृष्टस्तान् स्पर्शान दुःखविशेषान् 'धीरः' अक्षोभ्यः सन्नतिसहस्व । इतिरधिकार परिसमाप्तौ, ब्रवीमीति पूर्ववत् । धृताध्ययने द्वितीयोद्देशकः परिसमाप्तः ॥ ६-२॥
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
॥४८२॥
--:
:-
-
Page #41
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥४८३॥
. ॥ अथ षष्ठाध्ययने तृतीयोद्देशकः ॥ उक्तो द्वितीयोद्देशकः, साम्प्रतं तृतीय आरभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः, इहानन्तरोद्देशके कर्मधूननाऽभिहिता, #सा च नोपकरण शरीरविधूननामन्तरेण, इत्यतस्तद्विधननार्थमिदमारभ्यते, इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्योद्देशकस्य सूत्रमुच्चारयितव्यम् , तच्चेदम्
एयं खु मुणी आयाणं सया सुयक्खायधम्मे विहूयकप्पं निझोसइत्ता, जे अचेले परिवुसिए तस्स णं भिक्खुस्स नो एवं भवइ-परिजुण्णे मे वत्थे वत्थं जाइस्सामि सुत्तं जाइस्सामि, सूई जाइस्सामि संधिस्सामि सोविस्सामि उक्कसिस्सामि वुक्कसिस्सामि परिहिस्सामि पाउणिस्सामि, अदुवा तत्थ परिक्कमतं भुजो अचेलं तणफासा फुसंति, सीयफासा फुसंति, तेउफासा फुसंति, दसमसगफोसा फुसंति, एगयरे अन्नयरे विरूवरूवे फासे अहियासेइ अचेल लाघवं आगममाणे, (एवं खलु से उघगरणलाघवियं तवं कम्मक्ययकारणं करेइ) तवे से अभिसमन्नागए. भवइ, जहेयं भगवया पवेडयं तमेव अभिसमिच्चा सञ्चओ सव्वत्ताए संमत्तमेव समभिजाणिज्जा, एवं तेसिं महावीराणं चिरराय पुवाई वासाणि रीयमाणाणं दवियाणं पास अहियासियं ॥सू०१८५ ।
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
॥४८३॥
Page #42
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीआचा राङ्गवृत्तिः (शीलाङ्का.)
॥ ४८४ ॥
'एतत्' यत्पूर्वोक्तं वक्ष्यमाणं वा 'खुः' वाक्यालङ्कारे, आदीयते इत्यादानं कर्म्म आदीयते वाऽनेन कम्र्मेस्यादानं - कम्मपादानं तच्च धम्र्मोपकरणातिरिक्तं वक्ष्यमाणं वस्त्रादि तन्मुनिः निर्दोषयितेति सम्बन्धः किम्भूतः १ -- 'सदा' सर्वकालं सुष्ट्वाख्यातो धम्र्मोऽस्येति स्वाख्यातधर्म्मा-संसार भीरुत्वाद्यथारोपितभारवाहीत्यर्थः तथा विधृतः - तुण्णः सम्यग्स्पृष्टः कल्पः- आचारो येन स तथा स एवम्भूतो मुनिरादानं झोषयित्वा आदानमपनेध्यति, कथं पुनस्तदादानं वस्त्रादि स्याद्येन तत् योषयितव्यं भवेदित्याह - अल्पार्थे नञ्, यथाऽयं पुमानज्ञः स्वन्पज्ञान इत्यर्थः, यः साधुर्नास्य चेलं - वस्त्र मस्तीत्यचेलः, अन्पचेल इत्यर्थः, संयमे 'पर्युषितो' व्यवस्थित इति, तस्य भिक्षोः 'नैतद्भवति' मैतत्कल्पते यथा परिजीर्ण मे वस्त्रमचेलकोऽहं भविष्यामि न मे त्वक्त्राणं भविष्यति, ततश्च शीताद्यर्दितस्य किं शरणं मे स्यादिति वस्त्रं विनेत्यतोऽहं कश्चन श्राविकादिकं प्रत्यग्रं वस्त्रं याचिष्ये, तस्य वा जीर्णस्य वस्त्रस्य सन्धानाय सूत्रं याचिष्ये, सूचि च याचिये, अवाप्ताभ्यां च सूचित्राभ्यां जीर्णवस्त्ररन्धं सन्धास्यामि - पाटितं सेविष्यामि, लघु वा सदपरशकललगन त उत्कर्षयिष्यामि, दीर्घ वा सत् खण्डापनयनतो व्युण्कर्षयिष्यामि, एवं च कृतं सत्परिधास्यमि तथा प्राचरिष्यामीत्याद्यायानोपहता असत्यपि जीर्णादिवस्त्रसद्भावे यद्भविष्यताऽध्यवसायिनो धर्मैकप्रवणस्य न भवत्यन्तःकरणवृत्तिरिति, यदिवा जिनकल्पिकाभिप्रायेणैवेतत्सूत्रं व्याख्येयं तद्यथा - 'जे अचेले' इत्यादि, नास्य चेलं वस्त्र मस्तीत्यचेलःअच्छिद्रपाणित्वात् पाणिपात्रः पाणिपात्रत्वात् पात्रादिसप्तविधतभियोगरहितोऽभिग्रहविशेषात् त्यक्तकन्पत्रयः केवलं रजोहरण मुखवस्त्रिकासमन्वितस्तस्याचेलस्य भिक्षोर्नैतद्भवति, यथा- परिजीर्ण मे वस्त्रं छिद्रं पाटितं चेत्येवमादि वस्त्रगत -
,
घुता • ६ उद्देशका ३
॥ ४८४ ॥
Page #43
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥४८५ ॥
मपध्यानं न भवति, धम्मिणोऽभावाद्धाभावः, सति च धम्मिणि धन्वेिषणं न्याय्यमिति सत्पथः, तथेदमपि तस्य न भवत्येव यथा-अपरं वस्त्रमहं याचिष्ये इत्यादि पूर्ववन्ने, योऽपि छिद्रपाणित्वात पात्रनियोगसमन्वितः कल्पत्रयान्यतरयुक्तोऽसावपि परिजीर्णादिसद्भावे तद्गतमपध्यानं न विधत्ते, यथाकृतस्याल्पपरिकर्मणो ग्रहणात्सूचिसूत्रान्वेषणं न करोति । तस्य चाचेलस्याल्पचेलस्य वा तृणादिस्पर्शस्य सद्भावे यद्विधेयं तदाह-तस्य ह्यचेलतया परिवसतो जीर्णवस्त्रादिकृतमपध्यानं न भवति, अथवैतत्स्यात्-तत्राचेलत्वे पराक्रममाणं पुनस्तं साधुमचेलं क्वचिद्ग्रामादौ त्वक्त्राणाभावात् तृणशय्याशायिनं तणाना स्पर्शाः परुषास्तृणैर्वा जनिताः स्पर्शा:-दुःखविशेषास्तुणस्पर्शास्ते कदाचित स्पशन्ति, तांश्च सम्यग अदीनमनस्कोऽतिसहत इति सम्बन्धः, तथा शीतस्पर्शाः स्पृशन्ति-उपतापयन्ति, तेजा-उष्णस्पर्शाः स्पृशन्ति, तथा दंशमशकस्पर्शाः स्पृशन्ति, एतेषां तु परीपहाणामेकतरेऽविरुद्धा देशमशकणस्पर्शादयः प्रादुर्भवेयुः, शीतोष्णादिपरीषहाणां वा परस्परविरुद्धानामन्यतरे प्रादुष्प्युः, प्रत्येक बहुवचननिर्देशश्च तीव्रमन्दमध्यमावस्थासंघचकः, इत्येतदेव दर्शयति-विरूपं-बीभत्सं मनोऽनाहादि विविधं वा मन्दादिभेदादूपं-स्वरूपं येषां ते विरूपरूपाः, के ते?-'
स्पर्शाः' दुःखविशेषाः, तदापादकास्तुणादिस्पर्शा वा, तान् सम्यक्करणेनापध्यानरहितोऽभिसहते, कोऽसौ?-'अचेल:' अपगतचेलोऽम्पचेलो वा अचलनस्वरूपो वा सम्यक्तितिक्षते, किमभिसन्ध्य परीषहानधिसहत इत्यत आह-लघोर्भावो लाघवं, द्रव्यतो भावतश्च, द्रव्यतो झपकरणलाघवं भावतः कमलाघवं 'आगमयन्' अवगमयन् बुध्यमान इतियावद अधिसहते परीषहोपसर्गानिति, नागार्जुनीयास्तु पठन्ति-"एवं खलु से उवगरणलाघवियं तवं कम्मक्खयकारणं
XX
॥४८५।
Page #44
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीवाना रावृत्तिः शीलाका.)
धुता. उदेशका
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
करेह" 'एवम्' उक्नक्रमेण भावलाघवार्थमुपकरणलाघवं तपश्च करोति इति भावार्थः किं च-'से' तस्योपकरणलाघवेन कर्मलाघवमागमयतः कर्मलाघवेन चोपकरणलाघरमागमयतस्तृणादिस्पर्शानधिसहमानस्य 'तपः' कायक्लेशरूपतया बाह्यमभिसमन्वागतं भवति-सम्यग आभिमुख्येन मोढं भवति । एतच्च न मयोच्यते इत्येतदर्शयितुमाह--'यथा' येन प्रकारेण 'इद' मिति यदुक्तं वक्ष्यमाणं चैतद्भगवता-बोरबर्द्धमानस्वामिना प्रकणादौ वा वेदितं प्रवेदितमिति, यदि नाम भगवता प्रवेदितं ततः किमित्याह-तद्-उपकरणलाघवमाहारलाघवं वा 'अभिसमेत्य' ज्ञात्वा एवकारोऽवधारणे, तदेव लाघवं ज्ञात्वेत्यर्थः, कथमिति चेत् तदुच्यते-'सर्वत' इति द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतश्च, तत्र द्रव्यतः आहारोपकरणादौ क्षेत्रतः सर्वत्रः ग्रामादौ कालतोऽहनि रात्री वा दुर्भिक्षादौ वा सर्वात्मनेति भावतः कृत्रिम कल्काद्यभावेन, तथा 'सम्यक्त्व'मिति प्रशस्तं शोभनं एक सङ्गनं वा तत्त्वं सम्यक्त्वं, यदुक्तम्-"प्रशस्तः शोभनश्चैव एकः सङ्गत एव च । इत्येतैरुपसृष्टस्तु : भावः सम्यक्त्वमुच्यते ॥ १॥" तदेवम्भूतं सम्यक्त्वमेव समत्व पेव वा समभिजानीयात्' सम्यगाभिमुख्येन जानीयात-परिच्छिन्द्यात् , तथाहि-अचेलोऽप्येकचेल. दिकं नावमन्यते, यत उक्तम्"'जोऽवि दुवत्थतिवत्थो एगेण अचेलगो व संथरह । ण हु ते हीलंति परं सब्वेऽवि य ते जिणाणाए
५ योऽपि द्विवस्त्रस्त्रिवस्त्र एकेन अचेलको वा निवहति । नैव दोलयति परं सर्वेऽपि च ते जिनाज्ञायाम ॥ १ ॥ ये खलु विमदृशकल्पाः संहननधृत्यादिकारणं प्राप्य । नाबमन्यते न च होनमात्मान मन्यत तेभ्यः ।। २ ।। सर्वऽप जिनाज्ञायां यथाविधि B कर्मक्षपणार्थ । बिहरन्त्युद्यताः खलु सम्यगभिजानात्येवम् ॥ ३॥
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
४८६ ॥
Page #45
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ ४८७ ॥
॥ १ ॥" तथा
"जे ग्वल विसरिसकप्पा संघयणधियादिकारणं पप्प। णवमन्त्रण यही अप्पाण मन्नई तेहिं ॥ २ ॥ सव्वेऽवि जिणाणाएं जहाविष्टि कम्मग्ववण अाए । विहरति उज्जया खलु सम्मं अभिजाई एवं ॥ ३ ॥ " ति यदिवा तदेव लाघनमित्य सर्वतो द्रव्यादिना सर्वात्मना नामादिना सम्यक्त्वमेव सम्यभिजानीयात् तीर्थकर गणधरोपदेशात् सम्यक्कुर्यादिति तात्पर्यार्थः । एतच्च नाशक्यानुष्टानं ज्वरहरतक्षकचूडा लङ्काररत्नोपदेशवद्भवतः केवलमुपन्यस्यते, अपि त्वन्यैर्बहुभिश्चिरकालमा सेवितमित्येतद्दर्शयितुमाह- 'एवम्' इत्यचेलतया पितानां दादिस्पर्शानथिमहमानानां तेषां महावीराणां सकललोक चमत्कृतिकारिणां 'चिररात्र' प्रभूतकालं यावज्जीवमित्यर्थः, तदेव विशेषतो दर्शयति- 'पूर्वाणि प्रभूतानि वर्षाणि 'रीयमाणानां संयमानुष्ठानेन गच्छत, पूर्वस्य तु परिमाणं वर्षाणां सप्ततिः कोटिलक्षाः पटपञ्चाशच्च कोटिसहस्राः तथा प्रभूतानि वर्षाणि रीयमाणानां तत्र नाभेयादारम्य शीतलं दशमतीर्थकरं यावत्पूर्वसङख्यामद्भावात् पूर्वाणीत्युक्तं ततः आरतः श्रेयांसादारभ्य वर्षसंख्याप्रवृत्तेवर्षाणीत्युक्तमिति, तथा 'द्रव्याणां' अध्यानां मुक्तिगमनयोग्यानां 'पश्य' अवधारय यत्तृणस्पर्शादिकं पूर्वमभिहितं तदधिसोढव्यमिति सम्यकरणेन स्पर्शात्तसहनं कृतमेतदवगच्छेति ॥ एतच्चाधिसहमानानां यत्स्यात्तदाह
"
आगयपन्नाणाणं किसा बाहवो भवनि पयणुए य मंससोणिए विस्सेणि कट्टु परिन्नाय, एस तिष्णे मुत्ते विरए वियाहिए तिबेमि ।। सू० १८६ ।।
आगतं प्रज्ञानं पदार्थाविर्भावकं येषां ते तथा तेषामागतप्रज्ञानानां तपसा परीपहातिसहनेन च कृशा 'बाहवः' भुजा
܀܀܀܀܀
܀܀܀܀
॥। ४९७ ॥
Page #46
--------------------------------------------------------------------------
________________
धुता. ३ | उद्देशका
भवन्ति, यदिवा सत्यपि महोपसर्गपरीषहादावागतप्रज्ञानत्वाद् 'बाधा: पीडाः कृशा भवन्ति, कर्मक्षपणायोत्थितम्य श्रीआचा
शरीरमात्रपीडाकारिणः परीपहोपसर्गान सहायानिति मन्यमानस्य न मन:पीडोत्पद्यत इति, तदुक्तम्-णिम्माणेइ राजवृत्तिः
परो चिय अप्पाण उण वेयणं सरीराणं। अप्पाणो चिज हिअयस्स ण उण दुक्खं परो देइ ॥१॥" (शीलाका.
इत्यादि, शरीरस्य तु पीडा भवत्येवेति दर्शयितुमाह-प्रतनुके च मांसं च शोणितं च मांसशोणिते द्वे अपि, तस्य हि ॥४८८0a रूक्षाहारत्वादल्पाहारत्वाच्च प्रायशः खलत्वेनैवाहारः परिणमति, न रसत्वेन, कारणाभावाच्च प्रतन्वेव शोणितं तत्तनु
त्वान्मांसमपीति ततो मेदादीन्यपि, यदिवा प्रायशो रूक्षं वातलं भवति, वातप्रधानस्य च प्रतनुतैव मांसशोणितयोः, अचेलतया च तृणस्पर्शादिप्रादुर्भावेन शरीरोपतापात् प्रतनुके मांसशोणिते भवत इति, 'संसारश्रेणो' संसागवतरणी रागद्वेषकषायसंततिस्ता क्षान्त्यादिना विश्रेणी कृत्वा, तथा 'परिज्ञाय' ज्ञात्वा च समत्वभावनया, तयया-जिनकम्पिकः
कश्चिदेककल्पधारी द्वौ त्रीन वा बिभर्ति, स्थविरकल्पिको वा मासार्द्धमासक्षपकः तथा विकृष्टाविकृष्टतपश्चारी प्रत्यहं भोजी 8 कूरगडुको वा, एते सर्वेऽपि तीर्थकद्वचनानुसारतः परस्परानिन्दया समत्वदर्शिन इति, उक्तं च-"जीवि दुषत्थ
तिवत्यो एगेण अचेलगो व संथरह। नहुते हीलेंति पर सव्वेवि हुते जिणाणाए ॥१॥" तथा जिनकल्पिक: प्रतिमाप्रतिपन्नो वा कश्चित्कदाचित् पडपि मासानात्मकल्पेन भिक्षा न लभते तथाऽप्यसौ कूरगडकमपि यथौदनमुण्डस्त्वमित्येवं न हीलयति । तदेवं समत्वदृष्टिप्रज्ञया विश्रेणीकृत्य 'एष' उक्तलक्षणो मुनिः तीर्णः संसारसागर
१ विदधाति परो नेवात्मनो वेदनां शरीराणाम् । आत्मन एव हृदयस्य न पुनदुःखं परो ददाति ।। १ ।।
॥४८८॥
Page #47
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ ४८६
एष एव मुक्तः सर्वसङ्गेभ्यो विरतः सर्वसावद्यानुष्ठानेभ्यो व्याख्यातो नापर इति । ब्रवीमीतिशब्दौ पूर्ववत् ॥ तदेवं संसारश्रेणी विश्लेषयित्वा यः संसारसागरतीर्णवत्तीनों मुक्तवन्मुक्तो विरतो व्याख्याता, तं च तथाभृतं किमरतिरमिभवेदत नेति, अचिन्त्यसामर्थ्यात् कर्मणोऽभवेदित्येतदेवाह
विरयं भिक्खुरीयंतं चिरराओसियं अरई तत्य किं विधारए ?, संधेमाणे समुहिए, जहा से दीवे असंदीणे, एवं से धम्मे आरियपदेसिए, ते अणवकखमाणा एणे अणइवाएमाणा दइया महाविणो पंडिया, एवं तेसिं भगवी अणट्ठाणे जहा से दियापोए एवं ते सिस्सा दिया य राओ य अणपुव्येण वाय त्तिबेमि ।। सू० १८७ ॥
॥ इति ततीय उद्देशकः ॥६-३॥ विस्तमसंयमाद् भिक्षणशीलं भिक्षु' 'रोयमाण' निस्सरन्तमप्रशस्तेभ्योऽसंयमस्थानेभ्यः प्रशस्तेष्वपि गुणोत्कर्षादुपयु परि वर्तमानं चिररात्रं-प्रभूतं कालं संयमे उषितश्विररात्रोषितस्तमेवंगुणयुक्तम् 'अरनिः' संयमोद्विग्नता तत्र' तस्मिन संयमे प्रवर्तमानं किं विधारयेत् किं प्रतिस्खलयेत् १, किंशब्दः प्रश्ने, किं तथाभूतमपि मोक्षप्रस्थितं प्रणाय्य विषयमरतिर्विधारयेत् , ओमित्युच्यते, तथाहि-दुर्बलान्यविनयवन्ति चेन्द्रियाण्यचिन्त्या मोहशक्तिर्विचित्रा कर्मपरिणतिः किं न कुर्यादिति उक्तं च-"'कम्माणि णणं घणचिकणाइं गरुयाई वहरसाराह । णाणट्ठिअंपि पुरिसं
कर्माणि नूनं घनकठोराणि गुरुकानि वासाराणि । ज्ञानस्थितमपि पुरुष पथ उत्पथं नयन्ति ॥ १॥
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ܪ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
॥४८
॥
Page #48
--------------------------------------------------------------------------
________________
܀܀܀܀
पंथाओ उप्पहं णिति ॥१॥" यदिवा कि क्षेपे, किं तथाभूतं विधारयेदरतिः ।, नैव विधारयेदित्यर्थः, तथाहि-असौ । श्रीआचाक्षणे क्षणे विशुद्धतरचरणपरिणामतया विष्कम्भितमोहनीयोदयत्वान्नघुकम्मौ भवतीति, कुतस्तमरतिवि(न विधाग्ये
धुता. ३ राजवृत्तिः
उद्देशकः३ शीलाका.
दित्याह-क्षणे क्षणेऽव्यच्छेदेनोत्तरोत्तरं संयमस्थानकण्डकं संदधानः सम्यगुत्थितः समुत्थितः उत्तरोत्तर गुणस्थानकं वा ।।
संदधानो यथाख्यातचारित्राभिमुखः समुस्थितोऽसावतस्तमरतिः कथं विधारयदिति ? । स चैवम्भूतो न केवलमात्मनस्त्राता ॥ ४६॥al परेषामप्यरतिविधारकन्यात त्राणायेत्येतद्दर्शयितुमाह-द्विर्गता आपोऽस्मिन्निति द्वीपः, स च द्रव्यभावभेदात् द्वेधा-तत्र
द्रव्यद्वीप आश्वासद्वीपः, आश्वास्यतेऽस्मिन्नित्याश्वासः आश्वासश्चासौ द्वीपश्चश्विासद्वीपो, यदिवा आश्वसनमाश्वासः, आश्वासाय द्वीप आश्वासद्वीपः, तत्र नदीममुद्र बहुमध्यप्रदेशे भिन्न हित्थादयस्तमवाप्याश्वसन्ति, असावपि द्वेधा-सन्दीनोऽसन्दीनश्चेति, यो हि पक्षमासादावुदकेन प्लाव्यते स सन्दीनो, विपरीतस्त्वसन्दीनः सिंहलद्वीपादिः, यथा हि मायात्रिकास्तं द्वीपमसन्दीन मुदन्वदादेत्तितीर्षवः समवाप्याश्वसन्ति एवं तं मावसंधानायोत्थितं साधुमवाप्यापरे प्राणिनः समाश्वस्युः, यदिवा दीप इति प्रकाशदीपः, प्रकाशाय दीपः प्रकाशदीपः, स चादित्यचन्द्रमण्यादिरसन्दीनोऽपरस्तु विद्यु-है। दुल्कादिः सन्दींनो, यदिवा प्रचुरेन्धनतया विवक्षितकालावस्थाय्यसन्दीनो विपरीतस्तु सन्दीन इति, यथा ह्यसौ स्थपुटाद्यावेदनतो हेयोपादेयहानोपादानवता निमित्तभावमुपयाति तथा क्वचित्समुद्राद्यन्तर्वर्तिनामाश्वासकारी च भवति एवं ज्ञानसंधानायोत्थितः परीपहोपसर्गाशोभ्यतयाऽसन्दीनः साधुर्विशिष्टोपदेशदानतोऽपरेषामुपकारायेति, अपरे भावद्वीपं भावदीपं वा अन्यथा व्याचक्षते-तद्यथा-भावद्वीपः सम्यक्त्वं, तच्च प्रतिपातित्वादोपशमिक बायोपशमिकं
܀܀܀܀܀܀܀܀
Page #49
--------------------------------------------------------------------------
________________
# & !
܀܀܀܀܀
च दीनो भावद्वीपः क्षायिकं त्यसन्दीन इति तं द्विविधमवाप्य परीतसंसारत्वात् प्राणिन आश्वसन्ति भावदीपस्तु सन्दीनः श्रुतज्ञानम् असंदीनस्तु केवलमिति तचावाय प्राणिनोऽवश्यमाश्रमन्त्येवेति, अथवा धर्म संदधानः समुत्थितः सन्नस्तेदुष्प्रधृष्यो भवतीत्युक्ते कचिदयेत् किम्भूतम भम्मों ? यत्सन्धानाय समुत्थित इति, अत्रोच्यते वासी द्वीपोऽसन्दीनः-- असलिलप्लुतोऽव रुग्णवाहनानामितरेषां च बहूनां जन्तूनां शरण्यतयाऽऽश्वामहे तुर्भवत्येवमसावपि धर्मः 'आर्यप्रदेशितः' तीर्थकरप्रणीतः पतापच्छेदनिर्घटितोऽमन्दीनः यदिया कुतर्काप्रयतयाऽसन्दीनः - अक्षोभ्यः प्राणिनां त्राणायाश्वासभूमिर्भवति । तस्य चार्यप्रदेशितस्य धम्मस्य किं सम्यगनुष्ठायिनः केचन सन्ति ?, ओमित्युच्यते, यदि सन्ति किम्भूतास्त इत्याह- 'ते' साधवो भावसन्धानोद्यताः संयमारतेः प्रणोदका मोक्षनेदिष्ठा भोगाननवकाङ्क्षन्तो धर्मे सम्यगुत्थानवन्तः स्युरिति एतदुत्तरत्रापि योज्यम्, तथा प्राणिनोऽनतिपातयन्तः, उपलक्षणार्थत्वात् शेषमहाव्रतग्रहणमायोज्यं, तथा कुशलानुष्ठानप्रवृत्तत्वादयिताः सर्वलोकानां तथा 'मेधाविनो' मर्यादाव्यवस्थिताः 'पण्डिताः ' पायोपादान परिहारितया सम्यक्पदार्थज्ञा धर्म्माचरणाय समुत्थिता भवन्तीति । ये पुनस्तथाभूतज्ञानाभावात् सम्यग्विवेक विकलतया नाद्यापि पूर्वोक्तसमुत्थानवन्तः स्युः ते तथाभृता आचार्यादिभिः सम्यगनुपाल्या यावद्विवेकिनोऽभूवन्नित्येतदयितुमाह- 'एवम्' उता 'तेषाम्' अपरिकर्मितमतीनां 'भगवतो' वीरवर्द्धमानस्वामिनो धर्मे सम्यगनुत्याने सति तत्परिपालनतस्तथा सदुपदेशदानेन परिकर्मितमतित्वं विधेयमिति, अत्रैव दृष्टान्तमाह--द्विजः--पक्षी तस्य पोतः शिशुः द्विजपोतः स यथा तेन द्विजेन गर्भप्रसवात् प्रभृत्यण्डकोच्छ्रनो
॥। ४६१ ॥
Page #50
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीआचा राजवृत्तिः (शीलाङ्का.)
॥ ४६२ ॥
܀܀܀܀܀܀܀
च्नतरमेदादिकास्ववस्थासु यावन्निष्पन्नपक्षस्तावत्पाल्यते एवामाचार्येणापि शिष्यकः प्रवज्यादानादारभ्य सामाचायु पदेशदानेनाध्यापनेन च तावदनुपान्यते यावद्गीतार्थोऽभूत् यः पुनराचार्योपदेशमुल्लङ्घय स्वैरित्वाद्यथा कथञ्चित्क्रियासु प्रवर्त्तते स उज्जयिनीराजपुत्रवद्विनश्येदिति, तद्यथा उज्जयिन्यां जितशत्रो राज्ञो द्वौ पुत्रौ, तत्र ज्येष्ठो धर्म्मघोपाचार्यसमीपे संसारासारतामवगम्य प्रवत्राज; क्रमेण बाधीताचारादिशास्त्रोऽवगततदर्थश्च जिनकल्पं प्रतिपित्सुः द्वितीयां सच्चभावनां भावयति, सा च पञ्चधा -- तत्र प्रथमोपाश्रये द्वितीया तद्बहिः तृतीया चतुष्के चतुर्थी शून्यगृहे पञ्चमी श्मशाने, तत्र पञ्चम भावनां भावयतः स कनिष्ठो भ्राता तदनुरागादाचार्यान्तिकमागत्योवाच--मम ज्यायान् भ्राता वास्ते ?, साधुभिरभाणि--किं तेन ?, स आह- प्रव्रजाम्यहं आचार्येणोक्तो - गृहाण तावत् प्रव्रज्यां पुनर्द्रक्ष्यसि, स तु तथैव चक्रे, पुनरपि पृच्छत आचार्या ऊचुः--किं तेन दृष्टेन ?, नासौ कस्यविदुल्लापमपि ददाति, जिनकल्पं प्रतिपत्तुका प इति, असावाह-- तथाऽपि पश्यामि तावदिति, निर्बन्धे दर्शितः, तूष्णीभावस्थित एव वन्दितः, तदनुरागाच्च निषिद्धोऽप्याचार्येण निवार्यमाणोऽप्युपाध्यायेन त्रियमाणोऽपि साधुमिरसाम्प्रतमेतद्भवतो दुष्करं दुरध्यवसेयमित्येवं कथ्यमानेऽयहमपि तेनैव पित्रा जात इत्यवष्टम्भेन मोहानथैव तस्थौ यथा ज्येष्ठो भ्रातेति, इतरो देवतयाऽऽगस्य वन्दितः, शिक्षकस्तु न वन्दितः, ततोऽसाव परिकर्मितमतित्वात् कुपितः अविधिरितिकृत्वा देवताऽपि तस्योपरि कुपिता सती तलप्रहारेणाक्षिगोलको बहिर्निश्चिक्षेप, ततस्तज्ज्यायान् हृदयेनैव देवतामाह- किमित्ययमज्ञस्त्वया कदर्शितः, तदस्याक्षिणी पुनर्नवीकुरु, सात्ववादीत्-- जीवप्र देशैमुक्ताविमौ गोलको न शक्यो पुनर्नवीकर्त्त इत्युक्त्वा ऋषिवचनमलङ्घनीयमित्य
धुता• ६ उद्देशकः ३
।। ४६२ ।।
Page #51
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥४९३॥
वधार्य तत्क्षणश्वपाकव्यापादितैलासिगोलको गृहीत्वा तदक्ष्णोश्चकार । इत्येवमनुपदेशप्रवर्त्तनं सापायमित्यवधार्य शिष्येण सदाऽऽचार्योपदेशवर्तिना भाव्यम्, आचार्येणापि सदा स्वपरोपकारवृत्तिना सम्यक् स्वशिष्या यथोक्तविधिना प्रतिपालनीया इति स्थितम् । इत्येतदेवोपपंहरनाह--यथा द्विजपोतो मातापितृभ्यामनुपाल्यते एवमाचार्येणापि शिष्या अहर्निशम् 'अनुपूर्वेण' क्रमेण 'वाचिताः' पाठिताः शिक्षा ग्राहिताः समस्तकार्यसहिष्णवः संसारोत्तरणसमर्थाश्च भवन्ति । इतिरधिकारपरिसमाप्तौ, ब्रवीमीति पूर्ववत् । धृताध्ययने तृतीयोद्देशकः परिसमाप्त इति ॥ ६-३ ॥
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
॥ अथ षष्ठाध्ययने चतुर्थोद्देशकः ।। उक्तस्तृतीयोद्देशकः, साम्प्रतं चतुर्थ आरश्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः--इहानन्तरोद्देशके शरीरोपकरणधूनना| ऽभिहिता, सा च परिपूर्णा न गौरवत्रिकसमन्वितस्येत्यतस्तद्भूननार्थमिदमुपक्रम्यत इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्योद्देशकस्यास्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयं, तच्चेदम्
एवं ते सिस्सा दिया य राओ य अणपुव्वेण वाइया तेहिं महावीरेहिं पन्नाणमन्तेहिं तेसिमंतिए पन्नाणमुवलम्भ हिच्चा उचसम फारुसियं समाइयंति (हेचा उवसमं अहेगे पारुसियं समारुहंति) वसित्ता बंभचेरंसि आणं तं नोत्ति मन्नमाणा आघायं तु सुच्चा निसम्म, समणुन्ना जीविस्सामो एगे निक्खमंते असंभवंता विडज्झमाणा कामेहिं गिडा
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
॥४९३॥
Page #52
--------------------------------------------------------------------------
________________
अज्झोववन्ना समाहिमाघायमजोसयंता सत्यारमेव फरुसं वयंति ॥ सू० १८८॥ श्रीआचा
_ 'एवम्' इति द्विजपोतसंवर्द्धनक्रमेणैव ते शिष्याः' स्वहस्तप्रवाजिता उपसम्पदागताः प्रातीच्छकाश्च दिवा च रात्री रामान:
उद्देशकः४ शीला
च 'अनुपूर्वेण' क्रमेण 'वाचिना:' पाठिताः, तत्र कालिकमह्नः प्रथमचतुर्थपौरुष्योरध्याप्यत उत्कालिकंतु काल वेला
वर्ज सकलमप्यहोरात्रमिति, तच्चाध्यापनमाचारादिक्रमेण क्रियते, आचारश्च त्रिवपर्यायोऽध्याप्यत इत्यादिक्रमेणाध्यापिता: ४६४ 0 शिष्याश्चारित्रं च ग्राहिताः, तद्यथा-युगमात्रदृष्टिना गन्तव्यम् कूर्मवत्सङ्कुचिताङ्गेन भाव्यमित्याद्य शिनां प्राहिता
वाचिता:-अध्यापिताः, कैरिति दर्शयति-तैर्महावीरै:-तीर्थकर गणधराचार्यादिभिः, किम्भूतैः ?-प्रज्ञानवद्भिः, ज्ञानिभिरे. वोपदेशादि दत्तं लगतीत्यतो विशेषणं, ते तु शिध्याः द्विप्रकाग अपि प्रेक्षापूर्वकारिणस्तेपाम्-आचार्यादीनाम् ‘भनितके' समीपे प्रकर्षण ज्ञायते अनेनेति प्रज्ञान-श्रुतज्ञानं, तस्यैवापरस्मादाप्तिसद्भावादित्यतस्तद, 'उपलभ्य' लब्ध्वा बहुश्रुतीभूताः प्रबलमोहोदयापनीतसदुपदेशोत्कटमदत्वात् त्यक्त्वोपशम, स च द्वेधा-द्रव्यभावभेदान, स्त्र द्रव्योपशमः कनकफलाद्यापादितः कलुपजलादेः भावोपशमस्तु ज्ञानादिवयात् , तत्र यो येन ज्ञानेनोपशाम्यति स ज्ञानोपशमः, नायाआक्षेपण्याद्यन्यतरया धर्मकथया कश्चिद् उपशाम्पतीन्यादि, दर्शनोपशमन्तु यो हि शुद्धेन सम्यग्दर्शननापरमुपशमयति, यथा श्रेणिकेनाश्रद्दधानो देवः प्रतिबोधित इति, दर्शनप्रभारकैर्वा सम्मत्यादिभिः कश्रिदरशाम्यति, चारित्रोपशमस्तु क्रोधायुपशमो पिनयनम्रतेति, तत्र केचन जुद्रका ज्ञानोदयतोऽयःगुपर्यन मनमानास्न पेभृतमुपशमं त्यकमा वान
andi लवोत्तम्भितगर्वाधमाताः 'पारुष्यं परुपतां 'समाददलि' गृहन्ति, तद्यथा-परम्परगुण नियागां मीमांसायां वा एको
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
Page #53
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥४॥५॥
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
sपरमाह-त्वं न जानी न चैषा शब्दानामयमथों यो भवताऽभाणि, अपि च-कश्चिदेव मादृशः शब्दार्थनिर्णयायालं, न सर्व इति, उक्तं च-'पष्टा गुरवः स्वयमपि परीक्षितं निश्चितं पुनरिदम नः । वादिनि च मल्लमुख्य च मागेवान्तरं गच्छेत ॥१॥" द्वितीयस्त्वाह-नन्वस्पदाचार्या एवमाज्ञापयन्तीत्युक्ते पुनराह-सोऽपि वाचिकुण्ठो बुद्धिविकलः किं जानीते , त्वमपि च शुकवत्पाठितो निरूहापोह इत्यादीन्यन्यान्यपि, दुगृहीतकतिचिदक्षरो महोपशमकारणं ज्ञानं विपरीततामापादयन् म्बौद्धत्यमाविर्भावयन् भापते, उक्तं च--"अन्यैः स्वेच्छारचितानर्थविशेषान् अमेण विज्ञाय । कृत्स्नं वाग्मयमित इति खादत्यङ्गानि दर्पण ॥ १॥ क्रीडनकमीश्वराणां कुक्कुटलावकसमानवाल्लभ्यः। शास्त्राण्यपि हास्यकथां लघुतां वा क्षल्लको नयति ॥२॥" इत्यादि, पाठान्तरं वा "हेच्चा उवसमं अहेगे पारुसियं समारहंति" त्यक्त्वोपशमम् 'अथ' अनन्तरं बहुश्रुतीभूताः एके न सर्वे परुषतामालम्बन्ते, ततश्चालताः शब्दिता वा तूष्णीभावं मजन्ते हुङ्कारशिरः--कम्पनादिना वा प्रतिवचनं ददति । किं च एके पुनर्बह्मचर्य-संयमस्तत्रोषित्वा आचारो वा ब्रह्मचर्य तदर्थोऽपि ब्रह्मचर्यमेव तत्रोषित्वा आचारार्थानुष्ठायिनोऽपि तद्भत्सितास्तामाज्ञा-तीर्थकरोपदेशरूपां 'नो इति मन्यमानाः' नोशब्दो देशप्रतिषेधे देशतस्तीर्थकरोपदेशं न बहु मन्यमानाः सातागौरववाहुल्याच्छरीरवाकुशिकतामालम्बन्ते, यदिवा अपवादमालम्ब्य प्रवर्त्तमाना उत्सर्गचोदनाचोदिताः सन्तः नैषा तीर्थकराज्ञेत्येवं मन्यन्ते, दर्शयन्ति चापवादपदानि "'कुजा भिक्खू गिलाणस्स, अगिलाए समाहियं"
१ कुर्याद्भिक्षुग्लानस्य अग्लान्या समाहितं ।
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
४४५॥
Page #54
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीआचागावृत्तिः (शीलाझा.)
धुता. ३ उद्देशका
.४९६ ॥
इत्यादि, ततश्च यो येन ग्लायति तस्य तदपनयनार्थमाधाकांद्यपि कार्य, स्यादेतत्-किं तेषां नाख्याताः कुशीलानां प्रत्यपायाः यथाऽऽशातनाबहुलानां दीर्घः संसार इति ?, तदुच्यते-'तुः' अवधारणे, आख्यातमेवैतत्कुशीलविपाकादिकं श्रुत्वा 'निशम्य' अवबुध्य च शास्तारमेव परुष वदन्तीति सम्बन्धः। किमर्थं तर्हि शृण्वन्तीति चेत्तदाह-समनोज्ञा' लोकसम्मता जीविष्याम इतिकृत्वा प्रश्नव्याकरणार्थमेव शब्दशास्त्रादीनि शास्त्राण्यधीयते, यदिवा अनेनोपायेन लोकसम्मता जीविष्याम इतिकृत्वैके निष्क्रम्य, अथवा समनोज्ञा उद्यक्तविहारिणः सन्तो जीविष्यामः संयमजीवितेनेत्येवं निष्क्रम्य पुनर्मोहोदयाद् असम्भवन्तः-ते गौरवत्रिकान्यतरदोषात् ज्ञानादिके मोक्षमार्गे न सम्यग्मवन्तो-नोपदेशे वर्तमाना विविधं दह्यमानाः कामद्धा गौरवत्रिकेऽध्युपपना विषयेषु 'समाधि' इन्द्रियप्रणिधानमाख्यातं तीर्थकदादिभिः यमावेदितं तं 'अजोषयन्त:' असेवमाना दुर्विदग्धा आचार्यादिना शास्त्राभिप्रायेण चोद्यमाना अपि तच्छास्तारमेव परुष वदन्ति-नास्मिन्विषये भवान् किञ्चिज्जानाति, यथाऽहं सूत्रार्थ शब्दं गणितं निमित्तं वा जाने तथा कोऽन्यो जानीते, इत्येवमाचार्यादिकं शास्तारं हीलयन्तः परुष वदन्ति, यदिवा शास्ता-तीर्थकृदादिस्तमपि परुष वदन्ति, तथाहि-कचित्स्खलिते चोदिता जगदु:-किमन्यदधिकं तीर्थद्वक्ष्यत्यस्मद्गलकर्तनादपीति, इत्यादिभिरपाचीनैरालापरलीकविद्यामदावलेपाच्छास्त्रकृतामपि दुषणानि वदेयुः॥ न केवलं शास्तारं परुष वदन्त्यपरानपि साधूनपवदेयुरित्येतदाह
सीलमंता उवसंता संखाए रीयमाणा असीला अणवयमाणस्स बिइया मंदस्स बालया ॥ सू०१८९॥
Page #55
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ ४६७।
शीलम्-अष्टादशशीलाङ्गासहस्रमङ्ख्यं, यदिवा महाव्रतसमाधानं पञ्चेन्द्रियजयः कषायनिग्रहस्निगुप्तिगुप्तता चेत्येतच्छीलं विद्यते येषां ते शीलवन्तः, तथा उपशान्ताः कषायोपशमात् , अत्र शीलवग्रहणेनैव गतार्थत्वादुपशान्ता इत्येतद्विशेषणं कषायनिग्रहप्राधान्यख्यापनार्थ, सम्यक् ख्यायते-प्रकाश्यतेऽनयेति संख्या-प्रज्ञा तया 'रीयमाणा' संयमानुष्ठाने पराक्रममाणाः सन्तः कस्यचिद्विश्रान्तमागधेयतया अशीला एत इत्येवमनुवदतोऽनु-पश्चाद्वदतः पृष्ठतो वदतोऽन्येन वा मिथ्यादृष्टयादिना कुशीला इत्येवमुक्तेऽनुवदतः पार्श्वस्थादेः द्वितीयैषा 'मन्दस्य' अज्ञस्य 'चालता' मुर्खता, एक तावत्स्वतश्चारित्रापगमः पुनरपरानुधुक्तविहारिणोऽपवदत इत्येषा द्वितीया बालता, यदिवा शीलवन्त एते उपशान्ता वेत्येवमन्येनाभिहिते क्वैषां प्रचुरोपकरणानां शीलवत्तोपशान्तता वा इत्येवमनुवदतो हीनाचारस्य द्वितीया बालता भवतीति ॥ अपरे तु वीर्यान्तरायोदयात् स्वतोऽवसीदन्तोऽप्यपरसाधुप्रशंसान्विता यथावस्थितमाचारगोचरमावेदयेयुः, इत्येतद्दर्शयितुमाह
नियमाणा वेगे आयारगोयरमाइक्खंति, नाणभट्ठा सणलसिणो ॥ सू० १६० ॥ एके-कम्र्मोदयात् संयमानिवर्तमाना लिङ्गाद्वा, वाशब्दादनिवर्तमाना वा, यथावस्थितमाचारगोचरमाचक्षते, वयं तु कर्त्तमसहिष्णव आचारस्त्वेवम्भूत इत्येवं वदतां तेषां द्वितीया बालता न भवत्येव, न पुनर्वदन्ति-एवंभूत एवाचारो योऽस्माभिरनुष्ठीयते, साम्प्रतं दुष्षमानुभावेन बलाद्यपगमान्मध्यभूतैव वर्तनी श्रेयसी नोत्सर्गावसर इति, उक्तं हि"नात्यायत्तं न शिथिलं, यथा युञ्जीत सारथिः। तथा भद्रं वहन्त्यश्वा, योगः सर्वत्र पूजितः॥१॥
॥४७॥
Page #56
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीआचा राङ्गवृतिः
(शीलाङ्का.)
॥ ४६८ ॥
oxxx
अपि च - "" जो जस्थ होइ भग्गो, ओवासं सो परं अविंदतो । गंतु तत्थऽच (व) यंतो, इमं पहाणंति घोसेति ॥ १ ॥" इत्यादि । किम्भूताः पुतरेतदेवं समर्थयेयुरित्याह- सदसद्विवेको ज्ञानं तस्माद्भ्रष्टा, ज्ञानभ्रष्टाः तथा 'दंसणलूसिणो' त्ति सम्यग्दर्शन विध्वंसिनोऽसदनुष्टानेन स्वतो विनष्टा अपरानपि शङ्कोत्पादनेन सन्मार्गाच्च्यावयन्ति ॥ अपरे पुनक्रियोपेता अप्यात्मानं नाशयन्तीत्याह
नममाणा वेगे जीवियं विष्परिणामंति पुट्ठा वेगे नियहंति जीवियस्सेव कारणा निक्तंपि तेसि दुन्निक्वंतं भवइ, बालवयणिजा हु ते नरा, पुणो पुणो जाइ' पक: प्पिति अहे संभवंता विद्दायमाणा अहमंसीति विउक्कसे उदासीणे फरुसं वयंति,
पलियं पकथे अदुवा पकथे अतहेहिं, तं वा मेहावी जाणिजा धम्मं ।। सू० १९१ ॥ नमन्तोऽप्याचार्यादेर्द्रव्यतः श्रुतज्ञानार्थं ज्ञानादिभावविनयाभावात् कम्मोदयाद् एके न सर्वे संयमजीवितं 'विपरिणामयन्ति' अपनयन्ति, सच्चरितादात्मानं ध्वंसयन्तीत्यर्थः । किं चापरमित्याह - एके - अपरिकम्मितमतयो गौरवत्रिकप्रतिबद्धाः स्पृष्टाः परीषहैर्निवर्त्तन्ते संयमात् निङ्गाद्वेति किमर्थं १ - जीवितस्यैव - असंयमाख्यस्य कारणात् - निमित्तात् सुखेन वयं जीविष्याम इतिकृत्वा सावधानुष्ठानतया संयमान्निवर्त्तन्ते । तथाभूतानां च यत्स्यात्तदाह-तेषां गृहवासानिष्क्रान्तमपि ज्ञानदर्शनचारित्रमृलोत्तरगुणान्यतरोपघाताद्दृनिंष्क्रान्तं भवति । तद्धर्म्मणां च यत्स्यात्तदाह-हुतौ यस्माद१ यो यत्र भवति भग्नोऽवकाशं सोऽपरम विन्दन् । गन्तुं तत्रासमर्थं इदं प्रधानमिति घोषयति ॥ १ ॥
धुता • : उद्देशकः ४
॥ ४६८ ।।
Page #57
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यगनुष्ठानात् दुनिष्क्रान्तास्तस्माद्बालानां-प्राकृतपुरुषाणामपि वचनीया गया बालवचनीयास्ते नरा इति । किं चपौनःपुन्येनारहट्टघटीयन्त्रन्यायेन जातिः-उत्पत्तिस्तां कल्पयन्ति, किम्भृतास्ते इत्याह-अधःसंयमस्थानेषु सम्भवन्तोवर्तमाना अविद्यया वाऽधो वर्तमानाः सन्तो विद्वांसो वयमित्येवं मन्यमाना लघुतयाऽऽत्मानं व्युत्कर्षयेयुरिति-आत्मनः श्लाघां कुर्वने, यत्किश्चिज्जानानोऽपि मानोन्नतत्वाद्रससातागौरवबहुलोऽहमेवात्र बहुश्रुतो यदाचार्यों जानाति तन्मयाऽल्पेनैव का लेनाधीतमित्येवमात्मानं पुत्कर्षयेदिति । नात्मश्लाघतयैवासते, परानप्य पवदेयुरित्याह-'उदासीनाः' रागद्वेषरहिता मध्यस्था बहुश्रुतत्वे सत्युपशान्तास्तान स्खलितचोदनोद्यतान् परुष वदन्ति, तद्यथा-स्मयमेव तावत्कृत्यमकृत्यं वा जानीहि ततोऽन्येषामुपदेक्ष्यसीति । यथा च परुषं वदन्ति तथा सूत्रेणैव दर्शयितुमाह-'पलिय'ति अनुष्ठानं तेन पूर्वाचरितेनानुष्ठानेन तृण हारादिना प्रकथयेद्-एवम्भूतस्त्वमिति, अन्यथा वा कुण्टमण्टादिभिगुणे मुखविकारादिभिर्वा प्रकथयेदिति । किम्भृतैः ?-'अतथ्यः' अविद्यमानैरिति । उपसंहरनाह-'त' वाच्यमवाच्यं वा 'तं' वा धर्म श्रुतचारित्राख्यं 'मेधावी' मर्यादाव्यवस्थितो 'जानीयात्' सम्यक परिच्छिन्द्यादिति ॥ सोऽसभ्यवादप्रवृत्तो बालो गुदिना यथाऽनुशास्यते तथा दर्शयितुमाह
अहम्मट्ठी तुमंसि नाम बाले आरंभट्ठी अणुवयमाणे हण पाणे घायमाणे हणओ यावि समणजाणमाणे, घोरे धम्मे, उदीरिए उवेहद अणाणाए, एस विसन्ने वियद्दे वियाहिए त्तिबेमि ॥ सू० १९२॥
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
Page #58
--------------------------------------------------------------------------
________________
धुता.६ उद्देशक:४
अर्थोऽस्यास्तीत्यर्थी, अधर्मेणार्थी अधर्थीि , यतो नाम त्वमेवम्भूतोऽतोऽनुशास्यसे, कुतोऽधर्मार्थी ? यतो 'बाल.' श्रीआचा
अज्ञा, कुतो बालो ?, यत 'आरम्भार्थी' सावद्यारम्भप्रवृत्तः, कुतः आरम्भार्थी ?, यतः प्राण्युपमर्दवादाननुवदन्नतद् वषे, राजवृत्तिः तद्यथा-जहि प्राणिनोऽपररेवं घातयन् नतश्चापि समनुजानासि गौरवत्रिकानुबद्धः पचनपाचनादिक्रियाप्रवृत्तस्तित्पिण्ड
चनपाचनादिकिया (शीलाकार
तर्की तत्समक्षं ताननुवदसि-कोऽत्र दोषो १, न ह्यशरीरैर्द्धर्मः कत्तुं पायंते, अतो धर्माधारं शरीरं यत्नतः पालनीय॥५० ॥ मिति, उक्तं च "शरीरं धर्मसंयुक्तं, रक्षणीय प्रयत्नतः। शरीराजायते धर्मों, यथा बीजात्सदकुरः
॥१॥" इति, किं चैवं ब्रवीषि त्वं, तद्यथा-'घोर' भयानको धर्मः सर्वास्रवनिरोधात् दुग्नुचर: उत् -प्राबल्येनेरित:कथितः प्रतिपादितस्तीर्थकरगणधरादिभिरित्येवमध्यवसायी भवस्तिमनुष्ठानत 'उपेक्षते' उपेक्षां विधत्ते, 'णम्' इति वाक्यालङ्कारे, 'अनाज्ञया' तीर्थकरगणधरानुपदेशेन स्वेच्छया प्रवृत्तः इति, क एवम्भूत इति दर्शयति-'एष' इत्यनम्तरोक्तोऽधर्मार्थी पाल आरम्भार्थी प्राणिनां हन्ता घातयिता घ्नतोऽनुमन्ता धर्मोपेक्षक इति, विषण्णः कामभोगेषु, विविध तर्दतीति वितर्दो-हिंसकः 'तर्दै हिंसाया'मित्यस्मात् कर्तरि पचायच, संयमे वा प्रतिकूलो वितर्दः इत्येवंरूपस्त्वमेष व्याख्यात इत्यतोऽहं ब्रवीमि-वं मेधावी धम्म जानीया इति ॥ एतच्च वक्ष्यमाणमहं ब्रवीमीत्यत आह
किमणेण भो! जण करिस्सामित्ति मन्नमाणे एवं एगेवइत्ता मायरं पीयरं हिचा नायओ य परिग्गहं वीरायमाणा समुहाए अविहिंसा सुव्वया दंता (समणा भविस्सामो अणगारा अकिश्चणा अपुत्ता अपसुया अविहिंसगा सुवया दंता परदत्तभोहणो पावं
Page #59
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ ५०१ ॥
कम्मं न करेस्सामो समुट्ठाएं ) पस्स दोणे उप्पहए पडिवयमाणे वसट्टा कायरा जगा लूगसा भवंति, अहमेगेसिं सिलोए पावए भवह, से समणो भवित्ता विभते २ पासहेगे समन्नागएहिं सह असमन्नागए नममाणेहिं अनममाणे विरहिं अविरए दविएहिं अदविए अभिसमिचा पंडिए मेहावो निडियट्ठे वीरे आगमेणं सया परकमिजासि तिमि ॥ सू० १९३ ॥ इति चतुर्थ उद्देशकः ॥ ६-४ ॥
केचन - विदितवेद्या वीरायमाणाः सम्यगुत्थानेनोत्थाय पुनः प्राण्युपमर्दका भवन्तीति, कथमुत्थाय ? - किमहमनेन 'भोः' इत्यामन्त्रणे 'जनेन' मातापितृपुत्रकलत्रादिना स्वार्थपरेण परमार्थतोऽनर्थरूपेण करिष्यामीति, न ममायं कस्यचिदपि कार्यस्य रोगापनयनादेरलमित्यतोऽनेन किमहं करिष्ये ?, यदिवा प्रविवजिषुः केनचिदभिहितः किमनया सिकताकवलसन्निभया प्रव्रज्यया करिष्यति भवान् ? अदृष्टवशायातं तावद्भोजनादिकं भुङ्क्ष्वेत्यभिहितो विरागतामापन्नो ब्रवीतिकिमहमनेन भोजनादिना करिष्ये १, भुक्तं मयाऽनेकशः संसारे पर्यटता तथापि तृप्तिर्नाभूत्, तत्किमिदानीमनेन जन्मना भविष्यतीत्येवं मन्यमाना एके विदितसंसारस्वभावा उ (वि) दित्वाऽप्येवं ततो 'मातरं' जननीं 'पितरं जनयितारं जननीपितरं ' हित्वा त्यक्त्वा ' ज्ञातयः' पूर्वापरसम्बन्धिनः स्वजनास्तान् परिगृह्यत इति परिग्रहः- धनधान्यहिरण्यद्विपदचतुष्पदादिः तं किम्भूताः ? - वीरमिवात्मानमाचरन्तो वीरायमाणाः सम्यक संयमानुष्ठानेनोत्थाय समुत्थाय विविधैरुपायैहिंसा विहिंसा न विद्यते विहिंसा येषां तेऽविहिंसा:, तथा शोभनं व्रतं येषां ते सुव्रताः, तथेन्द्रियदमाद्दान्ताः,
इत्येवं
॥ ५०१ ।
Page #60
--------------------------------------------------------------------------
________________
। समुत्थाय, नागार्जुनीयास्तु पठन्ति-"समणा भविस्सामो अणगारा अकिंचणा अपुत्ता अपसूया अविश्रीआचाहिंसगा सुव्वया दंता परत्तदभोइणो पावं कम्मं न करेस्सामो समुट्ठाए" सुगमत्वान्न वित्रियते, इत्येवं समु
धुता. रावृत्तिः
उद्देशका ४ (चीलाङ्का.)
त्थाय पूर्व पश्चात् 'पश्य' निभालय 'दीनान्' शृगालत्वविहारिणो वान्तं जिघृक्षुन् पूर्वमुत्पतितान् संयमारोहणात् ।
पश्चात्पापोदयात् प्रतिपतत इंति, किमिति दौना भवन्तीति दर्शयति-यतो 'वशाल वशा इन्द्रियविषयकषायाणां तत ५०२॥ आर्चा वशार्ताः, तथाभूतानां च कर्मानुषङ्गः, तदुक्तम्-"'सोइ दियवसणं भंते! कइ कम्मपगडीओ बधइ !
गोयमा । आउअवजाओ सत्त कम्मपगडीओ बंधड जाव अणुपरिअड । कोहवसट्टेणं भंते ! जोवे कइ एवं तं चेव" एवं मानादिष्वपीति, तथा 'कातराः परीषहोपसर्गोपनिपाते सति विषयलोलुपा वा कातराः, के ते?जनाः, किं कुर्वन्ति ?-ते प्रतिभग्नाः सन्तः 'लूषका भवन्ति' व्रतानां विधंसका भवन्ति, को ह्यष्टादशशीलाङ्गसहस्राणि धारयिष्यतीत्येवमभिसन्धाय द्रव्यलिङ्ग भावलिङ्ग वा परित्यज्य प्राणिनां विगधका भवन्ति । तेषां च पश्चात्कृतलिङ्गानां यत्स्याचदाह-'अथ' आनन्तये 'एकेषां' भग्नप्रतिज्ञानामुत्प्रवजितानां तत्समनन्तरमेवान्तमुहर्तेन वा पञ्चत्वापत्तिः स्याद् , एकेषां तु 'इलोको' श्लाघारूपः पापको भवेत् , स्वपक्षात्परपक्षाद्वा महत्ययशः-कीर्तिर्भवति, तद्यथा-स एष पितृवनकाष्ठसमानो भोगाभिलाषी व्रजति तिष्ठति वा, नास्य विश्वसनीयं, यतो नास्याकर्त्तव्यमस्तीति, उक्तं च१श्रोत्रेन्द्रियवशात्तों मदन्त ! कति कर्मप्रकृतीबंध्नाति', गौतम ! आयुर्वर्जाः सप्त कर्मप्रकृतीबंध्नाति यावत अनुपरिवर्तते ।
॥ ५०२॥ क्रोधवशात्तों भदन्त! जीवः कति एवमेव तत् ।
Page #61
--------------------------------------------------------------------------
________________
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
"परलोकविरुद्धानि, कुर्वाणं दूरतस्त्यजेत । आत्मानं यो न संधत्ते, सौऽन्यस्मै स्यात्कथं हितः ? ॥१॥" इत्यादि, यदिवा सूत्रेणैवालाध्यता दर्शयितुमाह-सोऽयं श्रमणो भूत्वा विविधं भ्रान्तो-भग्नः श्रमणविभ्रान्तो, वीप्सयाऽत्यन्तनुगुप्सामाह, किंच--पश्यत यूयं कर्मसामयम् 'एके विश्रान्तमागधेयाः समन्वागतरुद्यक्तविहारिभिः सह वसन्तोऽप्यसमन्यामता:-शीतलविहारिणः, नथा 'नममानै.' संयमानुष्ठानेन विनयवद्भिः 'अनममानान्' निघुणतया सावद्यानुष्ठायिनो, विस्तरविरता द्रव्यभूतैरद्रव्यभूताः पापकलङ्काङ्कितत्वादेवम्भूतैरपि साधुभिः सह वसन्तोऽपि, एवम्भूतान 'अभिसमत्व' ज्ञात्वा किं कर्त्तव्यमिति दर्शयति पण्डितः त्वं ज्ञातज्ञेयो 'मेधावो' मर्यादाव्यवस्थितो 'निष्ठितार्थ:' विषयसुखनिपिपासो 'वीरः' कर्मविदारणसहिष्णु त्वा आगमेन' सर्वज्ञप्रणीतोपदेशानुसारेण 'सदा' सर्वकालं परिकामयेरिति । इतिरधिकारपरिसमाप्तौ, ब्रवीमिति पूर्ववद् ॥ धृताध्ययनस्य चतुर्थोद्देशकः । परिसमाप्तः ॥ ६-४॥
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
॥ अथ षष्ठाध्ययने पञ्चमोद्देशकः ॥ उक्तश्चतुर्थोद्देशकः, साम्प्रतं पञ्चम आरभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः, इहानन्तरोद्देशके कर्मविधूननाथ गौरवत्रयविधूननाऽभिहिता, सा च कर्मविधूननोपसर्गविधूननामन्तरेण न सम्पूर्णभावमनुभवति, नापि सत्कारपुरस्कारात्मकसन्मानविधूननामन्तरेण गौरवत्रयविधुनना सम्पूर्णतामियादित्यत उपसर्गसन्मानविधननार्थमिदमुपक्रम्यते, इत्यनेन
॥ ५०३॥
Page #62
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीआचारावृत्तिः (शीलाका.
धुता०६ उद्देशका ५
.५०४॥
सम्बन्धेनायातम्यास्योहेशकस्यास्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयं, तच्चेदम्
से गिहेसु वा गिहतरेसु वा गामेसु वा गर्मतरेसुवा नगरेसु वा नगरंतरेसु वा जणवयेसुवा जणवयंतरेसु वा गामनयरंतरे वा गामजणवयंतरे वा नगरजणवयंतरे वा संतेगइया जणा लसगा भवंति अदुवा फासा फुसंति ते फासे पुढे वोरो अहियासए,
ओए समियदसणे, दयं लोगस्स जाणित्ता पाईण पडीणं दाहिणं उदोणं आइक्खे, विभए किडे वेयवी जे स्वल समणे बहस्सुए बझागमे आहरणहेउकुसले धम्मकहालडिसम्पन्ने स्खेतं कालं पुरिसं समासज्ज केऽयं पुरिसे कं वा दरिसणमभिसम्पन्नो ? एवंगुण जाइए पभू धम्मस्स आघवित्तए) से उहिएम वा अणुडिएसु वा सुस्सुसमाणेसु पवेयए सतिं विरह उवसमं निव्वाणं सोयं अजविय मद्दवियं लावियं अणइवत्तियं सम्वेसिं पाणाणं सव्वेसिं भूयाणं सब्वेसि सत्ताणं सव्वेसिं जीवाणं अणवीइ भिक्खू
धम्ममाइक्खिजा ॥ सू० १९४॥ . 'स' पण्डितो मेधावी निष्ठितार्थो वीरः सदा सर्वज्ञप्रणीतोपदेशानुविधायी गौरवत्रिकाप्रतिबद्धो निर्ममो निष्किश्चनो निराश एकाकिविहारितया प्रामानुग्रामं रीयमाणः क्षुद्रतिर्यग्नरामरकतोपसर्गपरीषहापादितान् दुःखस्पर्शान निर्जरार्थी सम्यगघिसहेत, व पुनर्व्यवस्थितस्य ते परीषहोपसग्गा अभिपतेयुरिति दर्शयति-आहाराद्यर्थं प्रविष्टस्य गृहेषु वा, उच्च
॥५०४.
Page #63
--------------------------------------------------------------------------
________________
नीचमध्यमावस्थासंसूचकं बहुवचनं, तथा गृहान्तरेषु वा, असन्ति बुद्धयादीन गुणानिति ग्रामाः तेषु वा तदन्तरालेषु वा, नैतेषु करोऽस्तीति नकराणि तेषु वा तदन्तरालेषु वा, जनानां लोकानां पदानि--अवस्थानानि येषु ते जनपदाःअवन्त्यादयः साधुविहरणयोग्या: 'अ षड्विशतिर्दशास्तेषु तदन्तरालेषु वा, तथा ग्रामनगरान्तरे वा ग्रामजनपदान्तरे वा नगरजनपदान्तरे वा उद्याने वा तदन्तरे वा विहारभूमिगतस्य वा गच्छतो वा, तदेवं तस्य मिझोामादीनधिशयानस्य कायोत्सर्गादि वा कुर्वत एके कालुष्योपहतात्मानो ये जना लुषयन्तीति लूषका भवन्ति, 'लुष हिंसाया'मित्यस्मात न्युड, ते 'सन्ति' विद्यन्ते, तत्र नारकास्तावदुपसर्गकरणं प्रत्यवस्तु, तिर्यगमरयोरपि कादाचित्कत्वान्मानुष्याणामेवानुकूलप्रतिकूलसद्भावाज्जनग्रहणं, यदिवा जायन्त इति जनाः, ते च तिर्यग्नरामरा एव जनशब्दाभिहिता, ते च जना अनुकूलप्रतिकूलान्यतरोभयोपसर्गापादनेनोपसर्गयेयुरिति, तत्र दिव्याश्चतुर्विधाः, तद्यथा-हास्यात् १ प्रद्वेषाद् २ विमर्थात् ३ पृथग्विमात्रातो ४ वा, तत्र केलीकिलः कश्चिद्वयन्तरो विविधानुपसर्गान् हास्यादेव कुर्यात् , यथा भिक्षार्थ प्रविष्टः तुलकैमिक्षालाभार्थ पललविकटतर्पणादिनोपयाचितकं व्यन्तरस्य प्रपेदे, भिक्षावाप्तौ च तद्याचमानस्य कुतश्चिदुपलभ्य विकटादिकं तैडु ढोके, तेनापि केल्यैव ते नुल्लकाः क्षीचा इव व्यधायिषत १, प्रद्वेषेण यथा भगवतो माघमास
१ 'पुरच्छिमेणं कप्पइ निगंथाण वा निगंथीण वा जाप मगहाओ एचए, दक्खिणेणं कापड निरगंथाण वा निग्गथीण षा जाव कोसंबीओ एत्तए, पच्छिमेणं जाव थूणाविसमो, उत्तरेणं जाव कुणालाविसभो, ताव मारिए खित्ते, नो कप्पह इत्तो बाहिति, मस्यां च आयभूमिकायां सार्द्धपञ्चविंशतिर्जनपदा धर्मक्षेत्राण्यहद्भिक्तानि ॥
Page #64
--------------------------------------------------------------------------
________________
܀
श्री श्राचा
धुता०६
܀܀܀܀
(शीलाका.)
॥५०६॥
रजन्यन्ते तापसीरूपधारिण्या व्यन्तोंदकजटाभारवल्कलविभिस्सेचनमकारि २, विमर्शाकिमयं दृढधर्मान वेत्यनुकूलप्रतिकूलोयसगैः परोक्षयेत् , यथा मंघिग्नसाधु माबितया कयाचिद्वयन्तर्या नीवेपधारिण्या शून्यदेवकुलिकावासितः । साधुरनुकूलोपसग्गैरुपमपितो दृट बर्मेति च कृत्वा बन्दित इति ३, तथा पृथग् विविधा मात्रा येषूपसर्गेषु ते पृथग्विमात्रा:हास्यादित्रयान्यतरारब्धा अन्यतरारमापिनो भवन्ति, तद्यथा भगवति सङ्गमकेनेव विमारब्धाः प्रद्वेपेण पर्यवपिता इति, मानुषा अपि हास्यप्रद्वेषविमर्शकशीलप्रतिसेवनाभेदाच्चतुर्दा, तत्र हास्यादेव नामणिया क्षुल्लकमुपम यन्ती दण्डेन ताडिता राजानमुपस्थिता, जुलकेन तदाहृतेन श्रीगृहोदाहरणेन राजा प्रतियोचित इति १, प्रद्वेषाद् गजमुकुनारत्यैव श्वसुरसोमभूतिनेति २, विमर्शाच्चन्द्रगुप्तो राजा चाणाक्यचोदितो धर्मपरीक्षार्थमन्नापुरिकाभिर्धर्ममावेदयन्तं साधुमुपसर्गयति, साधुना च प्रताडच ताः श्रीगृहोदाहरणं गजे निवेदितमिति ३, तत्र कुत्सितं शीलं कुशीलं तस्य प्रतिसेवन कुशीलप्रतिसेवनं तदर्थ कश्चिदुपसर्ग कुर्यात् , तयथा-ईर्ष्यालुगृहपयुषितः साधुश्चतसृभिः यीनन्निनीभिः प्रोषित मतकाभिः सकलां रजनीमैकेकया प्रतियाममुपसम्गितो न चासौ तासु लुलुभे मन्दरवन्निष्पकम्पोऽभूदिति ४ । नैर्यग्योना अपि भयप्रद्वेषाहारापत्यसंरक्षणभेदाच्चतुर्दैव, तत्र भयात्सादिभ्यः, प्रद्वेषाद्यथा भगवतश्चण्डकौशिकात , आहारत् सिंहव्याघादिभ्यः, अपत्यसंरक्षणात् काक्यादिभ्य इति । तदेवमुक्तविधिनोपसम्पादकन्याजाना लूपका भवन्ति, अथवा तप ग्रामादिषु स्थानेषु तिष्ठतो गच्छतो वा स्पर्शा:-दुःखविशेषा आगरावेदनीयः: स्रान्ति-अमिभवन्ति, ते चतुर्विधाःतद्यथा--घनताऽक्षिकणुकादेः पतनता भ्रमिमूछ दिना म्तम्भनता वातादिना श्लेषणता तालुनः पातादगुल्यादेर्वा ।
Page #65
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥५.७H
स्यात् , यदिवा वातपित्तश्लेष्मादिक्षोभात् स्पाः स्पृशन्ति, अथवा निष्किञ्चनतया तृणस्पर्शदंशमशकशीतोष्णाद्यापा
दिताः स्पर्शाः-दुःखविशेषाः कदाचिस्पृशन्ति-अभिभवन्ति, तैश्च स्पृष्टः परीप हैम्तान् स्पर्शान--दुःखविशेषान् 'धीरः' Pa अझोम्योऽधिमहेत नरकादिदुःखभावनयाऽवन्ध्यकम्मोदयापादितं पुनरपि मयैवैतत्सोढव्यमित्याकलय्य सम्यक् तिति
क्षेतेति । कीदृक्षोऽधिसहेतेत्यत आह, यदिवा म एवम्भूतो न केवलमात्मनस्त्राता सदुपदेशदानतः परेषामपीति | दर्शयितुमाह -'ओजः' एको रागादिविरहात सम्यग इतं--गतं दर्शन मस्येति समितदर्शनः, सम्यग्दृष्टिरित्यर्थः, यदिया 'शमितम्' उपशमं नीतं 'दर्शन' दृष्टिनिमस्येति शमितदर्शनः, उपशान्ताध्यवसाय इत्यर्थः, अथवा समतामितं-- गतं दशनं- दृष्टिरस्येति समितदर्शनः, समदृष्टिरित्यर्थः, एवम्भृतः स्पर्शानधिसहेत, यदिवा धर्म माचझीतेत्युत्तरक्रियया सह सम्बन्धः, किमभिसन्धाय धर्ममाचक्षीतेति दर्शयति-'दयां कृपा 'लोकस्य' जन्तुलोकस्योपरि द्रव्यतो ज्ञात्वा क्षेत्रतः प्राचीनं प्रतीचीनं दक्षीणमुदीचीनम रानपि दिग्विभागानभिसमीक्ष्य सर्वत्र दयां कुर्वन् धर्ममाचक्षीत, कालतो | यावज्जीवं, भावतोऽरक्तोऽद्विष्टा, कथमाचक्षीत ?--तद्यथा--सर्वे जन्तवो दुःखद्विषः सुखलिप्सवः आत्मोपमया सदा द्रष्टव्या इति, उक्तं च-"न तत्परस्य संध्यात्, प्रतिकूलं यदात्मनः । एष समाहिको धर्मः, कामादन्यः प्रवर्तते ॥१॥" इत्यादि, तथा धर्ममाचक्षाणो 'विभजेत्' द्रव्यक्षेत्रकालभावभेदैराक्षेपण्यादिकथाविशेष प्राणातिपातमृषावादादत्तादानमैथुनपरिग्रहरात्रीभोजनविरतिविशेपैर्वा धर्म विभजेत् , यदिवा कोऽयं पुरुषः कं नतो देवताविशेषमभिगृहीतोऽनभिगृहीतो वा? एवं विभजेत् , तथा कीर्तयेबतानुष्ठानफलं, कोऽसौ कीर्तयेद् ?--वेदविद्,
५०७॥
Page #66
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीआचारावृत्तिः (सोलाङ्का.)
धुना०६ उद्देशकः ५
.५०८॥
आगमविदिति । नागार्जुनीयास्तु पठन्ति-"जे खलु समणे बहुस्सुए बझागमे आहरणहेउकुसले धम्मकहालडिसम्पन्ने खेत्त कालं पुरिसं समासज्ज केऽयं पुरिसे कं वा दरिसणममिसम्पन्नो? एवंगुणजाइए पभू धम्मस्स आघवित्तए" इति, कण्ठ्यं । स पुनः केषु निमित्तभूतेषु कीर्तयेदित्याह-'स' आगमवित स्वसमयपरसमयज्ञः 'उत्थितेषु वा' भावोत्थानेन यतिषु, वाशब्द: उत्तरापेक्षया पक्षान्तरद्योतका, पार्श्वनाथशिष्येषु चतुर्यामोत्थितेष्वेव बर्द्धमानतीर्थाचार्यादिः पश्चयामं धर्म प्रवेदयेदिति, स्वशिष्येषु वा सदोस्थितेष्वज्ञातज्ञापनाय धर्म प्रवेदयेदिति, अनुत्थितेषु वा' श्रावकादिषु 'शुभ्रषमाणेषु धर्म श्रोतुमिच्छत्सु गुर्वादेः पयु पास्ति कुर्वत्सु वा संसारोतारणाय धर्म प्रवेदयेत् । किम्भूतं प्रवेदयेदित्याह--शमनं शान्तिः, अहिंसेत्यर्थः तामाचक्षीत, तथा विरतिम् , अनेन च मृषावादादिशेषव्रतसङ्ग्रहः, तथा 'उपशमं' क्रोधजया, अनेन चोत्तरगुणसङ्ग्रहः, तथा नितिः निर्वाणं मूलगुणोत्तरगुणयोरहिकामुष्मिकफलभूतमाचक्षीत, तथा शौचं सर्वोपधिशुचित्वं निर्वाच्यव्रतधारणं, तथा आर्जवं मायावक्रतापरित्यागात् , तथा मार्दवं मानस्तब्धतापरित्यागात् , तथा लाघवं सबाह्याभ्यन्तरग्रन्थपरित्यागात् , कथमाचक्षीतेति दर्शयति-'अनतिपत्य' यथावस्थितं वस्त्वागमाभिहितं तथाऽनतिक्रम्येत्यर्थः, केषां कथयति ?-'सर्वेषां प्राणिनां' दशविधाः प्राणा विद्यन्ते येषां ते प्राणिनस्तेषां सामान्यतः संज्ञिपञ्चेन्द्रियाणां, तथा 'सर्वेषां भूतानां' मुक्तिगमनयोग्येन भव्यत्वेन भूताना-व्यवस्थिताना, तथा 'सर्वेषां जीवानां' संयमजीवितेन जीयता जिजीविषूणां च, तथा 'सर्वेषां सत्त्वानां' तियनरामराणां संसारे क्लिश्यमानतया करुणास्पदानामेकाथिकानि वैतानि प्राणादीनि वचनानि
॥५०८॥
Page #67
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ ५०६ ॥
इत्यतस्तेषां क्षान्त्यादिकं दशविधं धर्मं यथायोगं प्रागुपन्यस्तं शान्त्यादिपदाभिहितम् 'अनुविचिन्त्य' स्वपरोपकाराय मिक्षणशीलो भिक्षुर्धर्म्मकथालब्धिमान् 'आचक्षीत' प्रतिपादयेदिति । यथा च धम्मं कथयेत्तथाऽऽह जणुवी भिक्खू धम्माहक्खमाणे नो अत्ताणं आसाइज्जा नो परं आसाइजा नो अन्ना पाणाई' भूयाह जीवाइ सत्ताइ आसाइज्जा से अणासायए आणासायमाणे वज्झमाणाणं पाणाणं भूयाणं जीवाणं सत्ताणं 'जहा से दीवे असंदीणे एवं से भवइ सरणं महामुणी एवं से उट्ठिए ठियप्पा अणिहे अचल वल अवहिल्लेसे परिव्वए संक्वाय पेसलं धम्मं दिट्ठिमं परिनिव्वुडे, तम्हा संगति पासह गंथेहिं गढिया नरा विसन्ना का मक्कता तम्हा लुहाओ नो परिवित्तसिज्जा, जस्सिमे आरंभा सव्वओ सव्वप्याए सुपरिनाया भवति जेसिमे लूसिणो नो परिवित्तसंति से वंता कोहं च माणं यमाय च लोभं च एस तुट्टे वियाहिए तिबेमि ।। सू० १९५ ।।
समिक्षुर्मुमुक्षुरनुविचिन्त्य - पूर्वापरेण धम्मं पुरुषं वाऽऽलोच्य यो यस्य कथनयोग्यस्तं धर्म्ममाचक्षाणः आङिति मर्यादया यथाऽनुष्ठानं सम्यग्दर्शनादेः शातना आशातना तथा आत्मानं नो आशातयेत्, तथा धर्म्ममाचचीत यथाSsस्मन आशातना न भवेत्, यदिवाऽऽत्मन आशातना द्विधा-द्रव्यतो भावतश्च द्रव्यतो यथाऽऽहारोपकरणादेर्द्रव्यस्य काला तिपातादिकृताऽऽशातना - बाधा न भवति तथा कथयेद्, आहारादिद्रव्यबाधया च शरीरस्यापि पीडा भावाशा
********
।। ५०६ ॥
Page #68
--------------------------------------------------------------------------
________________
धुता०६
श्रीआचारावृत्तिः (शीलाका.)
उद्देशका
XX
.
तनारूपा स्यात् , कथयतो वा यथा गात्रभङ्गरूपा भावाशातना न स्यात् तथा कथयेदिति, तथा नो परं शुषु आशातयेद्-हीलयेद् , यतः परो हीलनया कुपितः सन्नाहारोपकरणशरीरान्यतरपीडाय प्रवर्त्ततेति, अतस्तदाशातनां वर्जयन धर्म ब यादिति, तथाऽन्यान् वा सामान्येन प्राणिनो भूतान् जीवान् सच्चानो आशातयेद्-बाधयेत् , तदेवं स मुनिः स्वतोऽनाशातकः परैरनाशातयन् तथाऽपगनाशातयतोऽननुमन्यमानो परेषां वध्यमानानां प्राणिनां भूतानां जीवानां सचानां यथा पीडा नोत्पद्यते तथा धर्म कथयेदिति, तद्यथा-यदि लौकिककुप्रावचनिकपार्श्वस्थादिदानानि प्रशंसति अवटतटामादीनि वा ततः पृथिवीकायादयो व्यापादिता भवेयुः, अथ दूषयति ततोऽपरेषा अन्तरायापादनेन तत्कृतो बन्धविपाकानुभवः स्यात् उक्तं च-"जे 'उ दाणं पसंसंति, वहमिच्छति पाणिणं । जे उ णं पडि. सेहिंति, वित्तिच्छेअं करिति ते॥१॥" तस्मात्तदानावटतडामादिविधिप्रतिषेधव्युदासेन यथावस्थितं दानं शुद्धं प्ररूपयेत् सावद्यानुष्ठानं चेति, एवं च ब्रवन्नुभयदोषपरिहारी जन्तूनामाश्वासभूमिर्भवतीति, एतदृष्टान्तद्वारेण दर्शयतियथाऽसौ द्वीपोऽसन्दीनः शरणं भवत्येवमसावपि महामुनिः तद्रक्षणोपायोपदेशतः वध्यमानानां वधकानां च तदध्यवसायविनिर्वर्तनेन विशिष्टणस्थानापादनाच्छरण्यो भवति, तथाहि-यथोद्दिष्टेन कथाविधानेन धर्मकथा कथयन् कांचन प्रवाजयति कश्चिन श्रावकान् विधत्ते काश्चन सम्यग्दर्शनयुजः करोति, केषाश्चित्प्रकृतिभद्रकतामापादयति । किंगुणश्चासौ द्वीप इव शरण्यो भवतीत्याह-एव'मिति वक्ष्यमाणप्रकारेण 'स' शरण्यो महामुनिर्भावोत्थानेन संयमा
१ ये तु दानं प्रशंसन्ति वधमिच्छन्ति प्राणिनाम्। ये चैतत् प्रतिषेधयन्ति वृत्तिच्छेद कुर्वन्ति ते ॥ १ ॥
100.00
५१०॥
Page #69
--------------------------------------------------------------------------
________________
मुष्टानरूपेण उत्-प्रावन्येन स्थित उत्थितः, तथा स्थितो ज्ञानादिके मोक्षाध्वन्यात्मा यस्य स स्थितात्मा, तथा स्निह्यतीति स्निहो न स्निहोऽस्निहा-नागद्वेषरहितत्वात् अप्रतिबद्धः, तथा न चलतीत्यचलः परीषहोपसर्गवातेरितोऽपीति, तथा चलः अनियतविहारित्वात , तथा संयमादबहिनिर्गता लेश्या-अध्यवसायो यस्य स बहिर्लेश्यः यो न तथा सोऽवहितेश्यः स एवम्भूतः परि-समन्तात संयमानुष्ठाने व्रजेत् परिव्रजेत् , न क्वचित्प्रतिवध्यमान इतियावत , स च किमिति संयमानुष्ठाने परिव्रजेदित्याह-संख्याय' अबंधार्य 'पेशलं' शोभनं 'धर्म' अविपरीतार्थ दर्शनं-दृष्टिः सदनुष्ठानं वा सा यस्यास्त्यसौ दृष्टिमान , सच कषायोपशमात् क्षयाद्वा, परि:-समन्ताभित:-शीतीभूतो। यस्त्वसङ्ख्यातवान् पेशलं धर्म मिथ्याहिष्टिरसोन निर्वातीति दर्शयितुमाह-इतिहेती यस्माद्विपरीतदर्शनो मिथ्याष्टिः सङ्गवान्न निर्वाति तस्मात 'सगं' मातापितृपुत्रकलत्रादिजनितं धनधान्यहिरण्यादिजनितं वा सङ्गविपाकं वा पश्यत यूयं विवेकेनावधारयत, सूत्रेणैव सलमाह-त एवं सङ्गिनो नराः सवाद्याभ्यन्तरेग्रेन्थेग्रथित्ता अवबद्धा विषण्णा ग्रन्थसङ्गे निमग्नाः कामैः-इच्छामदनरूपैराक्रान्ता अवष्टब्धा न निर्वान्ति, यद्येवं ततः किं कर्त्तव्यमित्याह-यस्मात्कामाद्यासक्तचेतसः स्वजनधनधान्यादिमृञ्छिताः कामजैः शारीरमानसादिभिदुखैरुपतापितास्तस्माद् रूक्षात-संयमानिःसङ्गात्मकात् 'नो परिवित्रसेत' न संयमानुष्ठानाबिभीयात् , यतः प्रभूततरदुःखानुषङ्गिणी हि सङ्गिन इति । कस्य पुनः संयमान परिवित्रसनं सम्भाव्यत इत्याह-यस्य महामुनेरवगतसंसारमोक्षकारणस्येमे सङ्गाः-आरम्भा अनन्तरोक्ता अविगानतः सर्वजनाचरितत्वात प्रत्यक्षासन्नवाचिनेदमाऽभिहिताः 'सर्वत: सर्वात्मकतया सुपरिबाता भवन्ति, किम्भूता आरम्भाः१-येविमे ग्रन्थ
५
.
Page #70
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीआचाराङ्गवृत्तिः
(शीलाङ्का.) ॥ ५१२ ॥
ग्रथिता विषण्णाः काममराक्रान्ता जना 'लूषिणो' लूषणशीलाः हिंसका अज्ञानमोहोदयात् 'न परिवित्रसन्ति' न बिभ्यति, यो भूतांश्वारम्भान् ज्ञपरिज्ञया परिज्ञाय प्रत्याख्यानपरिज्ञया च परिहरति तस्यैते सुपरिज्ञाता भवन्ति ।
रम्भाणां परिज्ञाता स किमपरं कुर्यादित्याह - 'स' महामुनिः पूर्वव्यावणितस्वरूपो 'वान्त्वा त्यक्त्वा क्रोधं च मानं च मायां च लोभं चेति, स्वगतभेदसंसूचनार्थो व्यस्तनिर्देशः, सर्वानुयायित्वात् क्रोधस्य प्रथमोपादानं तत्सम्बद्धत्वान्मा नस्य लोभार्थं मायोपादीयत इत्यतस्तत्कारणत्वान्मायाया लोभस्यादावुपन्यासः ततः सर्वदोषाश्रयत्वात् सर्वं गुरुत्वाच्च सर्वोपरि लोभस्य, क्षपणाक्रमं वाऽऽश्रित्यायमुपन्यास इति, चकारो हीतरेतरापेक्षया समुच्चयार्थः । स एवं क्रोधादीन् वान्त्वा मोहनीयं त्रोटयति, स चैषोऽपगतमोहनीयः संसारसन्ततेस्तुट्टः - अपसृतो व्याख्यातस्तीर्थ कृदादिभिरितिरधिकारपरिसमाप्तौ ब्रवीमीत्येतत् पूर्वोक्तं ॥ यदि वैतद्वच्यमाणमित्याह
कायस्स वियाधाएं एस संगामसीसे वियाहिए से हु पारंगमे मुणी, अविहम्ममाणे फलगावडी कालोवणीए कंखिज्ज कालं जाव सरीरभेउत्तिबेमि ॥ सू० १९६ ॥ इति पंचम उद्देशकः ॥ ६-५ ॥ ॥ इति षष्ठमध्ययनम् ॥ ६ ॥
'काय' औदारिकादित्रयं घातिचतुष्टयं वा तस्य 'व्याघातो' विनाशः, अथवा चीयत इति कायस्तस्य विशेषेणाङ्गमर्यादयाऽऽयुष्कक्षयावधिलक्षणया घातो व्याघातः - शरीरविनाशः एष सङ्ग्रामशीर्षरूपतया व्याख्यातो, यथा हि सङ्ग्रामशिरसि परानीकनिशिताकृष्टकृपाणनिर्यत् प्रभासंवलितोद्यत्सूर्य स्विडुद्भूतविद्यन्नयन चमत्कृतिकारिणि कृतकरणोऽपि सुभ
धुता ६ उद्द शक: ५
।। ५१२ ॥
Page #71
--------------------------------------------------------------------------
________________
टश्चित्तविकारं विधत्ते, एवं मरणकालेऽपि समुपस्थिते परिकर्मिमतमतेरप्यन्यथाभावः कदाचित्स्याद् अतो यो मरणकाले न मुह्यति स पारगामी मुनिः संसारस्य कर्मणो वा उत्तिप्तमारस्य पर्यन्तयायीति । किं च-विविध परीषहोपसगैर्हन्यमानो विहन्यमानः न विहन्यमानोऽविहन्यमानः न निर्विणः सन् वैहानसं माईपृष्ठमन्यद्वा बालमरणं प्रतिपद्यत इति, यदिवा हन्यमानोऽपि सबाह्याभ्यन्तरतया तपःपरीषहोपसर्गः फलकवदवतिष्ठते न कातरीमवति, तथा कालेनोपनीतः कालोपनीतो-मृत्युकालेनान्यवशतां प्रापितः सन् द्वादशवर्षसंलेखनयाऽऽत्मानं संलिख्य गिरिगह्वरादिस्थण्डिलपादपोगमनेङ्गितमरणभक्तपरिज्ञान्यतरावस्थोपगतः 'कालं' मरणकालमायुष्कक्षयं याक्च्छरीरस्य जीवेन सार्द्ध मेदो भवति तावदाकाक्षेद्, अयमेव च मृत्युकालो यदुत शरीरभेदो, न पुनर्जीवस्यात्यन्तिको विनाशोऽस्तीति । इतिरधिकारपरिसमाप्ती, ब्रवीमीत्यादिकं पूर्ववदिति, पञ्चमोदेशका, तत्समाप्तौ समाप्तं धृताख्यं षष्ठमध्ययनमिति ॥ ३-५॥०८३५॥
॥५१३॥
Page #72
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीआचा
राङ्गवृत्तिः
घोलाङ्का.)
५१४ ॥
॥ सप्तमं महापरिज्ञाख्यमध्ययनं व्युच्छिन्नम् ॥
॥ अथ विमोक्षाख्ये अष्टमाध्ययने प्रथमोद्द शकः ॥
उक्तं षष्ठमध्ययनं अथ सप्तमाष्टमाध्ययनमारभ्यते, अधुना सप्तमाध्ययनस्य महापरिज्ञाख्यस्यावसरः तच्च व्यवच्छिन्नमिति कृत्वाऽतिलङ्घयाष्टमस्य सम्बन्धो वाच्यः स चायम् - इहानन्तराध्ययने निजकर्म्म शरीरोपकरणगौरवत्रिकोपसर्गसन्मान विधूननेन निःसङ्गताऽविहिता, सा चैवं साफल्यमनुभवति यद्यन्तकालेऽपि सम्यग्निर्याणं स्यादित्यतः सम्यग्निर्याणप्रतिपादनायेदमारभ्यते, यदिवा निःसङ्गविहारिणा नानाविधाः परीषहोपसग्गः सोढव्या इत्येतत्प्रतिपादितं, तत्र मारणान्तिकोपसर्गनिपाते सति अदीनमनस्केन सम्यग्निर्याणमेव विधेयमित्यस्यार्थस्य प्रतिपादनायेदमारभ्यते इत्यनेन सम्बम्घेनायातस्यास्याध्ययनस्योपक्रमादीनि चत्वार्यनुयोगद्वाराणि भवन्ति, तत्रोपक्रमद्वारा यातोऽर्थाधिकारो द्वेधा, तत्राप्यध्ययनार्थाधिकारः प्रागभिहितः, उद्देशार्थाधिकारं तु नियुक्तिकारी बिभणिपुराह
असमणुन्नस्स विमुक्खो पढमें बिइए अकप्पियविमुक्खो । पडिसेहणा य रुट्ठस्स चेव सन्भावकहणा य ॥ २५३ ॥ तइयंमि अंगचिट्ठा भासिय आसंकिए य कहणा य । सेसेसु अहीगारो उवगरणसरीरमुक्खेसु ॥ २५४ ॥ उद्देसंमि चउत्थे वेहाणसगिडपिट्ठमरणं च । पंचमए गेलन्नं भत्तपरिन्ना य घोडव्वा । २५५ ॥ छमि उ एगन्तं इंगिणिमरणं च होइ बोडव्धं । सत्तमए पडिमाओ पायवगमणं च नायव्वं ॥ २५६ ॥
**
विमो० ८ उद्दे शकः १
॥ ५१४ ॥
Page #73
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ ५१५॥
XX
6.x.
अणपुग्विविहारीणं भत्तपरित्रा य इंगिणीमरणं । पायवगमणं च तहा अहिगारो होइ अट्ठमए ॥२५॥
अत्रायोद्देशकेऽयमर्थाधिकारः, तद्यथा-असमनुज्ञानां समनोज्ञानां वा त्रयाणां त्रिषष्ठयधिकानां प्रावादुकशतानां विमोक्षः-परित्यागः कार्य:, तथा तदाहारोपधिशय्यातदृष्टिपरित्यागश्च, पार्श्व स्थादयः पुनश्चारित्रतपोविनयेष्वसमनोज्ञाः, यथाच्छन्दास्तु पश्चस्वपि ज्ञानाचारादिष्वसमनोज्ञास्तेषां यथायोगं त्यागो विधेय इति १। द्वितीये तु अकल्पिकस्य-आधाकर्मादेविमोक्षा-परीत्यागः कार्यों, यदिवाऽऽधाकर्मणा कचिनिमन्त्रयेत, ततःप्रतिषेधो विधेयः, तत्प्रतिषेधे च रुष्टस्य सतः सिद्धान्तसद्भावः कथनीको यथैवम्भूतं दानं तव मम च न गुणायेति २ । तृतीये तूद्देशकेऽयमर्थाधिकारः, तद्यथागोचरगतस्य यतेशीतादिना कम्पनादिकायामङ्गचेष्टायां सत्यां गृहस्थस्येयमारेका स्याद् यथा-ग्रामधम्मरुद्वाध्यमानस्य शृङ्गारभावावेशादस्य यतेः कम्पनमित्येवं भाषिते आशङ्किते वा तदाशङ्काव्युदासाय यथावस्थितार्थकथना क्रियत इति ३ । शेषेषु तूद्देशकेषु पञ्चस्वयमर्थाधिकार, तद्यथा-उपकरणशरीराणां विमोक्षः-परित्यागस्तद्विषयः समासतो व्यासतस्तूच्यतेचतुर्थोद्देशके स्वयमर्थाधिकारः, तद्यथा-वैहानसम्-उद्बन्धनं गार्द्धपृष्ठम्-अपरमासादिहृदयन्यासाग्द्गृद्धादिनाऽऽत्मव्यापादनम्, एतत् प्रकारद्वयं मरणं वाच्यं ४ । पश्चमके तु ग्लानंता भक्तपरिज्ञा च बोद्धव्या ५। षष्ठे त्वेकत्वम्-एकत्वभावनातथेङ्गितमरणं च बोद्धव्यं ६ । सप्तमके तु प्रतिमा:-भिक्षुपतिमा मासादिका वाच्याः, तथा पादपीपगमनं च ज्ञातव्यमिति ७ । अष्टमके त्वयमर्थाधिकारः, तद्यथा-अनुपूर्वविहारिणां-प्रतिपालितदीर्घसंयमानां शास्त्रार्थग्रहणप्रतिपादनोत्तरकालमवसीदतसंयमाध्ययनाध्यापनक्रियाणां निष्पादितशिष्याणामुत्सर्गतः द्वादशसंवत्सरसंलेखनक्रमसंलिखितदेहानां भक्तपरिटेङ्गित
Page #74
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीआचारावृत्तिः शीलावा.
विमो. ८ उद्देशका
मरणं पादपोपगमनं वा यथा भवति तथोच्यत इति गाथापञ्चकसमासार्थो, व्यासार्थस्तु प्रत्युद्देशकं वक्ष्यते । निक्षेपस्तु विधा-अोधनिष्पन्नो नामनिष्पन्नः सूत्रालापकनिष्पन्नश्चेति, तत्रौघनिष्पन्ने निक्षेपेऽध्ययनं, नामनिष्पन्ने तु विमोक्ष इति नाम, तत्र विमोक्षस्य निक्षेपं चिकीर्षः निर्यविकार आह___ नामंठवणविमुक्खो दव्वे खित्ते य काल भावे य । एसो उ विमुक्खस्सा निक्खेवो छव्विहो होइ॥५८॥
नामविमोक्षः स्थापनाविमोक्षो द्रव्यविमोक्षः क्षेत्रविमोक्षः कालविमोक्षो भावविमोक्षश्च त्येवं विमोक्षस्य निक्षेपः षोढा भवतीति गाथासमासार्थः ॥ व्यासार्थप्रतिपादनाय तु सुगमनामस्थापनाव्युदासेन द्रव्यादिविमोक्षप्रतिपादनद्वारेणाह
व्यविमुक्खो नियलाइएसु खित्तंमि चारयाईसु। काले चेइयमहिमाइएसु अणघायमाईओ ॥२५॥ द्रव्यविमोक्षो द्वधा-आगमतो नोआगमतश्च, आगमतो ज्ञाता तत्र चानुपयुक्तः, नोआमतस्तु शरीरमव्यशरीव्यतिरिको निगडादिकेषु विषयभूतेषु यो विमोक्षः स द्रव्यविमोक्षः, सुव्यत्ययेन पञ्चम्यर्थे सप्तमी, निगडादिभ्यो द्रव्येभ्यः सकाशाद्विमोक्षो द्रव्यविमोक्षः, अपरकारकवचन सम्भवस्तु स्वयमभ्यूह्यायोज्यः, तद्यथा-द्रव्येण द्रव्यात् सचित्ताचित्तमिश्राद्विमोक्ष इत्यादि, क्षेत्रविमोक्षस्तु यस्मिन् क्षेत्रे चारकादिके व्यवस्थितो विमुच्यते क्षेत्रदानाद्वा यस्मिन्वा क्षेत्रे व्यावय॑ते स क्षेत्रविमोक्षः, कालविमोक्षस्तु चैत्यमहिमादिकेषु कालेष्वमाघातादिघोषणापादितो यावन्तं कालं मुच्यते यस्मिन्वा काले व्याख्यायते सोऽभिधीयते इति गाथार्थः॥ भावविमोक्षप्रतिपादनायाहदुविहो भावविमुक्खो देसविमुक्खोय सव्वमुक्खो य।देसविमुक्खा साहू सम्वविमुक्खा भवे सिद्धा॥२६०
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
Page #75
--------------------------------------------------------------------------
________________
भावविमोक्षो द्विधा-आगमतो नोआगमतश्च, आगमतो ज्ञाता तत्र चोपयुक्नो, नोागमतस्तु द्विधा-देशतः सर्वतश्च, तत्र देशतोऽविग्तसम्यग्दृष्टिनामाद्यकषायचतुष्कक्षयोपशमादेशविरतानामाद्याष्टकषायक्षयोपशमाद्भवति, साधूनां च द्वादशकषायक्षयोपशमात क्षपकश्रेण्यां च यस्य यावन्मानं क्षीणं तस्य तत्क्षयाद्देशविमुक्तेत्यतः साधवो देशविमुक्ता, भवस्थकेवलिनोऽपि भवोपग्राहिसद्भावाद्देशविमुक्ता एव, सर्वविमुक्ताश्च सिद्धा भवेयुः इति गाथार्थः ॥ ननु बन्धपूर्वकत्वामोक्षस्य निगडादिमोक्षवदित्याशङ्काव्यवच्छेदार्थ बन्धामिधानपूर्वकं मोक्षमाहकम्मयदव्वेहि समं संजोगो होइ जो उ जीवस्स । सो बंधो नायव्वो तस्स विओगो भवे मुक्खो ॥२६॥
'कर्मद्रव्यैः कर्मवर्गणाद्रव्यैः 'सम' सार्द्ध यः संयोगो जीवस्य स, बन्धः प्रकृतिस्थित्यनुभावप्रदेशरूपो बद्धस्पृष्टनिधतनिकाचनावस्थश्च ज्ञातव्यः, तथैकैको ह्यात्मप्रदेशोऽनन्तानन्तैः कर्मपुद्गलैबद्धः, बध्यमाना अप्यनन्तानन्ता एव, शेषाणामग्रहणयोग्यत्वात् , कथं पुनरष्टप्रकारं कर्म बध्नातीति चेद्, उच्यते, मिथ्यात्वोदयादिति, उक्तं च—'कहं णं भते ! जीवा अट्ठ कम्मपगडीओ बंधंति ?, गोअमा! णाणावरणिज्जस्स कम्मरस उदएणं दरिसणावरणिज्ज कम्मं निअच्छन्ति, दंसणमोहणिजस्स कम्मस्स उदएणं मिच्छत्तं णियच्छन्ति, मिच्छत्तेण उइनेणं
१ कथं भदन्त ! जीवा अष्टकमप्रकृतीबंध्नन्ति ?, गौतम ! ज्ञानावरणीयस्य कर्मण उदयेन दर्शनावरणीयं कर्म बध्नन्ति (उदयते), दर्शनमोहनीयस्य कर्मण उदयेन मिथ्यात्वं बध्नन्ति (उदयते), मिथ्यावेन उदीर्णेन एवं खलु जीवोऽष्टकर्मप्रकृतीबंध्नाति ।
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
Page #76
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीआचाराङ्गवृत्ति:
श'लाङ्का.)
५१६ ॥
****
एवं खलु जीवे अट्ठकम्मपगडीओ बंधह" यदिवा - हतुप्पि अगन्तस्स रेणुओ लग्गई जहा अंगे । तह रागदोसणे हालियस कम्मंपि जीवस्स ॥ १ ॥" इत्यादि, तस्यैवम्भूतस्याष्टप्रकारस्य कणः आस्रवनिरोधात् तपसाऽपूर्वकरण क्षपक श्रेणि प्रक्रमेण शैलेश्यवस्थायां वा योऽसौ वियोग:- क्षयः स मोक्षो भवेदिति गाथार्थः ॥ अस्य प्रधानपुरुषार्थत्वात् प्रारब्धासिन्धाराव्रतानुष्ठानफलत्वात् तीर्थिकैः सह विप्रतिपत्तिसद्भावाच्च यथावस्थितमव्यभिचारि मोक्षस्य स्वरूपं दर्शयितुमाह, यदिवा पूर्व्वं कर्म्मवियोगोद्देशेन मोक्षस्वरूपमभिहितं साम्प्रतं जीववियोगोद्देशेन मोक्षस्वरूपं दर्शयितुमाह
-
जीवस्स अत्तजणिएहि चेव कम्मेहिं पुव्वबद्धस्स । सव्वविवेगो जो तेण तस्स अह इत्तिओ मुक्खो ॥ २६२ ॥ जीवस्यासङ्ख्येयप्रदेशात्मकस्य स्वतोऽनन्तज्ञानस्वभावस्यात्मनैव - मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाययोगपरिणतेन तानि - वद्धानि यानि कर्माणि तैः पूर्वबद्धस्यानादिबन्धबद्धस्य प्रवाहापेक्षया तेन कर्म्मणा 'सर्वविवेकः' सर्वाभावरूपतया यो विश्लेषस्तस्य-जन्तोः ‘अथेत्युपप्रदर्शने एतावन्मात्र एव मोक्षो नापरः परपरिकल्पितो निर्वाणप्रदीपकल्पादिक इति गाथार्थः । उक्तो भावविमोक्षः, स च यस्य भवति तस्यावश्यं भक्तपरिज्ञादिमरणत्रयान्यतरेण मरणेन माव्यं, तत्र कारणे
कार्योपचारात् तन्मरणमेव भावविमोक्षो भवतीत्येतत्प्रतिपादयितुमाह
भत्तपरिन्ना इंगिणि पायवगमणं च होइ नावव्वं । जो मरह चरिममरणं भावविमुक्खं वियाणाहि ।। २६३।।
१ स्नेहक्षितगात्रस्य रेणुर्लंगति यथाऽङ्गे । तथा राग बस्ने हार्द्रस्व कर्मापि जीवस्य ॥ १ ॥
विमो०८
उद्द शक १
॥ ५१८ ॥
Page #77
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ ५१६
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
भक्तस्य परिज्ञा भक्तपरिज्ञाऽनशनमित्यर्थः, तत्र त्रिविधचतुर्विधाहारनिवृत्तिमान् सप्रतिकर्मशरीरो धृतिसंहननवान् यथा समाधिर्भवेत्तथाऽनशनं प्रतिपद्यते, तथेङ्गिते प्रदेशे मरणमिङ्गितमरणमिदं चतुर्विधाहारनिवृत्तिस्वरूपं विशिष्टसंहननवतः स्वतः एवोद्वर्त्तनादिक्रियायुक्तस्यावगन्तव्यं, तथा परित्यक्तचतुर्विधाहारस्यैवाधिकृतचेष्टाव्यतिरेकेण चेष्टान्तरमधिकृत्यैकान्तनिष्प्रतिकर्मशरीरस्य पादपस्येवोप-सामीप्येन गमनं-वर्तनं पादपोपगमनमेतच्च ज्ञातव्यं भवति, यो हि भवसिद्धिकश्चरम-अन्तिम मरणमाश्रित्य म्रियते स एतत्पूर्वोक्तत्रयान्यतरेण मरणेन म्रियते, नान्येन वैहानसादिना बालमरणेनेत्येतच्चानन्तरोक्तं मरणं चेष्टामेदोपाधिविशेषात् वैविध्यमनुभवद्भावमोक्षं विजानीहीति गाथार्थः ॥ साम्प्रतमेतदेव मरणं सपराकमेत्रमेदाद् द्विविधमिति दर्शयितुमाह
सपरिकमे य अपरिकमए य वाघाय आणुपुवीए । सुत्तत्थजाणएणं समाहिमरण तु कायन्वं ॥२६॥ ___ 'पराक्रमः' सामर्थ्य सह पराक्रमेण वर्तत इति सपराक्रमस्तस्मिश्च मरणं स्यात, तद्विपर्यये चापराक्रमे-जवाबलपरिक्षीणे तद्भक्तपरिक्षेङ्गितमरणपादपोपगमनभेदास्त्रिविधमपि मरणं सपराक्रमेतरमेदात् प्रत्येकं द्वैविध्यमनुभवति, तदपि व्याघातिमेतरमेदात् द्विधा भवेत् तत्र व्याघातः सिंहव्याघ्रादिकृतोऽव्याघातस्तु प्रव्रज्यास्त्रार्थग्रहणादिकयाऽऽनुपूर्व्या विपक्त्रिममायुष्कक्षयमनुभवतो यो भवति सोऽव्याघात इहानुपुर्वीत्युक्तं, तत्र परमार्थोपक्षेपेणोपसंहरति-व्याघातेनानुपूा वा सपराक्रमस्यापराक्रमस्य वा मरणे समुपस्थिते सति सूत्राथन कालातया समाधिमरणमेव कर्त्तव्यं, भक्तपरिक्षेङ्गितमरणपादपोपगमनानामन्यतरद् यथासमाधि विधेयं, न वेहानसादिकं बालमरणं कर्त्तव्यमिति गाथार्थः॥ तत्र
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
॥ ५१६ ॥
Page #78
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीआचा राजवृत्तिः (शीलावा.)
विमो.6 उद्देशका १
॥५२०॥
४४४४४४
सपराक्रममरणं दृष्टान्तद्वारेण दर्शयितुमाह
सपरकममाएसो जह मरणं होइ अजवइराणं । पायवगमणं च तहा एवं सपरकम मरणं ॥२६५॥ सह पराक्रमेण वर्तत इति सपराक्रम, किं तत् ?-मरणं आदिश्यते-इत्यादेशः आचार्यपारम्पर्यश्रत्यायातो वृद्धवादो यमैतिद्यमाचक्षते, स आदेशो 'यथे'त्युदाहरणोपन्यासार्थः, यथैतत्तथाऽन्यदप्यनया दिशा द्रष्टव्यं, 'आर्यवैरा'वैरस्वामिनो यथा तेषां मरणमभूत् तथा पादपोपगमनं च, एतच्च सपराक्रम मरणमन्यत्राप्यायोज्यमिति गाथार्थः ॥ भावार्थस्त कथानकादवसेयः, तच्च प्रसिद्धमेव यथाऽऽर्यविस्मृतकर्णाहितशृङ्गाबेरैः प्रमादादवगतासम्ममृत्युभिः सपराक्रमैरेव रथावर्त्तशिखरिणि पादपोपगमनमकारीति । साम्प्रतमपराक्रमं दर्शयितुमाह
अपरकममाएसो जह मरण होइ उदहिनामाणं । पाओवगमेऽवि तहा एयं अपरकर्म मरणं ॥२६६ ॥ . न विद्यते पराक्रमः-सामर्थ्यमस्मिन्नित्यपराक्रम, किं तत् ?--मरणं, तच्च यथा जङ्घाबलपरिक्षीणानामुदधिनाम्नाम्-आर्यसमुद्राणां मरणमभूद, अयमादेशो-दृष्टान्तो वृद्धवादायात इति, पादपोपगमनेऽपि तथैवादेशं जानीयाद् यथा पादपोपगमनेन तेषां मरणमभूदिति, एतद्-अपराक्रम मरणं यदार्यसमुद्राणां सञ्जातमेवमन्यत्राप्यायोज्यमिति गाथाऽक्षरार्थः ।। भावार्थस्तु कथानकादवसेयः, तच्चेदम्-आर्यसमुद्रा आचार्याः प्रकृतिकशा एवासन , पश्चाच्च तैवावलपरिक्षीणैः शरीराल्लाभमनपेक्ष्य तत्तित्यक्षुभिगच्छस्थैरेवानशनं विधाय प्रतिश्रयैकदेशे निर्हारिमं पादपोपगमनमकारि ॥ साम्प्रतं व्याघातिममाह
॥ ५२०॥
Page #79
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ ५२१॥
आघाइयमाएसो अवरडो हुज्ज अन्नतरएणं । तोसलि महिसीइ हओ एवं वाघाइयं मरणं ॥२६७॥ विशेषेणाघातो व्याघात:-सिंहादिकृतः शरीरविनाशस्तेन निवृत्तं तत्र वा भवं व्यापातिम, कश्चित्सिहाद्यन्यतरेणापराद्धो भवेद-आरब्धो भवेत तेन यन्मरणं तद्वथाघातिमं, तत्र वृद्धवादायात आदेशो-दृष्टान्तः, यथा-तोसलिनामाचार्यों महिष्याऽऽरब्धश्चतुर्विधाहारपरित्यागेन मरणमभ्युपगतः तद्वयाघातिमं मरणमिति गाथाऽक्षरार्थो, भावार्थस्त कथानकादवसेयः तच्चेदम-तोसलिनामाचार्योऽरण्यमहिषीभिः प्रारब्धः, तोसलिदेशे वाह्वयो महिष्यः सम्भवन्ति, ताभिश्च कदाचिदेका साधुरटव्यन्तर्वारब्धः, सच ताभिः नुद्यमानोऽनिर्वाहमवगम्य चतुर्विधाहारं प्रत्याख्यातवानिति ॥ साम्प्रतमव्याघातिमप्रतिपादनेच्छयाऽऽह
अणपुब्विगमाएसो पव्वज्जासुत्तअत्थकरणं च । वीसजिओ य निन्तो मुक्को तिवहस्स नीयस्स ॥२६८॥ __ आनुपूर्वी-क्रमस्तं गच्छतीत्यानुपूर्वीगः, कोऽसौ ?-आदेशो-वृद्धवादः, स चायं, तद्यथा-पूर्वमुत्थितस्य प्रव्रज्यादानं, ततः सूत्रकरणं पुनरर्थग्रहणं, ततस्तदुभयनिर्मातः सुपात्रनिक्षिप्तस्त्रार्थः गुर्वादिनाऽनुज्ञातोऽभ्युद्यतो मरणत्रिकान्यतराय 'निर्यन्' निर्गच्छन् त्रिविधस्याहारोपधिशय्याख्यस्य नित्यपरिभोगामित्यस्य मुक्तो भवति, तत्र यद्याचार्यस्तदा शिष्या. निष्पाद्याऽपरमाचार्य विधायोत्सर्गेण द्वादशसांवत्सरिक्या संलेखनया संलिख्य ततो गच्छविसज्जितो गच्छानुज्ञया स्वस्था. पिताचार्यविसर्जितो वा अभ्युद्यतमरणायापराचार्यान्तिकमियात् , एवमुपाध्यायः प्रवर्तिः स्थविरो गणावच्छेदकः सामान्यसाधर्वाऽऽचार्यविसर्जितः कृतसंलेखनापरिकर्मा भक्तपरिज्ञादिकं मरणमभ्युपेयात , तत्रापि भावसंलेखनां कुर्यात ॥
॥५२१॥
Page #80
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीआचारावृत्तिः (शीलाङ्का.)
विमो. ८ उद्देशकः १
॥५२२॥
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
द्रव्यसंलेखनायां सु केवलायां दोषसम्भवादित्याहपडिचोइओय कुविओरण्णो जह तिक्ख सीयला आणा । तंबोले य विवेगो घट्टणया जा पसाओ य ॥२६९॥
प्रतिचोदितः सन्नाचार्येण पुनरांप संलिखेत्येवमभिहितः 'कुपितः' क्रुद्धो यथा च राज्ञः पूर्व तीक्ष्णाज्ञा पश्चाच्छीतलीभवति एवमाचार्यस्यापि, 'तम्बोले' नागवन्लीपत्रे च कुथिते शेषरक्षणाय 'विवेक' परित्यागः कार्यः, ततः 'घटना' कदर्थना कार्या, तत्सहिष्णोः पश्चाद्यावत् प्रसाद इति गाथाऽक्षरार्थः, भावार्थस्तु कथानकादवसेयः, तच्चेदम्-एकेन साधुना द्वादशवर्षसंखनयाऽऽत्मानं संलिख्य पुनरभ्युद्यतमरणायाचार्यो विज्ञप्तः, तेनाप्य भाणि-यथाऽद्यापि संलिख, ततोऽसौ कुपितः त्वगस्थिशेषामङगुली भक्त्वा दर्शयति, किमत्राशुद्धमिति ?, आचार्योऽपि येनाभिप्रायेणोक्तास्तमाविष्करोतिअत एवाशुद्धो भवान् , यतो वचनसमनन्तरमेवाङ्गुलीमङ्गद्वारेण भावाशुद्धतामाविष्कृतवानित्युक्त्वाऽऽचार्यस्तत्प्रतिबोधनाय दृष्टान्तं दर्शयति, यथा--कस्यचिद्राज्ञो नित्यं निष्पन्दिनी लोचने, ते च स्ववैद्योपन्यस्तानुष्ठानवतोऽपि न स्वस्थतामियाता, पुनरागन्तुकेन वैद्यनाभिहितः-स्वस्थीकरोमि भवन्तं यदि मुहूर्त वेदनां तितिक्षसे वेदनार्तश्च न मां घातयसीति, गज्ञा चाभ्युपगतं, अञ्जनप्रक्षेपानन्तरोद्भूततीववंदनानापगते ममाक्षिणी इत्येवंवादिना व्यापादयितुमारेभे, ततो राज्ञस्तीक्ष्णाज्ञा, यतश्च पूर्वमव्यापादनमभ्युपगतमतः शीतलेति, मुहूर्ताच्चापगतवेदनः पटुनयनश्च पूजितवैद्यो मुमुदे राजेति, एवमाचार्यस्यापि तीक्ष्णा प्रतिचोदनादिकाऽऽज्ञा परमार्थतस्तु शीतलति, यदि पुनरेवं कथितेऽपि नोपशाम्यति ततः शेषसंरक्षणार्थ विकृतनागवल्लीपत्रस्येव विवेकः क्रियते, अथाचार्योपदेशं प्रतिपद्यते ततो गच्छ एव तिष्टतो घट्टना
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
॥ ५२२ ॥
Page #81
--------------------------------------------------------------------------
________________
५२३ ॥
दुर्वचनादिभिः कदर्थना क्रियते, यदि च तथापि न ज्वलति ततः शुद्ध इतिकृत्वाऽनशनदानेन प्रतिजागरणेन च प्रसादः क्रियत इति ॥ किम्भूतः पुनः क्रियन्तं वा कालं कथं वाऽऽत्मानं संलिखेदित्येतत् हृदि व्यवस्थाप्याह
निष्फाईया य सीसा सउणी जह अंडगं पयत्तेणं । बारससंवच्छुरियं सो संलेहं अह करेइ ॥ २७० ॥
विचित्तारं विगईनिज्जूहियाह' चत्तारि । संवच्छरे य दुन्नि उ एगंतरियं तु आयामं ॥ २७१॥ नाइrिगिड्डो उ तयो छम्मासे परिमियं तु आयामं । अनेऽवि य इम्मा से होइ विगिडं तथोकम्मं ॥ २७२ ॥ वासं कोडीसहियं आयामं काउ आणुपुव्वीए । गिरिकंदरं मि मंतु पायवगमणं अह करेह ॥ २७३ ॥ सूत्रार्थतदुभयैः स्वशिष्याः प्रातीच्छका वा 'निष्पादिता' योग्यतामापादिताः शकुनिनेषाण्डकं प्रयत्नेन ततोऽसौ 'अथ' अनन्तरं द्वादश सांवत्सरिकीं संलेखनां करोति, तद्यथा चत्वारि वर्षाणि 'विचित्राणि' विचित्र तपोऽनुष्ठानवन्ति भवन्ति, चतुर्थषष्ठाष्टमदशमद्वादशादिके कृते पारणकं सविकृतिकमन्यथा वेति, पश्चमादारभ्य संवत्सरादपराणि चत्वारि वर्षाणि निर्विकृतिकमेव पारणकमिति, नवमदशमसंवत्सरद्वयं स्वेकान्तरितमाचाम्लमेकस्मिन्नहनि चतुर्थमपरेद्युरा चाम्लेन पारणकमिति, तत एकादशसंवत्सरं द्विधा विधत्ते तत्राद्यं षण्मासं नातिविकृष्टं तपः करोति, चतुर्थं षष्ठं वा विधाय परिमितेनाचाम्लेन पारणकं विधत्ते, न्यूनोदरतां करोतीत्यर्थः, अपरषण्मासं तु विकृष्टतपश्चरणावतः पूर्वोक्तमेव पारणकं, द्वादशं तु संवत्सरं कोटीसहितमाचाम्लं करोति, प्रतिदिनमाचाम्लेन भुङ्क्ते, आचाम्लस्य कोटयाः कोटिं मीलयत्यतः कोटीसहितमित्युक्तं, चतुर्मासावशेषे तु संवत्सरे तेलगण्डूषा न स्खलितनमस्काराद्यध्ययनाया पगतवात मुखयन्त्रप्रचारार्थं
॥ ५२३ ॥
Page #82
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीआचाराङ्गवृत्तिः शीलाङ्का.)
॥ ५२४ ।।
******
पौनःपुन्येन करोतीति, तदेवमनयाऽऽनुपूर्व्या सर्व विधाय सति सामर्थ्ये गुरुणाऽनुज्ञातो गिरिकन्दरं गत्वा स्थण्डिलं प्रत्युपेक्ष्य 'अथ' अनन्तरं पादपोपगमनं करोति, इङ्गितमरणं वा भक्तप्रत्याख्यानं वा यथासमाधि विधत्त इति गाथाचतुष्टयार्थः । अनया च द्वादश संवत्सरसंलेखनाऽऽनुपूर्व्या क्रमेण आहारं परितनुं कुवत आहारा मिलापोच्छेदा भवतीत्येतद्गाथाद्वयेन दर्शयितुमाह
कह नाम सो तवोकम्मपंडिओ जो न निच्चुजुत्तप्पा | लहुवित्तीपरिक्खेवं वचइ जेमंतओ चेव १ ॥ २७४ ॥ आहारेण विरहिओ अप्पाहारो य संवरनिमित्तं । हासतो हासतो एवाहारं निरु भिजा ॥ २७५ ॥
कथं नामासौ तपःकर्मणि पण्डितः स्यात् ? यो न नित्यमुद्युक्तात्मा सन् वर्त्तनं वृत्तिः - द्वात्रिंशत्कालपरिमाणलक्षणा तस्याः परिक्षेपः संक्षेपो वृत्तिपरिक्षेपः लघुवृचिपरिक्षेपोऽस्येति लघुवृत्तिपरिक्षेपः तद्भावं यो भुआन एव न व्रजति कथमसौ तपःकर्मणि पण्डितः स्यात् १, तथाऽऽहारेण विरहितो द्वित्रान् पञ्चषान् वा वासरान् स्थित्वा पुनः पारयति तत्राप्यल्पाहारोऽसौ भवति, किमर्थं १ – 'संवरनिमित्तम्' अनशननिमित्तं एवमसावुपवासैः प्रतिपारणकमन्पाहारतया च ह्रासयन् ह्रास्त्रयन्नाहारमुक्तविधिना पश्चान्निरुन्ध्याद्-भक्तप्रत्याख्यानं कुर्यादिति गाथाद्वयार्थः । उक्तो नामनिष्पन्नो निक्षेपस्तन्नियुक्ति, साम्प्रतं सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयं तच्चेदम्
से बेमि समणुन्नस्स वा असमणुन्नस्स वा असणं वा पाणं वा खाहमं वा साइमं वा वत्थं वा पडिग्गहं वा कथलं वा पायपुच्छणं वा नो पादेना नो निमंतिज्जा नो कुज्जा
विमो०८ उद्द ेशकः १
॥ ५२४ ॥
Page #83
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ ५२५ ॥
वेयावडियं परं आढायमाणे तिबेमि ॥ सू० १६७॥ सोऽहं ब्रवीमि योऽहं भगवतः सकाशात् ज्ञातज्ञेय इति, किं तद्ब्रवीमि ?-वक्ष्यमाणं, तद्यथा-'समनोज्ञस्य वा' वाशब्द उत्तरापेक्षया पक्षान्तरोद्योतका, समनोज्ञो दृष्टितो लिङ्गतो न तु भोजनादिभिः तस्य, तद्विपरीतस्त्वसमनोज्ञःशाक्यादिस्तस्य वा, अश्यत इत्यशनं--शाल्योदनादि, पीयत इति पानं--द्राक्षापानकादि, खाद्यत इति खादिम--नालिकेरादि, स्वाद्यत इति स्वादिम-कपूरलवङ्गादि, तथा वस्त्रं वा पात्रं वा पतग्रह वा कम्बलं वा पादपुञ्छनं वा, नो प्रदद्यात--प्रासुकमप्रासुकं वा तदन्येषां कुशीलानामुपभोगाय नो वितरेत् , नापि दानार्थ निमन्त्रयेत् , न च तेषां वैयावृत्त्यं कुर्यात, परम्--अत्यर्थमा द्रियमाण इति, अत्यर्थमादरवान्न तेभ्यः किमपि दद्यात् नापि तानामन्त्रयेत् न च तेषां वैयावृत्यमुच्चावचं कुर्यादिति, ब्रवीमीत्यधिकारपरिसमाप्तौ ॥ एतच्च वक्ष्यमाणमहं ब्रवीमीत्याह
धुवं चेयं जाणिज्जा असणं वा जाव पायपुछणं वा लभिया नो लभिया भुजिया नो भुजिया पंथं विउत्ता विउक्कम विभत्तं धम्म जोसेमाणे समेमाणे चलेमाणे पाइजा
वा निमंतिजा वा कुज्जा वेयावडिय परं अणाढायमाणे तिमि ॥ सू० १९८ ॥ ते हि शाक्यादयः कुशीला अशनादिकमुपदयें व युः, यथा-ध्रुवं चैतज्जानीयात--नित्यमस्मदावसथे भवति लभ्यते वाऽतो भवद्भिरेतदशनादिकमन्यत्र लब्ध्वा वाऽलब्ध्वा वा भुक्त्वा वाऽभुक्त्वा वा अस्मद्धृतयेऽवश्यमागन्तव्यं, अलब्धे लाभाय लब्धेऽपि विशेषाय भुक्ते पुनः पुनर्मोजनायाभुक्तेऽपि प्रथमालिकार्थमस्मद्धृतये यथाकथश्चिदागन्तव्यं, यद्यथा
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
Page #84
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीआचाराजवृत्तिः (शीलाका.
विमो०८ उद्देशका
.५२३ ॥
वा भवतां कल्पनीयं भवति तत्तथा दास्याम इति, अनुपथ एवास्मदाबसथो भवतां वर्चते, अन्यथाऽप्यस्मत्कृते पन्थानं व्यावापि वक्रपथेनाप्यागन्तव्यमपक्रम्य वाऽन्यगृहाणि समागन्तव्यं, नात्रागमने खेदो विधेयः, किम्भूतोऽसौ शाक्यादिरिति दर्शयति-'विभक्त' पृथग्भूतं धर्म 'जुषन्' आचरन्, एतच्च कदाचित्प्रतिश्रयमध्येन 'समेमाणे ति समागच्छन् तथा 'चलेमाणे'त्ति गछन् ब्र याद् यदिवाऽशनादि प्रदद्यात् अशनादिदानेन वा निमन्त्रयेदन्यद्वा प्रश्रयाद्वैयावृत्त्यं कुर्यात, तस्य कुशीलस्य नाभ्युपेयात् न तेन सह संस्तवमपिं कुर्यान, कथं परम् -अल्यर्थमनाद्रियमाण:--अनादरवान् , एवं हि दर्शनमुदिपतीति ब्रवीमीत्येतत्पूर्वोक्तं ॥ यदि वैतद्वक्ष्यमाणमित्याह
इहमेगेसिं आयारगोयरे नो सुनिसंते भवति ते इह आरंभट्ठो अणुवयमाणा हण पाणे घायमाणा हणमो यावि समणुजाणमाणा अदुवा अविसमाययंति अदुवा पायाउ विउज्जति, तंजहा-अत्थि सोए नत्थि लोए, धुवे लोए मधुवे लोए, साइए लोए अणाइए लोए, सपज्जवलिए लोए अपज्जवसिए लोए, सुकडेत्ति वा दुकडेत्ति वा, कल्लाणेत्ति वा पावेत्ति वा, साहुत्ति वा असाहुत्ति वा सिडित्ति वा असिपित्ति वा, निरएत्ति वा भनिरएति वा, जमिणं विप्पडिवमा मामगं धम्म पनवेमाणा इत्थवि जाणह
अकस्मात, एवं तेसिं नो सुयक्खाए धम्मे नो सुपनते धम्मे भवद ॥ सू० १९९॥ 'इह' अस्मिन्मनुष्यलोके 'एकेषां' पुरस्कृताशुभकर्मविपाकानामाचरणमाचारो-मोक्षार्थमनुष्ठानविशेषस्तस्य गोचरो
B॥ ५२६ ॥
Page #85
--------------------------------------------------------------------------
________________
विषयः नो सुष्ठ निशान्त:-परिचितो भवति, ते चापरिणताचारगोचरा यथाभूताः स्युः तथा दर्शयितुमाह-'ते' अनधी- | | ताचारगोचरा भिचाचर्याऽस्नानस्वेदमल परीषहतजिताः सुखविहारिभिः शाक्यादिभिरात्मसात्परिणामिताः इह मनुष्य- | लोके आरम्भार्थिनो भवन्ति, ते वा शाक्यादयोऽन्ये वा कुशीलाः सावद्यारम्भार्थिनः तथा विहारारामतडागकूपकरणौदेशिकभोजनादिभिर्धर्म बदन्तोऽनुवंदन्तः, तथा जहि प्राणिन इत्येवमपरैर्घातयन्तो ध्नतश्चापि समनुजानन्तः, अथवा अदत्तं परकीयं द्रव्यमगणितविपाकास्तिरोहितशुभाध्यवसाया: 'आददति' गृहन्तीति, किं च-तत्र प्रथमत्तीयवते अल्पवक्तव्यत्वात पूर्व प्रतिपाद्य ततो बहुतरवक्तव्यत्वात् द्वितीयव्रतोपन्यास इति, अथवेति' पूर्वस्मात पक्षान्तरोपक्षेपका, तद्यथा अदसं गृहन्त्यथवा वाचो विविधं-नानाप्रकाग प्रयुअम्ति, 'तद्यथेत्युपक्षेपार्थः, अस्ति 'लोकः' स्थावरजङ्गामात्मका, तत्र नवखण्डा पृथ्वी सप्तद्वीपा वसुन्धरेति वा, अपरेषां तु ब्रमाण्डान्तर्वती, अपरेषां तु प्रभूतान्येवम्भतानि ब्रह्माण्डान्युदकमध्ये प्लवमानानि संतिष्ठन्ते, तथा सन्ति जीवाः स्वकृतफलभुजः, अस्ति परलोकः, स्तो बन्धमोक्षौ, सन्ति पश्च महाभूतानि इत्यादि, तथाऽपरे चार्वाका आहुः-नास्ति लोको मायेन्द्रजालस्वप्नकल्पमेवैतत्सर्व, तथा ह्यविचारितरमणीयतया भूताभ्युपगमोऽपि तेषामतो नास्ति परलोकानुयायी जीवो, न स्तः शुभाशुमे, किण्वादिभ्यो मदशक्तिवद्भतेभ्य एव चैतन्यमित्यादिना सर्व मायाकारगन्धर्धनगरतुल्यम्, उपपत्यक्षमत्वादिति, उक्तं च-'यथा यथाऽर्थाश्चिन्यन्ते, विविच्यन्ते (विचार्यन्ते) तथा तथा। यद्येतत्स्वयमर्थेभ्यो, रोचते तत्र के वयम ? ॥१॥ भौतिकानि शरीराणि, विषयाः करणानि च । तथापि मन्दैरन्यस्य, तत्त्वं समुपदिश्यते ॥२॥" इत्यादि,
|| ५२७॥
Page #86
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रोआचा.
विमो.. | उद्देशक
(शीलाबा.)
॥५२८॥
तथा साङ्ख्यादय आहुः-'ध्रुवो' नित्यो लोकः, आविर्मावतिरोभावमात्रत्वादुत्पादविनाशयोः, असतोऽनुत्पादात् सतश्चाविनाशात, यदिवा 'ध्रवः निश्चलः, सरित्समुद्रभृभूधराभ्राणां निश्चलत्वात , शाक्यादयस्त्वाहुः-अध्वो लोकोऽनित्या, प्रतिक्षणं विशरारुस्वभावत्वात् , विनाशहेतोरभावात् नित्यस्य च क्रमयोगपद्याभ्यामर्थक्रियायामसामर्थ्यात् , यदिवा 'अध्रवः' चलः, तथाहि-भूगोलः केषाश्चिन्मतेन नित्यं चलन्नेवास्ते, आदित्यस्तु व्यवस्थित एव, तत्रादित्यमण्डलं दूरत्वाद्ये पूर्वतः पश्यन्ति तेषामादित्योदयः आदित्यमण्डलाधो व्यवस्थितानां मध्याह्नः ये तु दूरातिक्रान्तत्वान्न पश्यन्ति तेषामस्तमित इति, अन्ये पुनः सादिको लोक इति प्रतिपन्नाः, तथा चाहु:-"आसीदिदं तमोभूतमप्रज्ञातमलक्षणम । अमतर्यमविज्ञेयं, प्रसुप्तमिव सर्वतः॥१॥ तस्मिन्नेकार्णवीभूते, नष्टस्थावरजङ्गमे। नष्टामरनरे चैव, प्रनष्टोरगराक्षसे ॥ २॥ केवलं गहरीभूते, महाभूतविवर्जिते। अचिन्त्यात्मा विभुस्तत्र, शयानस्तप्यते तपः॥३॥ तस्य तत्र शयानस्य, नाभेः पद्म विनिर्गतम् । तरुणरविमण्डलनिर्भ, हृद्यं काश्चनकर्णिकम् ॥ ४ ॥ तस्मिन् पद्मे तु भगवान् दण्डी यज्ञोपवीतसंयुक्तः। ब्रह्मा तत्रोत्पन्नस्तेन जगन्मातरः सष्टाः॥५॥ अदितिः सुरसङ्घानां दितिरसुराणां मनुर्मनुष्याणाम । विनता विहन्मानां माता विश्वप्रकाराणाम् ॥ ६॥ कन्ः सरीसृपाणां सुलसा माता तु नागजातोनाम् । सुरभिश्चतुष्पदानामिला पुनः सर्वषीजानाम् ।। ७॥" इत्यादि, अपरे तु पुनरनादिको लोक इत्येवं प्रतिपन्नाः, यथा शाक्या एवमाहुः- अनवदनोऽयं भिक्षवः ! संसारः, पूर्वा च कोटी न प्रज्ञायते, अविद्या निरावरणानां सच्चानां न विद्यते, न च सचोत्पाद
॥ ५२८॥ m
Page #87
--------------------------------------------------------------------------
________________
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
इति, तथा सपर्यवसितो लोको, जगत्प्रलये सर्वस्य विनाशसद्भावात्, तथाऽपर्यवसितो लोकः, सतः आत्यन्तिकविनाशासम्भवात, 'न कदाचिदनीदृशं जगदिति वचनात् , तत्र येषां सादिकस्तेषां सपर्यवसितो येषां त्वनादिकस्तेषामपर्यवसित इति, केषाञ्चित्तमयमपीति, तथा चोक्तम्- "दावेव पुरुषौ लोके, क्षरश्चाक्षर एव च । क्षरः सर्वाणि भूतानि, कूटस्थोऽक्षर उच्यते ॥१॥" इत्यादि, तदेवं परमार्थमजानाना अस्तीत्याद्यभ्युपगमेन लोकं विवदमानाः नानाभूता वाचो नियुञ्जन्ति, तथाऽऽत्मानमपि प्रति विवदन्ते, तद्यथा-मुष्टु कृतं सुकृतमिति वा दुष्कृतमिति वेत्येवं क्रियावादिनः संप्रतिपद्यन्ते, तथा सुष्टु कृतं यत् सर्वसङ्गपरित्यागतो महाव्रतमग्राहि, तथाऽपरे दुष्कृतं भवता यदसौ मुग्धमृगलोचना पुत्रमनुत्पाद्योज्झितेति, तथा य एव कश्चित्प्रवज्योद्यतः कल्याण इत्येवमभिहितः स एवापरेण पाखण्डिकविप्रलब्धः क्लीबोऽयं गृहाश्रमपालनासमर्थोऽनपत्यः पाप इत्येवमभिधीयते, तथा साधुरिति वा असाधुरिति वा स्वमतिविकल्पितरुचिभिरभिधीयते, तथा सिद्धिरिति वा असिद्धिरिति वा नरक इति वा अनरक इति वा, एवमन्यदप्याश्रित्य स्वाग्रहग्रहिणो विवदन्त इति
दर्शयति, 'यदिदं विप्रतिपन्ना' यत्पूर्वोक्तं लोकादिक तदिदमाश्रित्य विविघं प्रतिपन्ना विप्रतिपन्नाः, तथा चोक्तम्8 "इच्छंति कृत्रिम सष्टिवादिनः सर्वमेव मितिनिङ्गम् । कृत्स्नं लोकं माहेश्वरादयः सादिपर्यन्तम् ॥२॥
नारीश्वरजं केचित केचित्सोमाग्निसम्भवं लोकम् । द्रव्यादिषड्विकल्पं जगदेतत्केचिदिच्छन्ति ॥२॥ ईश्वरप्रेरितं केचित्केचिदुब्रह्मकृतं जगत् । अव्यक्तप्रभवं सर्व, विश्वमिच्छन्ति कापिलाः॥शायादृच्छिकमिदं सर्व केशिन्दतविकारजम् । केचिच्चानेकरूपं तु, बहुधा संप्रधाविताः॥४॥" इत्यादि, तदेवमनवगाहितस्याद्वादो
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
Page #88
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीआचा राजवृत्तिः (शीलासा.)
विमो.८ उद्देशकः १
॥५३०॥
X
दन्वतामेकांशावलम्बिना मतिमेदाः प्रादुष्ष्यन्ति, तदुक्तम्-"लोकक्रियाऽऽत्मतत्त्वे विवदन्ते वादिनो विभिसार्थम् । अविदितपूर्व येषां स्यादादविनिश्चितं तत्त्वम् ॥१॥" येषां तु पुनः स्याद्वादमतं निश्चितं तेषामस्तित्वनास्तित्वादेरर्थस्य नयाभिप्रायेण कथश्चिदाश्रयणात् विवादाभाव एवेति, अत्र च बहु वक्तव्यं तत्तु नोच्यते, ग्रन्थविस्तरभयाद्, अन्यत्र च सूत्रंकृतादौ विस्तरेण सुविहितत्वादिति । ते च विवदन्तः परस्परतो विप्रतिपन्नाः "मामकम्" इत्यात्मीयं आत्मीयं धर्म प्रज्ञापयन्तः स्वतो नष्टाः परानपि नाशयन्ति, तथाहि-केचित्सुखेन धर्ममिच्छन्ति अपरे दुःखेनान्ये स्नानादिनेति, तथा मामक एवैको धर्मो मोझायानिर्वाच्यश्च नापर इत्येवं वदन्तोऽपुष्टधर्माणोऽविदितपरमार्थान प्रतारयन्ति तेषामुत्तरं दर्शयति-'अत्रापि' अस्ति लोको नास्ति वेत्यादी जानीत यूयम् 'अकस्मादिति मागधदेशे आगोपालाङ्गनादिना संस्कृतस्यैवोच्चारणादिहापि तथैवोच्चारित इति, कस्मादिति हेतुर्ने कस्मादकस्माद् हेतोरभावादि- 1 त्यर्थः, तत्रास्ति लोक इत्युक्तेऽत्राप्येवं जानीत यथा न भवत्येवमकस्माद् , हेतोरभावादिति, तथाहि-यद्येकान्तेनैव लोको| ऽस्ति ततोऽस्तिना सह समानाधिकरण्याद्यदस्ति तल्लोकः स्याद् एवं च तत्प्रतिपक्षोऽप्यलोकोऽस्तीतिकृत्वा लोक एवालोकः स्याद्, व्याप्यसद्भावे व्यापकस्यापि सद्भावादलोंका मावा, तदभावे च तत्प्रतिपक्षभूतस्य लोकस्व प्रागेवाभावः सर्वगतत्वं वा लोकस्य स्यादिति, अथवा लोकोऽस्ति न च लोको भवति, लोकोऽपि नामास्ति, न च लोकोऽलोकाभाव इत्येवं स्याद्, अनिष्टं चैतव , किंच-अस्तेयापकत्वे लोकस्य घटपटादेरपि लोकत्वप्राप्तिः, व्याप्यस्य व्यापकसद्भावनान्तरीयकत्वात् , किं च अस्ति लोकः इत्येषापि प्रतिज्ञा लोक इतिकृत्वा हेतोरप्यस्तित्वात् , प्रतिज्ञाहेत्वोरेकत्वावाप्तिः, तदेकत्वे हेत्व
॥ ५३०॥
XX
Page #89
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ ५३१ ॥
܀܀܀
भावः, तदभावे किं केन सिद्धयतीति १, उतास्तित्वादन्यो लोक इत्येवं च प्रतिज्ञाहानिः स्यात्, तदेवमेकान्तेनैव लोकास्तित्वेऽभ्युपगम्यमाने हेत्वभावः प्रदर्शितः, एवं नास्तित्वप्रतिज्ञायामपि वाच्यं तथाहि - नास्ति लोक इति ब्रुवन् वाच्यःकिं भवानस्त्युत नेति ?, यद्यस्ति किं लोकान्तर्वतीं न वेति यदि लोकान्तर्गतः कथं नास्ति लोक इति ब्रवीषि १, अथ बहिर्भूतस्ततः खरविषाणवदसद्भूत एवेति कस्य मयोत्तरं दातव्यम् इत्यनया दिशैकान्तवादिनः स्वयमभ्युद्य प्रतिक्षेशव्या इति, 'एच' मिति यथाsस्तित्व नास्तित्ववादस्तेषामाकस्मिको नियुक्तिकः, एवं धुवाधुवादयोऽपि वादा नियुक्तिका एवेति, अस्माकं तु स्याद्वादवादिनां कथञ्चिदभ्युपगमान्न यथोक्तदोषानुषङ्गो, यतः स्वपरसचान्युदासोपादानापाद्यं हि वस्तुनो वस्तुत्वम्, अतः स्वद्रव्यक्षेत्र कालस्वभावतोऽस्ति परद्रव्यादिचतुष्टयान्नास्तीति उक्तं च - " सदेव सर्वं को नेच्छेत्, स्वरूपादिचतुष्टयात् १, । असदेव विपर्यासान्न चेन्न व्यवतिष्ठते ॥ १ ॥" इत्यादि, अलमतिप्रसङ्गेनाचरगमनि कार्थत्वात् प्रयासस्य एवं ध्रुवावादिष्वपि पञ्चावयवेन दशावयवेन वाऽन्यथा वैकान्तपक्षं विक्षिप्य स्याद्वाद - पोऽभ्यूमायोज्य इति । साम्प्रतमुपसंहरति- ' एवं ' उक्तनीत्या तेषामेकान्तवादिनां न स्वाख्यातो धम्र्म्मो भवति, नापि शास्त्रप्रणयनेन सुप्रज्ञापितो भवति ॥ किं स्वमनीषिकया भवतेदमभिधीयते ?, नेत्याह-यदिवा किम्भूतस्तर्हि सुप्रज्ञापितो धर्मो भवतीत्याह
से जहेयं भगवया पवेश्यं आसुपत्त्रेण जाणया पासया अदुवा गुती वओगोयरस्स त्तिबेमि सव्वत्य संमयं पावं, तदेव उवाइकम्म एस महं विवेगे वियाहिए, गामे वा
܀܀܀܀܀܀܀܀
॥ ५३१ ॥
Page #90
--------------------------------------------------------------------------
________________
विमो. ८ उद्देशकः १
श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (चोलाङ्का. ॥ ५३२॥
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
अदुवा रणे नेव गामे नेव रणे धम्ममायाणह पवेइयं माहणेण महमया, जामा तिन्नि उदाहिया जेसु इमे आयरिया संबुज्झमाणा समुडिया, जे णिवुया पावेहिं
कम्मेहिं अणियाणा ते वियाहिया ॥ सू० २००॥ तद्यथा 'इदं' स्याद्वादरूपं वस्तुनो लक्षणं समस्तव्यवहारानुयायि क्वचिदप्यप्रतिहतं 'भगवता' श्रीवर्द्धमानस्वामिना प्रवेदितम् , एतद्वाऽनन्तरोक्तं भगवता प्रवेदितमिति, किम्भूतेनेति दर्शयति-आशुप्रज्ञेन, निरावरणत्वात् सततोपयुक्तेनेत्यर्थः किं यौगपद्यन !, नेति दर्शयति-'जानता' ज्ञानोपयुक्तेन, तथा 'पश्यता' दर्शनोपयुक्तेनैतत्प्रवेदितं, यथा नेपामेकान्तवादिनां धर्मः स्वाख्यातो भवति, अथवा गुप्तिर्वाग्गोचरस्य-भापासमितिः कार्येत्येतत्प्रवेदितं भगवता, यदिवा अस्ति नास्ति ध्रुवाध्रुवादिवादिना वादायोत्थितानां त्रयाणां त्रिषष्टयधिकानां प्रावादुकशतानां वादलब्धिमतां प्रतिज्ञाहेतुदृष्टान्तोपन्यासद्वारेण तदुपन्यस्तषणोपन्यासेन च तत्पराजयापादनतः सम्यगुत्तरं देयम्, अथवा गुप्तिर्वाग्गोचरस्य विधेयेत्येतदहं ब्रवीमि, वक्ष्यमाणं चेत्याह-तान् वादिनो वादायोत्थितानेवं ब्र याद्-यथा भवतां सर्वेषामपि पृथिव्यप्तेजो. वायुवनस्पत्यारम्भः कृतकारितानुमतिभिरनुज्ञातोऽतः सर्वत्र 'सम्मतम्' अभिप्रेतमप्रतिषिद्धं 'पाप' पापानुष्ठानं, मम तु नैतत्सम्मतमित्येतद्दशयितुमाह-'तदेव' एतत्पापानुष्ठानमुप-सामीप्येनातिक्रम्य-अतिलय यतोऽहं व्यवस्थितोऽत एष मम विवेको व्याख्यातः, तत्कथमहं सर्वानातषिद्धास्रवद्वारीः संभाषणमपि करिष्ये ?, आस्तां तावद्वाद इत्येवमसमनजविवेकं करोतीति, अत्राह चोदक:-कथं तीथिकाः सम्मतपापा अज्ञानिनो मिथ्यादृष्टयोऽचरित्रिणोऽनपस्विनो
Page #91
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ ५३३ ।
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
वेति !, तथाहि-तेऽप्यकृष्टभूमिवनवासिनो मूलकन्दाहारा वृक्षादिनिवासिनश्चेति, अत्राहाचार्य:-नारण्यवासादिना धर्मः, अपि तु जीवाजीवपरिज्ञानात् तत्पूर्वकानुष्ठानाच्च, तच्च तेषां नास्तीत्यतोऽसमनोज्ञास्ते इति । किं च-सदसद्विवेकिनो हि धर्मः, स च ग्रामे वा स्यात् अथवाऽरण्ये, नैवाधारो ग्रामो नैवारण्यं धर्मनिमित्तं, यतो भगवता न वसिममितरद्वाऽऽश्रित्य धर्मः प्रवेदितः, अपि तु जीवादितत्त्वपरिज्ञानात् सम्यगनुष्ठानाच्च, अतस्तं धर्ममाजानीत 'प्रवेदित' कथितं 'माहणण'त्ति भगवता, किम्भूतेन ?-'मतिमता' मननं-सर्वेपदार्थपरिज्ञानं मतिस्तद्वता मतिमता केवलिनेत्यर्थः । किंभृतो धर्मः प्रवेदित इत्याह-'यामा' व्रतविशेषाः त्रय उदाहृताः, तद्यथा--प्राणातिपातो मृपावादः परिहै ग्रहश्चेति, अदत्तादानमैथुनयोः परिग्रह एवान्तर्भावात् त्रयग्रहणं, यदिवा यामा-चयोविशेषाः, तद्यथा--अष्टवर्षादात्रि
शतः प्रथमस्तत ऊद्धमाषष्टः द्वितीयस्तत ऊद्धवं तृतीय इति अतिबालवृद्धयोव्यु दासो, यदिवा यम्यते-उपरम्यते संसारभ्रमणादेभिरिति यामा:-ज्ञानदर्शनचारित्राणीति ते 'उदाहृता' व्याख्याताः, यदि नामैवं ततः किमित्याह-'येषु' अवस्थाविशेषेषु ज्ञानादिषु वा इमे देशार्या अपाक्तहेयधर्मा वा सम्बुध्यमानाः सन्तः समुत्थिताः, के ?-ये 'निवता:' क्रोद्याद्यपगमेन शीतीभृताः पापेषु कर्मसु 'अनिदाना' निदानरहिताः ते 'व्याख्याता:' प्रतिपादिता इति ॥क पुनः | पापकर्मस्वनिदाना इत्यत आह
उड्डअहं तिरियं दिसासु सव्वओ सव्वावंति च णं पाडियक्क जीवेहि कम्मसमारम्भे जतं परिन्नाय मेहावी नेव सयं एएहिं काएहिं दंडं समारंभिजा नेवन्ने एएहिं काएहिं
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
Page #92
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीआचारावृत्तिः (घीलाङ्का.)
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
बिमो. ८ उद्देशका १
.५३४॥
दंड समारंभाविजा नेवन्ने एएहिं काएहिंदं समारंभंतेऽवि समणजाणेजा जेवऽन्ने एएहिं काएहिं दंड समारंभंति तेसिपि वयं लज्जामोतं परित्राय मेहावीतं वा दंडं अन्न धा
नो दंडभी दंड समारंभिजासि त्तिमि ॥ सू० २०१॥इति प्रथम उद्देशकः ॥ ८-१॥ ऊद्धर्वमधस्तियग्दिक्षु 'सर्वतः सर्वैः प्रकारैः सर्वा याः काश्चन दिशः चशब्दादनुदिशश्च णम्' इति वाक्यालङ्कारे 'प्रत्येक जीवेषु' एकेन्द्रियसूक्ष्मेतरादिकेषु यः कर्मसमारम्भ:-जीवानुद्दिश्य य उपमर्दरूपः क्रियासमारम्भः 'णम्' इति वाक्यालङ्कारे तं कर्मसमारम्भ ज्ञपरिज्ञया ज्ञात्वा प्रत्याख्यानपरिज्ञया प्रत्याचक्षीत, कोऽसौ ?-'मेधावी' मर्यादाव्यवस्थित इति, कथं प्रत्याचक्षीतेत्याह-नैव स्वयमात्मना 'एतेषु' चतुर्दशभूतनामावस्थितेषु 'कायेषु' पृथिवीकायादिषु 'दण्डम्' उपमर्द समारमेत, न चापरेण समारम्भयेत् , नवान्यान् समारभमाणान् समनुजानीयात् , ये चान्ये दण्ड समारभन्ते, सुव्यत्ययेन तृतीयार्थे षष्ठी, तैरपि वयं लज्जाम इत्येवं कृताभ्यवसायः सन् तज्जीवेषु कर्मसमारम्भं महतेऽनय 'परिज्ञाप' ज्ञात्वा 'मेधावी' मर्यादावान , तथा पूर्वोक्तं दण्डमन्यद्वा मृषांवादादिकं दण्डाद्विभेतीति दण्डभीः सन् नो 'दण्डं' प्राण्युपमर्दादिकं समारमेथाः, करणत्रिकयोगत्रिकेण परिहरेदिति, इतिरधिकारपरिसमाप्तौ ब्रवीमीति पूर्ववत । विमोक्षाध्ययने प्रथमोद्देशक इति ॥८ ॥
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
५३४॥
Page #93
--------------------------------------------------------------------------
________________
.
पादपत्रम्-
॥ अथ अष्टमाध्ययने द्वितीयोद्देशकः ॥ उक्तः प्रथमोद्देशकः, साम्प्रतं द्वितीय आरम्यते, अस्य चायममिसम्बन्धः, इहानन्तरोद्देशकेऽनघसंयमप्रतिपालनाय कुशीलपरित्यागोऽभिहिता, स चैतावताऽकल्पनीयपरित्यागमृते न सम्पूर्णतामियाद् अतोऽकल्पनीयपरित्यागार्थमिदमुप क्रम्यत इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्योद्देशकस्यादिवत्रम्
से भिक्खू परिवमिजा वा चिहिजा वा निसीइज्ज वा तुयहिज वा सुसाणंसि वा मुन्नागारंसि वा गिरिगुहंसि वा रुक्खमूलंसि वा कु'भाराययणंसि वा हुरत्या वा कहिंचि विहरमाणं तं भिक्खु उवसंकमित्त गाहावई या-आउसंतो समणा ! अहं खलु नव अट्ठाए असणं वा पाणं वा स्वाइम वा साइमं वा वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबर वा पायपुच्लणं वा पाणाई भूयाई' जोवाई सत्ताई समारम्भ समुद्दिस्स कीयं पामिच्चं अच्छिज्जं अणिसटुं अभिहडं आहड चेएमि आवसहं वा समुस्सिणोमि से भुजह वसह, आउसंतो समणा! भिक्खू तं गाहावह' समणसं सवयसं पडियाइक्खेआउसंतो! गाहावई नो खल ते वयणं आढामि नो खल ते वयणं परिजाणामि, जो तुम मम अह्राए असणं वा ४ वत्थं वा ४ पाणावो ४. समारम्भ समुहिस्स कोयं
Page #94
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीआचागङ्गवृत्तिः सोलाङ्का.)
॥५३६ ॥
पामिच्चं अच्छिज्ज अणिसह अभिहडं आहह चेएसि आवसहं वा समुस्सिणासि, से।
विमो. ८ विरओ आउसो गाहावई! एयरस अकरणयाए ॥ सू० २०२॥
उद्देशका २ 'स' कृतसामायिकः सर्वसावद्याकरणतया प्रतिज्ञामन्दरमारूढो भिक्षणशीलो भिक्षुः भिक्षार्थमन्यकार्याय वा 'पराक्रमेत' विहरेत् तिष्ठेद्वा ध्यानव्यग्रो निषीदेद्वा अध्ययनाध्यापनश्रवणश्रावणादृतः, तथा श्रान्तः क्वचिदध्वानादौ त्वगवर्तनं वा विदध्यात् , क्वैतानि विदध्यादिति दर्शयति-'श्मशाने वा' शबानां शयनं श्मशानं-पितृवनं तस्मिन् वा, तत्र च त्वग्वर्त्तनं न सम्भवत्यतो यथासम्भवं पराक्रमणाद्यायोज्यं, तथाहि-गच्छवासिनस्तत्र स्थानादिकं न कल्पते, प्रमादस्खलितादौ व्यन्तराद्यपद्रवात , तथा जिनकल्पार्थ सत्त्वभावनां भावयतोऽपि न पितृवनमध्ये निवासोऽनुज्ञातः, प्रतिमाप्रतिपत्रस्य तु यत्रैव सूर्योऽस्तमुपयाति तत्रैव स्थानं. जिनकल्पिकस्य वा, तदपेक्षया श्मशानसूत्रम् , एवमन्यदपि यथासम्भवमायोज्यं, शून्यागारे वा गिरिगुहायां वा 'हुरत्था वत्ति अन्यत्र वा ग्रामादेवहिस्तं भिक्षु क्वचिद्विहरन्तं गृहपतिरुपसंक्रम्य विनेयदेशं गत्वा 'ब्रूयाद्' वदेदिति, यच्च वयात्तदर्शयितुमाह-साधु श्मशानादिषु परिक्रमणादिका क्रियां कुर्वाणमुपसङ्क्रम्य-उपेत्य पूर्वस्थितो वा गृहस्थः प्रकृतिभद्रकोऽभ्युपेतसम्यक्त्वो वा साध्वाचाराकोविदः साधुमहिश्यतन यात-यथैते लब्धापलब्धभोजिनः त्यक्तारम्भाः सानुक्रोशाः सत्यशुचय एतेषु निक्षिप्तमक्षयमित्यतोऽहमेतेभ्यो दास्यामीत्यभिसन्धाय साधुमुपतिष्ठते, वक्ति च-आयुष्मन् ! भोः श्रमण ! अहं संसारावर्णवं समुत्तितीषुः खलः'
B५३६॥ वास्यालद्वारे तवाय' युष्मचिमिनं अशनं वा पानं वा खादिम वा स्वादिमं वा तथा वस्त्रं वा पतद्ग्रहं वा कम्बलं
Page #95
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ ५३७ ।।
*********
वा पाञ्छनं वा समुद्दिश्य - आश्रित्य किं कुर्यादिति दर्शयति- पत्र वेन्द्रियोच्छ्वासनिश्वासादिसमन्त्रिताः प्राणिनस्तान, अभूवन् भवन्ति भविष्यन्ति चेति भूतानि तानि तथा जीवितवन्तो जीवन्ति जीविष्यन्तीति वा जीवाः तान्, सक्ताः सुखदुःखेष्विति सच्चास्तान् समारभ्य - उपमर्थ, तथाहि - अशनाद्यारम्भे प्राण्युपमर्दोऽवश्यंभावी, एतच्च समस्तं व्यस्तं वा कश्चित्प्रतिपद्येत इयं चाविशुद्धिकोटिगृ हीता सा चेमा - "" आहाकम्मुद्देसिअ मीसज्जा बायरा य पाहुडिआ । अ अज्झोयरगो उग्गमकोडी अ छन्भेआ || १ ||" विशुद्धिकोटिं दर्शयति- ' क्रीतं ' मूल्येन गृहीतं 'पामिच्चं ' ति अपरस्मादुच्छिन्नमुद्यतकं गृहीतं बलात्कारितया वाऽन्यस्मादाच्छिद्य राजोपसृष्टो वाऽन्येभ्यो गृहिभ्यः साधोर्दास्यामीत्याच्छिन्द्यात्, तथा 'अनिसृष्टं' परकीयं यत्तदन्तिके तिष्ठति न च परेण तस्य निसृष्टं दत्तं तदनिसृष्टं तदेवंभूतमपि साधोर्दानाय प्रतिपद्यते, तथा स्वगृहादाहृत्य 'चेएमि'त्ति ददामि तुभ्यं वितरामि, एवमशनादिकमुद्दिश्य त्रयात्, तथा 'आवसथं वा' युष्मदाश्रयं समुच्छृणोमि - आदेरारभ्यापूर्वं करोमि संस्कारं वा करोमीत्येवं प्राञ्जलिखनतोत्तमाङ्गः सन् अशनादिना निमन्त्रयेत्, यथा-भुङ्क्ष्वाशनादिकं मत्संस्कृतावसथे वसेत्यादि, द्विवचनबहुवचने अध्यायोज्ये । साधुना तु सूत्रार्थविशारदेनादीनमनस्केन प्रतिषेधितव्यमित्याह - आयुष्मन् ! श्रमण ! भिक्षो ! तं गृहपतिं समनसं सवयसमन्यथाभूतं वा प्रत्याचक्षीत, कथमिति चेद्दर्शयति यथा - आयुष्मन् ! भो गृहपते ! न खलु तवैवंभूतं वचनमहमाद्रिये, खलुशब्दोऽपिशब्दार्थे, स च समुच्चये, नापि तदेतद्वचनं 'परिजानामि' आसेवनपरिज्ञानेन विदधेऽहमित्यर्थः, १ आधाक मौद्देशिके मिश्रजातं बादरा च प्राभृतिका पूर्तिश्च अध्यक्ष रक उद्गमकोटी च षड्भेदा ॥ १ ॥
***********
॥ ५३७ ॥
Page #96
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीआचाराङ्गवृतिः
(शोलाङ्का.
॥ ५३८ ॥
यस्त्वं मम कृतेऽशनादि प्राण्युपमर्देन विदधासि यावदावसथसमुच्छ्रयं विदधासि भो आयुष्मन् गृहपते ! विरतोऽहमेवम्भूतादनुष्ठानात् कथम् १ - एतस्य - भवदुपन्यस्तस्याकरणतयेत्यतो भवदीयमभ्युपगमं न जानेऽहमिति ॥ तदेवं प्रसह्याशनादिसंस्कारप्रतिषेधः प्रतिपादितो, यदि पुनः कश्चिद्विदितसाध्वभिप्रायः प्रच्छन्नमेव विदध्यात्तदपि कुतश्चिदुपलभ्य प्रतिषेधदित्याह
से भिक्खु परिक्कमिज वा जाव हुरत्था वा कहिंचि विहरमाणं तं भिक्खु उवसंकमित्त गाहावई आयगयाए पेहाए असणं वा ४ वत्थं वा ४ जाव आहहु चेएइ आवसहं वा समुदिसणाइ भिक्खू परिघासेउ तं च भिक्खू जाणिजा सहसम्मइयाए परवागरणेणं अन्नेसिंघा सुक्षा- अयं खलु गाहावई मम अट्ठाए असणं वा ४ वत्थं वा ४ जाव आवसहं वा समुस्सिणाइ, तं च भिक्खू पडिलेहाए आगमित्ता आणविला अणासेवणाए तिबेसि ॥ सु० २०३ ॥
,
तं क्षं कचित् श्मशानादौ विहरन्तमुपसङ्क्रम्य प्राञ्जलिर्वन्दित्वा गृहपतिः प्रकृतिभद्रकादिकः कश्चिदात्मगतया प्रेक्षयाऽनाविष्कृताभिप्रायः केनचिदलक्ष्यमाणो यथाऽहमस्य दास्यामीत्यशनादिकं प्राण्युपमर्देनारमेत, किमर्थमिति चेद्दर्शयति - तदचनादिकं भिक्षु 'परिघासयितु' मोजयितु', साधुभोजनार्थमित्यर्थः, आवसथं च साधुभिरधिवासयितुमिति, तदशनादिकं साध्वर्थं निष्पादितं भिक्षुः 'जानीयात्' परिच्छिन्द्यात्, कथमित्याह - स्वसम्मत्या परव्याकरणेन वा
विमो०८ उद्दे शका २
॥ ५३८ ॥
Page #97
--------------------------------------------------------------------------
________________
५३६
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
तीर्थकरोपदिष्टोपायेन वा अन्येभ्यो वा तत्परिजनादिभ्यः श्रुत्वा जानीयादिति वर्त्तते, यथाऽयं खलु गृहपतिर्मदर्थमशनादिकं प्राण्युपमर्दैन विधाय मह्य ददात्यावसथं च समुच्छणोति, तद्भिः सम्यक 'प्रत्युपेक्ष्य' पर्यालोच्यावगम्य च ज्ञात्वा 'ज्ञापयेत्' तं गृहपतिमनासेवनया यथाऽनेन विधानेनोपकल्पितमाहारादिकं नाहं भुजे एवं तस्य ज्ञापन कुर्याद् , यद्यसौ श्रावकस्ततो लेशतः पिण्डनियुक्तिं कथयेद् , अन्यस्य च प्रकृतिभद्रकस्योद्गमादिदोषानाविर्भावयेत् । प्रासुकदानफलं च प्ररूपयेत् , यथाशक्तितो धर्मकां च कुर्यात, तद्यथा-"काले देशे कल्प्यं श्रद्धायुक्तेन शुद्धमनसा च । सत्कृत्य च दातव्यं दानं प्रयतात्मना सदभ्यः॥१॥" तथा "दानं सत्पुरुषेषु स्वल्पमपि गुणाधिकेषु विनयेन । घटकणिकेव महान्तं न्यग्रोधं सत्फलं कुरुते ॥२॥ दुःखसमुद्रं प्राज्ञास्तरन्ति पात्रार्पितेन दानेन । लघुनेव मकरनिलयं वणिजः सद्यानपात्रेण ॥३॥" इत्यादि, इतिरधिकारपरिसमाप्ती, ब्रजीमीत्येतत्पूर्वोक्तं वक्ष्यमाणं चेत्याह
भिक्खुव खल पुट्ठा वा अपुट्ठा वा जे इमे आहच गथा वा फुसंति, से हंता हणह खणह छिंदह दहह पयह आलु पह विलुपह सहसाकारेह विप्परामुसह, ते फासे धोरो पुट्ठो अहियासए अदुवा आयारगोयरमाइक्खे, तकिया मणेलिसं अदुवा वइगुत्तीए
गोयरस्स अणुपुव्वेण संमं पडिलेहए आयतगुत्ते बुडेहिं एयं पवेयं ॥ सू० २०४॥ 'च' समुच्चये 'खलः' वाक्यालङ्कारे भिक्षणशीलो भिक्षुस्तं भिक्षु पृष्टा कश्चिद्यथा मो मिक्षो! भवदर्थमशनादिक-18
॥ ५३६ ॥
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
Page #98
--------------------------------------------------------------------------
________________
܀܀܀
܀܀܀܀
मावसथं वा संस्करिष्येऽननुज्ञातोऽपि तेनासौ तत्करोत्यवश्यमयं चाटुमिचलात्कारेण वा ग्राहयिष्यते, अपरस्त्वीपत्साध्याश्रीआचा
विमो. ८ चारविधिज्ञोऽतोऽपृष्ट्वैव छाना ग्राहयिष्यामीत्यभिसन्धायाशनादिकं विदध्यात् , स च तदपरिभोगे श्रद्धाभङ्गाच्चाटुशतावृत्तिः
| उद्देशका २ ग्रहणाच्च रोषावेशानिःसुखदुःखतयाऽलोकज्ञा इत्यनुशयाच्च राजानुसृष्टतया चन्यकारभावनातः प्रद्वेषमुपगतो हननादिकशीलाका.)
मपि कुर्यादिति दर्शयति-एकाधिकारे बह्वतिदेशाद्य इमे प्रश्नपूर्वकमप्रश्नपूर्वकं वा आहारादिकं 'ग्रन्थात' महतो ५४०॥ द्रव्यव्ययाद् ‘आहृत्य' ढौकित्वा आहृतग्रन्था वा-व्ययीकृतद्रव्या वा तदपरिभोगे 'स्पशन्ति' उपतापयन्ति, कथमिति
चेद्दर्शयति—'स' ईश्वरादिः प्रद्विष्टः सन् हन्ता स्वतोऽपरांश्च हननादौ चोदयति, तद्यथा-हतैनं साधु दण्डादिभिः 'क्षणत'व्यापादयत छिन्नहस्तपादादिकं दहत अग्न्यादिना पचत उरुमासादिकं आलुम्पत वस्त्रादिकं विलुम्पत सर्वस्वाA पहारेण सहसात् कारयत-आशु पश्चत्वं नयत तथा विविधं परामृशत-नानापीडाकरणैर्वाधयत, तांश्चैवम्भूतान् 'स्पर्शान्' दुःखविशेषान् 'धीरः' अक्षोभ्यः तैः स्पर्शः स्पृष्टः सन्नधिसहेत, तथा परैः क्षुत्पिपासापरीषदः स्पृष्टः सन्नधिसहेत, न तु पुनरुपसर्गः परीषहैर्वा तर्जितो विक्लवतामापन्नस्तदुद्देशिकादिकमभ्युपेयादनुकूलैर्वा सान्त्ववादादिभिरुपसर्गितो नादद्याद, अपि तु सति सामर्थ्ये जिनकल्पिकादन्यः आचारगोचरमाचक्षीतेत्याह-नानाविधोपसर्गजनितान् स्पर्शानधिसहेत, अथवा साधूनामाचारगोचरम्-आचारानुष्ठानविषयं मूलोत्तरगुणभेदभिन्नमाचक्षीत, न पुनर्नयैद्रव्य विचारं, तत्रापि । मलगुणस्थार्थमुत्तरगुणाः, तत्रापि पिण्डैषणाविशुद्धि माचक्षीत, अत्र च पिण्डैषणासूत्राणि पठितव्यानि, अपि च यत्स्व
॥५४०॥ यमदुःखितं स्यान्न च परदुःखे निमित्तभूतमपि । केवलमुपग्रहकर धर्मकृते तद्भवेद्देयम् ॥१॥" किं सर्वस्य
Page #99
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ ५४१ ॥
सर्व कथयेत १. नेति दर्शयति-तर्कयित्वा' पर्यालोच्य पुरुषं, तद्यथा-कोऽयं पुरुषः कश्च नतोऽभिगृहीतोऽनमिगृहीतो मध्यस्था प्रकृतिमद्रको वेत्येवमुपयुज्य यथाहे यथाशक्ति चावेदयेत, सत्यां च शक्तौ पश्चावयवेनान्यथा वा वाक्येनानीहशम-अनन्यसदृशं स्वपरपक्षस्थापनाव्युदासद्वारेणावेदयेदिति, अथ सामर्थ्य विकल: स्यात् कुप्यति वा कथ्यमानेऽसावनुकूलप्रत्यनीकस्ततो वाग्गुप्तिर्विधेयेत्याह-सति सामर्थ्य शृण्वति वा दातरि आचारगोचरमाचक्षीत, 'अथवे' त्य यथाभावे तु वाग्गुप्त्या व्यवस्थितः सन्नात्महितमाचरन् 'गोचरस्य' पिण्डविशुद्धथादेराचारगोचरस्य 'आनुपूा उद्गमप्रश्नादिरूपया सम्यगशुद्धिं प्रत्युपेक्षेत, किम्भूतः ?-आत्मगुप्तः सन् , सततोपयुक्त इत्यर्थः, नैतन्मयोच्यत इत्याह'बुद्धैः कन्प्याकम्प्यविधिज्ञैः एतत् पूर्वोक्तं प्रवेदितम् ॥ एतद्वा वक्ष्यमाणमित्याह
से समणने असमणनस्स असमणं वा जाव नो पाहज्जा नो निमंतिजा नो कुजा
याडियं परं आढायमाणे त्तिबेमि ॥ सू० २०५॥ न केवलं गृहस्थेभ्यः कुशीलेम्यो वा अकल्प्यमितिकृत्वाऽऽहारादिकं न गृह्णीयात् , स समनोज्ञोऽसमनोज्ञाय तत पूर्वोक्तमशनादिकं न प्रदद्यात् , नापि परम्-अत्यर्थमाद्रियमाणोऽशनादिनिमन्त्रणतोऽन्यथा वा तेषां वैयावृत्त्यं कुर्यादिति. ब्रवीमीतिशब्दावधिकारपरिसमाप्त्यौँ । किम्भूतस्तहिं किम्भूताय दद्यादित्याह--
धम्ममायाणह पवेइयं माहणेण मइमया समणने समणनस्स असणं वा जाव कुज्जा वेयावडियं परं आढायमाणे त्तिमि ॥ सू०२०६॥ इति द्वितीय उद्देशकः ॥ ८-२॥
Page #100
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीआचारावृत्तिः (सोलाका.
'धर्म' दानधर्म जानीत यूयं 'प्रवेदितं' कथितं, केन :-श्रीवर्द्धमानस्वामिना, किम्भूतेन ?–'मतिमता' केव
विमो. ८ लिना, किम्भूतं धर्ममिति दर्शयति-यथा समनोज:-साधरुद्यक्तविहारी अपरस्मै-समनोज्ञाय चारित्रवते संविग्नाय
उद्देशका ३ । साम्भोगिकायैकसामाचारीप्रविष्टायाशनादिकं चतुर्विधं तथा वस्त्रादिकमपि चतुर्दा 'प्रदद्यात्' प्रयच्छेद , तथा तदर्थ च । निमन्त्रयेत् , पेशलमन्यद्वा वैयावृत्यम्-अङ्गमर्दनादिकं कुर्यात् , नैतद्विपर्यस्तेभ्यो गृहस्थेभ्यः कुतीथिकेभ्यः पार्श्वस्थादिभ्योऽसंविग्नेभ्योऽसमनोज्ञेभ्यो वेत्येतत्पूर्वोक्तं कुर्यादिति, किन्तु समनोज्ञेभ्य एव परम्-अन्यर्थमाद्रियमाणस्तदर्थसीदने । परमुत्तप्यमानः सम्यग्वैयावृत्त्यं कुर्यात् , तदेवं गृहस्थादयः कुशीलादयस्त्याज्या इति निदर्शितम् , अयं तु विशेषोगृहस्थेभ्यो यावल्लभ्यते तावद्गृह्यते, केवलमकल्पनीयं प्रतिषिभ्यते, असमनोज्ञेभ्यस्तु दानग्रहणं प्रति सर्वनिषेध इति । इतिब्रवीमिशन्दौ पूर्ववद् । विमोक्षाध्ययने द्वितीयोदेशका समाप्तः ॥८-२॥
॥५४२॥
॥ अथ अष्टमाध्ययने ततीयोद्देशकः ॥ उक्तो द्वितीयोद्देशकः, साम्प्रतं तृतीय आरभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरोद्देशकेऽकल्पनीयाहारादिप्रतिधोऽभिहितस्तत्प्रतिषेधकुपितस्य दातुर्यथावस्थितपिण्डदानप्ररूपणा च, तदिहाप्याहारादिनिमित्तं प्रविष्टेन शीताद्यङ्गोकम्पदर्शनान्यथाभाववतो गृहपतेर्यथावस्थितपदार्थावेदनतो गीतार्थेन साधुनाऽसदारेकाऽपने येत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्योद्देशकस्य सूत्रानुगमे सूत्रमुच्चारयितव्यं, तच्चेदम्
Page #101
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥५४३॥
मज्झिमेणं वयसावि एगे संबुज्झमाणा समुडिया, सुच्चा मेहावी वयणं पंडियाणं निसामिया समियाए घम्मे आरिएहिं पवेइए ते अणवकंखमाणा अणइवाएमाणा अपरिग्गहेमाणा नो परिग्गहावंती सव्वावंति चणं लोगसि निहाय दंडं पाणेहिं पावं कम्म अकुव्वमाणे एस महं अगंथे वियाहिए. ओए जहमस्स खेयन्ने उपवायं चवणं
प नचा ॥ सू० २०७॥ इह त्रीणि वांसि-युवा मध्यमवया वृद्धश्चेति, तत्र मध्यमवयाः परिपक्वबुद्धित्वाद्धार्ह इत्यतो दर्शयति-मध्यमेन वयसाऽप्येक सम्बुध्यमानाः धम्मचरणाय सम्यगुत्थिताः समुत्थिता इति, सत्यपि प्रथमचरमवयसोरुत्थाने यतो बाहुन्यायोग्यत्वाच्च प्रायो विनिवृत्तभोगकुतूहल इति निष्प्रत्यूहधर्माधिकारीति मध्यमवयोग्रहणं । कथं सम्बुद्धयमानाः समुत्थिता इत्याह-इह त्रिविधाः सम्बुध्यमानका भवन्ति, तद्यथा-स्वयंबुद्धाः प्रत्येकबुद्धाः बुद्धबोधिताच, तत्र बुद्धबोधितेनेहाधिकार इति दर्शयति-'मेधावी' मर्यादाव्यवस्थितः 'पण्डितानां'तीर्थकदादीनां 'वचन' हिताहितप्राप्तिपरिहारप्रवर्तकं आकर्ण्य पूर्व पश्चात् 'निशम्य' अवधार्य समतामालम्बेत, किमिति ?-यतः समतया-माध्यस्थ्येनार्यः-तीर्थकृद्भिधर्मःश्रत चारित्राख्यः 'प्रवेदितः' आदौ प्रकर्षण वा कथित इति, ते च मध्यमे वयसि श्रुत्वा धर्म सम्बुध्यमानाः समुत्थिताः सन्तः किं कुयु रित्याह-ते निष्क्रान्ताः मोक्षमभि पस्थिताः काममोगानमिकाअन्तः तथा प्राणिनोऽनतिपातयन्त, परिग्रहमपरिगृहन्तः, आद्यन्तयोग्रहणे मध्योपादानमपि द्रष्टव्यम् , तथा(तो) मृषावादमवदन्त इत्याद्यपि वाच्यम् , एवम्भूताः
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
॥५४३॥
Page #102
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीआचा राङ्गवृत्तिः
(शीलाङ्का.) ॥ ५४४ ॥
܀܀܀
"
स्वदेहेऽप्यममत्वाः 'सव्वावंति 'ति सर्वस्मिन्नपि लोके चः समुच्चये स च भिन्नक्रमः, 'णम्' इति वाक्यालङ्कारे, नो परिग्रहवन्तश्च भवन्तीतियावत् किं च प्राणिनो दण्डयतीति दण्डः - परितापकारी तं दण्डं प्राणिषु प्राणिभ्यो वा 'निधाय' क्षिप्त्वा त्यक्त्वा 'पाप' पापोपादानं 'कम्मै' अष्टादशमेदभिन्नं तत् 'अकुर्वाणः' अनाचरन्नेषु महान न विद्यते ग्रन्थः सबाह्याभ्यन्तरोऽस्येत्यग्रन्थः ' व्याख्यातः' तीर्थकरगणधरादिभिः प्रतिपादित इति । कश्चैवम्भूतः स्यादित्याह - 'ओजः' अद्वितीयो रागद्वेपरहितः 'द्युतिमान् संयमो मोक्षो वा तस्य 'खेदज्ञो' निपुणो देवलोकेऽप्युपपात च्यवनं च ज्ञात्वा सर्वस्थानानित्यता हितमतिः पापकर्म्मवर्जी स्यादिति । केचित्तु मध्यमवयसि समुत्थिता अपि परीषहेन्द्रियैग्लनतां नीयन्त इति दर्शयितुमाह
आहारोवचया देहा परीसहपभंगुरा पासह एगे सव्विदिएहिं परिगिलायमाणेहिं ॥ सू० २०८ ॥ आहारेणोपचयो येषां ते आहारोपचयाः, के ते ? - दिह्यन्त इति देहास्तदभावे तु म्लायन्ते म्रियन्ते वा, तथा 'परीपहप्रभञ्जनः' परीषदॆः सद्भिर्भङ्गुरा देहा भवन्ति, ततश्चाहारोपचितदेहा अपि प्राप्तपरीपहा वातादिक्षोभेण वा पश्यत यूयमेके क्लीवाः सर्वैरिन्द्रियैग्लयमानैः क्लीवतामीयुः तथाहि - चुत्पीडितो न पश्यति न शृणोति न जिघ्रतीत्यादि, तत्र केवलिनोऽप्याहारमन्तरेण शरीरं ग्लानभावं यायाद् आस्तां तावदपरः प्रकृतिभङ्गुरशरीर इति, स्यान्मतं- अकेवल्यकृतार्थत्वात् क्षुद्वेदनीयसद्भावाच्चाहारयति दयादीनि व्रतान्यनुपालयति, केवली तु नियमात् सेत्स्यतीत्यतः किमर्थं शरीरं धारयति ? तद्धरणार्थं चाहारयतीति १, अत्रोच्यते, तस्यापि चतुःकर्म्मसद्भावान्नैकान्तेन कृतार्थता, तत्कृते शरीरं विभू
१
विमो० ८ | उद्देशकः २
।। ५.४४ ।।
Page #103
--------------------------------------------------------------------------
________________
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
यात, तद्धरणं च नाहारमन्तरेण, शुद्वेहनीयसद्भावाच्चेति, तथाहि-वेदनीयसद्भावात्तत्कृता एकादशापि परीषहाः केवलिनो व्यस्तसमस्ताः प्रादुष्ष्यन्ति इत्यत आहारयत्येव केवलीति स्थितम् , अत आहारमृते ग्लानतेन्द्रियाणामिति प्रतिपादितं ॥ विदितवेद्यश्च परीषहपीडितोऽपि किं कुर्यादित्याह
ओए दयं दयह, जे संनिहाणसत्थस्स खेयन्ने से भिक्खू कालन्ने पलन्ने मायने खणने विणयन्ने समयन्ने परिग्गहं अममायमाणे कालेणट्ठाइ अपडिग्ने दुहओ छित्ता
नियाई ॥ सू० २०९॥ 'ओज एको रागादिरहितः सन् सत्यपि क्षुत्पिपासादिपरीषहे 'दयामेव दयते' कृपा पालयति, न परीषहै। तर्जितो दयां खण्डयतीत्यर्थः । का पुनर्दयां पालयतीत्याह-यो हि लघुकर्मा सम्यङ् निधीयते नारकादिगतिषु येन तत्सनिधानंकर्म तस्य स्वरूपनिरूपकं शास्त्रं तस्य खेदज्ञो-निपुणो, यदिवा सन्निधानस्य-कर्मणः शस्त्रं-संयमः सन्निधानशस्त्रं तस्य खेदजः-सम्यक संयमस्य वेत्ता, यश्च संयमविधिज्ञः स भिक्षुः कालज्ञः-उचितानुचितावसरज्ञः, एतानि च सूत्राणि लोकविजयपञ्चमोद्देशकव्याख्यानुसारेण नेतव्यानीति, तथा बलज्ञो मात्रज्ञः क्षणज्ञो विनयज्ञः समयज्ञः परिग्रहममत्वेन अचान कालेनोत्थायी अप्रतिज्ञः उभयतश्छेत्ता, स चैवम्भूतः संयमानुष्ठाने निश्चयेन याति निर्यातीति ॥ तस्य च संयमानुष्ठाने परिव्रजतो यत्स्याचदाह
तं भिक्खुसीयफासपरिवेवमाणगाय उवसंकमित्ता गाहावई बूया-आउसंतो समणा!
॥५.५०
Page #104
--------------------------------------------------------------------------
________________
विमो०८ उद्देशकः ३
नो खलु ते गामधम्मा उव्वाहंति ?, आउसंतो गाहावई। नो खल मम गामधम्मा भीवाचा
उव्वाहंति, सीयफासं च नो खलु अहं संचाएमि अहियासित्तए, नो खलु मे कप्पड़ राजवृत्तिः
अगणिकायं उज्जालित्तए वा पज्जालित्तए वा कार्य आयावित्तए वा पयावित्तए पा (चीलाइ.)
अन्नेसि वा वयणाओ, सिया स एवं वयंतस्स परो अगणिकायं उन्जालित्ता पजालित्ता कार्य आयाविज वा पयाविज वा, तं च भिक्खू पडिलेहाए आगमित्ता आणविजा
अणासेवणाए तिमि ॥ सू० २१०॥ इति तृतीय उद्देशकः ॥ ८-३॥ 'तम्' अन्तप्रान्ताहारतया निस्तेजसं निष्किश्चनं भिक्षणशीलं भिक्षुमतिक्रान्तसोष्मयौवनावस्थं सम्यक्त्वक्त्राणाभावतया शीतस्पर्शपरिवेपमानगात्रं उपसङ्क्रम्य-आसन्नतामेत्य गृहपतिः-ऐश्वर्यो मानुगतो मृगनाम्यनुविद्धकश्मीरजबहलरसानुलिप्तदेहो मीनमदागुरुधनसारधूपितरनिकाच्छादितवपुः प्रौढसीमन्तिनीसन्दोहपरिवृतो वार्तीभूतशीतस्पर्शानुभवः सन् | किमयं मुनिरुपहसितसुरसुन्दरीरूपसम्पदो मत्सीमन्तिनीरवलोक्य सात्त्विकभावोपेतः कम्पते उत शीतेनेत्येवं संशयानो अ यात-मो आयुष्मन ! श्रमण ! कुलीनतामात्मांन आविर्भावयन प्रतिषेधद्वारेण प्रश्नयति-नो भवन्तं ग्रामघाःविषया उत्-प्राबल्येन वाधन्ते , एवं गृहपतिनोक्ते विदिताभिप्रायः साधुराह-अस्य हि गृहपतेरात्मसंवित्त्याऽङ्गनाव
लोकनाऽऽविष्कृतभावस्यासत्याशङ्काऽभूद् अतोऽहमस्यापनयामीत्येवमभिसन्धाय साधुर्वभाषे-आयुष्मन् ! गृहपते ! 'नो k खलु' नैव ग्रामधर्मा मामुद्धाधन्ते, यत्पुनर्वेपमानगात्रयष्टिं मामीक्षांचकृषे तच्छीतस्पर्शविजृम्भितं, न मनसिजविकारः,
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
॥ ५४६॥
Page #105
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥५४७॥
शीतस्पर्शमहं न खलु शक्नोम्यधिसोढु', एवमुक्तः सन् भक्तिकरुणारसाक्षिप्तहृदयो बयान-सुप्रज्वलितमाशुशुक्षणिं किमिति न सेवसे, महामुनिराह-मो गृहपते ! न खलु मे कल्पतेऽग्निकार्य मनाग उज्ज्वालयितुं प्रकर्षण ज्वालयितु प्रज्वालयितु स्वतो ज्वलितादौ 'कार्य' शरीरमीषन् तापयितुमातापयितुवा प्रकरेंण तापयितु प्रतापयितुवा, अन्येषां वा वचनात् ममैतत्कत्तंन कल्पते, यदिवाग्निसमारम्भायान्योवा वक्तुन कल्पते ममेति ।तं चैवं वदन्तं साधुमवगम्य गृहपतिः कदाचिदेतत्कुर्यादित्याह-स्या-कदाचित्स-परो गृहस्थ एवमुक्तनीत्या वदतः साधोरग्निकायमुज्ज्वालय्य प्रज्वालय्य वा कायमातापयेत् प्रतापयेद्वा, तच्चोज्ज्वालनातापनादिकं भिक्षः 'प्रत्युपेक्ष्य' विचार्य स्वसन्मत्या परव्याकरणेनान्येषां वाऽन्तिके श्रुत्वा-अवगम्य ज्ञात्वा तं गृहपतिमाज्ञापयेत्-प्रतिबोधयेत् , कया?-अनासेवनया, यथैतत् ममायुक्तमासेवितु, भवता पुनः साधुभक्त्यनुकम्पाभ्यां पृण्यप्राग्भारोपार्जनमकारीति, प्रवीमीतिशब्दावुक्तार्थो । विमोक्षाध्ययनस्य तृतीयोद्देशकः परिसमाप्तः॥८-३॥
॥ अथ अष्टमाध्ययने चतुर्थोद्देशकः ।।। उक्तस्तृतीयोद्देशकः, साम्प्रतं चतुर्थ आरभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः, इहानन्तरोद्देशके गोचरादिगतेन शीताद्यङ्गविकारदर्शनान्यथाभावापन्नस्य गृहस्थस्यासदारेका व्युदस्ता, यदि पुनगृहस्थाभावे योषित एवान्यथाभावाभिप्रायेणोप। सर्गयेयुः ततो वैहानसगार्द्धपृष्ठादिकं मरणमप्यवलम्बनीयं, कारणाभावे तु तन कार्यमित्येतत्प्रतिपादनार्थमिदमारभ्यत
an५४७॥ इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्योद्देशकस्यादिसूत्रम्
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
Page #106
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री आचागङ्गवृत्तिः
(शीलाङ्का.
। ५४८ ॥
जे भिक्खू तिहिं वत्थेहिं परिवुसिए पायच उत्थेहिं, तस्स णं नो एवं भवइ - चउत्थं वत्थं जाइस्सामि, से अद्देसणिजाइ' वस्थाइ, जाइज्जा अहापरिग्गहियाह' वत्थाह' धारिजा, नो धोइजा नो घोयरत्ताइ वत्थाइ घारिज्जा, अपलिओवमाणे (अपलिउचमाणे ) गामंतरेसु ओमचेलिए, एयं खु वत्थधारिस्स सामग्गियं ॥ सू० २११ ।।
इह प्रतिमाप्रतिपन्नो जिनकल्पिको वा अच्छिद्रपाणिः, तस्य हि पात्रनिर्योगसमन्वितं पात्रं कन्पत्रयं चायमेवौघोपधिafa नौपग्रहिकः, तत्र शिशिरादौ चौमिकं कन्पद्वयं सार्द्धहस्तद्वयायामविष्कम्भं तृतीयस्त्वौर्णिकः, स च सत्यपि शीते नापरमाकाङ्क्षतीत्येतद्दर्शयति-यो भिक्षुः त्रिभिर्वस्त्रैः 'पर्युषितो' व्यवस्थितः, तत्र शीते पतत्येकं क्षौमिकं प्रावृणोति, ततोऽपि शीतासहिष्णुतया द्वितीयं चौमिकं पुनरपि अतिशीततया क्षौमिककल्पद्वयोपयणिकमिति, सर्वथौणिकस्य बाह्याच्छादनता विधेया, किम्भूतैस्त्रिभिर्वस्त्रैरिति दर्शयति- ' पात्रचतुर्थेः' पतन्तमाहारं पातीति पात्रं, तद्ग्रहणेन च पात्रनिर्योगः सप्तप्रकारोऽपि गृहीतः तेन विना तद्ग्रहणाभावात् स चायम् – ""पत्तं पत्ताबंधो पायडवणं च पायकेसरिआ । पडलाइ रयत्ताणं च गोच्ळओ पायणिजोगो ॥ १ ॥" तदेवं सप्तप्रकारं पात्रं कन्पत्रयं रजोहरणं १ मुखवस्त्रिका २ चेत्येवं द्वादशधोपधिः, तस्यैवम्भूतस्य भिक्षोः 'णम्' इति वाक्यालङ्कारे 'नैवं भवति' नायमध्यवसायो भवति, तद्यथा- न ममास्मिन् काले कन्पत्रयेण सम्यक् शीतापनोदो भवत्यतश्चतुर्थं वस्त्रमहं याचिष्ये, अध्यवसायनिषेवे
१ पात्रं पात्रबन्धः पात्रस्थापनं च पात्रकेशरिका पटलानि रजस्त्राणं च गोच्छुकः पात्रनिर्योगः ॥ १ ॥
विमो० ० उद्देशक ४
॥ ५४= ॥
Page #107
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ ५४४
| च तद्याचनं दरोत्सादितमेव, यदि पुनः कन्पत्रयं न विद्यते शीतकालश्चापतितस्ततोऽसौ जिनकल्पिकादिर्यथैषणीयानि वस्त्राणि याचेत-उत्करणापकर्षणरहितान्यपरिकर्माणि प्रार्थयेदिति, तत्र "उद्दिढ १ पहे २ अंतर ३ उज्झियधम्मा ४ य" चतस्रो वस्त्रैषणा भवन्ति, तत्र चाधस्तन्योयोरग्रह इतरयोस्तु ग्रहः, तत्राप्यन्यतरस्यामभिग्रह इति, याश्चावाप्तानि । च वस्त्राणि यथापरिगृहीतानि धारयेत्, न तत्रोत्कर्षणधावनादिकं परिकर्म कुर्याद्.॥ एतदेव दर्शयितुमाह-नो धावेतप्रासुकोदकेनापि न प्रक्षालयेत् , गच्छवासिनो ह्यप्राप्तवर्षादौ ग्लानावस्थायां वा प्रासुकोदकेन यतनया धावनमनुज्ञातं, न तु जिनकल्पिकस्येति, तथा-न धौतरक्तानि वस्त्राणि धारयेत् , पूर्व धौतानि पश्चाद्रक्तानीति, तथा ग्रामान्तरेषु गच्छन् वस्त्राण्यगोपयन् व्रजेद्, एतदुक्तं भवति-तथाभूतान्यसावन्तप्रान्तानि बिभर्ति यानि गोपनीयानि न भवन्ति, तदेवमसाववमचेलिकः, अवमं च तच्चेलं चावमचेलं प्रमाणतः परिमाणतो मृन्यतश्च, तद्यस्यास्त्यसाववमचेलिक इत्येतत्-पूर्वोक्तं 'खुः अवधारणे, एतदेव वस्त्रधारिणः सामग्र्यं भवति-एषैव त्रिकन्पात्मिका द्वादशप्रकारोधिकोपध्यात्मिका वा सामग्री भवति, नापरेति ॥ शीतापगमे तान्यपि वस्त्राणि त्याज्यानीत्येतदर्शयितुमाह
_ अह पुण एवं जाणिज्जा-उवाइक्कंते खलु हेमंते गिम्हे पडिवन्ने अहापरिजुन्नाइवत्थाई'
परिहविज्जा, अदुवा संतरुत्तरे अदुवा ओमचेले अदुवा एगसाडे अदुवा अचेले ॥ सू०२१२॥ यदि तानि वस्त्राण्यपरहेमन्तस्थितिसहिष्णूनि तत उभयकाले प्रत्युपेक्षयन् विमति, यदि पुनर्जीर्णदेश्यानि जीर्णानीति जानीयात् ततः परित्यजतीत्यनेन सूत्रेण दर्शयति, अथ पुनरेवं जानीयाद्यथाऽपक्रान्तः खन्वयं हेमन्तो ग्रीष्मः
॥५४
॥
Page #108
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीआचाराङ्गवृत्तिः
(शीलाङ्का.)
॥ ५५० ॥
प्रतिपन्नः अपगता शीतपीडा यथापरिजीर्णान्येतानि वस्त्राणि, एवमवगम्य ततः परिष्ठापयेत् परित्यजेदिति, यदि पुनः सर्वाण्यपि न जीर्णानि ततो यद्यज्जीर्णं तत्तत्परिष्ठापयेत् परिष्ठाप्य च निस्सङ्गो विहरेत् यदि पुनरतिक्रान्तेऽपि शिशिरे क्षेत्रकालपुरुषगुणाद्भवेच्छतं ततः किं कर्त्तव्यमित्याह-- अपगते शीते वस्त्राणि त्याज्यानि, अथवा क्षेत्रादिगुणाद्ध वाते वासि सत्यात्मपरितुलनार्थं शीतपरीक्षार्थं च सान्तरोत्तरो भवेत् सान्तरमुत्तरं - - प्रावरणीयं यस्य स तथा क्वचित्प्रावृणोति क्वचित्पार्श्ववर्त्ति विभर्त्ति शोताशङ्कया नाद्यापि परित्यजति, अथवाऽवमचेल एककल्पपरित्यागात् द्विकल्पधारीत्यर्थः, अथवा शनैः शनैः शीतेऽपगच्छति सति द्वितीयमपि कल्पं परित्यजेत् तत एकशाटकः संवृतः, अथवाऽऽत्यन्ति शीताभावे तदपि परित्यजेदतोऽचेलो भवति, असौ मुखवस्त्रिकार जोहरणमात्रोपधिः ॥ किमर्थममावेकैकं वस्त्रं परित्यजेदित्याह -
,
लाघवियं आगममाणे तवे से अभिसमन्नागए भवइ ॥ सू० २१३ ॥
लघवो लाघवं लाघवं विद्यते यस्यासौ लाघविक (स्त) मात्मानमागमयन्- आपादयन् वस्त्रपरित्यागं कुर्यात्, शरीरोपकरणकर्म्मणि वा लाघवमागमयन वस्त्रपरित्यागं कुर्यादिति । तस्य चैवम्भूतस्य किं स्यादित्याह - 'से' तस्य वस्त्रपरित्यागं कुर्वतः साधोस्तपोऽभिसमन्वागतं भवति, कायक्लेशस्य तपोभेदत्वात् उक्तं च- "" पंचहि ठाणेहिं सम.
१ पञ्चभिः कारणैः श्रमणानां निर्मन्थानामचेत्तकत्वं प्रशस्तं भवति, तद्यथा-भल्पा प्रतिलेखना ? वैश्वसिकं रूपं २ तपोऽनुमतं ३ लाघवं प्रशस्तं ४ विपुल इन्द्रियनिग्रहः ५ ।
विमो० ८ उद्देशकः ४
।। ५५० ॥
Page #109
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ ५५१
܀܀ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
णाणं निग्गंधाण अचेलगत्ते पसत्ये भवति, तंजहा-अप्पा पडिलेहा १ वेसासिए स्वे त लाघवे पसत्थे ४ विउले इंदियनिग्गहे ५" ॥ एतच्च भगवता प्रवेदितमिति दर्शयितुमाह
जमेयं भगवया पवेइयं तमेव अभिसमिधा सव्वओ सव्वत्ताए सम्मत्तमेव सम.
भिजाणिजा ॥ सू० २१४॥ यदेतद्भगवता-वीरवर्द्धमानस्वामिना प्रवेदितं तदेवाभिसमेत्य-ज्ञात्वा 'सर्वतः सर्वैः प्रकारैः सर्वात्मतया सम्यक्त्वमेव समत्वं वा-सचेलाचेलावस्थयोस्तुल्यतां 'समभिजानीयात्' आसेवनापरिक्षया आसेवेतेति ॥ यः पुनरल्पसत्त्वतया भगवदुपदिष्टं नैव सम्यग् जानीयात्स एतदध्यवसायी स्यादित्याह
जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवइ-पुट्ठो खलु अहमंसि नालमहमंसि सीयफासं अहियासित्तए, से वसुमं सव्वसमन्नागयपन्नाणणं अप्पाणणं के अकरणयाए आउहे तवस्सिणो हुतं सेयं जमेगे विहमाइए तत्थावि तस्स कालपरियाए, सेऽवि तत्थ विअंतिकारए, इच्चेयं विमोहायतणं हियं सुहं खमं निस्सेसं आणगामियं तिबेमि
॥ सू० २१५॥ इति चतुर्थ उद्देशकः ॥ ८-४॥ 'गम्' इति वाक्यालङ्कारे यस्य भिक्षोर्मन्दसंहननतया एवम्भूतोऽध्यवसायो भवति, तद्यथा-स्पृष्टः खन्वहमस्मि रोगातकै शीतस्पर्शादिभिर्वा स्त्र्याधुपसगैर्वा, ततो ममास्मिन्नवसरे शरीरविमोक्षं कत्तुं श्रेयो 'नालं' न समर्थोऽहमस्मि,
Page #110
--------------------------------------------------------------------------
________________
विमो०८ उद्देशकः ४
श्रीआचारावृत्तिा (शीलाका.) ॥ ५५२॥
शीतस्पर्श' शीतापादितं दुःखविशेष भावशीतस्पर्श वा स्त्र्याधुपसर्गम् 'अध्यासयितुम्' अघिसोढुमित्यतो भक्तपरिशेङ्गितमरणपादपोपगमनमुत्सर्गतः कत्तं युक्तं, न च तस्य ममास्मिन्नवसरेऽवसरो यतो मे कालक्षेपासहिष्णुरुपसर्गः समुत्थितो रोगवेदनां वा चिराय सोढनालमतो वेहानसं गार्द्धपृष्ठं वा आपवादिकं मरणमत्र साम्प्रतं, न पुनरुपसगितस्तदेवाभ्युपेयादित्याह-'स' साधुः वसु-द्रव्यं स चात्र संयमः स विद्यते यस्यासौ वसुमान् , सर्वसमन्वागतप्रज्ञानेनात्मना कश्चिदर्द्धकटाक्षनिरीक्षणादुपसर्गसम्भवे सत्यपि तदकरणतया आ-समन्तात्तो-व्यवस्थित आवृत्तो, यदिवा शीतस्पर्शवातादिजनितं दुःखविशेषमसहिष्णुस्तच्चिकित्साया अकरणतया वसुमान सर्वसमन्वागतप्रज्ञानेनात्मना आवृत्तो-व्यवस्थित इति, स चोपसर्गितो वातादिवेदनां चासहिष्णुः किं कुर्यादित्याह-हुहेती यस्माच्चिराय वातादिवेदना सोढुमसहिष्णुः, यदिवा यस्मात् सीमन्तिनी उपसर्गयितुमुपस्थिता विषभक्षणोद्वन्धनाडुपन्यासेनापि न मुश्चति ततस्तपस्विनः प्रभूततरकालनानाविधोपायोपाजिततपोधनस्य तदैव श्रेयो यदैकः कश्चिन्निः सपत्नीकोऽपवरके प्रवेशितः आरूढप्रणयप्रेयसीप्रार्थितस्तनिर्गमोपायमलभमान. आत्मोद्वन्धनाय विहायोगमनं तदाऽऽदद्याद्विपं वा भक्षयेत् पतनं वा कुर्याद् दीर्घकालं वा शीतस्पर्शादिकमसहिष्णुः सुदर्शनवत् प्राणान् जद्यात् । ननु च वेहानसादिकं बालमरणमुक्तं, तच्चानाय, तत्कथं तस्याभ्युपगमः, तथा चागम:-"'इच्चेएणं पालमरणेणं मरमाणे जीवे अणतेहिं नेरहयभवग्ग
१ इत्येतेन बालमरणेन म्रियमाणो जीवोऽनन्तै रयिकभवग्रहणैरात्मानं संयोजयति यावदनादिकं चानवदनं चातुरन्तं संसार. कान्तारं भूयो भूयः परिवत्तते ।
॥ ५५२॥
Page #111
--------------------------------------------------------------------------
________________
५५३ ॥
हणेहिं अप्पाणं संजोएइ जाव अणाइयं च णं अणवयग्गं चाउरतं संसारकतारं भुज्जो भुजो परियइत्ति, अत्रोच्यते, नैष दोषोऽत्रास्माकमाईताना, नैकान्ततः किश्चित्प्रतिषिद्धमभ्युपगतं वा मैथुनमेकं विहाय, अपि तु द्रव्यक्षेत्रकालभावानाश्रित्य तदेव प्रतिषिध्यते तदेव चाभ्युपगम्यने, उत्सर्गोऽप्यगुणायापवादोऽपि गुणाय कालज्ञस्य साधोरिति, एतदर्शयितुमाह-दीर्घकालं संयमप्रतिपालनं विधाय संलेखनाविधिना कालपर्यायेण भक्तपरिज्ञादिमरणं गुणायेति, एवंविधे। त्ववसरे तत्रापि वेहानसंगार्द्धप्रष्ठादिमरणे अपि कालपर्याय एव, यद्वकालपर्यायमरणं गुणाय एवं वेहानसादिकमपीत्यर्थः, बहुनाऽपि कालपर्यायेण यावन्मात्रं कर्मासौ क्षपयति तदसावन्पेनापि कालेन कर्मक्षयमवाप्नोतीति दर्शयति-'सोऽपि वेहानसादेविधाता, न केवलमानुपूर्ध्या भक्तपरिज्ञादेः कर्तेत्यपिशब्दार्थ.. 'तत्र' तस्मिन् वेहानसादिमरणे 'विअंतिकारए'त्ति विशेषेणान्तियन्ति:-अन्तक्रिया तस्याः कारको व्यन्तिकारका, तस्य हि तस्मिन्नवसरे तवहानसादिकमौत्सर्गिकमेव मरणं, यतोऽनेनाप्यापवादिकेन मरणेनानन्ताः सिद्धाः सेत्स्यन्ति च, उपसञ्जिहीर्षराह-'इत्येतत' पूर्वोक्तं वेहानसादिमरणं विगतमोहानामायतनम्-आश्रयः कर्त्तव्यतया तथा हितम् अपायपरिहारतया तथा सुखं जन्मान्तरेऽपि सुखहेतुत्वात् तथा 'क्षम' युक्तं प्राप्तकालत्वात् तथा निःश्रेयसं कर्मक्षयहेतुत्वात् तथा 'आनुगामिक तदजितपुण्यानुगमनात् , इतिब्रवीमिशब्दौ पूर्ववद् । विमोक्षाध्ययनस्य चतुर्थोद्देशकः समाप्तः ॥८-४॥
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
Page #112
--------------------------------------------------------------------------
________________
विमो. ८
श्रीआचारावृत्तिः शीलाढा.
उदेशका ५
॥ ५५४ ॥
॥ अथ अष्टमाध्ययने पञ्चमोद्देशकः ॥ उक्तश्चतुर्थोद्देशकः, साम्प्रतं पश्चम आरभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः, इहानन्तरोद्देशके बालमरणं गाईपृष्ठादिक- मुपन्यस्तम् , इह तु तद्विपर्यस्तं ग्लानभावोपगतेन भिक्षुणा भक्तपरिज्ञाख्यं मरणमभ्युपगन्तव्यमित्येतत्प्रतिपाद्यते, तदनेन सम्बन्धेनायातस्यास्योद्देशकस्यादिसूत्रम्
जे भिक्ख दोहिं वत्थेहिं परिवुसिए पायतइएहिं तस्स णं नो एवं भवइ--तइयं वत्थ जाइस्सामि, से अहेसणिज्जाई वत्थाई जाइजा जाव एवं खु तस्स भिक्खुस्स सामग्गियं, अह पुण एवं जाणिजा-उवाइक्कते खल हेमन्ते गिम्हे पडिवणे, अहापरिजुन्नाइ' वत्थाइं परिहविजा, अहापरिजुनाई परिहवित्ता अदुवा संतरुत्तरे अदुवा ओम चेले अदुवा एगसाडे अदुवा अचेले लावियं आगममाणे नवे से अभिसमन्नागए भवइ जमेयं भगवया पवेइयं तमेव अभिसमिचा सवओ सव्वत्ताए सम्मेत्तमेव समभिजाणिया, जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवह--पुट्ठो अबलो अहमंसि नालमहमसि गिहतरसंकमणं भिक्खायरियं गमणाए, से एवं वयंतस्स परो अभिहडं असणं वा ४ आहट्ट बलइज्जा, से पुवामेव आलोइजा--आउसंतो! नो खल मे कप्पइ अभिहर्ड असणं ४ भुत्तए चा पायए वा अन्ने वा एयप्पगारे (तं भिक्खू के गाहावई उवसंक
॥५५४॥
Page #113
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ ५५५
मित्त वूया आउसंतो समणा ! अहणणं तव अट्टाए असणं वा ४ अभिह दलामि, से पुवामेव जाणंजा आउसंती गाहावर्ड ! जन्नं तुमं मम अट्ठा असणं वा ४ अभिहर्ड सिणोय खलु से रुप्प एयप्पगारं असणं वा ४ भोत्तए वा पायए वा अन्ने वा तहप्पगारे) ॥ सू० २१६ ॥
तत्र त्रिकम्पपर्युषितःस्थविरकल्पिको जिनकल्पिको वा स्थात्, कल्पद्वयपर्युषितस्तु नियमाज्जिन कल्पिक परिहारविशुद्विकयथालन्दिकप्रतिमाप्रतिपन्न नामन्यतमः अस्मिन् सूत्रेऽपदिष्टो यो भिक्षुर्जिन कन्पिकादिर्द्वाभ्यां वस्त्राभ्यां पर्युषितो वस्त्रशब्दस्य सामान्यवाचित्वादेकः क्षौमिकोऽपर और्णिक इत्याभ्यां कन्याभ्यां पर्युषितः संयमे व्यवस्थितः किम्भूताभ्यां कल्पाभ्यां १--पात्रवृतीयाभ्यां पर्युपित इत्याद्यनन्तरोद्दे शकवन्नेयं यावत् 'नालमहमंसित्ति स्पृष्टोऽहं वातादिभी रो 'अचल' असमर्थ : 'नाल' न समर्थोऽस्मि गृहाद्गृहान्तरं सङ्क्रमितु, तथा भिक्षार्थं चरणं चर्या मिक्षाचर्या तद्गमनाय 'ना' न समर्थ इति, तमेवम्भूतं भिक्षुमुपलभ्य स्याद्गृहस्थ एवम्भूतामात्मीयामवस्थां वदतः साधोरवदतोऽपि परो गृहस्थादिरनुकम्पा भक्तिरसार्द्रहृदयोऽभिहृतं - जीवोपमर्दनिवृतं, किं तद् ? - अशनं पानं खादिमं स्वादिमं चेत्यारादाहृत्य तस्मै साधवे 'दलएज्ज'त्ति दद्यादिति । तेन च ग्लानेनापि साधुना सूत्रार्थमनुसरता जीवितनिष्पिपासुनाऽवश्यं मर्त्तव्यमित्यध्यवसायिना किं विधेयमित्याह-स जिनकल्पिकादीनां चतुर्णामप्यन्यतमः पूर्वमेव - आदावेव 'आलोचयेत्' विचारयेत्, कतरेणोद्गमादिना दोषेण दुष्टमेतत् १ तत्राभ्याहृतमिति ज्ञात्वाऽभ्याहृतं च प्रतिषेधयेत्, तद्यथा-- आयुष्मन् गृहपते !
॥ ५५५॥
Page #114
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रोत्राचा रावृत्तिः शीलाहा.)
विमो.४ उद्देशकः ।
न खन्वेतन्ममाभिहृतमभ्याहृतं च कल्पते अशनं भोक्तु पानं पातुमन्यद्वैतत्तकारमाधाकादिदोषदुष्टं न कन्पते, इत्येवं तं गृहपतिं दानायोधतमाज्ञापयेदिति, पाठान्तरं वा "तं भिक्खु केइ गाहावई उपसंकमित्त बूया-- आउसंतो समणा ! अहानं तव अट्ठाए असणं वा ४ अभिहड दलामि, से पुव्बामेव जाणेजा--आउसंतो गाहावई ! जन्नं तुम मम अहोए असणं वा ४ अभिहडं चेतेसि, णो य खलु मे कप्पड एयप्पगारं असणं वा ४ भोतए वा पायए वा, अन्ने वा तहप्पगारे"त्ति, कण्ठ्यं, तदेवं प्रतिषिद्धोऽपि श्रावकसज्ञिप्रकृतिभद्रकमिथ्यादृष्टीनामन्यतम एवं चिन्तयेत् , तद्यथा-एष तावत् ग्लानो न शक्नोति भिक्षामटितुन चापरं कश्चन ब्रवीति तदस्मै प्रतिपिद्धोऽप्यहं केनचिच्छबना दास्यामीत्येवमभिसन्धायाहारादिकं ढोकयति, तत्साधुरनेषणीयमितिकृत्वा प्रतिषेधयेत् ॥
॥ ५५
॥
जस्स णं भिक्खुस्स अयं पगप्पे-अहं च खल पडिप्रत्तो अपडिबसेहिं गिलाणो अगिलाणेहिं अभिकंग्व साहम्मिएहिं कीरमाणं वेयावडियं साइजिस्सामि, अहं वावि खल अप्पडिनको पटिन्नत्तस्स अगिलाणो गिलाणम्स अभिकख साहम्मियस्स कुज्जा वेगावडिय करणाए आहङ्क परिन्नं अणुस्विस्सामि आहडं च साइनिस्सामि १,
आहहु परिन्नं आणविग्वस्सामि आहडं च नो साइनिस्सामि २, आहहु परिनं नो • भाणविखस्सामि आहडं च साइजिस्सामि ३, आहट्ट परिन्नं नो आणक्खिस्सामि
॥ ५५३।
Page #115
--------------------------------------------------------------------------
________________
आहडं च नो साइन्जिस्सामि ४ एवं से अहाकिहियमेव धम्मं समभिजाणमाणे संते। विरए सुसमाहियलेसे तत्थावि तस्स कालपरियाए से तत्थ विअंतिकारए, इच्चेयं विमोहाययणं हियं सुहं खमं निस्सेसं आणगामियं तिमि ॥ सू० २१७॥ ..
॥ इति पञ्चम उद्देशकः ॥ ८-५॥ णम्' इति वाक्यालकारे यस्य मिझोः परिहारविशुद्धिकस्य यथालन्दिकस्य पाऽय--वक्ष्यमाणः 'प्रकल्प: आचारो भवति, तद्यथा--अहं च खलु 'चः'समुच्चये 'खल: वाक्यालकारे अहं क्रियमाणं वैयावृत्यमपरैः 'स्वादयिष्यामि अभिलषिष्यामि, किम्भृतोऽहं ?--प्रतिज्ञप्तो-वैयावृत्त्यकरणायापरैरुक्त:- अभिहितो यथा तव वयं वैयावृत्त्यं यथोचितं कर्म इति, किम्भूतः परः ?--अप्रतिज्ञप्तः अनुक्तैः, किम्भूतोऽहं--ग्लानो--विकृष्टतपसा कर्तव्यताऽशक्तो वातादिक्षोमेण वा | ग्लान इति, किम्भूतैरप?--अग्लान:-उचितकर्त्तव्यसहिष्णुभिः, तत्र परिहारविशुद्धिकस्यानुपारिहारिक: करोति कम्पस्थितो वा परो, यदि पुनस्तेऽपि ग्लानास्ततोऽन्ये न कुर्वन्ति, एवं यथालन्दिकस्यापीति, केवलं तस्य स्थविरा अपि कुर्वन्तीति दर्शयति--निर्जराम् 'अभिकाक्ष्य' उद्दिश्य 'साधम्मिको सदृशकल्पिकैरेककल्पस्थैरपरसाधुभिर्वा क्रियमाणं वैयावृत्त्यमहं 'स्वादयिष्यामि' अभिकाङ्क्षयिष्यामि यस्यायं भिक्षोः प्रकल्प:--आचारः स्यात् स तमाचारमनुपालयन् भक्तपरिज्ञयाऽपि जीवितं जह्यात् , न पुनराचारखण्डनं कुर्यादिति भावार्थः। तदेवमन्येन साधम्मिकेण वैयावृत्त्यं क्रियमाणमनुज्ञातं, साम्प्रतं स एवापरस्य कुर्यादिति दर्शयितुमाह-प: समुच्चये अपिशब्दः पुनःशब्दार्थे, सच पूर्वस्मा
॥५५७५
Page #116
--------------------------------------------------------------------------
________________
.
.
श्रोआचा रावृत्तिः शीलावा.)
उद्देशक
॥५५८॥
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
द्विशेषदर्शनार्थः, खल' वाक्यालङ्कारे, अहं च पुनरप्रतिज्ञप्त:-अनभिहितः प्रतिज्ञाम्य-वैयावृत्यकरणायाभिहितस्य अग्लानो ग्लानस्य निर्जरामभिकाक्ष्य साधम्मकस्य वैयावृत्यं कुर्या, - किमर्थ ?-'करणाय' तदुपकरणाय तदुपकागयेत्यर्थः, तदेवं प्रतिज्ञा परिगृह्यापि भक्तपरिज्ञया प्राणान् जह्यात् , न पुनः प्रतिज्ञामिति सूत्रभावार्थः। इदानीं प्रज्ञाविशेषद्वारेण चतुर्भङ्गिकामाह- एकः कश्चिदेवम्भूतां प्रतिज्ञा गृह्णाति, तद्यथा-ग्लानम्यापरस्य साधर्मिकस्याहारादिकमन्वेषयिष्यामि, अपरं च वयावृत्त्यं यथोचितं करिष्यामि, तथाऽपरेण च साधर्मिकेणाहतमानीनमाहारादिक स्वादयिप्यामि--उपमोच्य, एवम्भूता प्रतिज्ञामाहत्य--गृहीत्वा वैयावृत्त्यं कुर्यादिति १, तथाऽपर आहूत्य--प्रतिज्ञा गृहीत्वा यथाऽपरनिमित्तमन्वीक्षिष्ये आहागदिकमाहृतं चापरेण न स्वादयिष्यामीति २, तथाऽपर आहृत्य प्रतिज्ञामेवम्भूता, तद्यथानापरनित्तिमन्वीक्षिष्याम्याहारादिकमाहृतं चान्येन स्वादयिष्यामीति ३, तथाऽपर माहृत्य--प्रतिज्ञामेवम्भृता, तद्यथानान्वीक्षिप्येऽपरनिमित्तमाहारादिकं नाप्यातमन्यन स्वादयिष्यामीति ४, एवम्भूता च नानाप्रकारे प्रतिज्ञा गृहीत्वा कुतश्चिद् ग्नायमानोऽपि जीवितपरित्यागं कुर्यात् , न पुनः प्रतिज्ञालोपमिति । अमुमेवार्थमुपसंहारद्वारेण दयितुमाह-एवम् उक्तविधिना 'स' भिक्षुरवगततत्त्वः शरीगदिनिपिपासुः यथाकीर्तितमेव धर्मम्-उक्तस्वरूपं सम्यगर्गामजानन--आसेवनापग्ज्ञिया आमेवमानः, नथा लापविकमागमयनित्यादि यच्चतुर्थोद्देशकेऽभिहितं तदत्र वाच्यमिति, तथा 'शान्तः कषायो. पशपाच्छान्तो वा अनादिसंसारपर्यटनाद् विरतः सायद्यानुष्ठानात् शोभनाः समाहृता-गृहीता लेश्या:-अन्तःकरणवृत्तयस्तैजसीप्रभृतयो वा येन स सुममाहृतलेश्यः, एवम्भृतः सन् पूर्वगृहीतप्रतिज्ञापालनासमर्थो ग्लानभावोपगतस्तपसा रोगातकेन
܀܀܀܀
Page #117
--------------------------------------------------------------------------
________________
वा प्रतिज्ञालोपमकुर्वन् शरीरपरित्यागाय भक्तप्रत्याख्यानं कुर्यात् , 'तत्रापि' मक्तपरिज्ञायामपि तस्य' कालपर्यायेणानागतायामपि कालपर्याय एव निष्पादितशिष्यस्य संलिखितदेहस्य यः कालपर्यायो-मृत्योरवसरोवापि नानावसरेऽसावेव कालपर्याय इति, कर्मनिर्जराया उभयत्र समानत्वात , समिक्षस्तत्र-ग्लानतयाऽनशनविधाने व्यन्तिकारक: -कर्मक्षयविधायीति । उद्देशकार्थमुपसञ्जिही राह-सर्व पूर्ववद् । विमोक्षाध्ययनस्य पञ्चमोद्देशकः परिसमाप्तः ॥ ८-५ ॥
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
. ॥ अथ अष्टमाध्ययने षष्ठोद्देशकः ॥ उक्तः पञ्चमोद्देशकः, साम्प्रतं षष्ठ आरभ्यते, अस्य चायममिसम्बन्धः--इहानन्तरोद्देशके ग्लानतया मक्तप्रत्याख्यानमुक्तम् , इह धृतिसंहननादिक्लोपेत- एकत्वभावनां भावयबिङ्गितमरणं कुर्यादित्येतत्प्रतिपाद्यत इत्यनेन सम्बन्धेनायात-. म्यास्योद्देशकस्यादौ सूत्रानुगमे सूत्रमुच्चारणीयं, तच्चेदम
जे भिक्खू एगेण वत्येण परिवुसिए पाइपिईएण, तस्स णं नो एवं भवइ-बिइयं वत्यं जाइस्सामि, से अहेसणिज वत्थं जाइज्जा अहापरिग्गहियं पत्थं धारिखा जाव गिम्हे परिवन्ने आहारपरिजुन्नं वत्थं परिहविज्जा २त्ता अदुआ एगसाडे अदुवा अचेले
लावियं आगममाणे जाव सम्मत्तमेव समभिजाणीया ॥ सू०२१८॥ गतार्थ ॥ तस्य च मिक्षोरभिग्रहविशेषात् सपात्रमेकं वस्त्रं धारयतः परिकम्मितमतेलघुकर्मतया एकत्वभावनाऽव्यवसायः
॥५५
॥
Page #118
--------------------------------------------------------------------------
________________
विमो. उद्देशक
श्रीआचागङ्गवृत्तिः (शीलाङ्का.
५६.0
स्पादिति दर्शयितुमाह
जस्स णं भिक्खुस्स एव भवइ--एगे अहमंसि, न मे अस्थि कोइ, न याहमवि कस्सवि, एव से एगागिणमंव अप्पाणं समभिजाणिज्जा, लावियं आगममाणे तवे से अभि
समन्नागए भवइ जाव समभिजाणिया ॥ सू० २१९॥ 'णम्' इति वाक्यालङ्कारे, यस्य मिक्षाः 'एवमिति वक्ष्यमाणं भवति, तद्यथा-एकोऽहमस्मि संसारे पर्यटतो न मे पारमार्थिक उपकारकतत्वेन द्वितीयोऽम्ति, न चाहमन्यस्य दुःखापनयनतः कस्यचिद् द्वितीय इति, स्वकृतकर्मफलेश्वरत्वात्प्राणिनां, एवमसौ साधुरेकाकिनमेवात्मानम्--अन्तरात्मानं सम्यगमिजानीयात, नास्यात्मनो नाकादिदुःखत्राणतया शरण्यो द्वितीयोऽम्तीत्येवं संदधानो यद्यद्रोगादिकमुफ्तापकारणमापद्यते तत्तदपरशरणनिरपेक्षो मयैवैतत्कृतं मयैव सोढव्यमित्येतदध्यवसायी सम्यगधिसहते । कुत एतदधिसहत इत्यत आह -लावियमित्यादि, चतुथोशिकवद्गतार्थ, यावत् | 'सम्मत्तमेव समभिजाणिय'त्ति ॥ इह द्वितीयोद्देशके उद्गमोत्पादनैषणा प्रतिपादिता, तद्यथा-'आउसंतो समणा! अहं खल तव अट्टाए असणं वा ४ वत्थं वा पडिग्गहंवा कंबलं वा पायपुछणं वा पाणाई भूयाई जीवाई सत्ताइ समारंभ समुद्दिस्स कीयं पामिच्च अच्छेज्नं अणिसिडं आहह चेएमि' इत्यादिना ग्रन्थेनेति, तथानन्तरोद्देशके ग्रहणेषणा प्रतिपादिता, "सिया य से एवं पयंतस्सवि परो अभिहडं असणं वा ४ आहह दलएज्जा" इत्यादिना ग्रन्थेन, ततो ग्रासैषणाऽवशिष्यते, अतस्तत्प्रतिपादनायाह
XXX.03.0.0..
. ॥ ५६.॥
Page #119
--------------------------------------------------------------------------
________________
से भिक्खू पा भिक्खुणी वा असणं वा ४ आहारेमाणे नांवामाओ हणयाओ दाहिणं हणयं संचारिजा आसाएमाणे, दाहिणाओ वामहणयं ना संचारिजा आसाएमाणे, (आदायमाणे) से अणासायमाणे लावियं आगममाणे तवे से अभिसमन्त्रागए भवई, जमेयं भगषया पवेइयं नमेवं अभिसमिचा सव्वओ सम्वत्ताए सम्मत्तमेव समभि
जाणिया। सू० २३०॥ __ 'स' पूर्वव्यावणितो भिक्षु' साधुः साध्वी चा अशनादिकमाहारसुद्गमोत्पादनैषणाशुद्धं प्रत्युत्पन्न ग्रहणेषणाशुद्धं च गृहीतं सढङ्गारिताभिधूमितवजमाहाग्येत् , त्योश्चाङ्गारिताभिधृमितयो रागद्वेषौ निमित्तं, तयोरपि सरसनीरसोपलब्धिः, कारणाभावे च कार्याभाव इतिकृत्वा रसोपलब्धिनिमित्तपरिहारं दर्शयति-स भिक्षुराहारमाहारयनो वामतो हनुतो दक्षिणा हनु रसोपलब्धये सञ्चारयेदास्वादयत्रशनादिकं, नापि दक्षिणतो वामां सञ्चारयेदास्वादयन् , तत्सञ्चारास्वादनेन हि सोपलब्धौ गगद्वेषनिमित्ते अङ्गारितत्वाभिधृमितत्वे स्यातामतो यत्किञ्चिदप्यास्वादनीयं नास्वादयेत् , पाठान्तर वा 'आढायमाणे आदरखानाहारे मूञ्छितो गृद्धो न सञ्चारयेदिति, इन्वन्तरसङ्क्रमवदन्यत्रापि नास्वादयेदिति दर्शयतिसह्याहार चतुर्विधमप्याहारयन् रामद्वेषौ परिहरसास्वादयेदिति, तथा कुश्विनिमित्ताद्धन्वन्तरं सञ्चारयन्नप्यनास्वादयन् सञ्चारयेदिति । किमिति यत आह-आहारलाघवमागमयन्-आपादयन् नो आस्वादयेदित्यास्वादनिषेधेन चान्तप्रान्ताहाराभ्युपगमोऽभिहितो भवति, एवं च तपः 'से तस्य मिझोरभिसमन्वागतं भवतीत्यादि गतार्थ यावत 'सम्मत्तमेव सममि
Page #120
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीआचारावृत्तिः शीलाका.)
विमो.. उदेशका
.५६२॥
जाणियाति ॥ तस्य चान्तप्रान्त शितयाऽपचितमसिशोणितस्य बरदस्थिसन्ततेः क्रियाऽवसोदत्कायचेष्टस्य शरीरपरित्याग-- बुद्धिः स्यादित्याह
" जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवइ-से गिलामि च खलु अहं इममि समए इम सरी' रगं अणुपुब्वेण परिवहित्तए, से अणपुग्वेणं आहारं संवहिज्जा, अणपुव्वेणं आहारं
संवहिता कसाए पयणुए किचा समाहियच्चे फलगावयही उडाय भिक्खू अभिनि- -- - वुडच्चे ॥ सू० २२१ ॥ 'णम' इति वाक्यालङ्कारे यस्यैकत्वभावनामावितस्य भिक्षोराहारोपकरणलाघवं गतस्य 'एव'मिति वक्ष्यमाणोऽभिप्रायो भवति, 'से' इति तच्छन्दार्थे तच्छन्दोऽपि वाक्योपन्यासार्थे, 'च: शब्दसमुच्चये 'खलु' अवधारणे, अहं चास्मिन् 'समये' अवसरे संयमानमरे ग्लायामि ग्लानिमेव गतो रूक्षाहारतया तत्समुत्थेन वा रोगेण पीडितोऽतो न शक्नोमि रूमतपोभिाभिनिष्टप्तं शरीरकमानुा -यथेष्टकालावश्यकक्रियारूपया परिवोढुं नालमहं क्रियासु व्यापारयितुम , अस्मिन्नवसरे इदं प्रतिक्षणं शीर्यमाणत्वाच्छरीरकमिति मत्वा स. मिक्षगनुपूर्ध्या--चतुर्थषष्ठाचाम्लादिकया आहार
'संवर्सयेत' संक्षिपेत न पुनदिशसंवत्सरसंलेखनाऽऽनुपूर्वीह गृह्यते, ग्लानस्य तावन्मात्रकालस्थितेग्भावाद्, अतस्तकालयोग्ययाऽऽनुपूर्व्या द्रत्यसंलेखनार्थमाहारं निरुन्ध्यादिति । द्रव्यसंलेखनया संलिख्य च यदपरं कुर्यात्तदाहषष्ठाष्टमदशमद्वादशादिकयाऽऽनुपूाऽऽहारं संवर्यं कषायान् प्रतनून कृत्वा सर्वकालं. हि कषायतानवं विधेयं विशेषतस्तु
Page #121
--------------------------------------------------------------------------
________________
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
मलेखनावसरे इत्यतम्तान प्रतनन कृत्वा मम्यगाहिता- व्यवस्थायिता अचा- शरीरं येन स समाहितार्चः, नियमितकायव्यापार इत्यर्थः, यदिवा अर्चा-लेश्या सम्यगाहिना--जनिता लेश्या यन स ममाहितार्चः, अतिविशुद्धाध्यवसाय इत्यर्थः यदिवाऽर्चा- क्रोधाद्यध्यवसायात्मिका ज्वाला समाहिता--उपशमिताऽर्चा येन स तथा, 'फल' कर्मक्षयरूपं तदेव फलकं तेन पदि--संसारभ्रमणरूपायामर्थः--प्रयोजनं फलकापदर्थः स विद्यते यस्यासौ फलकापदर्थी, यदिवा फलकवद्वाम्यादिमिरुभयतो बाह्यतोऽभ्यन्तरतश्चावकृष्टः फलकावकृष्ट इत्येवं विगृह्यापत्वात 'फलगावयट्ठी' इत्युक्तं, यदिवा तक्ष्यमाणोऽपि दुर्वचनवास्यादिभिः कषायाभावतया फलकवदवतिष्ठते तच्छीलश्चेति फलकावस्थायी, वासीचन्दनकल्प इत्यर्थः, स एवम्भृतः प्रतिदिनं साकारभक्तपत्याख्यायी बलवति गंगावेगे उत्थाय-अभ्युद्यतमरणोद्यमं विधायाभिनिवृत्ताःशरीरमन्तापरहितो धृतिमंहननायुपेतो महापुरुषाचीर्णमार्गानुविधायीङ्गितमरणं कुर्यात् ॥ कथं कुर्यादित्याह
अणुपविसित्ता गाम वा नगरं वा खेडं वा कब्बडं वा मडंब वा पट्टणं वा दोणमुहं वा आगरं वा आसमं वा सन्निवेसं वा नेगमं वा रायहाणि वा तणाई जाइजा तणाई' जाइना से तमायाए एगतमवकमिजा, एगंतमवक्कमित्ता अप्पंडे अप्पपाणे अप्पबीए अप्पहरिए. अप्पोसे अप्पोदर अप्पुत्र्तिगपणगदगमट्टियमकडासंताणए पडिलेहिय २ पमन्जिय २ तणाई' संथरिजा, तणाई संथरित्ता इत्यवि समए इत्तरिय कुज्जा, त सच्चं सच्चवाई ओए तिन्ने छिन्नकहकहे आईयडे अणाईए चिच्चाण भेउरं कायं संविद्वय
Page #122
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीआचा
राङ्गवृत्तिः
(शोलाङ्का.)
॥ ५६४ ॥
विरूवरूवे परीसहोवसग्गे अस्सि विस्संभणयाए भैरवमणुचिन्ने तत्थावि तस्स कालपरियार जाव अणुगामियं तिबेमि ॥ सू० २२२ ॥ इति षष्ठ उद्देशकः ।। ८-६ ॥
प्रतिबुद्धयादीन् गुणानिति गम्यो वाऽष्टादशानां कराणामिति ग्रामः, सर्वत्र वाशब्दः पक्षान्तरदर्शनार्थः, नात्र करो विद्यत इति नकरें, पशुप्राकारबद्धं खेटं, तुल्लकप्राकारवेष्टितं कटं, अर्द्धतीयगव्यृतान्तर्ग्रामरहितं मडम्बं पत्तनं तुद्विधा -- जलपत्तनं स्थलपत्तनं च, जलपत्तनं यथा काननद्वीपः, स्थलपत्तनं यथा मथुरा, 'द्रोणमुखं' जलस्थलनिर्गमप्रवेशं यथा मरुच्छं ताम्रलिप्ती वा 'आकरो' हिरण्याकरादिः, 'आश्रमः' तापसावसथोपलक्षित आश्रयः, 'सन्नि वेशः' यात्रासमागतजनात्रासो जनसमागमो वा 'नैगमः' प्रभूततरवणिग्वर्गावासः 'राजधानी' राजाधिष्ठानं राज्ञः पीठिकास्थानमित्यर्थः एतेष्वेतानि वा प्रविश्य तृणानि याचेत ततः किमित्याह संस्तारकाय प्रासुकानि दर्भवीरणादिकानि कचिद्ग्रामादौ तृणस्वामिनमशुपिराणि तृणानि याचित्वा स तान्यादाय कान्ते - गिरिगुहादावपक्रामेद्-गच्छेदेकान्तं - रहोऽपक्रम्य च प्रासुकं महास्थण्डिलं प्रत्युपेक्षते, किम्भूतं तद्दर्शयति-अल्पान्यण्डानि कीटिकादीनां यत्र तदन्पाण्डं तस्मिन, अल्पशब्दोऽत्राभावे वर्त्तते, अण्डकरहित इत्यर्थः, तथाऽल्पाः प्राणिनो-द्वीन्द्रियादयो यम्मिन तत्तथा, तथा अल्पानि बीजानि नीवारश्यामाकादीनां यत्र तत्तथा तथा अल्पानि हरितानि-दुर्गाप्रवालादीनि यत्र तत्तथा, तथापावस्यायेनोपरितनावश्यायविवर्जिते तथाऽल्पोद के भौमान्तरिचोद कर रहते, तथोत्तिङ्गपन कोदकमृत्तिकासन्तानरहिते, तत्रोनिङ्गः- पिपीलिकामन्तानकः पनको भृम्यादावुद्धिविशेषः उदकमृत्तिका - अचिरा कायाद्रीकृता
܀܀܀܀܀
विमो० ८ उद्देशकः ६
॥ ५६४ ॥
Page #123
--------------------------------------------------------------------------
________________
܀܀܀܀܀
मृत्तिका मर्कट सन्तानको - लूतातन्तुजालं, तदेवम्भूते महास्थण्डिले तृणानि संस्तरेत् किं कृत्वा १- तत् स्थण्डिलं चक्षुषा ५६५ ॥ प्रत्युषेक्ष्य २, वीप्सया भृशभावमाह एवं रजोहरणादिना प्रमृज्य २, अत्रापि वीप्सया भृशार्थता सूचिता, संस्तीर्य च तृणान्युच्चार प्रस्रवणभूमिं च प्रत्युपेक्ष्य पूर्वाभिमुख संस्तारकगतः करतलललाटस्पर्शिधृतरजोहरणः कृतसिद्ध नमस्कारः आवत्तितपञ्चनमस्कारोऽत्रापि समये अपिशब्दादन्यत्र वा समये 'इत्वर' मिति पादपोपगमनापेक्षया नियतदेशप्रचाराभ्युपगमादिङ्गितमरणमुच्यते, न तु पुनरित्वरं साकारं प्रत्याख्यानं साकारप्रत्याख्यानस्यान्यस्मिन्नपि काले जिनकल्पिकादेरसम्भवात् किं पुनर्यावत्कथिक भक्त प्रत्याख्यानावसर इति, इत्वरं हि रोगातुरः श्रावको विधत्ते, तद्यथा - यद्यह पस्माद्रोगात् पञ्चपैरोभिमुक्तः स्यां ततो भोक्ष्ये, नान्यथेत्यादि, तदेव मित्वरम् - इङ्गितमरणं धृतिसंहननादिवलोपेतः स्वकृतत्वग्वर्त्तनादिक्रियो यावज्जीवं चतुर्विधाहारनियमं कुर्यादिति, उक्तं च - ""पच्चक्खइ आहारं चउव्विहं नियमओ गुरुसमीचे । इंगियदे सेमि तहा चिपि हु नियमओ कुणड़ ॥ १ ॥ उव्वन्तइ परिअत्तइ काइगमाईऽवि अप्पणा कुणड़ । सम्वमिह अप्पणच्चिअ ण अन्नजोगेण धितिबलिओ ॥ २ ॥ " तच्चेङ्गितमरणं किम्भूतं किम्भूतश्च प्रतिपद्यत इत्याह'तद्'इङ्गितमरणं सद्भयो हितं सत्यं -- सुगतिगमनाविसंवाद नात्सर्वज्ञोपदेशाच्च सत्यं तथ्यं, तथा स्वतोऽपि सत्यं वदितु ं शीलमस्येति सत्यवादी, यावज्जीवं यथोक्तानुष्ठानाद्यथाऽऽरोपितप्रतिज्ञा भारनिर्वहणादित्यर्थः तथा 'ओजः' रागद्वेष
१ प्रत्याख्याति महारं चतुविधं नियमाद् गुरुसमीपे । इङ्गिदेशे तथा चेष्टामपि नियमतः करोति ॥ १ ॥ उद्वते परिषतेते कायिकयाद्यपि आत्मना करोति । सत्रमिहात्मनैव नान्ययोगेन धृतिबलिकः ।। २ ।
॥ ५६५ ॥
Page #124
--------------------------------------------------------------------------
________________
विमो. उद्देशक
रहितः, तथा 'तीर्णः' संसारसागरं, भाविनि भृतवदुपचारात्तीर्णवत्तीर्ण इत्यर्थः, तथा 'छिन्ना' अपनीता 'कथ' कथमपि श्रीआचागावृत्तिः
या 'कथा' गगकथादिका विकथारूपा येन स छिन्नकथंकथः, यदिवा, कथमहमिङ्गितमरणप्रतिज्ञा निर्वहिष्ये इत्येवंरूपा
8 या कथा सा छिन्ना येन स छिन्नककथा, दृष्कगनुष्ठान विधायी हि कथंकथी भवति, स तु पुनर्महापुरुषन या न व्या(शीलाबा.)
कुलतामियादिति, तथा आ--समन्तादतीव इताज्ञाता परिच्छिन्ना जीवादयोऽर्था येन मोऽयमातीतार्थः अदत्तार्थो वा, । ५६६ ॥ यदिवाऽतीता:- सामस्त्येनातिक्रान्ताः अर्थाः--प्रयोजनानि यस्य स तथा, उपरतव्यापार इत्यर्थः, तथा आ-समन्तादतीव
इतो--गतोऽनाद्यनन्ते संसारे आतीतः न आतीतः अनातीतः, अनादत्तो वा संसारी येन स नथा, संसारार्णवपारगामीत्यर्थः, स एवम्भूत इङ्गितमरणं प्रतिपद्यते, विधिना 'त्यक्त्वा ' प्रोज्झ्य स्वयमेव भिद्यते इति भिदुरं--प्रतिक्षणविशरारु' 'कार्य' कर्मवशाद्गृहीतमौदारिकं शरीरं त्वक्त्वा तथा संविधूय परीषहोपसर्गान् प्रमथ्य 'विरूपरूपान्' नानाप्रकारान सोढवा 'अस्मिन् सर्वज्ञप्रणीत आगमे विस्रम्भणतया विश्वासास्पदे तदुक्तार्थाविसंवादाध्यवमायेन भैरवं-- भयानकमनुष्ठानं क्लीदुरध्यवसमिङ्गितमरणाख्यमनुचीर्णवान्--अनुष्ठितवानिति, तच्च तेन यद्यपि रोगातुम्तया व्यधायि तथापि तत्कालपर्यायागततुल्यफलमिति दर्शयितुमाह- 'तत्रापि' रोगपीडाऽऽहितेङ्गितमरणाभ्युपगमेऽपि, न केवलं कालपर्याये.
त्यपिशब्दार्थः, 'तस्य' कालज्ञस्य भिक्षोरसावेव कालपर्याय:, कर्मक्षयस्योभयत्र समानत्वादिति, आह च–'सेवि तत्थ वियंतिकारए' इत्यादि पूर्ववद्गतार्थम्, इतिब्रवीमिशब्दावपि शुण्णार्थाविति विमोक्षाध्ययनस्य षष्ठोद्देशकः समानः ॥८-६॥
॥५६६ ॥
..........
Page #125
--------------------------------------------------------------------------
________________
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
॥ अथ अष्टमाध्ययने सप्तमोद्देशकः ॥ उववः षष्ठोहे शकः, साम्प्रतं सप्तमव्याख्या प्रतन्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः, इहानन्तरोदेशके एकत्वभावनाभावितस्य धृतिसंहननाद्यपेतस्येङ्गितमरणमभिहितम् . इह तु सेवैकत्वभावना प्रतिमाभिनिष्पाद्यत इति कृत्वाऽतस्ताः प्रतिपाद्यन्ते, तथा विशिष्टतरसंहननोपेतश्च पादपोपगनमपि विदध्यादित्येतच्चेत्यनेन. सम्बन्धेनायातस्यास्योद्देशकस्यादिसूत्रम्
जे भिक्खू अचेले परिसिए तस्स णं भिक्खुस्स एवं भवइ-चाएमि अहं तणफासं अहियासित्तए सीयफासं अहियासित्तए तेउफासं अहियासित्तए दंसमसगफासं अहियासित्तए एगयरे अन्नतरे विरूवरूवे फासे अहियासित्तए, हिरिपडिच्छायणं चऽहं
नो संचाएमि अहिआसित्तए, एवं से कप्पेइ कडिबंधणं धारित्तए ॥ सू० २२३ ॥ यो भिक्षुः प्रतिमाप्रतिपन्नोऽभिग्रहविशेषादचेलो--दिग्वासाः 'पर्युषितः संयमे व्यवस्थितो 'णम्' इति वाक्यालङ्कारे 'तस्य' भिक्षोः 'एवमिति वच्यमाणोऽभिप्रायो भवति, तद्यथा-शक्नोम्यहं तृणस्पर्शमपि सोढुं धृतिसंहननाद्यपेतस्य वैराग्यभावनामावितान्तःकरणस्यागमेन प्रत्यक्षीकृतनारकतिर्यग्वेदनाउनुभवस्य न मे तणस्पर्शो महति फलविशेषेऽभ्युद्यतस्य किश्चित प्रतिभासते, तथा शीतोष्णदेशमशकस्पर्शमधिसोढुमिति, तथा एकतरान् अन्यतर्गश्चानुकूलप्रत्यनीकान विरूपरूपान् 'स्पर्शान्' दुःखविशेषानध्यासयितु-सोढुमिति, किं त्वहं ह्री-लज्जा तया गुह्यप्रदेशस्य प्रच्छादनं ह्रीप्रच्छादनं, तच्चाहं त्यक्तु न शक्नोमि, एतच्च प्रकृतिलज्जालु(त्म)कतया साधन विकृतरूपतया वा स्यात् , एवमेभिः कारणः
Page #126
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीआचागनवृत्तिः शालाका.
विमो. ८ उद्देशका ७
अदुवा
॥५६
॥
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
। 'से' तस्य 'कल्पते' युज्यते 'कटिबन्धन' चोलपट्टकं कर्तुं, स च विस्तरेण चतुरङ्गुलाधिको हस्तो दैर्येण कटिप्रमाण इति गणनाप्रमाणेनैका, पुनरेतानि कारणानि न स्युः ततोऽचेल एव पराक्रमेत, अचेलतया शीतादिस्पर्श सम्यगधिसहेतेति॥ एतत्प्रतिपादयितुमाह
अदुवा तत्थ परकमंतं भुजो अचेलं तणफासा फुसन्ति सीयफासा फुसन्ति तेउफासा फुसन्ति दंसमसगफासा फुसन्ति एगयरे अन्नयरे विरूवरूवे फासे अहियासेइ, अचेले
लावियं आगममाणे जाच समभिजाणिया॥ सू० २२४ ॥ स एवं कारणसद्भावे सति वस्त्रं विभृयादथवा नैवासौ जिह ति, ततोऽचेल एव पराक्रमेत, तं च तत्र संयमेऽचेलं पराक्रममाणं भूयः-पुनस्तुणस्पर्शाः स्पृशन्ति-उपतापयन्ति, तथा शीतोष्णदंशमशकस्पर्शाः स्पृशन्तीति, तथैकतरानन्यतरांश्च विरूपरूपान् स्पर्शनुदीनधिसहते असावचेलोऽचेललाघवमागमयमित्यादि गतार्थं यावत् 'सम्मत्तमेव समभिजाणिय'त्ति ॥ किंच-प्रतिमाप्रतिपन्न एव विशिष्टमभिग्रहं गृह्णीयात् , तद्यथा-अहमन्येषां प्रतिमाप्रतिपमानामेव किश्चिद्दास्यामि, तेभ्यो ग्रहीष्यामीत्येवमाकारं चतुभङ्गिकयाऽभिग्रहविशेषमाह
जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवइ-अहं च खलु अन्नेसिं भिक्खूणं असणं वा ४ आहट दलहस्सामि आहडं च साइजिस्सामि १ जस्स गं भिक्खुस्स एवं भवइ-अहं च खलु अन्नेसिं भिक्खूणं असणं वा ४ आहङ् दलइस्सामि आहडं च नो साइस्सामि २
६८.
Page #127
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥५६६॥
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवइ-अहं च खलु असणं वा ४ आहटु नो दलइस्सामि आहडं च साइन्जिरसामि ३ जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवइ--अहं च खल अन्नेसिं भिक्खणं असणं वा ४ आहह नो दलइस्सामि आहडं च नो साइन्जिस्सामि ४, अचखल तेण अहाइरित्तण अहेसणिज्जण अहापरिग्गहिएणं असणेण वा ४ अभिकडवं साहम्मियस्स कुज्जा वेयावडियं करणाए, अहं वावि तेण अहाहरितेण अहे. सणिज्जण अहापरिग्गहिएणं असणेण वा ४ अभिकावं साहम्मिएहिं कीरमाणं वेया
वडियं साइन्जिस्सामि लावियं आगममाणे जाव सम्मत्तमेव समभिजाणिया ॥सू०२२५॥ एतच्च पूर्व व्याख्यातमेव, केवलमिह संस्कृतेनोच्यते-यस्य भिक्षोरेवं भवति-वक्ष्यमाणम् , तद्यथा-अहं च खल्वन्ये. भ्यो भिक्षुभ्योऽशनादिकमाहृत्य दास्याम्यपराहृतं च स्वादयिष्यामीत्येको मङ्गकः १, तथा यस्य मिक्षोरेवं भवति, तद्यथाअहं च खल्वन्येभ्योऽशनादिकमाहृत्य दास्याम्यपराहृतं च नो स्वादयिष्यामीति द्वितीयः २ यस्य मिक्षोरेवं भवति, तद्यथाअहं च खल्वन्येभ्योऽशनादिकमाहृत्य नो दास्याम्यपराहृतं च स्वादयिष्यामीति तृतीयः ३ तथा यस्य भिक्षोरेवं भवति, तद्यथा-अहं च खल्वन्येभ्यो भिक्षुभ्योऽशनादिकमाहत्य नो दास्याम्यपराहृतं च नो स्वादयिष्यामीति चतुर्थः ४ । इत्येवं चतुर्णामभिग्रहाणामन्यतरमभिग्रहं गहीयात् , अथवा एतेषामेवाद्यानां त्रयाणां भङ्गानामेकपदेनैव कश्चिदभिग्रहं गली
मन ला यादिति दर्शयितुमाह-यस्य मिक्षोरेवभूतोऽभिग्रहविशेषो भवति, तद्यथा-अहं च खलु तेन यथाऽतिरिक्तेन-आत्मपरि
॥५६॥
Page #128
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीआचागङ्गवृत्तिः शालाङ्का.
॥५७० ॥
भोगाधिकेन यथेषणीयेन यत्तेषां प्रतिमाप्रतिपन्नानामेषणीयमुक्तम् , तद्यथा-पञ्चसु प्राभृतिकासु अग्रहः द्वयोरभिग्रहः
विमो. : तथा यथापरिगृहीतेनात्मार्थ स्वीकृतेनाशनादिना निर्जराममिकाक्षय साधम्मिकस्य वैयावृत्यं कुर्याद्, यद्यपि ते प्रतिमा
18 उद्देशकः प्रतिपन्नत्वादेकत्र न भुञ्जते तथाप्येकाभिग्रहापादितानुष्ठानत्वात्साम्भोगिका भण्यन्ते, अतस्तस्यं समनोज्ञस्य करणायउपकरणार्थ वैयावृत्यं कुर्यामित्येवंभूतमभिग्रहं कश्चिद्गृह्णाति । तथाऽपरं दर्शयितुमाह-वाशब्दः पूर्वस्मात्पक्षान्तरमाहअपिशब्दः पुनःशब्दार्थे, अहं वा पुनस्तेन यथातिरिक्तेन यथैषणीयेन यथापरिगृहीतेनाशनेन ४ निर्जरामभिकाइ क्ष्य साधम्मिकैः क्रियमाणं वैयावृत्त्यं स्वादयिष्यामि-अभिलाषष्यामि, यो वाऽन्यः साधम्मिकोऽन्यस्य करोति तं चानुमोदयिष्यामि--यथा सुष्टु भवता कृतमेवंभूतया वाचा, तथा कायेन च प्रसन्नदृष्टिमुखेन तथा मनसा चेति, किमित्येवं करोति ?--लाघविकमित्यादि, गतार्थ ॥ तदेवमन्यतराभिग्रहवान् भिक्षरचेलः सचेलो वा शरीरपीडायां सत्यामसत्यां वा आयुःशेषतामवगम्योद्यतमरणं विदध्यादिति दर्शयितुमाह
जस्स णं भिक्खस्स एवं भवइ-से गिलामि खल अहं इमम्मि समए इमं सरीरगं अणपुव्वेणं परिवहितए, से अणपुव्वेणं आहारं संवहिन्जा २ कसाए पयणुए किच्चा समाहियच्चे फलगावयट्ठी उट्ठाय भिक्खू अभिनिव्वुडच्चे अणपविसित्ता गामं वा नगरं वा जाव रायहाणिं वा तणाइ' जाइला जाव सन्थरिजा, इत्यपि समा कायं च जोग च ईरियं च पच्चकवाइजा, तं सच्चं सच्चावाई और निन्ने छिन्न कहंकहे आइयडे अणाईए
Page #129
--------------------------------------------------------------------------
________________
.५७१
चिचाणं भेउरं कायं संविहुणिय विस्वरूवे परीसहोवसग्गे अस्सि विस्संभणाए भेरवमणुचिन्ने तत्थघि तस्स कालपरियाए, सेवि तत्थ विअन्तिकारए, इच्चेयं विमोहायपणं
हियं मुहं खमं निस्सेसं आणुगामियं तिबेमि ॥ सू०२२६ ॥ इति सप्तम उद्देशकः ॥८-७॥ णमिति वाक्यालङ्कारे, यस्य भिदोरेवंभूतो-वक्ष्यमाणोऽभिप्रायो भवति, तद्यथा-ग्लायामि खन्वहमित्यादि यावतणानि संस्तरेत , संस्तीर्य च तृणानि यदपरं कुर्यात्तदाह-अत्रापि समये--अवसरे न केवलमन्यत्रानुज्ञाप्य संस्तारकमारुह्य सिद्धसमक्षं स्वत एव पञ्चमहाव्रतारोपणं करोति, ततश्चतुर्विधमप्याहारं प्रत्याचष्टे, ततः पादपोपगमनाय कायं च-शरीरं प्रत्याचक्षीत, तद्योगं च-आकुश्चनप्रसारणोन्मेषनिमेषादिकम् , तथेरणमीर्या तां च सूक्ष्मा कायवाग्गा मनोगतां वाऽ
प्रशस्त प्रत्याचक्षीत, तच्च सत्यं सत्यवादीत्याद्यनन्तरोद्देशकबन्नेयम् । इतिब्रवीमिशब्दावपि क्षुण्णार्थाविति विमोक्षाBध्ययनस्य सप्तमोद्देशकः समाप्तः ॥ ७ ॥
--
--
॥ अथ अष्टमाध्ययने अष्टमोद्दशकः ॥ उक्तः सप्तमोद्दे शका, साम्प्रतमष्टम आरभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्ध:-इहानन्तरोई शकेषु रोगादिसम्भवे कालपर्यायागतं परिज्ञङ्गितमरणपादपोपगमन विधानमुक्तम् , इह तु तदेवानुपूर्वीविहारिणां कालपर्यायागतमुच्यते इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्योद्देशकस्यादिस्त्रमुच्यते
॥ ५७१॥
Page #130
--------------------------------------------------------------------------
________________
विमो. उद्देशका
अणुपुब्वेण विमोहाई', जाई धोरा समासज्ज । वसुमन्तो मइमन्तो, सवं नच्चा श्रीआवा.
अणेलिसं ॥१॥ दुविहपि विइत्ता णं, बुद्धा धम्मस्स पारगा। अणुपुब्वीइ सङ्घाए, राङ्गवृत्तिः
आरम्भाओ तिउद्दई (कम्मुणाओ तिअट्टई) ॥ २॥ कसाए पयण किच्चा, अप्पाहारे (शीलाङ्का.)
तितिक्खए । अह भिक्खू गिलाइज्जा, आहारस्सेव अन्तियं ॥३। जीवियं नाभिकविजा,
मरणं नोवि पत्थए । दुहोऽविन सजिजा. जीषिए मरणे तहा ।। ४ ।। आनुपूर्वी-क्रमः, तद्यथा-प्रव्रज्याशिक्षासूत्रार्थग्रहणपरिनिष्ठितस्यैकाकिविहारित्वमित्यादि, यदिवा आनुपूर्वी-संलेखनाक्रमश्चत्वारि विकृष्टानीत्यादि तया आनुपूर्त्या यान्यभिहितानि, कानि पुनस्तानि ?-'विमोहानि' विगतो मोहो येषु । येषां वा येभ्यो वा तानि तथा-भवतपरिझङ्गितमग्णपादपोपगमनानि यान्येवंभूतानि यथाक्रममायातानि धीराः-प्रक्षोभ्याः
समासाद्य-प्राप्य वसु-द्रव्यं संयमस्तद्वन्तो वसुमन्तः, तथा मननं मतिः-हेयोपादेयहानोपादानाध्यवसायस्तद्वन्तो मतिमन्तः, तथा 'सर्व' कृत्यमकृत्यं च ज्ञात्वा यद्यस्य वा भक्तपरिज्ञानादिक मरणविधानमुचितं धृतिसंहननाद्यपेक्षयाऽनन्यसदृशम्-अद्वितीयम , सर्व ज्ञात्वा सम धिमनुपालयेदिति ॥१॥ किं च -द्वे विधे प्रकारावस्येति द्विविधं तपो बाह्यमभ्यन्तरं | च तद्विदित्वा--आसेव्य यदिवा मोक्षाधिकारे विमोक्तव्यं द्विविधं, तदपि बाह्य शरीरोपकरणादि आन्तरं रागादि, तद्धेयतया विदित्वा त्यक्त्वेत्यर्थः, हेयपरित्यागफलत्वात् ज्ञानस्य, ''मिति वाक्यालङ्कारे, के विदित्वा ?-'बुडा' अवगततत्त्वा धर्मास्य--श्रुतचारित्राख्यस्य पारगा:--सम्यग्वेत्तारः, ते बुद्धा धर्मस्वरूपवेदिन: 'आनुपूा ' प्रव्रज्यादिक्रमेण
Page #131
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ ३७३ ॥
संयममनुपान्य मम जीवतः कश्विद्गुणो नास्तीत्यतः शरीरमोक्षावसरः प्राप्तः तथा कस्मै मरणायालमहमित्येवं 'संख्याय' ज्ञात्वा, आरम्मणमारम्भः--शरीरधारणायान्नपानाद्यन्वेषणात्मकस्तस्मात् त्रुटयति--अपगच्छतीत्यर्थः, सुब्व्यत्ययेन पञ्चम्यर्थे चतुर्थी, पाठान्तरं वा 'कम्मुणाओ तिअई' कर्माष्टमेदं तस्मात् त्रुटयिष्यतीति त्रुटयति 'वर्त्तमानसामीप्ये वर्त्तमानवद्वे' - (पा० ३-३-१३१ )त्यनेन भविष्यत्कालस्य वर्त्तमानता || २|| स चाभ्युद्यतमरणाय संलेखनां कुर्वन् प्रधानभूतां भावसंलेखनां कुर्यादित्येतद्दर्शयितुमाह- कषः--संसारस्तस्यायाः कषायाः -- क्रोधादयश्चत्वारस्तान् प्रतनून् कृत्वा ततो यकिश्चनाश्नीयात्, तदपि न प्रकाममिति दर्शयति-- 'अल्पाहारः' स्तोकाशी षष्ठाष्टमादि संलेखनाक्रमायातं तपः कुन् यत्रापि पारयेत्तत्राप्यल्पमित्यर्थः अल्पाहारतया च क्रोधोद्भवः स्यादतस्तदुपशमो विधेय इति दर्शयति-- तितिक्षते - असदृशजनादपि दुर्भाषितादि क्षमते, रोगातङ्कं वा सम्यक् सहत इति, तथा च संलेखनां कुर्व्वन्नाहारस्यान्पतया 'अथे' त्यानन्तर्ये 'भिक्षुः' मुमुक्षुः ‘ग्लायेत' आहारेण विना ग्लानतां व्रजेत्, चणेऽमूर्च्छन्नाहारस्यैवान्तिकं - पर्यवसानं व्रजेदिति, चत्वारि विकृष्टानीत्यादि संलेखनाक्रमं विहायाशनं विदध्यादित्यर्थः, यदिवा ग्लानतामुपगतः सन्नाहारस्यान्तिक-- समीपं न व्रजेत् तथाहि-- आहारयामि तावत्कतिचिद्दिनानि पुनः संलेखना शेषं विधास्येऽहमित्येवं नाहारान्तिकमियादिति ॥ ३॥ किं च तंत्र संलेखनायां व्यवस्थितः सर्वदा वा साधुजीवितं प्राणधारणलक्षणं नाभिकाङ्क्षत् नापि क्षुद्वेदनापरीषहमनधिसहमानों मग्णं प्रार्थयेद् ‘उभयतोऽपि जीविते मरणं वा न सङ्ग विदध्यात् जीविते मरणे तथा ॥ ४ ॥ किं भूतस्तर्हि स्यादित्याह
1
܀܀܀܀܀܀܀
❖❖❖❖❖❖
॥ ५७३ ॥
Page #132
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री श्राचागङ्गवृत्तिः
(शीलाङ्का. ॥ ५७४ ।।
मज्झत्थोनिज्जरापेहो, समाहिमणुपालर । अन्तो बहिं विऊस्सिज्ज, अञ्झत्थं सुडमेसए ॥ ९ ॥ जं किंचुधक्कमं जाणे, आऊखेमस्समप्पणो । तस्सेव अन्तरजाए. विष्पं सिक्खिज्ज पण्डिe || ३ || गामे वा अदुवा रणे, थंडिलं पडिलेहिया । अप्यपाणं तु विन्नाय, तणाई' संथरे मुणो ॥ ७ ॥ अनाहारो तुयहिज्जा, पुट्टो तत्थहियासए | नाहवेलं उचच्चरे, माणुस्सेहि विपुवं ॥ ८ ॥
रागद्वेषयोर्मध्ये तिष्ठतीति मध्यस्थः, यदिवा जीवितमरणयोर्निराकाङ्क्षनया मध्यस्थो निर्जरामपेक्षितु शीलनम्येति निर्जगपेक्षी, स एवंभूतः समाधि-मरणसमाधिमनुपालयेत् - जीवितमरणाशंसारहितः कालपर्यायेण यन्मरणमापद्यते तत् समाधिस्थोऽनुपालयेदिति भावः । अन्तः कषायान् बहिरपि शरीरोपकरणादिकं व्युत्सृज्यात्मन्यध्यध्यात्मम्-अन्त करणं तच्छुद्धं सकलद्वन्द्वोपरमा द्विस्रोतसिका रहितमन्वेषयेत् प्रार्थयेदिति ॥ ५ ॥ किं च - उपक्रमणमुपक्रमः - उपायस्तं यं कश्चन जानीत, कस्योपक्रमः ? - 'आयुः क्षेमम्य' आयुषः क्षेमं सम्यकूपालनं तस्य, कम्य सम्बन्धि तदापुः १ - आत्मनः, एतदुक्तं भवति - आत्मायुषो यं चेमप्रतिपालनोपायं जानीत तं क्षिप्रमेव शिक्षेत्-व्यापारयेत् पण्डितो - बुद्धिमान, 'तस्यैव' संलेखनाकालस्य 'अन्तरडाएत्ति अन्तःकालेऽर्द्धमंलिखित एव देहे देही यदि कश्चित् वातादिक्षोभात आतङ्क आशुजीवितहारी स्यात् ततः समाधिमरणमभिकाङ्क्षन् तदुपशमोपायमेपणीयविधिनाऽभ्यङ्गादिकं विदध्यात् पुनरपि संलिखेत, यदिवाऽऽत्मनः आयुःक्षेमस्य - जीवितस्य यत्किमप्युपक्रमणम् - आयुः पुद्गलानां संवर्त्तनं मनुपस्थितं तज्जानीत, ततस्तस्यैव
विमो. ८
उह शकः ८
।। ५७४ १
Page #133
--------------------------------------------------------------------------
________________
.५७३॥
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
संलेखनाकालस्य मध्येऽव्याकुलितमतिः क्षिप्रमेव भक्तपरिज्ञानादिकं शिक्षेत-आसेवेत पण्डितो-बुद्धिमानिति ॥ ६ ॥ संलेखनाशुद्धकायच मरणकाल समुपस्थितं ज्ञात्वा किं कुर्यादित्याह-ग्राम:-प्रतीतो, ग्रामशब्देन चात्र प्रतिश्रय उपलक्षितः, प्रतिश्रय एव स्थण्डिलं-संस्तारकभुवं प्रत्युपेक्ष्य, तथा अरण्ये वेत्यनेन चोपाश्रयाबहिरित्येतदुपलक्षितम् , उद्याने गिरिगुहायामरण्ये वा स्थण्डिलं प्रत्युपेक्ष्य विज्ञाय चाल्पप्राण-प्राणिरहितम् , ग्रामादियाचितानि प्रासुकानि दर्भादिमयानि तृणानि संस्तरेत 'मुनिः' यथोचितकालस्य वेत्तेति ॥ ७॥ संस्तीर्य च तृणानि यत्कुर्यात्तदाह-न विद्यते आहारोऽस्येत्यनाहारः तत्र यथाशक्ति यवासमाधानं च त्रिविधं चतुर्विधं वाऽऽहारं प्रत्यारूपायारोपितपञ्चमहाव्रतः क्षान्तः-वामितसमस्तप्राणिगणः समसुखदुःखः आवर्जितपुण्यप्राग्भारतया, मरणादविम्यत् संस्तारके त्वग्वर्त्तनं कुर्यात् , तत्र च स्पृष्टः परीषहोपसगैस्त्यक्तदेहतया सम्यक्तानध्यासयेद्-अधिसहेत, तत्र मानुष्यैरनुकूलप्रतिकूलैः पीपहोपसर्ग: स्पृष्टो-व्याप्तो नातिवेलमुपचरेत्-न मर्यादोलनं कुर्यात् , पुत्रकलत्रादिसम्बन्धामातध्यानवशगो भूयात् , प्रतिकूलैर्वा परीषहोपसर्गर्ने क्रोधनिघ्नः स्यादिति ॥ ८॥ एतदेव दर्शयितुमाह--
संसप्पगा य जे पाणा, जे य उड्डमहाचरा। भुञ्जन्ति मंससोणिय, न छणे न पम. ज्जए॥९॥ पाणा देहं विहिंसन्ति, ठाणाओ नवि उन्भमे। आसवेहिं विवित्तेहिं, तिप्पमाणोऽहियासए ॥१०॥ गन्धेहिं विवित्तेहिं, आउकालस्स पारए । पग्गहियतरगं चेयं, दवियस्स वियाणओ॥११॥ अयं से अवरे धम्मे, नायपुत्तेण साहिए । आय
Page #134
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीआचागङ्गवृत्ति:
श्रीठाङ्का.
# ५७६ ॥
वज्जं पडोयारं, विजहिजा तिहा तिहा ॥ १७ ॥
संसर्पन्तीति संसर्पकाः- पिपीलिका क्रोष्ट्रादयो ये प्राणाः- प्राणिनो ये चोद्धर्वचरा - गृध्रादयो ये चाधवराः बिलवासित्वात्सर्पादयस्त एवंभूता नानाप्रकाराः 'भुञ्जन्ते' अभ्यवहरन्ति मांसं सिंहव्याघ्रादयः तथा शोणितं मशकादयः, तांच प्राणिन आहारार्थिनः समागतानवन्तिसुकुमारवद्धस्तादिभिर्न क्षणुयात् न हन्यात् न च भक्ष्यमाण शरीरावयवं रजोहरणादिना प्रमार्जयेदिति ॥ ९ ॥ किं च-प्राणाः - प्राणिनो देहं मम (वि) हिंसन्ति, न तु पुनर्ज्ञानदर्शनचारित्राणीत्यतस्त्यक्तदेद्दाशिनस्तानन्तरायभयान निषेधयेत् तस्माच्च स्थानान्त्राप्युद्भ्रमेत्-नान्यत्र यायात्, किंभूतः सन् ? - आश्रवैः - प्राणातिपातादिभिर्विषय कषायादिभिर्वा 'त्रिविक्तैः' पृथग्भूतैरविद्यमानैः शुभाभ्यवसायी तैर्भश्यमाणोऽप्यमृतादिना तृप्यमाण इव सम्यवतत्कृत्रां वेदनां तैस्तप्यमानो वाऽध्यासयेद्-अधिसहेत ॥ १० ॥ किं च - ग्रन्थैः सबाह्याभ्यन्तरैः शरीरगगादिभिः 'विविक्तैः' त्यक्तैः सद्भिर्ग्रन्थैर्वा-अङ्गानङ्गप्रविष्टेरात्मानं भावयन् धर्म्मशुक्लध्यानान्यतरोपेतः 'आयु:कालस्य' मृत्युकालस्य 'पारगः' पारगामी स्यात् यावदन्त्या उच्छ्वामनिश्वासास्ताव तद्विदध्याद्, एतन्मरण विधानकारी सिद्धि त्रिविष्टपं वा प्राप्नुयादिति गतं भरतपरिज्ञामरणं । साम्प्रतमिङ्गितमरणं श्लोकार्द्धादिनोच्यते - तद्यथा - 'प्रगृहीनतरकं चेदं प्रकर्षेण गृहीततरं प्रगृहीततरं तदेव प्रगृहीततर कम्, 'इदमिति वक्ष्यमाणमङ्गितमरणम्, एतद्धि भक्तप्रत्याख्यानात्सकाशान्नियमेन चतुर्विधाहारप्रत्याख्यानादिङ्गित प्रदेश संस्तारकमात्र विहाराभ्युपगमाच्च विशिष्टतरधृतिसंहनाद्युपेतेन प्रकर्षेण गृह्यत इति, कस्यैतद्भवति ९-द्रव्यं संयमः स विद्यते यस्यासौ द्रविकस्तस्य 'विजानतो' गीतार्थस्य
विमो०८
| उद्दे शका ८
॥ ५७६
.
Page #135
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ ५७७॥
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
जघन्यतोऽपि नवपूर्वविशारदस्य भवति, नान्यस्येति, अनापीङ्गितमरणे यत्संलेखनातृण संस्तारादिकममिहितं तत्सर्व वाच्यम् ॥ ११॥ अयमपरो विधिरित्याह- 'अयं स' इति सोऽयम् 'अपरः' अन्यो भक्तप्रत्याख्यानाद्भिन्न इङ्गितमरणस्य 'धर्मो' विशेषो 'ज्ञातपुत्रेण' वीरवर्द्धमानस्वामिना सुष्टवाहित:--उपलब्धः स्वाहितः, अस्य चानन्तरं वक्ष्यमाणत्वात्प्रत्यक्षासन्नवाचिनेदमाऽभिधानं, अनापीङ्गितमरणे प्रव्रज्यादिको विधिः संलेखना च पूर्ववद्रष्टव्या, तथोपकरणादिकं हित्वा स्थण्डिलं प्रत्युपेक्ष्यालोचितप्रतिक्रान्तः पश्चमहावतारूढश्चतुर्विधमाहारं प्रत्याख्याय संस्तारके तिष्ठति, अयमत्र विशेषः-आत्मवर्ज प्रतिचाग्म्-अङ्गव्यापार विशेषेण जह्यात- त्यजेत 'त्रिविधत्रिविधेने ति मनोवाकायैः कृतकारितानुमतिभिः स्वव्यापारव्यतिरेकेण परित्यजेत् , स्वयमेव चोद्वर्तनपरिवर्तनं कापिकायोगादिकं विधत्ते ॥ १२॥ सर्वथा प्राणिसंरक्षणं पौन:पुन्येन विधेयमिति दीयतमाह
हरिएसुन निवजिजा, थण्डिलं मुणिया सए। विओसिज्ज अणाहारो, पुट्ठो तत्थ- - ऽहियासए ॥ १३ ॥ इन्दिएहिं गिलायन्तो, समियं आहरे मुणो। तहावि से अगरिहे, अचले जे समाहिए ॥ १४ ॥ अभिक्कमे पडिकमे, सङ कुचए पसारए । कायसाहारणहाए, इत्थं वावि अचेयणो॥ १५॥ परिक्कमे परिकिलन्ते, अदुवा चिट्टे अहायए । ठाणे ण
परिकिलन्ते, निसीइज्जा य अंतसो ॥ १६॥ । हरितानि-दुर्वाङकुरादीनि तेषु न शयीत स्थण्डिलं मत्वा शयीत तथा सबाह्याभ्यन्तरमुपधि व्युत्सृज्य-त्यक्त्वाऽनाहारः
॥५७७॥
Page #136
--------------------------------------------------------------------------
________________
विमो..
भीआचाराजवृत्तिः (चीलावा.)
उद्देशका -
सन् स्पृष्टः परीपहोपसर्ग: 'तत्र' तस्मिन् संस्तारके व्यवस्थितः सन् सर्वमभ्यासयेद्--अधिसहेत ॥ १३ ॥ किं चस घनाहारतया मुनिलायमान इन्द्रियैः शमिनो भावः शमिता-समता तां साम्यं वा आत्मन्याहारयेद्--व्यवस्थापयेत् नार्तध्यानोपगतो भूयादिति, यथासमाधानमास्ते, तद्यथा-सङ्कोचननिविण्णो हस्तादिकं प्रसारयेत तेनापि निविण्ण उपविशेत् यथेङ्गितदेशे सञ्चरेद्वा, तथाप्यसौ स्वकृतचेष्टवादगद्य एव, किंभूत इति दर्शयति--अचलो यः समाहितः, यद्यप्यसाविङ्गितप्रदेशे स्वतः शरीरमात्रेण चलति तथाप्यभ्युद्यतमरणान चलतीत्यचला सम्यगाहित-व्यवस्थापितं धर्मध्याने शुक्लध्याने वा मनो येन स समाहितः, मावाचलितश्चेङ्गितप्रदेशे चक्रमणादिकमपि कुर्यादिति ॥१४॥ एतद्दर्शयितुमाह-प्रज्ञापकापेक्षयाऽभिमुखं क्रमणममिक्रमणं, संस्तारकाद्गमनमित्यर्थः, तथा प्रतीपं--पश्चादभिमुखं क्रमणं प्रतिक्रमणमागमनमित्यर्थः, नियतदेशे गमनागमने कुर्यादितियावत् . तथा निष्पनो निषण्णो वा यथासमाधानं भुजादिक सङ्कोचयेत्प्रसारयेद्वा, किमर्थमेतदिति चेदर्शयति--कायस्य--शरीरस्य प्रकृतिपेलवस्य साधारणार्थ, कायसाधारणाच्च तत्पीडाकृतायुष्कोपक्रमपरिहारेण स्वायु:स्थितिक्षयान्मरणं यथा स्यात् , न पुनस्तेषां महासत्त्वतया शरीरपीडोत्थापितचित्तस्यान्यथामावः स्यादिति भावः, ननु च निरंडसमस्तकायचेष्टम्य शुककाष्ठवदचेतनतया पतितस्य प्रचुरतरपुण्यप्राग्मारोऽभिहित इति, नायं नियमः, सुविशुद्धाध्यमायतया यथाशक्त्यारोपितमारनिर्वाहिणः तत्तल्या कर्मक्षयः अत्राप्यसौ वा शब्दात्तत्र वा पादपोपगमनेऽचेतनवत्सक्रियोऽपि निष्क्रिय एच, यदिवा 'अत्रापि इङ्गितमाणेऽचेतनवच्छुष्काकाष्ठवत्सर्वक्रियारहितो यथा पादपोपगमने तथा सति सामध्ये तिष्ठेद ॥ १५॥ एतत्सामम वे चैतन्कुर्या
५७८॥
Page #137
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥५७९॥
दित्याह-यदि निषण्णस्यानिषण्णस्य वा. गात्रमङ्गः स्यात्, ततः परिकामेत-चङ्कम्याद् यथानियमिते देशेऽकृटिलया गत्या गतागतानि कुर्यात, तेनापि श्रान्तः सन् अथवोपविष्टस्तिष्ठेव, 'यथायतो' यथाप्रणिहितगात्र इति, यदा पुनः स्थानेनापि परिक्लममियात तद्यथा-निषण्णो वा पर्यक्रेण वा अर्द्धपर्यङकेण वोरकूटुकासनो वा परिताम्यति तदा निषण्णः स्यात्, तत्राप्युत्तानको वा पाच शायी वा दण्डायतो वा लगण्डशायी वा यथा समाधानमवतिष्ठेत् ॥ १६ ॥ किंच
आसीणेऽणेलिसं मरणं, इन्दियाणि समीरए । कोलावासं समासज्ज, वितहं पाउरे सए ॥ १७॥ जओ वज्जं समुप्पज्जे, न तत्थ अवलम्बए । तर उक्कसे अप्पाणं, फासे तत्थडहियासए ॥१८॥ अयं चाययतरे सिया, जो एवमणपालए। सव्वगायनिरोहेऽवि, ठाणाओ नवि उन्भमे ॥ १९॥ अयं से उत्तमे धम्मे, पुव्वहाणस्स पग्गहे। अचिरं
पडिलेहित्ता, विहरे चिट्ठ माहणे ॥२०॥ 'आसीन: आश्रितः कितन-मरणम् , किंभूतम् -'अनीदृशम् अनन्यपशमितरजनदुरध्यक्सेयम्, तथाभूतश्च कि कुर्यादिति दर्शयति-इन्द्रियाणीष्टानिष्टस्वविषयेभ्यः सकाशाद्रागद्वेषाकरणतया सम्यगीरयेत्-प्रेरयेदिति, कोला-घुणकीटकास्तेषामावासः कोलावासस्तमन्तपुंणक्षतमुद्देहिकानिचितं वा 'समासाद्य' लब्ध्वा तस्माद्यद्वितथम्-आगन्तुकतदुत्थजन्तु रहितमवष्टम्भनाय प्रादुरेषयेत्-प्रकटं प्रत्युपेक्षणयोग्यमशुपिरमन्वेषयेत् ॥ १७ ॥ इङ्गितमरणे चोदनामभिधाय यनिषेध्यं तदर्शयितुमाह-'यतो' यस्मादनुष्ठानादवष्टम्भनादेर्वजवदन-गुरुत्वाकर्म अवध वा-पापं वा तत्समुत्पद्यत-प्रादु
५७९.
Page #138
--------------------------------------------------------------------------
________________
विमो. 6
श्रोत्राचा राजवृत्तिः शीला
१५८०॥
प्यात्, न तत्र घुणक्षतकाष्ठादाववलम्बेत-नावष्टम्मनादिका क्रियां कुर्यात्, तथा 'ततः तस्मादुत्क्षेपणापक्षेपणादेः काययोगादुष्प्रणिहितवाग्योगादार्तध्यानादिमनोयोगाच्चावद्यसमुत्पत्तिहेतोगत्मानमुत्करेंद्-उत्क्रामयेत्, पापोपादानात्मानं
उद्देशका ८ निवर्त्तयेदितियावत् , तत्र च धृतिसंहननाद्युपेतोऽप्रतिकर्मशरीरः प्रवर्धमानशुमाध्यवसायकण्डकोऽपूर्वापूर्वपरिणामारोही | सर्वज्ञप्रणीतागमानुसारेण पदार्थस्वरूपनिरूपणाहितमतिः अन्यदिदं शरीरं न्याज्यमित्येवंकृताध्यवसाय: सर्वान् स्पर्शान्दुःखविशेषाननुकूलप्रतिकूलोपसर्गपरीषहापादितान् तथा वातपित्तश्लेष्मद्वन्द्वैतरप्रोद्भतान् कर्मक्षयायोद्यतो मयैवैतदवा कृतं सोढव्यं चेत्येतदध्यवसायी अध्यासयेद्-अधिसहेत, यतो यन्मया त्यक्तं शरीरकमेतदेवोपद्रवन्ति न पुनजिघृक्षितं धर्माचरणमित्याकलय्य सर्वपीडासहिष्णुर्भवेदिति ॥ १८॥ गत इङ्गितमरणाविका, साम्प्रतं पादपोपगमनमाश्रित्याहअनन्तरममिधास्य मानत्वाद्योऽयं प्रत्यक्षो मरणविधिः, स चाऽऽयततगे, न केवल भक्तपरिज्ञाया इङ्गितमरणविधिरायततरः, अयं च तस्मादायततर इति चशब्दार्थ:, आयततर इत्याङमिविधौ सामस्त्येन यत आयतः, अयमनयोरतिशयेनायत आयततः, यदिवाऽयमनयोरतिशयेनातो-गृहीत आत्ततरः, यत्नेनाध्यवसित इत्यर्थः, तदेवमयं पादपोपगमनमरणविधिगत्ततगे-दृढतरः स्याद्भवेत् , अत्रापि यदिङ्गितमरणे प्रव्रज्यासलेखनादिकमुक्तं तत्सर्व द्रष्टव्यमिति, यद्यसावायततरः ततः किमिति दर्शयति-यो भिक्षुः 'एवम्' उक्तविधिनैव पादपोपगमनविधिमनुपालयेत् 'सर्वगात्रनिरोधेऽपि' उत्तप्यमानकायोऽपि मृर्छन्नपि मरणसमुद्घातगतो वा भक्ष्यमाछामांसशोणितोऽपि क्रोष्टुगृद्धपिपीलिकादि
॥ ५८०॥ मिर्महासत्त्वतयाऽऽशंसितमहाफलविशेषः संस्तस्मात्स्थानात-प्रदेशात् द्रव्यतो भावतोऽपि शुभाध्यवसायस्थानान व्युद्
Page #139
--------------------------------------------------------------------------
________________
| भ्रमेव-न स्थावान्तरं यायात् ॥ १६ ॥ किंच-'अय' मित्यन्तःकरणनिष्पन्नत्वात्प्रत्यक्षः 'उत्तमः' प्रधानो मरणविधिः सर्वोत्तरत्वाद्वम्मों-विशेषः पादपोपगमनरूपो मरणविशेष इति, उत्तमत्वे कारणं दर्शयति-'पूर्वस्थानस्य प्रग्रह' || इति पञ्चम्यर्थे षष्ठी पूर्वस्थानाद्भक्तपरिक्षेङ्गितमरणरूपात्प्रकर्षेण ग्रहोऽत्र पादपोपगमने, प्रगृहीततरमेतदित्यर्थः, तथाहिअत्र यदिङ्गितमरणानुमतं कायपरिस्पन्दनं तदपि निषेध्यते च्छिन्नमूलपादपवनिश्चेष्टो. निष्क्रियो दह्यमानश्छिद्यमानो वा | विषमपतितो वा तथैवास्ते न तस्मात्स्थानाच्चलति, चिलातपुत्रवत , एतदेव दर्शयति-अचिरं स्थानं, तच्च स्थण्डिलं तत्पूर्वविधिना प्रत्युपेच्य तस्मिन् प्रत्युपेक्षिते स्थण्डिले विहरेदिति, अत्र पादपोपगमनाधिकाराद्विहरणं तद्विधिपालनमुक्त, तच्च स्थानात्स्थानान्तरासंक्रमणम् , एतदेव च दर्शयति-तिष्ठेत् सर्वगात्रनिरोधेऽपि, स्थानान्तरासक्रमणं कुर्यादित्यर्थः, कोऽसौ १-'माहणे'त्ति साधुः, स हि निषण्णो निषण्ण ऊध्वस्थितो वा निष्प्रतिकम्मों यथानिक्षिप्तमङ्गमचेतन इव न चालयेदितियावत् ॥ २०॥ एतदेव प्रकारान्तरेण दर्शयितुमाह
अचित्तं तु समासन, ठावए तत्थ अप्पर्ग। वोसिरे सव्वसो कार्य, न मे देहे परीसहा ॥ २१ ॥ जावजीवं परीसहा, उवसग्गा इति सङ्घया। संवुडे देहभेयाए, इय पन्नेऽहियासए ॥ २२ ॥ भेउरेसु न रजिज्जा, कामेसु बहुतरेसुवि (बहुलेसुवि) । इच्छा लोभं न सेविजा, धुववन्नं सपेहिया ॥ २३ ॥ सासएहिं निमन्तिजा, दिव्वमायं न सहहे । तं पडिबुज्झ माहणे, सव्वं नूमं विहूणिया।॥ २४ ॥
Page #140
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीआचाराङ्गवृत्तिः शीलाङ्का.)
० ५८२ ॥
न विद्यते चित्तमस्मिन्नित्यचित्तम् - अचेतनं जीवरहितमित्यर्थः तच्च स्थण्डिलं फलकादि वा 'समासोध' लब्ध्वा फलकेऽपि समर्थः कश्चित्काष्ठे वाऽवष्टभ्य तत्रात्मानं स्थापयेत्, व्यवस्थाप्य च त्यक्तचतुर्विधाहारो मेरुरिव निष्प्रकम्पः कुतालोचनादिपरिकर्मा गुरुभिरनुज्ञातो व्युत्सृजेत्, 'सर्वशः' सर्वात्मना 'कार्य' देहं व्युत्सृष्टदेहस्य च यदि केचन परीषहोपसर्गाः स्युस्ततो भावयेत् - 'न मे देहे परोषहा: ' मत्सम्बन्धी देह एव न भवति, परित्यक्तत्वात्, तदभावे कुतः परीषहाः ?, यदिवा न मम देहे परीषहाः, सम्यकरणेन सहमानस्य तत्कृतपीडयोद्वेगाभावात्, अतः परीषहान् कम्मैशत्रु जय सहायानितिकृत्वाऽपरीपहानेव मन्यते ॥ २१ ॥ ते पुनः कियन्तं कालं सोढव्या इत्याशङ्काव्युदासार्थमाह'यावज्जीव' यावत्प्राणधारणं तावत्परीषहा उपसर्गाश्च सोढव्या इत्येतत् 'सङ्ख्याय' ज्ञात्वा तानध्यासयेदिति, यदिवा न मे यावज्जीवं परीपहोपसर्गा इत्येतत्सङ्ख्याय - ज्ञात्वाऽधिसहेत, यदिवा यावज्जीवमिति यावदेव जीवितं तावत्परीषहोपसर्गजनिता पीडेति, तत्पुनः कतिपयनिमेषाऽवस्थायि एतदवस्थस्य ममात्यन्तमन्यमेवेत्यत एतत्सङ्ख्याय - ज्ञात्त्रा संवृतो यथानिक्षिप्तत्यक्तगात्रो 'देहभेदाय' शरीरत्यागायोत्थित इतिकृत्वा 'प्राज्ञः' उचितविधानवेदी, यद्यत्काय पीडाकायुपतिष्ठते तत्तत्सम्यगधिसहेत ॥ २२ ॥ एवंभूतं च साधुमुपलभ्य कश्चिद्राजादिर्भोगैरुपनिमन्त्रयेत् तत्प्रतिविधानार्थमाह - भेदनशीला भिदुराः - शब्दादयः कामगुणास्तेषु प्रभूततरेष्वपि 'न रज्येत्' न रागं यायात, पाठान्तरं वा 'कामेसु बहुलेसुवि' इच्छा मदनरूपेषु कामेषु बहुलेषु - अनल्पेष्वपीत्यर्थः, यद्यपि राजा राज्यकन्यादानादिनोपप्रलोभयेत् तथापि तत्र न गामियात्, तथा इच्छारूपो लोभ इच्छा लोभः - चक्रवर्तीन्द्रत्वाद्यभिलाषादिको निदानविशेषस्तमसौ निर्जरा
,
बिमो० ८ उद्देशा
॥ ५८२ ॥
Page #141
--------------------------------------------------------------------------
________________
५८३
पेक्षी न सेवेत, सुद्धिदर्शनमोहितो ब्रह्मदत्तवनिदानं न कुर्यादित्यर्थः, तथा चागमः-'इहलोगासंसप्पओगे परलोगासंसप्पओगे २जीवियासंसप्पयोगे ३ मरणासंसप्पयोगे ४ कामभोगासंसप्पयोगे ५ इत्यादि 'वर्णः' संयमो मोक्षो वा स च सूक्ष्मो दुर्विज्ञेयत्वात् , पाठान्तरं वा-धुववन्नमित्यादि, ध्रुवः-अव्यभिचारी स चासौ वर्णश्च ध्रुववर्णस्तं संप्रेक्ष्य ध्रुवां वा शाश्वतीं यशःकीर्ति पर्यालोच्य कामेच्छालोमविक्षेपं कुर्यादिति ॥ २३ ॥ किंचशाश्वता-यावज्जीवमपरिक्षयात्प्रतिदिनदानाद्वाऽस्तैिस्तथाभूतैविभवः कश्चिन्त्रिमन्त्रयेत् तत्प्रतिबुध्यस्व यथा शरीरार्थ धनं मृग्यते तदेव शरीरमशाश्वतमिति, तथा दिव्यां मायां न श्रद्दधीत, तद्यथा-यदि कश्चिद्देवो मीमांसया प्रत्यनीकतया वा भक्त्या वाऽन्यथा वा कौतुकादिना नानद्धिदानतो निमन्त्रयेत , तां च तत्कृतां मायां न श्रद्दधीत, तथा बुध्यस्व यथा देवमायैषा, अन्यथा कुतोऽयमाकस्मिकः पुरुषो दुर्लभमेतद्रव्यं प्रभूततरमेवंभूते क्षेत्रे काले भावे च दद्यात् ?, एवं द्रव्यादिनिरूपणया देवमाया बुध्यस्व इति, तथा देवाङ्गना वा यदि दिव्यं रूपं विधाय प्रार्थयेत् तामपि बुध्यस्वेति, 'माहणे'त्ति साधुः 'सर्वम्' अशेष 'नूमति कर्म मायां वा तत तां वा 'विधूय' अपनीय देवादिमायां बुध्यस्वेति क्रिया ॥ २४॥ किं च- . .
सव्वहिं अमुच्छिए, आउकालस्स पारए। तितिक्खं परमं नचा, विमोहन्नयर हियं
॥ २५ ॥ तिमि ॥ इति अष्टम उद्देशकः ॥ ८-८॥ इति अष्टममध्ययनम् ॥८॥ सर्वे च तेऽर्थाश्च सर्वार्थाः-पञ्चप्रकाराः कामगुणास्तत्सम्पादका वा द्रव्यनिचयास्तैस्तेषु वा अमृञ्छितः-अनध्युपपन्नः
Page #142
--------------------------------------------------------------------------
________________
विमो. ८ उद्देशका ८
भीआचा
आयुःकालस्य यावन्मात्रं कालमायुः संसिष्ठते असौ आयुःकालस्तस्य पारम्-आयुष्कपुद्गलानां क्षयो मरणं तद्गच्छतीति रागवृत्तिः
पारगः, यथोक्तविधिना पादपोपगमनव्यवस्थितः प्रवर्द्धमानशुभाध्यवसाय: स्वायुःकालान्तगः स्यादिति । तदेवं पादपो. (चौलाहा.
पगमनविधि परिसमापय्योपसंहारद्वारेण त्रयाणामपि मरणानां कालक्षेत्रपुरुषावस्थाश्रयणात्तुन्यकक्षता पश्चार्द्धन दर्शयति
तितिक्षा-परीषहोपसर्गापादितदुःखविशेषसहनं तत्त्रयाणामपि परम-प्रधानमस्तीति 'ज्ञात्वा' अवधार्य 'विमोहान्यतरं॥५८४॥ हित'मिति विगतो मोहो येषु तानि विमोहानि-भक्तपरिझङ्गितमरण पादपोपगमनानि तेषामन्यतरत्कालक्षेत्रादिकमाश्रित्य
तुन्यफलत्वाद्धितं अभिप्रेतार्थसाधनादतो यथाशक्ति त्रयाणामन्यतरत्तन्यबलत्वाद्यथावसरं विधेयं, इति अधिकारपरि
समाप्तौ ब्रवीमीति पूर्ववत् , नयविचारादिकमनुगतं वक्ष्यमाणं च द्रष्टव्यमिति विमोक्षाध्ययनस्याष्टमोद्देशकः समाप्तः Bant-८॥ समाप्तं च विमोक्षाध्ययनमष्टममिति ॥ ८॥ ग्रन्थानं १०२० ॥
॥५८४॥
Page #143
--------------------------------------------------------------------------
________________
।। अथोपधानताख्यं नवमे ऽध्ययने प्रथमोद्देशकः ।।
॥ ५८५॥
उक्तमष्टममध्ययनं, साम्प्रतं नरममारभ्यते, अम्य चायभिसम्बन्धः-इहानन्तराध्ययनेष्वष्टसु योऽधोऽभिहितः स तीर्थकृता वीरवर्द्धमानस्वामिना म्वत एवाचीण इन्येतनवमेऽध्ययने प्रतिपाद्यते, अनन्तगध्ययनसम्बन्धस्त्वयम्-इहाभ्युद्यतमरणं त्रिप्रकारमभिहितं, तत्रान्यतरस्मिन्नपि व्यवस्थितोऽयाध्ययनार्थविधायिनमतिघोरपरीषहोपसर्गसहिष्णुमाविष्कृतसन्मार्गावतारं तथा घातितघातिचतुष्टयाविभूतानन्तातिशयाप्रमेयमहाविषयस्वपरावभासककेवलज्ञानं भगवन्तं श्रीवर्द्धमानस्वामिनं समवसरणस्थं सत्चहिताय धम्मदेशनां कुर्वाणं ध्यायेदित्येतत्प्रतिपादनार्थमिदमध्ययनमुच्यते, इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्याध्ययनम्य चत्वार्यनुयोगद्वाराणि भवन्ति, तत्रोपक्रमेऽर्थाधिकारो द्वधा-अध्ययनार्थाधिकार उद्देशार्थाधिकारश्च, तत्राध्ययनार्थाधिकारो लेशतोऽभिहितस्तमेव नियुक्तिकारः स्पष्टतरं विभणिपुराहजो जइया तित्थयरोसो तइया अप्पणो य तित्थम्मि । वण्णेह तवो कम्म ओहाणसुयंमि अज्झयणे ॥२७॥ __ यो यदा तीर्थकृदुत्पद्यते स तदाऽऽत्मीये तीर्थे आचारार्थप्रणयनावसानाध्ययने स्वतपःकर्म व्यावर्णयतीत्ययं सर्वतीर्थकृता कम्पः, इह पुनरुपधानश्रुताख्यं चरममध्ययनमभूत् अत उपधानश्रतमित्युक्तमिति ॥ किमेकाकारं केवलज्ञानवत्सर्वतीर्थकृतां तपःकम्मोतान्यथेत्यारेकाव्युदासार्थमाह
॥ ५८५।
Page #144
--------------------------------------------------------------------------
________________
उद्देशक
8 सव्वेसिं तवोकम्मं निरुवसग्गं तु वणिय जिणाणं । नवरं तु वडमाणस्स सोवसरगं मुणेयव्वं ॥२७॥ धीआचाराजवृत्तिः
तित्थयरो चउनाणी सुरमहिओ सिझियव्वय धुवम्मि । अणिगुहियबलविरिओ तवोविहाणंमि उज्जमइ ।
किं पुण अवसेसेहिं दुवकावयकारणा सुविहिएहिं । होइन उजमियव्वं सपच्चवायंमि माणुस्से? ॥२७९॥ शीलाका.)
गाथात्रयमप्युत्तानार्थम् ॥ अध्ययनार्थाधिकार प्रतिपाद्योद्देशार्थाधिकार प्रतिपादयत्राह.५८६ ॥
चरिया १ सिज्जा य २ परीसहा य ३ आयंकिया(ए)चिगिच्छा ४ य ।
तवचरणऽहिगारो चउसुद्देसेसु नायव्वो ॥२८॥ चरणं चर्यत इति वा चर्या-श्रीवीरवर्द्धमानस्वामिनो विहारः, अयं प्रथमोद्देशकेऽर्थाधिकारः १, द्वितीयोद्देशके त्वय. मर्थाधिकारः, तद्यथा-शव्या-वसतिः सा च यादृग्भगवत आसीत् तादृग्वक्ष्यते २, तृतीये त्वयमर्थाधिकार:-मार्गाच्यवननिर्जरार्थ परिषोढव्याः परीषहाः, उपलक्षणार्थत्वादुपसर्गाश्चानुकूलप्रतिकूला बर्द्धमानस्वामिनो येऽभूवन् तेऽत्र प्रतिपाद्यन्ते ३, चतुर्थे त्वयमर्थाधिकारः, तद्यथा-'आतङ्किते' जुत्पीडायामातङ्कोत्पत्तो विशिष्टाभिग्रहावाप्ताहारेण चिकित्सेदिति ४, तपश्चरणाधिकारस्तु चतुर्वप्युद्देशकेष्वनुयायीति गाथार्थः ॥ निक्षेपविधा-ओघनिष्पन्नो नामनिष्पन्नः सूत्रालाप. कनिष्पन्नश्च, तत्रौघनिष्पन्ने निक्षेपेऽध्ययन. नामनिष्पन्ने तूपधानश्रुतमिति द्विपदं नाम, तत्रोपधानस्य श्रुतस्य च यथाक्रमं निक्षेपः कर्तव्य इति न्यायादुपधाननिक्षेपचिकीर्पयाऽऽहनामंठवणवहाणं दवे भावे य होई नायव । एमेय य सुत्तस्सवि निवेदो चरवि हो होइ । ५८१॥
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
Page #145
--------------------------------------------------------------------------
________________
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
नामोपधानं स्थापनापधानं द्रव्योपधानं भावोपधानं च, अनम्याप्येवमेव चतुद्रा निक्षेपः, तर द्रव्यश्रतमनुपयुक्तस्य यत् श्रुतं द्रव्यार्थं वा यत् श्रुतं बुधावनिकश्रुतानि चेति द्रव्यश्रुतम् . मावश्रुतं त्वङ्गानङ्गप्रविष्टश्रुनविषयोपयोगः ।। तत्र सुगमनामस्थापनाब्युदासेन द्रव्याधुपधानप्रतिपादनायाहदव्ववहाणं सयणे भावुवहाणं तवो चरित्तस्स । तम्हा उ नाणदसणत्वचरण हि इहाहिगयं ।। २८२॥
उप-सामीप्येन धीयते-व्यवस्थाप्यत इत्युपधानं द्रव्यभृत मुपधानं द्रव्योपधानं तत्पुनः शय्यादी सुखशयनार्थ शिरोऽवष्टम्भनवस्तु, 'भावोपधान मिति भावस्योपधानं भावोपधानं, तत्पूननिदर्शनचारित्राणि तपो वा सबाह्याभ्यन्तरं, तेन हि चारित्रपरिणतभावस्योपष्टम्भनं क्रियते, यत एवं तस्मात ज्ञानदर्शनतपश्चरणैरिहाधिकृतमिति गाथार्थः ।। किं पुनः कारणं चारित्रोपष्टम्भकतया तपो भ वो पधानमुच्यते इत्याह
जह खलु मइलं वत्थं सुज्झइ उदगाइएहिं दव्वेहिं । एवं भावुवहाणेण सुज्झए कम्ममढविहं । २८३॥ __'यथे'न्युदाहरणोपन्यासार्थः यथैतत्तथाऽन्यदपि प्रष्टव्यमित्यर्थः, खलुशब्दो वाक्यालङ्कारे, यथा मलिनं वस्त्र मुदकादिभिर्द्रव्यैः शुद्धिमुपयाति एवं जीवस्यापि भावोपधानभृतेन सबाह्याभ्यन्तरेण तपसा अष्टप्रकार कर्म शुद्धिमुपयातीति । अस्य च कर्मक्षयहेतोस्तपस उपधानश्रुतत्वेनात्रोपात्तस्य 'तत्त्वभेदपर्यायाख्ये तिकृत्वा पर्यायदर्शनायाह-यदिवा तपोऽनुष्ठानेनापादिता अवधूननादयः कपिगमविशेषाः सम्भवन्तीत्यतस्तान् दर्शयितुमाहओधूणण धुणण नासण विणासणं झवण खवण सोहिकरं। छयण भेयण फेडण डहणं धुवणंच कम्माण ॥२८४
Page #146
--------------------------------------------------------------------------
________________
भीआचाराजवृत्तिः शीलाङ्का
उप. ९ उद्देशका
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
तत्रावधून नम्-अपूर्वकरणेन कम्र्मग्रन्थे भेदापादनं, तरच तोऽन्यतरभेदसामर्थ्याद्भवतीत्येषा क्रिया शेषेष्वप्येकादश सु पदेयायोज्या, तथा 'धूननं' भिन्न ग्रन्थेरनिवर्तिकरणेन सम्यक्त्वावस्थानं, तथा 'नाशनं, कम्मप्रकृतेः स्तिबुकसङ्क्रमेण प्रकृत्यन्तागमनं, तथा 'विनाशनं शैलेश्यवस्थायां मामस्त्येन काभावापादनं, तथा ध्यापनम्-उपशमश्रेण्या कर्मा. नुदयलक्षणं विध्यापन, तथा 'क्षपणम्' अप्रत्याख्यानादिप्रक्रमेण क्षपकश्रेण्यां मोहाद्यभावापादनं, तथा 'शुद्धिकर' मित्यनन्तानुबन्धिक्षयप्रक्र मेण क्षायिकमम्पक्वापादनं, तथा 'छेदनम् उत्तरोत्तरशुभाध्यवसायारोहणास्थितिहासजननं, तथा 'भेदनं बादरसम्परायावस्थायां सञ्जवलनलोभस्य खण्डशो विधानं, तथा 'फेडणन्ति अपनयनं चतुःस्थानिकादीनामशुभप्रकृतीनां रमतत्र यादिस्थानापादनं, तथा 'दहन' केवलि समुद्घातध्यानाग्निना वेदनीयस्य भम्ममाकरणं, शेषस्य च दग्धरज्जुतुल्यत्यापादनं, तथा 'धावन' शुभाध्यवसायान्मिथ्यान्वपुद्गलानां सम्यक्त्वभाव संजन नमिति, पताश्च कम्मणोऽवस्थाः प्रायश उपशमणिक्षपकणि केवलि समुद्घानशैलेश्यवस्थाप्रकटनेन प्रभूता आविर्भाविता भवन्तीत्यतस्तन्प्रकटनाय प्रक्रम्यते, तत्रोपशमश्रेण्यामादावेवानन्तानुबन्धिनामुपशमना तावन्कथ्यते, इहासंयतसम्यग्दृष्टि देशविरतप्रमत्ताप्रमत्तानामन्यनगेऽन्यतग्योग वर्तमान आरम्भको भवति, तत्रापि दर्शनमतकमनेन क्रमेणोपशमयनि, तद्यथा-अनन्तानुबन्धिनश्चतुर, उपरितनलेश्यात्रि के च विशुद्धे माकागेपयोग्यन्तःकोटी कोटीस्थितिसत्कर्मा परिवर्तमानाः शुभप्रकृतीरेव बन्धन प्रतिममयमशुभप्रकृतीनामनुभागमनन्तगुणहान्या ह्रासयन शुमानो चानन्तगुणवृद्धयाऽनुभाग व्यवस्थापयन पल्योपमासव्येयभागहीनमुनगेन धिनिबन्धं कुवन काणकालादाय पर्वमन्तम हुन विशुध्य
U CEI
Page #147
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ ५८
मानः करणत्रयं विधनं, तच प्रत्येकमान्तमात्तिक, तद्यथा-यथाप्रवृत्तिकरणमपूर्वकरणमनिवृत्त करणं चेति, चतुथ्य पशान्ताद्धा, तत्र यथाप्रवृत्त करणे प्रतिसमयमनन्त गुणवृद्धया विशुद्धिमनुभवति, न तत्र स्थितिघातरसघातगुणश्रेणागुणसंक्रमाणामन्यतमोऽपि विद्यते, तथा द्वितीयमपूर्वकरणं, किमुक्तं भवति :-अपूर्वामपूर्वी क्रियां गच्छतीत्यपूर्वकरणं, तत्र च प्रथमसमय एक स्थितिघातरसघातगुणश्रेणिगुणसंक्रमा अन्यश्च स्थितिबन्ध इत्येते पश्चाप्यधिकारा योगपद्येन पूर्वमप्रवृत्ताः प्रवर्तन्त इत्यपूर्व करणं, तथाऽनिवृत्तिकरणमित्यन्योऽन्यं नातिवर्तन्ते परिणामा अस्मिन्नित्यनिवृत्तिकरणं, एतदुक्तं भवति-प्रथमसमयप्रतिपन्नानां तत्करणमसुमतां सर्वेषां तुल्यः परिणामः, एवं द्वितीयादिष्वप्यायोज्यं, अत्रापि पूर्वोक्ता एव स्थितिघातादयः पश्चाप्यधिकारा युगमा प्रवर्तन्त इति, तत एभिस्त्रिभिरपि करणैर्यथोक्नक्रमेणानन्तानुवन्धिनः कषायानुपशमयति, उपशमनं नाम यथा धूलिरुदकेन सिक्ता द्रघणादिभिर्हता न बाय्वादिभिः प्रसप्पणादिविकारभाग्भवति, एवं कर्मधूल्यपि विशुद्धय दकाीकृता अनिवृत्तिकरण क्रियाहता सत्युदयोदीरणसंक्रमनिधत्तनिकाचनाकरणानामयोग्या भवति, तत्रापि प्रथमसमयोपशान्तं कर्मदलिक स्तोक द्वितीयादिषु समयेष्वसङ्ख्येयगुणवृद्धयोपशम्यमानमन्तमुहूर्तेन सर्वमप्युपशान्तं भवति, एवमेकीयमतेनानन्तानुबन्धिनामुपशमोऽभिहितः, अन्ये त्वनन्तानुबन्धिनां विसंयोजनामेवाभिदधति, तद्यथा-क्षायोपशमिकसम्यग्दृष्ट यश्चतुर्गतिका अप्यनन्तानुबन्धिनां विसंयोजकाः, तत्र नारका देवा अविरतसम्यगदृष्टयस्तियश्चोऽविरतदेशविरता मनुष्या अविरतदेशविरतप्रमत्ताप्रमत्ताः, एते सर्वेऽपि यथासम्भवं विशो-:
J॥५८६। धिविवेकेन परिणता अनन्तानुवन्धिविसंयोजनार्थं प्रागुक्तं करणत्रयं कुर्वन्ति, तत्राप्यनन्तानुबन्धिना, स्थितिमपवर्त्तय
Page #148
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीआचा
उप.. उद्देशका
राजवृत्तिः । (पीलाहा.)
.५९० ॥
.
अपवर्तयन् यावत्पन्योपमासङ्ख्येयभागमात्रा तावद्विधत्ते, तदपि पन्योपमासङ्ख्येयभागं बध्यमानासु मोहप्रकृतिषु प्रतिममयं संक्रामयति, तत्रापि प्रथमममये स्तोक द्वितीयादिष्वसङ्ख्येयगुणं एवं यावच्चरमसमये सर्वसंक्रमेणावलिका. गतं मुक्त्वा सर्व संक्रामयति, आवलिकागतमपि स्तिबुकसंक्रमेण वेद्यमानास्वपरप्रकृतिषु संक्रामयति, एवमनन्तानुबन्धिनो विसंयोजिता भवन्ति । इदानीं दर्शन त्रिकोपशमना मण्यते-तत्र मिथ्यात्वस्योपशमको मिथ्यादृष्टिवेदकसम्यग्दृष्टिा सम्यक्त्वसम्यग्मिथ्यात्वयोस्तु वेदक एवोपशमकः, तत्र मिथ्यात्वस्य पशमं कुर्वस्तस्यान्तरं कृत्वा प्रथमस्थितिं विपाकेनानुभूयोपशान्तमिथ्यात्वः सन्नुपशमसम्यग्दृष्टिर्भवतीति । साम्प्रतं वेदकसम्यग्दृष्टिरुपरामश्रेणिं प्रतिपद्यमानोऽनन्तानुबन्धिनो विसंयोज्य संयमे वर्तमानो दर्शनत्रिकमुपशमयत्यनेन विधिना, तत्र यथाप्रवृत्तादीनि प्राग्वत्त्रीणि करणानि कृत्वाऽन्तरकरणं कुर्वन् वेदकसम्यक्त्वस्य प्रथमस्थितिमान्तमौहूत्तिकी करोति, इतरी त्वावलिकामात्रा, ततः किश्चिन्न्यूनमुहर्त्तमात्रा स्थिति खण्डयित्वा बध्यमानाना प्रकृतीनां स्थितिबन्धमात्रेण कालेन तत्कर्मदलिकं सम्यक्त्वप्रथमस्थितौ प्रक्षिपन्नेत्येवमनया प्रक्रियया सम्यक्त्वबन्धाभावादन्तरं क्रियमाणं कृतं भवति, मिथ्यात्वसम्यग्मिथ्यात्वप्रथमस्थितिदलिकमावलिकामात्रपरिमाणं सम्यक्त्वप्रथमस्थितौ स्तिकसङ्क्रमेण सङ्क्रमयति, तस्यामपि सम्यक्त्वप्रथमस्थितौ क्षीणायाँ सत्यामुपशान्तदर्शनत्रिको भवतीति । तदनन्तरं चारित्रमोहनीयमुपशमयन् पूर्ववत् करणत्रयं करोति, नवरं यथाप्रवृत्तकरणमप्रमत्तगुणस्थान एव भवति, द्वितीयं त्वपूर्वकरणमष्टममेव गुणस्थानकं, तस्य च प्रथमसमय एव स्थितिघातरसघातगुणश्रेणिगुणसङक्रमापूर्वस्थितिबन्धा योगपद्यन पश्चाप्यधिकाराः प्रवर्तन्ते, तत्रापूर्वकरणमङ्ख्येयमागे गते निद्राप्रचल
.
..
..
Page #149
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ ५६१ ॥
६-७
८
योर्बन्धव्यवच्छेदो भवति, ततोऽपि बहुषु स्थितिकण्डकसहस्रं षु गतेषु सत्सु परभत्रिकनाम्नां चरमसमये त्रिंशतो नामप्रकृतीनां बन्धव्यवच्छेदं विश्वत्ते, ताश्चेमा : - देवगतिस्तदानुपूर्वी पञ्चेन्द्रियजातिर्वक्रिया हा (कशगीरतदङ्गोपाङ्गानि तैजस१० ११. १२.१३१४.
१५ १६ १७ १५
१६ २० २१ २२ २३
कार्मणशरीरे चतुरस्र संस्थानं वर्णगन्धरसस्पर्शागुरुलधूपघातपरा घातोच्छ्वासप्रशस्तविहायोग तिसवाद र पर्याप्त कप्रत्येक
२४ २५ २६ २७ २८ २६
३०
स्थिर शुभसुभगसुस्वरा देय निर्माणतीर्थकर नामानि चेति, ततोऽपूर्वकरणचरम समये हास्यरतिभयजुगुप्सानां बन्धव्यवच्छेदः, हास्यादिषट्कस्य तुदयव्यवच्छेदश्थ, सर्वकर्मणामप्रशस्तो ( णां देशी ) पशमनानिवत्तनिकाचनाकरणानि च व्यवच्छि द्यन्ते, तदेवमसंयतसम्यग्दृष्टया दिग्व पूर्वकरणान्तेषु सप्त कम्र्माण्युपशान्तानि लभ्यन्ते, तत ऊर्ध्वमनिवृत्तिकरणं, सच नवमो गुणः, तत्र व्यवस्थित एकविंशतीनां मोहप्रकृतीनामन्तरं कृत्वा नपुंसक वेदमुपशमयति, तदनन्तरं स्त्रीवेटं ततो हास्यादिसप्तकं (पटक), पुनः पुंवेदस्य बन्धोदयव्यवच्छेदः, तत ऊर्ध्वं समयोनावलिकाद्वयेन पु'वेदोपशमः, ततः क्रोधद्वयस्य पुनः सज्ज्वलनक्रोधस्यैवं मानत्रिकस्य मायात्रिकस्य च ततः सञ्ज्वलनलोभं सूक्ष्मखण्डानि विधत्ते, तत्करणकालच रमसमये लोभद्वयमुपशमयति, एवं चानिवृत्तिकरणान्ते सप्तविंशतिरुपशान्ता भवति, ततः सूक्ष्मखण्डान्यनुभवन् सूक्ष्मसम्पयो भवति, तदन्ते ज्ञानान्ततरा यदशकदर्शनावरण चतुष्कयशः कीत्युच्चैर्गोत्राणां बन्धव्यवच्छेदः, तदेवमष्टाविंशतिमोहप्रकृत्युपशमे सत्युपशान्तवीतरागो भवति, स च जघन्यत एकं समयमुत्कृष्टतोऽन्तर्मुहुर्त्तं, तत्प्रतिपातथ्थ भवचये
॥ ४६१ ॥
Page #150
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शीलाङ्का.)
॥ ५६२ ॥
णाद्धाक्षयेण वा स्यात् स च यथाऽऽरूढो बन्धादिव्यवच्छेदं च यथा कृतवांस्तथैव प्रतिपतन्विधत्ते, कश्चिच्च मिथ्यात्वमपि गच्छेदिति, यस्तु भत्रक्षयेण प्रतिपतति तस्य प्रथमसमय एव सर्वकरणानि प्रवर्त्तन्ते, एकभव एव कश्चिद् वाग्द्वयमुपशमं विदध्यादिति । साम्प्रतं क्षपकश्रेणिर्व्यावर्ण्यते - अस्याश्च मनुष्य एवाष्टवर्षोपरि वर्त्तमान आरम्भको भवति, स च प्रथममेव करणत्रयपूर्वकमनन्तानुबन्धिनो त्रिसंयोजयति, ततः करणत्रयपूर्वेकमेव मिथ्यात्वं तच्छेषं च सम्यगमिध्यात्वे प्रक्षिपन् क्षपयति, एवं सम्यग्मिथ्यात्वं नवरं तच्छेषं सम्यक्त्वे प्रक्षिपति, एवं सम्यक्त्वमपि तच्चरमसमये च वेदकसम्यग्दृष्टिर्भवति, तत ऊर्ध्वं क्षायिक सम्यग्दृष्टिरिति एताश्च सप्तापि कर्म्मप्रकृतीर संयत सम्यग्दृष्टद्याद्यप्रमत्तान्ताः क्षपयन्ति, बद्धायुष्कचात्रैवावतिष्ठते, श्रेणिकवद्, अपरस्तु कपायाष्टकं क्षपयितुं करणत्रयपूर्वकमारभते, तत्र यथाप्रवृत्तकरणमप्रमत्तस्यैव, अपूर्द करणे तु स्थितिघातादिकं प्राग्वन्निद्राद्विकस्य देवगत्यादीनां च त्रिंशनां हास्यादिचतुष्कस्य (च) यथाक्रमं बन्धव्यवच्छेद उपशमश्रेणिक्रमेण वक्तव्यः, अनिवृत्तिकरणे तु स्त्यानद्वित्रिकस्य नरकतिर्यग्गतितदानुपूर्व्ये केन्द्रियादिजातिचतुष्टयातपोद्योतस्थावरसूक्ष्म माधारणानां पोडशप्रकृतीनां क्षयः, ततः कपायाष्टकस्यापि अन्येषां तु मतं पूर्वं कषायाटकं क्षप्यते, पश्चात् षोडशेति, ततो नपुंसकवेदं, तदनन्तरं हास्यादिषट्कं पुनः पुरंवेदं ततः स्त्रीवेदं ततः क्रमेण क्रोधादीन्सज्ज्वलनान् क्षपयति, लोभं च खण्डशः कृत्वा क्षपयति, तत्र बादरखण्डानि क्षपयन्ननिवृत्तिवादरः सूक्ष्मानि तु सूक्ष्मसम्पराय इति, तदन्ते च ज्ञानावरणीयादीनां षोडशप्रकृतीनां बन्धव्यवच्छेदं विधत्ते, ततः क्षीणमोहोऽन्तर्मुहूर्त्त तदन्ते द्विरमसमये निद्राद्वयं क्षपयति, अन्तसमये च ज्ञानान्तरायदशकं दर्शनावरणचतुष्कं च क्षपयित्वा निरा
उप०
उद्देशका १
॥ ५६२ ।।
Page #151
--------------------------------------------------------------------------
________________
.५६३॥
वरणज्ञानदर्शनसमन्वितः केवली भवति, स च सातावेदनीयमेवैक बध्नाति यावत्सयोग इति, स चान्तमु हूतं देशोना पूर्वकोटिं वा यावद्भवति, ततोऽसावन्तमुहूर्तावशेषमायुर्ज्ञात्वा वेदनीयं च प्रभूनतरमतस्तयोः स्थितिसाम्यापादनार्थ | समुद्घातमेतेन क्रमेण करोति, तद्यथा--औदारिककाययोगी आलोकान्तादुर्वाधःशरीरपरिणाहप्रमाणं प्रथमसमये दण्डं करोति, पुनर्द्वितीयसमये तिरश्चीनमालोकान्तात्कायप्रमाणमेचौदारिककामणशरीरयोगी कपाटवकपाटं विधत्ते, तृतीयसमये त्वपरदिक्तिरश्चीनमेव कार्मणशरीरयोगी मन्थानवन्मन्थानं करोति, अनुश्रेणिगमनाच्च लोकस्य प्रायशो बहु पूरितं भवति, ततश्च तुर्थसमये कार्मण काययोगेनैव मन्थान्तरालव्यापनासह निष्कुरैर्लोकः पूरितो भवति, पुनरनेनैव क्रमेण पश्चानुपूर्त्या समुद्घातावस्थां चतुर्भिरेक समयैरुपसंहरंस्तथापारवांस्तत्तद्योगो भवति, केवलं षष्ठसमये मन्थानमुपसंहरबौदारिकमिश्रयोगी स्यादिति, तदेवं केवली समुद्घातं संहृत्य प्रत्ययं च फलकादिकं ततो योगनिरोधं विधत्ते, तद्यथा-पूर्व मनोयोग वादरं निरुणद्धि, पुनर्वाग्योगं काययोगं च बादरमेवेति, पुनरनेनैव क्रमेण सूक्ष्ममनोयोगं निरुणद्धि, ततः सूक्ष्मवाग्योगं निरुणद्धि, ततः सूक्ष्मकाययोगं निरुन्धन सूक्ष्मक्रियमप्रतिपाति तृतीयं शुक्लध्यानभेदमारोहति, तन्निरोधे च व्युपरतक्रियमनिवत्त्रिं चतुर्थ शुक्लध्यानमारोहति, तदारूढश्चायोगिकेवलिभावमुपगतः सन्नन्तमु हूतं यावत्कालमजघन्योत्कृष्टमास्ते, तत्र चासौ येषां कर्मणामदयो नास्ति तानि स्थितिक्षयेण क्षपयन् वेद्यमानासु चापरप्रकृतिषु सङ्कामयन् क्षपयंश्च तावद्गतो यावद्विचरमसमयं, तत्र च द्विचरमसमये देवगतिसहगताः कर्मप्रकृतीः क्षपयति, ताश्चेमाः-देवगतिस्तदानुपूर्वी वैक्रियाहारकशरीरतदङ्गोपाङ्गचतुष्टयमेतद्वन्धनसङ्घाताविति च, तथा तत्रैवापरा इमा:
३॥
Page #152
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीआचाराङ्गवृत्तिः शीलावा.) 0 ५६४
चयनि, तद्यथा-औदारिकतैजसकार्मणानि शरीराणि एतद्वन्धनानि त्रीणि सङ्घातांश्च षट् संस्थानानि पट संहननानि
उप.. . औदारिकशरीगङ्गोपागं वर्णगन्धरसस्पर्शा मनुष्यानुपूर्व्यगुरुलघूपघातपगघातोच्छ्वासप्रशस्ताप्रशस्तविहायोगनयस्तथा
उद्देशका १ ऽपर्याप्तकप्रत्येकस्थिरास्थिरशुभाशुभसुमगदुर्भगसुस्वरदुःस्वरानादेयायशाकीर्तिनिर्माणानि तथा नीचैर्गोत्रमन्यता द्वेदनीय. मिति, चरमसमये तु मनुष्यगतिपञ्चेन्द्रिय जातित्रसबादरपर्याप्तकसुभगादेययशःकीर्तितीर्थकरत्वान्यतरद्वेदनीयायुष्कोच्चै गोत्राण्येता द्वादश तीर्थकृत् केषांचिन्मतेनानुपूर्वीसहितास्त्रयोदश अतीर्थकृच्च द्वादशैकादश वा क्षपयति अशेषकर्मक्षयसमनन्तरमेव चास्पर्शवद्गत्या ऐकान्तिकात्यन्तिकानाबाधलक्षणं सुखमनुभवन् सिद्धा(या)ख्यं लोकाग्रमुपैतीत्ययं । गाथातात्पर्यार्थः ।। साम्प्रतमुपसंहरंस्तीर्थकरासेवनतः प्ररोचनता दयितुमाहएवं तु समणुचिन्नं वीरवरेणं महाणुभावेणं । जं अणुचरित्तु धीरा सिवमचलं जन्ति निव्वाणं ॥२८॥
एवम्' उक्तविधिना भावोपधान-ज्ञानादि तपो वा वीरवर्द्धमानस्वामिना स्वतोऽनुष्ठितमतोऽन्ये नापि मुमुक्षुणैतदनुष्ठेयमिति गाथार्थः ॥ समाप्ता ब्रह्मचर्याध्ययननियुक्तिः ॥ साम्प्रतं सूत्रानुगमे सूत्रमुच्चारणीयं, तच्चेदम्
अहासुयं वइस्सामि जहा से समणे भगवं उट्ठाए । संखाए तंसि हेमंते अहणो पन्चइए रीइत्था ॥१॥णो चेधिमेण वत्येण पिहिस्सामि तंसि हेमंते । से पारए आवकहाए, एयं खु अणंधमियं तस्स ॥ २॥चत्तारि साहिए मासे, बहवे पाणजाइया आगम्म | अभिरुज्झ कायं विहरिंसु, आरुसिया तत्थ हिंसिंसु॥३॥ संवण्ठरं साहियं
Page #153
--------------------------------------------------------------------------
________________
मास ज न रिकासि पत्थग भगवं । अचेलए तओ चाइ तं वोसिज्ज वत्थमणगारे ॥ ४ ॥ आर्यसुधर्मस्वामी जम्बूस्वामिने पृच्छते कथयति, यथाश्रुतं यथासूत्रं वा वदिष्यामि, तद्यथा-म श्रमणो भगवान् । वीरवर्द्धमानस्वाभ्युत्थाय-उद्यतविहारं प्रतिपद्य सर्वालङ्कारं परित्यज्य पञ्चमुष्टिकं लोचं विधायकेन देवव्येणेन्द्रक्षिप्तेन युक्तः कृतसामायिक प्रतिज्ञ आविभूतमनःपर्यायज्ञानोऽष्टप्रकारकर्मक्षयार्थ तीर्थप्रवर्तनाथ चोत्थाय 'संख्याय'ज्ञात्वा तस्मिन हेमन्ते मार्गशीर्षदशम्यां प्राचीनगामिन्या छायायां प्रव्रज्याग्रहणसमनन्तरमेव 'रीयते स्म' विजहार, तथा च किल कुण्डग्रामान्मुहूर्तशेष दिवसे कर्मारग्राममाप, तत्र च भगवानित आरभ्य नानाविधाभिग्रहोपेतो घोरान् परीषहोपसर्गानधिसहमानो महासत्त्वतया म्लेच्छानप्युपशमं नयन् द्वादश वर्षाणि साधिकानि छद्मस्थो मौनव्रती तपश्चचार, अत्र च सामायिकारोपणसमनन्तरमेव सुरपतिना भगवदुपरि देवदृष्यं चिक्षिपे, तत् भगवताऽपि निःसङ्गाभिप्रायेणैव धर्मोपककरणमृते न धर्मोऽनुष्ठातुं मुमुक्षुभिरपरैः शक्यत इति कारणापेक्षया मध्यस्थवृत्तिना तथैवावधारितं, न पुनस्तस्य तदुपभोगेच्छाऽस्तीति ॥ एतदर्शयितुमाह-न चैवाहमनेन वस्त्रेणेन्द्रप्रक्षिप्तेनात्मानं पिधास्यामि-स्थगयिष्यामि तस्मिन् हेमन्ते तद्वा वस्त्रं त्वक्त्राणीकरिष्यामि, लज्जाप्रच्छादनं वा विधास्यामि, किंभूतोऽसाविति दर्शयति-'स' भगवान् प्रतिज्ञायाः परीपहाणां संसारस्य वा पारं गच्छतीति पारगः, कियन्तं कालमिति दर्शयति-यावत्कथं यावज्जीवमित्यर्थः, किमर्थं पुनरसौ विमर्तीति चेद्दर्शयति-खुरवधारणे स च भिन्नक्रमा, एतद्वस्त्रावज्ञावधारणं तस्य भगवतोऽनु-पश्चाद्धाम्मिकमनुधार्मिकB मेवेति, अपरैरपि तीर्थकृद्भिः समाचीमित्यर्थः, तथा चागमः- "से घेमि जे य अईया जे य पडुप्पन्ना जे य।
Page #154
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीआचा राजवृत्तिः (शीलावा.)
उप०९ उद्देशक
॥५६६॥
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
आगमेस्सा अरहंता भगवन्तो जे य पवइंसु जे य पव्ययन्ति जे अ पव्वइस्सन्ति सव्वे ते सोवही धम्मो देसिअव्वोत्तिकह तित्थधम्मयाए एसाऽणधम्मिगत्ति एगं देवदूसमायाए पचासु वा पव्वयंति वा पव्वइस्सन्ति व"त्ति, अपि च-'गरीयस्त्वात्सचेलस्य, धर्मस्यान्यैस्तथागतः। शिष्यस्य प्रत्ययाच्चैव, वस्त्रं दधे न लज्जया ॥१॥"इत्यादि ॥ तथा भगवतः प्रव्रजतो ये दिव्याः सुगन्धि पटवासा आसंस्तद्गन्धाकृष्टाश्च भ्रमरादयः समागत्य शरीरमुपतापयन्तीति, एतदर्शयितुमाह-चतुरः समधिकान् मासान् बहवः प्राणिजातयो-भ्रमरादिकाः समागत्य आरुह्य च 'कार्य' शरीरं "विज्ह.' काये प्रविचारं चक्रः, तथा मासशोणितार्थितयाऽऽरुह्य 'तत्र' काये 'ण'मिति वाक्यालङ्कारे, 'हिंसिंमु' इतश्चेतच विलुम्पन्ति स्मेत्यर्थः ॥ कियन्मानं कालं तद्देवदृष्यं भगवति स्थितमित्येतदर्शयितुमाह-तदिन्द्रोपाहिले वस्त्रं संवत्सरमेकं साधिक मासं 'जण रिकासित्ति यत्र त्यक्तवान् भगवान तस्थितकल्प इतिकृत्वा, तत ऊर्ध्व तद्वस्त्रत्यागात् परित्यागी, व्युत्सृज्य च तदन गारो भगवानचेलोऽभूदिति, तच्च सुवर्णवालुकानदीपूगहतकण्टकावलग्नं धिगजातिना गृहीतमिति ॥ किं च
अदु पोरिसिं तिरियं भित्तिं चक्खुमासज्ज अन्तसो झायइ । अह चक्खुभीया संहिया ते हन्ता हन्ता बहवे कंदिसु ॥ ५॥ सयहिं वितिमिस्सेहिं इथिओ तत्थ से परिन्नाय । सागारियं न सेवेह य, से सयं पवेसिया झाइ ॥६॥ जे के इमे अगारन्था मोसीभावं पहाय से झाई। पुट्ठोवि नामिभासिंसु गच्छद नाइवत्तइ अंजू (पुट्ठो व सो अपुट्ठो व
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
Page #155
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ ५९७ ॥
णो अणुन्नइ पावगं भगवं ॥ ७ ॥ णी सुकरमेयमेगेसिं नाभिभासे य अभिवायमाणे । हयपुवे तत्थ दण्डेहिं लूसियपुवे अप्पपुण्णेहिं ॥ ८ ॥
'अथ' आनन्तर्ये पुरुषप्रमाणा पौरुषी - आत्मप्रमाणा वीथी तां गच्छन् ध्यायतीर्याममितो गच्छति, तदेव चात्र ध्यानं यदीर्यासमितस्य गमनमिति भावः किभूतां तां ?- तिर्यग्मित्ति - शकटोद्धिवदादौ सङ्कटामग्रतो विस्तीर्णामित्यर्थः, कथं ध्यायति १ – 'चक्षुरासाग' चतुर्दश्वाऽन्तः - मध्ये दत्तावधानो भूत्वेति तं च तथा रीयमाणं दृष्ट्वा कदाचिदव्यक्तवयसः कुमारादय उपसर्गयेयुरिति दर्शयति- 'अथ' आनन्तर्ये चतुःशब्दोऽत्र दर्शनपर्यायो, दर्शनादेव भीता दर्शनभीताः संहिता - मिलितास्ते बहवो डिम्मादयः पांसुमुष्टयादिभिर्हत्वा हत्वा चक्रन्दुः, अपरांश्च चुक्रुशुः पश्यत यूयं नग्नो मुण्डितः, तथा कोऽयं कुतोऽयं किमितो वा अयमित्येवं हलबोलं चक्रुरिति ॥ किं च शय्यत एष्विति शयनानि वसतयस्तेषु कुलविनिमित्ताद्वयतिमिंश्रेषु गृहस्थतीर्थिकैः, तत्र व्यवस्थितः सन् यदि स्त्रीभिः प्रार्थ्यते ततस्ताः सुममार्गाला इति ज्ञात्रा परिज्ञया प्रत्याख्यान परिज्ञया परिहरन् सागारिकं -मैथुनं न सेवेत, शून्येषु च भावमैथुनं न सेवेत, इत्येवं स भगवान् स्वयम् आत्मना वैराग्यमार्गमात्मानं प्रवेश्य धर्म्मध्यानं शुक्लध्यानं वा ध्यायति ॥ तथा-ये केचन इमेऽगारं गृहं तत्र तिष्ठन्तीति अगारस्था:- गृहस्थास्तै मिंश्री भावमुपगतोऽपि द्रव्यतो भावतश्च तं मिश्रीभावं प्रहाय त्यक्त्वा स भगवान् धर्मध्यानं ध्यायति, तथा कुतश्चिन्निमित्ताद्गृहस्थैः पृष्टोऽपृष्टो वा न वक्ति, स्वकार्याय गच्छत्येव, न तैरुक्तो मोक्षपथमतिवर्त्तते ध्यानं वा, 'अंजु 'त्ति ऋजुः ऋजोः संयमस्यानुष्ठानात्, नागार्जुनीयास्तु पठन्ति - 'पुट्ठो व सो अट्ठो
॥ ५९७ ॥
Page #156
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीआचा
राजवृत्तिः (शीलावा.)
॥५॥८॥
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
पणो अणनाइ पावगं भगव' कण्ठयम् ॥ किं च-नैतद्वक्ष्यमाण मुक्तं वा एकेषाम्-अन्येषां सुकरमेव, नान्यः प्राकृतपुरुषैः कर्तमलं, किं तत्तेन कृतमिति दर्शयति-अभिवादयतो नामिभाषते, नाप्यनभिवादयद्यः
उप.१
कुष्यति, नापि प्रतिकूलो. | पसगैग्न्यथाभावं यातीति दर्शयति-दण्डतपूर्व: 'तत्र' अनार्य देशादौ पर्यटन तथा 'लूषितपूवो हिंसितपूर्वः केश
उद्देशका लुश्चनादिभिर पुण्यै:-अनायें: पापाचारैरिति ॥ कि च
फरुसाई दुत्तितिक्खाइ अइअच्च मुणी परक्कममाणे । आघायनदृगीयाई दण्डजुडाई मुहिजुडाई ॥९॥ गहिए मिहुकहासु समयंमि नायसुए विसोगे अदक्खु । एयाइ से उरालाई गच्छई नायपुत्ते असरणयाए ॥ १०॥ अवि साहिए दुवे घासे सीओदं
अभुच्चा निक्खन्ते । एगत्तगए पिहियच्चे से अहिन्नायदंसणे सन्ते ॥ ११॥ 'परुषाणि' कर्कशानि वागदुष्टानि तानि चापरैदुःखेन तितिक्ष्यन्त इति दुस्तितिक्षाणि तान्यतिगत्य-अविगणय्य 'मुनिः' भगवान् विदितजगत्स्त्रमावः पराक्रममाणः सम्यक्तितिक्षते, तथा आख्यातानि च तानि नृत्यगीतानि च आख्यातनृत्यगीतानि तानि उद्दिश्य न कौतुकं विदधाति, नापि दण्ड सुद्धमुष्टियुद्धान्याकर्ण्य विस्मयोत्फुललोचन उद्भूषित. रोमकूपो भवति, तथा 'ग्रथित:' अअबद्धो 'मिथः' अन्योऽन्यं कथासु' स्वैरकथासु ममये वा कश्चिदवबद्धस्तं स्त्रीद्वयं वा परस्य कथायां गृद्धमपेक्ष्य तस्मिनवमरे 'ज्ञातपुत्रो' भगवान विशोको विगतहपश्च तान्मिथःकथाऽयबद्धान् मध्य
Lalu ५८ ॥ म्थोऽद्राक्षीद , एतान्यन्यानि चानुकलप्रतिकलानि परीपहोपसर्गरूपाण्युरालानि दृष्यधृष्याणि दुःखान्यस्मरन् गच्छति'
Page #157
--------------------------------------------------------------------------
________________
.५६
॥
संयमानुष्ठाने पराक्रमते, ज्ञाता:-क्षत्रियांस्तेषां पुत्रः-अपत्ये ज्ञातपुत्रः-वीरवर्द्धमानस्वामी स भगवान्नैतदुःखस्मरणाय गच्छति-पराक्रमत इति सम्बन्धः, यदिवा शरणं-गृहं नात्र शरणमस्तीत्यशरण:-संयमस्तस्मै अशरणाय पराक्रमत इति, तथाहि-किमत्र चित्रं यद्भगवानपरिमिनवलपराक्रमः प्रतिज्ञामन्दरमारूढः पगक्रमते इति ?, स भगवानप्रवजितोऽपि प्रासुकाहारानुपासीत , श्रयते च किल पश्चत्वमुपगते मातापितरि समाप्तप्रतिज्ञोऽभूत , ततः प्रविजिपुः ज्ञातिभिरभिहितो, यथा-भगवन् ! मा कृथाःक्षते क्षारावसे चनमित्येवमभिहितेन भगवताऽवधिना व्यज्ञायि, यथा-मय्यस्मिन्नवसरे प्रवजति सति बहवो नष्टचित्ता विगतासवश्च स्युरित्यवधार्य तानुवाच-कियन्तं कालं पुनरत्र मया स्थातव्यमिति !, ते ऊचु:संवत्सरद्वयेमास्माकं शोकापगमो भावीति, भट्टारकोऽप्योमित्युवाच, किं त्वाहारादिकं मया स्वेच्छया कार्य, नेच्छाविधाताय भवद्भिरुपस्थातव्यं, तैरपि यथाकथश्चिदयं तिष्ठत्वितिमत्त्वा तैः सर्वैस्तथैव प्रतिपेदे ॥ ततो भगवास्तवचनमनुवात्मीयं च निष्क्रमणावसरमवगम्य संसारासारतां विज्ञाय तीर्थप्रवर्तनायोद्यत इति दर्शयितुमाह-अपि साधिके द्वे वर्षे शीतोदकमभुक्त्वा-अनभ्यवहृत्यापीत्वेत्यर्थः, अपरा अपि पादधावनादिकाः क्रियाः प्रासुकेनैव प्रकृत्य ततो निष्क्रान्तो, यथा च प्राणातिपातं परिहृतवान् एवं शेषव्रतान्यपि पालितवानिति, तथा 'एकत्व'मिति तत एकत्वभावनाभावितान्तःकरणः पिहिता-स्थगिताऽर्चा-क्रोधज्वाला येन स तथा, यदिवा पिहिताच्चों-गुप्ततनुः स भगवान् छयस्थकालेऽभिज्ञातदर्शन:-सम्यक्त्वभावनया भावितः शान्तः इन्द्रियनोइन्द्रियैः ॥ स एवंभूतो भगवान् गृहवासेऽपि सावद्यारम्भत्यागी, किं पुनः प्रव्रज्यायामिति दर्शयितुमाह
५६.
Page #158
--------------------------------------------------------------------------
________________
भीआचाराङ्गवृत्तिः
(शीलाङ्का.
॥ ६०० ॥
पुढविच आउकायं च मेडकायं च वाकायं च । पणगाई षीयहरियाई तसकार्य च सव्वसो नचा ॥ १२ ॥ एयाइ सन्ति पडिलेहे, चिनमन्ताइ से अभिन्नाय । परिवज्जिय विहरित्या इय सङ्काय से महावीरे ॥ १३ ॥ अदु थावरा य तसत्ताए, तसा य थावरताए । अदुवा सव्वजोणिया सत्ता कम्मुणा कप्पिया पुढो बाला ॥ १४ ॥ भगवं च एवमन्नेसिं सोवहिए हु लुप्पई पाले । कम्मं च सव्वसो नच्चा तं पडियाइक्स्खे पावगं भगवं ।। १५ ।। दुविहं समिच मेहावी किरियमक्खायऽणेलिसं नाणी । आयाणसोयमइवायसोयं जोगं च सव्वसो णवा ॥ १६ ॥
लोकद्वयस्याप्ययमर्थः एतानि पृथिव्यादीनि चित्तमन्त्यभिज्ञाय तदारम्भं परिवर्ज्य विहरति स्म, क्रियाकारकसम्बन्धः, तत्र पृथिवी सूक्ष्मवादग्भेदेन द्विधा, सूक्ष्मा सर्वगा, बादराऽपि श्लक्ष्णकठिनभेदेन द्विचैव तत्र श्लक्ष्णा शुक्लादिपञ्चवर्णा, कठिना तु पृथ्वीशर्करावालुकादि षटूत्रिंशद्भेदा शस्त्रपरिज्ञानुसारेण द्रष्टव्या, अष्कायोऽपि सूक्ष्मवादरमेद । द्विधा, तत्र सूक्ष्मः पूर्ववद्बादरस्तु शुद्धोदकादिभेदेन पञ्चवा, तेजः कायोऽपि पूर्ववत् नवरं बादरोऽङ्गारादि पश्चधा, वायुरपि तथैव, नवरं बादर उत्कलिकादिभेदेन पश्चधा, वनस्पतिरपि सूक्ष्मवादरभेदेन द्विधा, तत्र सूक्ष्मः सर्वगो बादरोऽप्यग्रमूलस्कन्धपर्व बीज सम्मूर्च्छन मेदात्सामान्यतः षोढा, पुनर्द्विधा प्रत्येकः साधारणश्च तत्र प्रत्येको वृक्षगुच्छादिभेदाद्वादशधा, साधाश्णस्त्वनेकविध इति, स एवं भेदभिन्नोऽपि वनस्पतिः सूक्ष्मस्य सर्वगतत्वादतीन्द्रियत्वाच्च तद्व्युदासेन वादगे भेदत्वेन
उप०.९ उद्दे शका १
॥ ६०० ॥
Page #159
--------------------------------------------------------------------------
________________
संगृहीतः, तद्यथा-पनकाहणेन बीजाफूरभावरहितस्य पनकादेख्न्यादिविशेषापन्नस्य ग्रहणं, वीजहणेन त्वग्रवीजादेरुपादानं, हरितशब्देन शेषस्येत्येतानि पृथिव्यादीनि भृतानि सन्ति' विद्यन्त इत्येवं प्रन्युपेक्ष्य तथा 'चित्तवन्ति' सचेतरान्यभिवाय-ज्ञात्वा 'इति' एतत्सङ्ख्याय-अवगम्य स भगवान्महावीरस्तदारम्भं परिवर्त्य विहृतवानिति ॥ पृथिवीकायादीनां जन्तूनां प्रसस्थावरत्वेन भेदमुपदर्य साम्प्रतमेषा परस्परतोऽनुगमनमप्यस्तीत्येतद्दर्शयितुमाह-'अथ' आनन्तर्ये 'स्थावरा' पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतयः ते 'त्रसतया' द्वीन्द्रियादितया 'विपरिणमन्ते' कर्मवशाद गच्छन्ति, चशब्द उत्तरापेक्षया समुच्चयार्थः तथा 'त्रसजीवाश्च' कृम्यादयः 'स्थावरतया' पृथिव्यादित्वेन कर्मनिनाः समुत्पद्यन्ते, तथा चान्यत्राप्युक्तम्-'अयण्णं भन्ते ! जीवे पुढविकाइयत्ताए जाव तसकाइयत्ताए उबवण्णपुब्वे ? हन्ता गोअमा ! असई अदुवाऽणतखुत्तो जाव उववण्णपुवे"त्ति, अथवा सर्वा योनयः-उत्पत्तिस्थानानि येषां सचाना ते सर्वयोनिकाः सत्वाः सर्वगतिमाजा, ते च 'याला रागद्वेषाकलिताः स्वकृतेन कर्मणा पृथक्तया सर्वयोनिमाकत्वेन च 'कल्पिता:' व्यवस्थिता इति, तथा चोक्तम्- स्थि किर सो पएसो लोए वालग्गकोडिमित्तोऽवि । जम्मणमरणाबाहा अणेगसो जत्थ णवि पत्ता॥१॥" अपि च-"रडाभूमिर्न सा काचिच्छडा जगति विद्यते । विनिः कर्मनेपथ्यैर्यत्र सत्त्वैर्न नाटितम ॥२॥" १ भयं भदन्त ! जीवः पृथ्वीकायिकतया यावत् त्रसकायिकतयोत्पन्नपूर्वः १, हन्त गौतम ! अपकत अनन्तकृत्वो यावदुत्नम्नपूर्षः । २ नास्ति किल स प्रदेशो कोके वालाप्रकोटीमात्रोऽपि ! जन्ममरणाबाधा भनेकशो यत्र नैव प्राप्ताः ॥ १॥
Page #160
--------------------------------------------------------------------------
________________
बीआचाराजवृत्तिः (चीलाश.
॥६०२॥
इत्यादि । किं च-भगवाश्च-असौ वीरवर्द्धमानस्वाम्येवममन्यत-ज्ञातवान् सह उपधिना वर्तत इति सोपधिका-द्रव्य मावोपधियुक्तः, हुरवधारणे, लुप्यत एव-कर्मणा क्लेशमनुभवत्येव 'अज्ञो' बाल इति; यदिवा हुर्हेतौ यस्मात्सोपधिकः ।।
उद्देशक कर्मणा लुप्यते बालस्तस्मात्कर्म च सर्वशो ज्ञात्वा तत्कर्म प्रत्याख्यातास्तदुपादानं च पापकमनुष्ठानं भगवान् वर्द्धमानस्वामीति ॥ चि-द्वे विधे-प्रकारावस्येति द्विविधं, किं तत् १-कर्म, तच्चेर्याप्रत्ययं साम्परायिकं च, तद्विविधमपि । 'समेत्य' ज्ञात्वा 'मेधावी सर्वभावज्ञः, "क्रिया संयमानुष्ठानरूपा कर्मोच्छेत्रीमनीदृशीम्-अनन्यसदृशीमाख्यातवान् , किंभूतो ?-ज्ञानी, केवलज्ञानवानित्यर्थः, किं चापरमाख्यातवानिति दर्शयति-आदीयते कर्मानेनेति आदान-दुष्पणिहितमिन्द्रियमादानं च तत् स्रोतश्चादानस्रोतस्तत् ज्ञात्वा तथाऽतिपातस्रोतश्च उपलक्षणार्थत्वादस्य मृपावादादिकमपि ज्ञात्वा तथा 20 'योगं च' मनोवाकायलक्षणं दुष्प्रणिहितं 'सवशः सर्वैः प्रकारैः कर्मवन्धायेति ज्ञात्वा क्रियां संयमलक्षणामाख्यातवानिति सम्बन्धः ॥ किंच
अहवत्तियं प्रणाहिं सयमनसिं अकरणयाए । जस्सिथिओ परिमाया सन्चकम्मावहार से अदक्ख ॥ १७॥ अहाकन से सेवे सव्वसो कम्म (कम्मुणा) अदक्खू । जं किंचि पावगं भगवं तं अकुव्वं वियर्ड भुञ्जित्था ॥१८॥णो सेवइ य परवत्थं परपाएवी से न भुञ्जित्था। परिवजियाण उमाणं गच्छह संखहिं असरणयाए ॥ १९ ॥
॥६०२॥ मायण्णे असणपाणस्स नाणुगिडे रसेसु अपडिन्ने । अच्छिपि नो पमजिजा नोवि य
Page #161
--------------------------------------------------------------------------
________________
1
.३॥
कडूयए मुणी गायं ॥ २०॥.. 'कुट्टिः-हिंसा नाकुहिरनाकुटिरहिंसेत्यर्थः, किंभूताम् ?-अतिक्रान्ता पातकादतिपातिका-निर्दोषा तामाश्रित्य, A स्वतोऽन्येषां चाकरणतया-अव्यापारतया प्रवृत्त इति, तथा यस्य स्त्रियः स्वरूपतस्तद्विपाकतश्च परिज्ञाता मन्ति, सर्व कविहन्तीति सर्वकर्मावहा:--सर्वपापोपादानभूताः स एवाद्राक्षीत--स एव यथावस्थितं संसारस्वभावं ज्ञातवानिति, एतदुक्तं भवति--स्त्रीस्वभावपरिज्ञानेन तत्परिहारेण च स भगवान् परमार्थदश्यभूदिति ॥ मूलगुणानाख्यायोत्तरगुण(गान्)प्रचिकटयिपुराह-'यथा' येन प्रकारेण पृष्ट्वा वाऽपृष्ट्वा वा कृतं यथाकृतम्-आधाकादि नासौ सेवते, किमिति १३ |-यतः 'सर्वशः सर्वैः प्रकारैस्तदासेग्नेन कर्मणाऽष्टप्रकारेण बन्धमद्राक्षीद--दृष्टवान्, अन्यदप्येवंजातीयक न सेवत | इति दर्शयति-यत्किश्चित्पापकं-पापोपादानकारणं तद्भगवानकुर्वन् 'विकट' प्रासुकमभुङ्क्त-उपभुक्तवान् । किं च-नोस
सेवते च--नोपभुक्ते च परवस्त्रं--प्रधानं वस्त्रं परस्य वा वस्त्रं परवस्त्रं नासेवते, तथा परपात्रऽप्यसौ न भुकते, तथा पारेवापमानम्-अवगणय्य गच्छति असावाहाराय सङ्खण्डयन्ते प्राणिनोऽस्यामिति सङ्खण्डिस्तामाहारपाकस्थानभूतामशरणाय शरणमनालम्बमानोऽदीनमनस्कः कन्प इनिकृत्वा परीषहविजयाथ गच्छतीति । किं च-आहारस्य मात्रा जानातीति मात्राज्ञः, कस्य ?--अश्यत इत्यशन--शान्योदनादि पीयत इति पानं--द्राक्षापानकादिः तस्य च, तथा नानुगृद्धी 'रसेषु' विकृतिषु, भगवती हि गृहस्थमावेऽपि रसेषु गृद्धी सीन , किं पुनः प्रबजितस्येति , तथा रसेम्वेव प्रहणं प्रत्यप्रतिबो, यथा-मयाऽद्य सिंहकेसरा मोदका एव प्राधा इत्येवंरूपप्रतिज्ञारहितोऽन्यत्र तु कुम्माषादी सप्रतिज्ञ एव,
Page #162
--------------------------------------------------------------------------
________________
पीआचा
राजवृत्तिः
शीलाका.
६.४॥
तथाऽक्ष्यपि रजःकणुकाद्यपनयनाय नो प्रमार्जयेन्नापि च गात्रं मुनिरसौ कण्डूयते--काष्ठादिना गात्रस्य कण्डूत्यपनोदं न विधत्त इति ॥ किं च
अप्पं तिरियं पेहाए अप्पि पिडओ पेहाए । अप्पं बुइएऽपडिभाणी पंथपेहि चरे जयमाणे ॥२१॥ सिसिरंसि अडपडिवन्ने तं पोसिज्ज वत्थमणगारे। पसारित्त बाहुँ पणकमे नो
अवलम्बियाण कंधमि ॥ २२॥ एस विही अणुकन्तो माहणेण मईमया। बहुसो . अपडिन्नण भगवया एवं रियति ॥ २३ ॥ तिबेमि॥ इति प्रथम उद्देशकः ॥ ९-१॥ अल्पशब्दोऽभावे वर्तते. अन्पं तिर्यक-तिरश्चीनं गच्छन् प्रेक्षते, तथाऽन्पं पृष्ठतः स्थित्वोत्प्रेक्षते, तथा मार्गादि केनचित्पृष्टः सन्नप्रतिभाषी सन्मन्पं ब्रते, मौनेन गच्छत्येव केवलमिति दर्शयति-पथिप्रेक्षी 'चरेदु' गच्छेद्यतमान:-प्राणिविषये यत्नवानिति ॥ कि च-अध्वप्रतिपन्ने शिशिरे सति तद्देवयं वस्त्रं व्युत्सृज्यानगारो भगवान् प्रसार्य बाहू पराक्रमते, न तु पुनः शीतादितः सन् सङ्कोचयनि, नापि स्कन्धेऽवलम्ब्य तिष्ठतीति ॥ साम्प्रतमुपसजिहीर्ष राह-एष चर्याविधिरनन्तरोक्तोऽनुक्रान्तः-अनुचीर्णः 'माहणे'त्ति श्रीवर्धमानस्वामिना 'मतिमता' विदितवेद्येन 'बहुशः' अनेकप्रकारमप्रतिज्ञेन-अनिदानेन 'भगवता' ऐश्वर्यादिगुणोपेतेन, 'एवम्' अनेन पथा भगवदनुचीर्णनान्ये मुमुक्षवोऽशेषकर्मक्षयाय साधवो 'रीयन्ते' गच्छन्तीति । इतिरधिकारपरिसमाप्तौ, ब्रवीमीति पूर्वव, उपधानश्रुताध्ययनस्य प्रथमोइंशक इति । ९-१॥
10.४
Page #163
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ अथ नवमेऽध्ययने द्वितीयोद्देशकः ॥ उक्तः प्रथमोद्देशकः, साम्प्रतं द्वितीय आरभ्यते, अस्य चायमभिपम्बन्ध:-इहानन्तरोदशके भगवतश्चर्याऽमिहिता, तत्र चावश्यं कयाचिच्छय्यया-वसत्या भाव्य मतस्त-प्रतिपादनायायमुद्देशकः प्रक्रम्यते इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्योदेशकस्यादिसूत्रम्
चरियासणाई सिजाओ एगइयाओ जाओ बुइयाओं। आइक्ख ताई सयणासणाई जाई सेविस्था से महावीरे ॥ १॥ आवेसणसभापवासु पणियसालासु एगया चासो। अदुवा पलियठाणेसु पलालपुजेसु एगया वासो ॥ २॥ आगन्तारे आरामागारे तह य नगरे व एगया वासो। सुसाणे सुण्णगारे वा रुक्खमूले व एगया पासो ॥ ३॥ एएहिं मुणी सयणहि समणे आसि पतेरसवासे। र दिपि जयमाणे
अपमत्ते समाहिए झाइ ॥ ४॥ चर्यायामवश्यंभावितया यानि शय्यासनान्यमिहितानि सामर्थ्यायातानि तानि शयनासनानि-शय्याफलकादीन्याचक्ष्व सुधर्मस्वामी जम्बूनाम्नाऽभिहितो यानि सेवितवान् महावीरो-बर्द्धमानस्वामीति, अयं च श्लोकश्चिरन्तनटीकाकारेण न व्याख्याता, तत्र किं सुगमत्वादुताभावात् , सूत्रपुस्तकेषु तु दृश्यते, तदभिप्रायं च पर्यन विश्व इति ॥ प्रश्नप्रतिवचनमाह-भगवतो बाहाराभिग्रहवत् प्रतिमाव्यतिरेकेण प्रायशो न शय्याऽभिग्रह आसीद, नवरं यत्रैव चरमपौरुषी
६०५
Page #164
--------------------------------------------------------------------------
________________
पोत्राचा राजचिः शीला.)
उप.. उदेशकर
भवति तत्रैवानुज्ञाप्य स्थितवान् , तदर्शयति-आ--समन्ताद्विशन्ति यत्र तदावेशन- शून्यगृहं समा नाम प्रामनगरादीनां तद्वासिलोकास्थायिकामागन्तुकशयनाच बुडयाघाकृतिः क्रियते, 'प्रपा' उदकदानस्थानम् आवेशनं च सभा च प्रपा
- च आवेशनसभाप्रपास्तासु, तथा 'पण्यशालासु' आपणेषु 'एकदा' कदाचिद्वामो भगवतोऽथवा 'पलियन्ति कर्म तस्य स्थानं कर्मस्थानं अयस्कारवर्द्धकिकुडयादिक, तथा पलालपुजेषु मञ्चोपरि व्यवस्थितेष्वधो, न पुनस्तेम्वेव, झुषिरत्वादिति ॥ किं च--प्रसङ्गायाता आगत्य वा यत्र तिष्ठन्ति तदागन्तारं तत्पुनामानगराद्वा बहिः स्थानं तत्र, तथा आरामेऽगारं--गृहमारामागारं तत्र वा तथा नगरे वा एकदा वासः, तथा श्मशाने शून्यागारे वा, आवेशनशन्यागाग्योंदा सकुडयाडयतोवृक्षमले वा एकदा वास इति ॥कि-'एतेषु' पूर्वोक्तेषु 'शयनेषु' वसतिषु स 'मुनिः' जगत्त्रयवेत्ता ऋतुबद्वेषु वर्षासु वा 'श्रमण: तपस्युद्यक्तः समना चाऽऽसीत् निश्चलमना इत्यथे, कियन्तै कालं यावदिति दर्शयति-पतेरसवासे'त्ति प्रकरण प्रयोदशं वर्ष यावत्समस्तां रात्रि दिनमपि यतमानः संयमानुष्ठान उक्तवान् तथाऽप्रमत्तो-निद्रादिप्रमादरहितः 'समाहितमना: विस्रोतसिकारहितो धर्माच्यानं शुक्लध्यानं पा पायतीति ॥ किंच
णिद्दपि नो पगामाए, सेवह भगवं उडाए। जग्गावइ य अप्पाणं इसिं साई डिने॥५॥ संबुज्झमाणे पुणरवि आसिसु भगवं उहाए । निक्खम्म एगया राम्रो पहिचकमिया मुहतागं॥६॥ सयहिं तत्थुवसग्गा भीमा आसी अणेगरूवाय।
.
.
"
Page #165
--------------------------------------------------------------------------
________________
' संसप्पगा य जे पाणा अनुषा जे पक्खिणो उवचरन्ति ॥ ७ ॥ अदु कुचरा उवचरन्ति
गामरक्वा य सत्तिहत्था य । अदु गामिया उषसग्गा हत्थी एगइया पुरिसा याद निद्रामप्यसावपरप्रमादरहितो न प्रकामतः सेवते, तथा च विल भगवतो द्वादशसु संवत्सरेषु मध्येऽस्थिकामे व्यन्तरोपमर्गान्ते कायोत्सर्गव्यवस्थितस्यैवान्तमुह यावरूकदर्शनाध्यासिनः सकृन्निद्रापमाद आसीत् , ततोऽपि चोत्थायात्मानं 'जागरयति' कुशलानुष्ठाने प्रवर्त्तयति, यत्रापीषच्छय्याऽऽसीत् तत्राप्यप्रतिज्ञः--प्रतिज्ञारहितो, न तत्रापि स्वापाभ्युपगमपूर्वक शयति इत्यर्थः ॥ किंच-स मुनिनिंद्राप्रमादाद् व्युत्थितचित्तः 'संवुध्यमानः संसारपातायायं प्रमाद इत्येवमवगच्छन् पुनरप्रमत्तो भगवान् संयमोत्थानेनोत्थाय यदि तत्रान्तर्व्यवस्थितस्य कुश्चिन्निद्राप्रमादः स्यात ततस्तस्मानिष्क्रम्यैकदा शीतकालगत्रादौ पहिश्चक्रम्य मुहूर्तमानं निद्राप्रमादापनयनार्थ ध्याने स्थितवानिति किंचशय्यते-स्थीयते उत्कुटुकासनादिमिन्विति शयनानि--आश्रयस्थानानि तेषु तैर्वा तस्य भगवत उपसर्गा "भोमा' भयानका आसन् अनेवरूपाश्च शीतोष्णादिरूपतयाऽनुकूलप्रतिकूलरूपतया वा, तथा संसर्पन्तीति संसर्वका:-शु-यगृहादावहिनकुलादयो ये प्राणिनः 'उपचरन्ति'उप-सामीप्येन मांसादिकमश्नन्ति अथवा श्मशानादौ पक्षिणो गृध्रादय उपचरन्तीति वर्तते ॥ किंच-'अय' अनन्तरं कुत्सितं चरन्तीति कुचरा:-चौरपारदारिकादयस्ते च क्वचिच्छुन्य
गृहाहो'उपचरन्ति' उपसर्गयन्ति, तथा ग्रामरक्षादयश्च विवस्वरादिव्यवस्थितं शक्तिकृन्तादिहस्ता उपचरन्तीति, Bअथ 'ग्रामिका' प्रामधर्माश्रिता उपसर्गा एकाकिनः स्युः, तथाहि-काचित्स्त्री रूपदर्शनाध्युपपना उपसर्गयेत् पुरुषो
"
Page #166
--------------------------------------------------------------------------
________________
'उप..
भीबाचागावृत्तिः शीलाका.) 1६०८॥
वेति ॥ किंचइहलोइयाईपरलोइयाई भीमाई' अणेगरूवाई। अवि सुभि भिगन्धाइ सद्दाई
उद्देशका अणंगरूवाई॥९॥ अहियासए सया समिए फासाई विरूवरूवाई। अरह रह'' अभिभूय रीयइ माहणे अपहुवाई ॥१०॥ स जहिं तत्थ पुच्छिसु एगचरावि एगया राओ। अव्वाहिए कसाइत्था पेहमाणे समाहिं अपडिन्ने ॥ ११ ॥ अयमंतरंसि
को इत्थ ? अहमंसित्ति भिक्खु आह१ । अयमुत्तमे से धम्मे तुसिणीए कसाइए झाइ॥१२॥ इहलोके भवा ऐहलौकिका:-मनुष्यकृताः के ते ?-'स्पशा: दुःखविशेषा दिव्यास्तैरश्चाश्च पारलौकिकास्तानुपसर्गापादितान् दुःखविशेषानध्यासयति-अधिमहते, यदिवा इहैव जन्मनि ये दुःखयन्ति दण्डप्रहारादयः प्रतिकूलोपसर्गास्त ऐहलौकिकाः तद्विपर्यस्तास्तु पारलौकिकाः, 'भीमा' भयानका 'अनेकरूपाः' नानाप्रकाराः, तानेव दर्शयति-अपि सुरभि| गन्धाः-स्रक्चन्दनादयो दुर्गन्धा:-कुथितकडेवरादया, तथा शब्दाश्चानेकरूपा वीणावेणुमृदङ्गादिजनिताः, तथा क्रमेलकरसिताद्यस्थापितास्तांश्चाविकृतमना 'अध्यासयति' अधिसहते, 'सदा सर्वकालं सम्यगितः समित:--पश्चभिः समितिभियुक्तः तथा स्पर्शान्-दुःखविशेषानरति संयमे रति चोपभोगामिष्वङ्गेऽमिभूय--तिरस्कृत्य 'रीयते' संयमानुष्ठाने ब्रजति, 'माह 'त्ति पूर्वव 'अपहुवादी' अबहुभाषी, एकद्विव्याकरणं क्वचिनिमित्ते कृतवानिति भावः ॥ 'स' भग
R६.60 वानत्रयोदश पक्षाधिकाः रमा एकाकी विचरन् तत्र शून्यगृहादी व्यवस्थितः सन् 'जनैः' लोकैः पृष्टा, तबथा--को
Page #167
--------------------------------------------------------------------------
________________
भवान ? किमत्र स्थितः १ वृतस्त्यो देत्येवं पृष्टोऽपि तूष्णींभावमभजन , तथोपपत्याचा अप्येकचरा-एकाकिन एकदाकदाचिद्रात्रावटि वा पप्रमः, अव्याहते च भगवता कारिताः ततोऽज्ञानावृतदृष्टयो दण्डमुष्टयादिताडनतोऽनार्यत्वमाचरन्ति, भगवास्तु तत्समाधि प्रेक्षणणो धम्ध्यानोपगतचित्तः सन् सम्यक्तितिश्नते, किंभूतः -'अप्रतिज्ञो' नास्य वैरनिर्यातनप्रतिज्ञा विद्यत इत्यप्रतिज्ञः ॥ कथं ते पप्रच्छुरिति दर्शयितुमाह--अयमन्तः--मध्ये कोऽत्र व्यवस्थितः ?, एवं सङ्केतागता दुश्चारिणः पृच्छन्ति कर्मकरादयो वा, तत्र नित्यवासिनो दुष्पणिहितमानसाः पृच्छन्ति, तत्र चैवं पृच्छतामेषां भगवास्तूष्णीभावमेव भजते, क्वचिबहुतरदोषापनयनाय जन्पत्यपि, कथमिति दर्शयति- अहं भिक्षुरस्मिीति, एवमुक्ते। यदि तेऽवधारयन्ति ततस्तिष्टत्येव, अथाभिप्रेतार्थव्याघातात कषायिता मोहान्धाः साम्प्रतेक्षितयैवं पू युः, यथा--तूर्णमस्मा-188 स्थानानिर्गच्छ, ततो भगवानचियत्तावग्रह इतिकृत्वा निर्गच्छत्येव, यदिवा न निर्गच्छत्येव भगवान् किंतु सोऽयमुत्तमः प्रधानो धर्म आचार इतिकृत्वा स कषायितेऽपि तस्मिन् गृहस्थे तूष्णीभावव्यवस्थितो यद्भविष्यत्तया ध्यायत्येव--न ध्यानात्प्रच्यवते ॥ किंच
जंसिप्पेगे पवेयन्ति सिसिरे मारुए पवायन्ते। तंसिप्पेगे अणगारा हिमवाए निवाय मेसन्ति ॥१३॥. संघाडीओ पवेसिस्सामो एहा य समादहमाणा । पिहिया व सक्खामो अइदुक्खे हिमगसंफासा ॥१४॥ तसि भगवं अपडिन्ने अहे विगडे अही. यासए । दविए निक्खम्म एगया राओ ठाइए भगवं समियाए ॥ १५॥ एस विही
Page #168
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीआचा
राङ्गवृत्तिः
(शीलाङ्का.)
● ६१० ॥
******
अन्तो माहणेण मईमया । बहुसो अपडिण्णेण भगवया एवं रोयन्ति ॥ १६ ॥ तिमि ॥ इति द्वितीय उद्देशकः ।। ९-२॥
यस्मिन् शिशिरादावप्येके त्वक्त्राणाभावतया 'प्रवेपन्ते' दन्तवीणादिसमन्विताः कम्पन्ते यदेवा 'प्रवेदयन्ति' शीतजनितं दुःखस्पर्शमनुभवन्ति, आध्यानवशगा भवन्तीत्यर्थः तस्मिंश्च शिशिरे हिमकणिनि मास्ते च प्रवाति सत्येके न सर्वे 'अनगारा.' तीर्थिकप्रव्रजिता हिमवाते सति शीतपीडितास्तदवनोदाय पात्रकं प्रज्वालयन्ति--अङ्गारशकटिका मन्वेपयन्ति प्रावारादिकं याचन्ते यदिवाऽनगारा इति प्राश्वनाथतीर्थप्रव्रजिता गच्छ्वासिन एव शीतार्दिता निवातमेषन्ति - घङ्खशाला दिवाव सतीर्वातायनादिरहिताः प्रार्थयन्ति ॥ किं च-इह सङ्घाटीशब्देन शीतः पनोदक्षमं कल्पद्वयं त्रयं वा गृह्यते ताः सङ्गाटीः शीतार्दिता वयं प्रवेच्यामः एवं शीतार्दिता अनगारा अपि विदधति, तीर्थिकप्रवजितास्त्वेधाः समिधः काष्टानीतियाद् एताश्च समादहन्तः शीतस्पर्श सोढुं शक्ष्यामः तथा संघाटया वा पिहिताःस्थगिताः कम्बलाद्यावृतशरीग इति किमर्थमेतत्कुर्वन्तीति दर्शयति-यतोऽतिदुःखमेतद्-- अतिदुःसहमेतद्यदुत हिमसंस्पर्शाःशीतस्पर्शवेदना दुःखेन सान्त इतियावत् ॥ तदेवमेवंभूते शिशिरे यथोक्तानुष्ठानवत्सु च स्वयूथ्येतरधनगारेषु यद्भगवान् व्यधात्तद्दर्शयितुमाह- 'तस्मिन् एवंभूने शिशिरे हिमवाते शीतस्पर्शे च सर्वकषे 'भगवान्' ऐश्वर्यादिगुणोपेतस्तं शीतस्पर्शमध्यासयति-- अधिसहते, किंभूतोऽसौ ? - 'अप्रतिज्ञा' न विद्यते निवातवसतिप्रार्थनादिका प्रतिज्ञा यस्य स तथा काभ्यासयति ? 'अधो विकटे' अधः-- कुडयादिरहिते छन्नेऽप्युपरि तदभावेऽपि चेति, पुनरपि विशिनष्टि
उप
उद्देशका २
॥ ६१० ॥
Page #169
--------------------------------------------------------------------------
________________
रागद्वेषविरहादद्रव्यभूतः कम्मपन्धिद्रावणाद्वा द्रब:-संयमः स विद्यते यस्यासौ द्रविका, स च तथाऽध्यासयन यद्यत्यन्तं शीतेन बाध्यते ततस्तस्मात छमानिष्क्रम्य बहिरेकदा-रात्रौ मुहर्तमान स्थित्वा पुनः प्रविश्य स भगवान शमितया सम्यग्वा समतया वा व्यवस्थितः सन् तं शीतस्पर्श रासमदृष्टान्तेन सोलु शक्नोति-अधिसहत इति ॥ एतदेवोद्देशकार्थमुपसंजिही राह-एस विही इत्याद्यनन्तरोद्देशकवन्नेयमिति । इतिब्रवीमीतिशब्दौ पूर्ववद् । उपध्यानश्रुतस्य द्वितीयोदेशका परिसमाप्त इति ॥ १-२॥
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
॥ अथ नवमाध्ययने तृतीयोशकः ॥ उक्तो द्वितीयोद्देशकः, साम्प्रतं तृतीय आरभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरोद्देशके भगवतः शय्याः प्रतिपादिताः, तासु च व्यवस्थितेन ये यथोपसर्गाः परीषहाश्च सोढास्तत्प्रतिपादनार्थमिदमुपक्रम्यत इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्योद्देशकस्यादिसूत्रम्
तणफासे सीयफासे य तेउफासे य दसमसगे य। अहियासए सया समिए फासाई विरूवरूवाई॥१॥ अह दुचरलाढमचारी वजभूमि च सुन्मभूमि च । पंतं सिज्ज सेविंसु आसणगाणि चेव पंताणि ॥२॥ लादेहिं तस्सुवसग्गा बहवे जाणवया लूसिंसु । अह लूहदेसिए भत्ते कुक्कुरा तत्थ हिंसिसु निवई'सु॥३॥ अप्पे जणे निवा
॥६११
܀
Page #170
--------------------------------------------------------------------------
________________
रेइ लसणए सुणए दसमाणे । छच्छ कारिंति आहंसु समणं कुक्कग दसंतुत्ति ।। ४ ।। श्रीआचा
उप.. । तृणाना-कुशादीनां स्पर्शास्तृणस्पाः तथा शीतस्पर्शाः तथा तेजःस्पर्शा--उष्णस्पर्शाश्चातापनादिकाले श्रामन् यदिवा. गङ्गवृत्तिः
उद्देशकः३ गच्छतः किल भगवतस्तेजःकाय एवासीत् , तथा दंशमशकादयश्च, एतान तृणस्पर्शादीन 'विरूपरूपान्' नानाभृतान (शीलाका.)
भगवानध्यासयति, सम्यगितः सम्यग्भावं गतः समितिभिः समितो वेति ॥ कि च–'अथ' आनन्तर्ये दुःखेन चर्यतेऽ.६१२॥ स्मिन्निति दुश्चरः स चासौ लाढश्च--जनपदविशेषो दृश्चरलाढतं चीर्णवान्--विहृतवान , स च द्विरूपो-वज्रभूमिः
शुभ्रभूमिश्च, तं द्विरूपमपि विहृतवान् , तत्र च प्रान्तां 'शय्या' वसति शून्यगृहादिकामनेकोपद्रवोपद्रतां सेवितवान , तथा प्रान्तानि चासनानि--पांशूकरशर्कगलोष्ट द्यपचितानि च काष्टानि दुटितान्यासेवितवानिति ॥ किं च-लाढा नाम जनपदविशेषास्तेषु च द्विरूपेष्वपि लाढेषु 'तस्य' भगवती बहव उपसर्गाः प्रायशः प्रतिकूला आक्रोशश्वभक्षणादय आसन्, तानेव दर्शयति--जनपदे भवा जानपदा--अनार्याऽऽचारिणो लोका: ने भगवन्तं लूषितवन्तो--दन्तभक्षणोल्मुकदण्डप्रहारादिमिर्जिहिंसुः, अथशब्दोऽपिशब्दार्थे, स चैवं द्रष्टव्यः, भक्तमपि तत्र 'रूक्षदेश्यं' रूक्षकल्पमन्तप्रान्तमितियावत , ते चानार्यतया प्रकृतिकोधनाः कर्पासाद्यभावत्वाच तृणप्रावरणाः सन्तो भगवति विरूपमाचरन्ति, तथा तत्र 'कुकुराः' श्वानस्ते च जिहिसुः, उपरि च निपेतुरिति ॥ किं च-'अल्पः' स्तोकः स जनो यदि परं सहसाणामेको यदिवा नास्त्येयासाविति यरतान शुनो लूपकान दशतो 'निवारयति' निषेधयनि, अपितु दण्डप्रहारादिमिर्भगवन्तं हत्वा तत्प्रेरणाय
॥६१२॥ सीस्कुर्वन्ति, कथं नामैनं श्रमणं कुकुराः श्वानो दशन्तु-भक्षयन्त ?, तत्र चैविधे जनपदे भगवान् षण्मासावधि कालं
Page #171
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्थितवानिति ॥ किंच
एलिक्वए जणे भुजो पहवे वजभूमि फरसासो। लढि गहाय नालियं समणा नाथ य विहरिंस ॥५॥ एवंपि तत्थ विहरन्ता पुट्ठपुव्वा अहेसि सुणिएहिं। संलश्चमाणा मुणएहिं दुचराणि तत्थ लादेहिं ॥ ६॥ निहाय दण्डं पाणेहिं तं कायं वोसनमणगारे । अह गामकण्टए भगवन्ते अहिआसए अभिसमिधा ॥ ७॥ नागा संगामसीसे वा पारए तस्थ से महावीरे। एवंपि तत्थ लादेहिं अलहपुग्धोवि एगया
गामो॥ ८॥ 'इदृक्षः' पूर्वोक्तस्वभावो यत्र जनस्तं तथाभूतं जनपदं भगवान् 'भूयः पौन:पुन्येन विहृतवान् , तस्यां च वज्रभूमों पहवो जनाः परुषाशिनो स्वाधिनो रूझाशितया च प्रकृतिक्रोधनास्ततो यतिरूपमुपलभ्य कदर्थयन्ति, ततस्तत्रान्ये ।। श्रमणाः शाक्यादयो यष्टि-देहप्रमाणां चतुरङ्गुलाधिकप्रमाणां वा नालिका गृहीत्वा श्वादिनिषेधनाय विजह रिति ॥ किं
-एवमपि यष्टयादिकया सामग्र्या श्रमणा विहरन्तः स्पृष्टपुर्वा' आरन्धपूर्वाः श्वमिरासन् , तथा 'संलुच्यमाना इतश्चेतश्च भक्ष्यमाणाः श्वमिरासन् , दुर्निवारत्वात्तेषां, 'तत्र' तेषु लाढेवार्यलोकानां दुःखेन पर्यन्त इति दुश्चराणिप्रामादीनीति ॥ तदेवंभूतेष्वपि लाढेषु कथं भगवान् विहृतवानिति दर्शयितुमाह-प्राणिषु यो दण्डनाइण्डो-मनोवाकाया
॥६१३॥ विकस्तं भगवान 'निघाय' त्यक्त्वा, तथा तच्छरीरमप्यनगारो व्युत्सृज्याथ 'ग्रामकण्टकान्' नीचजनरूक्षालापानपि
Page #172
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीआचाराङ्गवृत्ति शीलाका.)
उप.. उद्देशका ३
.६१४॥
भगवांस्तांस्तान् सम्यकरणतया. निर्जरामभिसमेत्य-ज्ञात्वाऽध्यासयति-अधिसहते ॥ कथमधिसहत इति दृष्टान्तद्वारेण दर्शयितुमाह-'नागो' हस्ती यथाऽसौ संग्राममूर्द्धनि परानीकं जित्वा तत्पारगो भवति, एवं भगवानपि महावीरस्तत्र लाटेषु परीषहानीकं विजित्य पारगोऽभूत् , किं च-तत्र' लाटेषु विरलत्वाद्ग्रामाणां क्वचिदेकदा वासायालब्धपूर्वो ग्रामोऽपि भगवता ॥ किं च
उवसंकमन्तमपडिन्नं गामंतियम्मि अप्पत्तं । पडिनिक्खमित्तु लूसिंसु एयाओ परं पलेहित्ति ॥९॥ हयपुवो तत्थ दण्डेण अदुवा मुहिणा अदु कुन्तफलेण । अदु लेलुणा कवालेण हन्ता हन्ता बहवे कन्दिसु ॥ १०॥ मंसाणि छिन्नपुवाणि रहूंभिया एगया कार्य। परीसहाई लुचिंसु अदुवा पंसुणा उवकरिंसु॥११॥ उच्चालइय निहणिंसु अदुवा आसणाउ खलई सु। वोसहकायपणयाऽऽसी दुक्खसहे भगवं
अपडिन्ने ॥ १२॥ । 'उपसङ्क्रामन्तं' मिक्षायै वासाय वा गच्छन्तं, किंभूतम् ?–'अप्रतिज्ञं' नियतनिवासादिप्रतिज्ञारहितं ग्रामान्तिकं प्राप्तमप्राप्तमपि तस्माद्ग्रामात्प्रतिनिर्गत्य ते जना भगवन्तमलूषिषुः, एतच्चोचुः-इतोऽपि स्थानात्परं दूरतरं स्थानं 'पयेहि गच्छेति ॥ किं च-तत्र ग्रामादेवहिर्व्यवस्थितः पूर्व हतो हतपूर्वः, केन ?-दण्डेनाथवा मुष्टिनाऽथवा कुन्नादिफलेनाथवा लेष्टुना कपालेन-घटखर्परादिना हत्वा हत्वा बहवोऽनाश्चिक्रन्दुः--पश्यत यूयं किंभूतोऽयमित्येवं कलकलं चक्रः ॥ किं
Page #173
--------------------------------------------------------------------------
________________
| च-मांसानि च तत्र भगवतश्छिन्नपूर्वाणि एकदा कायमवष्टभ्य--आक्रम्य तथा नानाप्रकाराः प्रतीकूल परीपहाच भगवन्तमलुञ्चिपुः, अथवा पांसुनाऽत्रकीर्णवन्त इति ॥ किं च-भगवन्तमूत्रमुरिक्षप्य भूमौ 'निहतवन्तः' क्षिप्तवन्तः, अथवा 'आसनात गोदोहिकोत्कुटुकासनवीरासनादिकात् 'स्खलितवन्तो निपातितवन्तः, भगवांस्तु पुनव्युत्सृष्टकायः परीपहसहनं प्रति प्रणत आसीत् , परीषहोपसर्मकृतं दुःखं सहत इति दुःखसहो भगवान् , नास्य दुःखचिकित्साप्रतिज्ञा विद्यत इत्यप्रतिज्ञः ।। कथं दुःखसहो भगवानित्येतदृष्टान्तद्वारेण दर्शयितुमाह
सुरो सामसीसे वा संत्रुडे तत्थ से महावीरे। पडिसेवमाणे फरुसाई अचले भगवं रीयित्था ॥ १३ ॥ एस विही अणुकन्तो माहणेण मईमया । बहुसो अपडिण्णेण भगवया
एवं रीयंति ॥ १४॥ तिबेमि ॥ इति तृतीय उद्देशकः ॥९-३॥ यथा हि संग्रामशिरसि 'शूर' अक्षोभ्यः परैः कुन्तादिभिर्भिद्यमानोऽपि वर्मणा संवृताङ्गो न भङ्गमुपयातीति, एवं सं भगवान्महावीरः 'तत्र' लाढादिजनपदे परीषहानीकतुद्यमानोऽपि प्रतिसेवमानश्च 'परुषान्' दुःखविशेषान् मेरुरिवाचलो--निष्प्रकम्पो धृत्या संवृताङ्गो भगवान् ‘रीयते स्म' ज्ञानदर्शनचारित्रात्मके मोक्षाध्वनि पराक्रमते स्मेति ॥ उद्देशकार्थमुपसंजिही राह-'एस विही'त्यादि पूर्ववद् । उपधानश्रुताध्ययनस्य तृतीयोद्देशकः परिसमाप्तः ॥६-३॥
॥६१५.
Page #174
--------------------------------------------------------------------------
________________
उसका
भीवाचा
॥ अथ नवमाध्ययने चतुर्थोद्देशकः ॥ उक्तस्तृतीयोद्देशकः, साम्प्रतं चतुर्थ आरम्यते, अस्य चायममिसम्बन्धा-इहानन्तरोद्देशके भगवतः परीषहोपसर्गाघिीलाहा.)
घिसहनं प्रतिपादितं, तदिहापि रोगातङ्कपीडाचिकित्साव्युदासेन सम्यगषिसहते तदुत्पत्तौ च नित तपश्चरणायोद्यच्छती
त्येतत्प्रतिपाद्यते, तदनेन सम्बन्धनायातस्यास्योद्देशकस्यादिवत्रम्.६१६॥
ओमोयरियं पाएइ अपुढेऽवि भगवं रोगेहिं । पुढे वा अपुढे वा नो से साइबई तेइच्छं ॥१॥संसोहणं च वमणं च गायन्भंगणं च सिणाणं च । संवाहणं च न से कप्प दन्तपकवालणं च परिन्नाए ॥॥ विरण गामघम्मेहिं रीया माहणे अषहवाई। सिसिरंमि एगया भगवं छायाए भाइ आसोय ॥३॥ आयावइ य गिम्हाणं अच्छा
उक्कुडुए अभिसावे । अदु जाव इत्थ लूहेणं ओयणमंथुकम्मासेणं ॥४॥ पिशीतोष्णदेशमशकाक्रोशताडनायाः शक्या: परीषहाः सोढं न पनरवमोदरता मगर्वास्तु पुना रोगैरस्पृष्टोऽपि वातादिलोमाभावेऽप्यवमौदर्य न्यूनोदरतां शक्नोति कत, लोको हि रोगैरभिद्रतः संस्तदुपशमनायावमोदरतां विधत्ते
भगवास्तु तदभावेऽपि विधत्त इत्यपिशब्दार्थः, अथवाऽस्पृष्टोऽपि कासवामादिमिव्यगेगैः अपिशब्दास्पृष्टोऽप्यसवेदनीB. यादिभिर्मावरौगैन्यू नीदरता करोति, अथ किं द्रव्यरोगातका भगवतो न प्रादुण्यन्ति येन भावरोगैः स्पृष्ट इत्युक्तं ,
तदुच्यते, मगवतो हि न प्राकृतस्येव देहजाः कासश्वासादयो भवन्ति, आगन्तुकास्तु शस्त्रप्रहारजा भवेयुः, इत्येतदेव
Page #175
--------------------------------------------------------------------------
________________
६१७ ।।
दर्शयति स च भगवान् स्पृष्टो वा श्रमणादिभिस्वा कायामादिभिनामी चिकित्नामभिलपति नन पयोगतः पीडोपशमं प्रार्थयतीति ॥ एतदेव दर्शयतुमाह-- गात्रस्य सम्यक शोवनं संशोधनं विरेचनं निःसोत्रादिभिः तया
१
मदनफलादिभिः शव्द उत्तरपदमुत्पार्थो गतान्यङ्गनं च सहस्रपातैलादिभिः स्नानं चोनाम संबाधनं च हस्तपादादिभिस्तस्य-- भगवतो न कल्पते, तथा सर्वमेव शरीरमशुच्यात्मकमित्ये 'परिज्ञाय' ज्ञान्या दन्तकाष्ठादिभिर्दन्तप्रक्षालनं च न कल्पत इति । किं च- 'विरतो' निवृत्तः केभ्यो - 'ग्रामघर्मेभ्यो' यथास्वमिन्द्रियाणां शब्दादिभ्यो विषयेभ्यो 'रयते' संयमानुष्ठाने पराक्रमते, 'माहणे'ति, किंभूतो भगवान् ? असाच बहुवादी, सकृद्वाकरणभावाद्बहुशब्दोपादानम्, अन्यथा हि अवादीत्येव त्र् यात नथैकदा शिशिरसमये स भगवांश्छायायां धर्म्मशुक्लध्यानध्याय्यासीच्चेति ॥ किं च--मुख्यत्ययेन सप्तम्यर्थे षष्ठी, ग्रीष्मेध्यातापयति, कथमिति दर्शयति-निष्टत्युत्कुटुका सनोऽभितापं तापाभिमुखमिति, 'अथ' आनन्तर्ये धर्माधारं देहं यापयति स्म रूक्षेण--स्नेहरहितेन केन ?- 'ओदनमन्थुकुल्माषेण' ओदनं च - कोद्रवौदनादि मन्धु च चदरचूर्णादिकं कुन्मापाश्च - माषविशेषा एवोत्तरापथे धान्यविशेषभूताः पर्युषितमाषा वा सिद्धभाषा वा ओदनमन्धुकुल्माषमिति समाहारद्वन्द्वः तेनात्मानं यापयतीति सम्बन्ध इति ।। एतदेव कालावधिविशेषणतो दर्शयितुमाह
एयाणि तिन्नि पडि सेवे अट्ट मासे अ जावयं भगवं । अपि इत्थ एगया भगवं अडमासं अदुवा मापि ।। ५ ।। अवि साहिए दुवे मासे छप्पि मासे अदुवा विहरित्था (अपि
॥ ६१७ ॥
Page #176
--------------------------------------------------------------------------
________________
बीजाचाराजवृत्तिः चोलाङ्का.
१६१४ ॥
वित्ता)। राओवरायं अपडिन्ने अनगिलायमेगया भुजे ॥ ६ ॥ छठेण एगया भुजे अदुवा अहमेण दसमेणं । दुआलसमेण एगया भुजे पेहमाणे समाहिं अपरिन्ने ॥ ७॥ णचा णं से महावीरे नोऽविय पावगं समयकासी। अन्नेहिं वा ण कारित्था कीरतंपि
नाणुजाणित्थाः ॥ ८॥ 'एतानि' ओदनादीन्यनन्तरोक्तानि प्रतिसेवते, तानि च समाहारद्वन्द्वैन तिरोहितावयवसमुदायप्रधानेन निर्देशातकस्यचिन्मन्दबुद्धेः म्यादारेका यथा-त्रीण्यपि समुदितानि प्रतिसेवत इति, अतस्तद्वथ दासाय त्रीणीत्यनया सङ्ख्यया निर्देश इति, त्रीणि समस्तानि व्यस्तानि वा यथालाभं प्रतिसेवत इति, कियन्तं कालमिति दर्शयति-अष्टौ मामान ऋतुबद्धसंज्ञकानात्मानं अयापयद्-वर्तितवान् भगवानिति, तथा पानमप्यद्धमासमथवा मासं भगगन् पीतवान् ॥ अपि चमासद्वयमपि साधिकम् अथवा षडपि मासान् साधिकान् भगवान्पानकमपीत्वाऽपि 'रात्रोपरात्र'मित्यहरनिशं विहृतवान, किंभृतः ?-'अप्रतिज्ञः' पानाभ्युपगमरहित इत्यर्थः, तथा 'अन्नगिलाय'न्ति पर्युषितं तदेकदा भुक्तवानिति ॥ किच-पष्ठेनैकदा भुक्ते, षष्ठं हि नामकस्मिबहन्येकभक्तं विधाय पुनदिनद्वयमभुक्त्वा चतुर्थेऽहथ कमक्तमेव विधत्ते, ततश्चाद्यन्तयोरेकमक्तदिनयोक्तद्वयं मध्यदिवसयोश्च मक्तचतुष्टयमित्येवं पण्णां भक्तानां परित्यागात्षष्ठं भवति, एवं दिनादिवृद्धयाऽष्टमाद्यायोज्यमिति, अथाष्टमेन दशमेनाथवा द्वादशमेनकदा कदाचिद्भक्तवान् 'समाधि' शरीरसमाधान 'प्रेक्षमाणः' पर्यालोचयन् न पुनर्भगवतः कथंचिदौमनस्यं समुत्पद्यते, तथाऽप्रतिज्ञ:-अनिदान इति ॥ कि च-चावा
11६१८.
Page #177
--------------------------------------------------------------------------
________________
हेयोपादेयं स महावीरः कर्मप्रेरणसहिष्णुनापि च पापर्क कर्म स्वयमकापान न चान्यरचीकरत न च क्रियमाणमपरनुज्ञातवानिति ॥ किं च
गाम पविसे नगरं वा घासमेस कर्ड परद्वाए। मुविसुद्धमेसिया भगवं आयलजोगयाए सेवित्था ॥ ९॥ अदु घायसा दिगिंठत्ता जे अन्ने रसेसिणो सत्ता। घासेसजाए चिट्ठन्ति सययं निवइए य पेहाए ॥१०॥ अदुवा माहणं च समणं वा गामपिण्डोलगं च अतिहिं वा । सोवागमूसियारिं वा कुकुरं वावि विडियं पुरओ॥११॥ वित्तिच्छेयं वजन्तो तेसिमपत्तियं परिहरन्तो। मन्दं परक्कमे भगवं अहिंसमाणा
घासमेसिस्था ॥ १२ ॥ ग्राम नगर्न वा प्रविश्य भगवान ग्रासमन्वेषयेत् , परार्थाय कृतमित्युद्गमदोषारहितं, तथा सुविशुद्धमुत्पादनादोपरहितं, तथेषणादोषपरिहारेणेषित्वा-अन्वेष्य भगवानायत:-संयतो योगो-मनोवाकायलक्षणः आयतश्चासौ योगश्चायतयोगोज्ञानचतुष्टयेन सम्यम्योगप्रणिधानमायतयोगस्य भाव आयतयोगता तया सम्यगाहारं शुद्धं ग्रासैषणादोषपरिहारेण सेवितवानिति ॥ किं च-अथ मिक्षा पर्यटतो भगवतः पथि वायसाः-काका 'दिगिंछ 'त्ति बुभुक्षा तयाऽऽर्ता बुभुक्षार्ता ये चान्ये रसैषिणः-पानार्थिनः कपोतपारापतादयः सत्त्वाः तथा ग्रासस्यैषणार्थम्-अन्वेषणार्थ च ये तिष्ठन्ति तान् सततम्-अनवरतं निपतितान भूमौ 'प्रेक्ष्य' दृष्टा तेषां वृत्तिव्यवच्छेदं वर्जयन्मन्दमाहाराथीं पराक्रमते ॥ किं च-अथ ब्राह्मण
२०६१e.
Page #178
--------------------------------------------------------------------------
________________
उप.
भीआचारावृत्तिः शीलावा.)
उसका
लाभार्थमुपस्थितं दृष्ट्वा तथा श्रमणं शाक्याजीवकपरिवाटतापसनिर्ग्रन्थानामन्यतमं 'ग्रामपिण्डोलक' इति मिक्षयोदरभरणार्थ ग्राममाश्रितस्तुन्दपरिमृजो द्रमक इति, तथाऽतिथिं वा-आगन्तुकम् तथा श्वपाक-चाण्डाल मार्जारी वा कुकुर | वापि-श्वानं विविधं स्थितं 'पुरतः' अग्रतः समुपलभ्य तेषां वृत्तिच्छेदं वर्जयन् मनसो दुष्प्रणिधानं च बजैयन् मन्द-मनाक तेषां त्रासमकुर्वन् भगवान् पराक्रमते, तथा पश्चि कुन्थुकादीन् जन्तून् अहिंसन् ग्रासमन्वेषितवानिति ॥ किंच
अवि सूइयं वा सुक्कं वा सीयं पिंड पुराणकुम्मासं । अदु बुक्कसं पुलागं वा लडे पिंडे अलढे दविए ॥ १३ ॥ अवि झाइ से महावीरे आसणत्थे अकुक्कुए झाणं । उड्डे अहे तिरिय च पेहमाणे समाहिमपडिन्ने ॥ १४ ॥ अकसाई विगयगेहो य सद्दरूवेसु अमु. च्छिए झाई। छउमत्थोऽवि परकममाणो न पमायं सई पि कुश्वित्था ॥ १५ ॥ सयमेव अभिसमागम्म आयतजोगमायसोहीए । अभिनिव्बुडे अमाइल्ले आवकहं भगवं समियासी॥ १६ ॥ एस विहो अणुक्कतो, माहणेण महमया बहुसो अपडिपणेण, भगवया एवं रीयंति ॥ १७॥ त्तिबेमि॥ ॥ इति चतुर्थ उद्देशक ॥ ९-४ ॥ इति नवममध्ययनम् ॥९॥
प्रथमो ब्रह्मचर्यश्रुतस्कन्धः समाप्तः ॥
Page #179
--------------------------------------------------------------------------
________________
६५१ ॥
'सूर्य'ति यादिना मक्तामपि 'पुराणकुल्माय वा बहुदिवससिद्धस्थितकुमार
शुकादि शीतपिण्डं वा पशु पिस भक्तम् बुकस तिचितवान्यदनं यदिवा पुरातनमपिण्डं दिना 'उसकी निष्पावादि, तदेवम्भूतं पिण्डमवाप्यरागरा कि भगवान नवाऽन्यस्मिन्नपि पिण्डे व भगवानिति तथाहि लब्धे पर्याप्त शोभने वा atrai याति नाप्यलब्धेऽपर्याप्तेऽशोमने वाऽऽत्मानमाहारदातारं वा जुगुप्सते । किच-तम्मिस्तथाभूत आहारे लब्ध उपलब्ध चापि ध्यायति स महावीगे, दुष्प्रणिधानादिना नापव्यानं विधत्ते, किमत्रस्थो ध्यायतीति दर्शयतिआसनस्थः-उत्कुटुकगोदोहिकावीरासनाद्यवस्थोऽकीत्कुचः सन् मुखविकारादिरहितो ध्यानं वम्मेशुक्लयोरन्यतर दारोहति किं पुनस्तत्र ध्येयं ध्यायतीति दर्शयितुमाह-ऊर्ध्वमस्तिग्लोकस्य ये जीवपरमाण्वादिका मात्रा व्यवस्थितास्तान द्रव्यपर्याय नित्यानित्यादिरूपतया ध्यायति, तथा समाधिम्-अन्तःकरणशुद्धिं च प्रेचमाणोऽप्रतिज्ञो ध्यायतीति ॥ कि च न कपाय्यकपायी तदुदयापादितम्रकुटादिकार्याभावात् तथा विगता गृद्धि:-गाध्यं यस्यासौ विगतगृद्धिः, तथा शब्दरूपादिष्विन्द्रियार्थेष्वमृच्छितो ध्यायति, मनोऽनुकूलेषु न रागमुपयाति नापीतरेषु द्वेषवशगोऽभूदिति, तथा छद्मनि-ज्ञानदर्शनावरणीय मोहनीयान्तरायात्मके तिष्ठतीति छस्थ इत्येवंभूतोऽपि विविधम्- अनेकप्रकारं सदनुष्ठाने पराक्रममाणो न प्रमादं - कपायादिकं सकृदपि कृतवानिति । किं च स्वयमेव- आत्मना तत्त्वमभिसमागम्य विदितसंसारस्वभावः स्वयं बुद्धः संस्तीर्थप्रवर्त्तनायोद्यतवान् तथा चोक्तम्- " आदित्यादिविबुधविसरः सारमस्य त्रिलोक्यामस्कन्दन्तं पद
॥ ६२९०
Page #180
--------------------------------------------------------------------------
________________
उप.
उधका ४
मनुपमं यच्छिवं त्वामुवाच । तीर्थ नाथो लघुभवभयच्छेवि तर्ण विधत्स्वेत्येतद्वाक्यं त्वदधिगतये नो भीआचा
किमु स्यानियोगः ॥१॥" इत्यादि, कथं तीर्थप्रवर्तनायोद्यत इति दर्शयति-'आत्मशया' आत्मकम्मक्षयोपराजवृत्तिः
शमोपशमक्षयलक्षणयाऽऽयतयोग-सुप्रणहितं मनोवाकायात्मकं विधाय विषयषायायुपशमादिभिनिवृत्ता-शीतीभृता, (घीलाङ्का.)
तथा अमायावी--मायारहित उपलक्षणार्थत्वादस्याक्रोषाधपि द्रष्टव्यं, 'यावत्कथ मिति यावज्जीवं भगवान् पञ्चभिः .६२२॥ समितिभिः समितः तथा तिसभिगुप्तिमिगुपश्चासीदिति ॥ श्रुतस्कन्धाध्ययनोद्देशकार्थमुपसंजिही राह-एषः-अनन्तरोक्तः ।
शस्त्रपरिज्ञादेरारभ्य योऽभिहितः सोऽनुकान्त:-अनुष्ठित आसेवनापरिज्ञया सेविता, केन ?-श्रीवर्द्धमानस्वामिना 'मतिमना' ज्ञानचतुष्टयान्वितेन बहुश:--अनेकशोऽप्रतिज्ञेन-अनिदानेन भगवता-ऐश्वर्यादिगुणोपेतेन, अतोऽपरोऽपि मुमुक्षुरनेनैव भगवदाचीर्णेन मोक्षप्रगुणेन पथाऽऽत्महितमाचरन् रीयते-पराक्रमते, इतिरधिकारपरिसमाप्तौ, ब्रवी
मीति सुधर्मस्वामी जम्बूस्वामिने कथयति-सोऽहं ब्रवीमि येन मया भगवद्वदनारविन्दादर्थजातं निर्यातमवधारितमिति ॥ । उक्तोऽनुगमः सूत्रालापकनिष्पन्न निक्षेपश्च ससूत्रस्पर्शनियुक्तिका, साम्प्रतं नयाः, ते च नैगमसङ्ग्रहव्यवहारऋजुसूत्रशब्द
समभिरूटैवंभूतमेदभिन्नाः सामान्यतः सप्त, ते चान्यत्र सम्मत्यादी लक्षणतो विधानतश्च न्यक्षेणाभिहिता इति, इह पुनस्त एव ज्ञानक्रियानयान्तर्भावद्वारेण समासतःप्रोच्यन्ते, अधिकृताचाराङ्गस्य. ज्ञानक्रियात्मकतयोभयरूपत्वात ज्ञानक्रियाधीनत्वान्मोक्षस्य तदर्थ च शास्त्रप्रवृत्तेरिति भावः, अत्र च परस्परतः सव्यपेक्षावेव ज्ञानक्रियानयो विवक्षितकार्यसिद्धयेऽलं नान्योऽन्यनि पेक्षावित्येतत्प्रपञ्च्यते, तत्र ज्ञाननयाभिप्रायोऽयम्--यथा ज्ञानमेव प्रधान न क्रियेति, समस्त
Page #181
--------------------------------------------------------------------------
________________
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
हेयोपादेयहानोपादानप्रवृत्ते नाधीनत्वात् , तथा हि-सुनिश्चितात् सम्यगज्ञानात्प्रवृत्तोऽर्थक्रियार्थी न विसंवाद्यते, तथा चोक्तम्-"विज्ञप्तिः फलदा पुंसां, न क्रिया फलदा मता । मिथ्याज्ञानात् प्रवनस्य, फलासंवाददर्शनाद् ॥१॥" इत्यादि, संविनिष्ठत्वाच्च विषयव्यवस्थितीनां तत्पूर्वकसकलदुःखप्रहीणत्वाच्चान्वयव्यतिरेकदर्शनाच्च ज्ञानस्य प्राधान्यं, तथाहि-शानामावेऽनर्थपरिहाराय प्रवर्त्तमानोऽपि तत्करोति येन निता पतङ्गवदनथेन संयुज्यते, ज्ञानसद्भावे च समस्तानप्यर्थानर्थसंशयांश्च यथाशक्तितः परिहरति, तथा चागमः-'पढमं नाणं तओ' इत्यादि, एवं तावत्तायोपशमिकं ज्ञानमाश्रित्योक्तं, चायिकमप्याश्रित्य तदेव प्रधानं , यस्माद्भगवतः प्रणतसुरासु मुकुटकोटिवेदिकाहितचरणयुगलपीठस्य भवाम्भोधितटस्थस्य प्रतिपन्नदीक्षस्य त्रिलोकबन्धो तपश्चरणवतोऽपि न तावदपवर्गप्राप्तिः सञ्जायते यावज्जीवाजीवायखिलवस्तुपरिच्छेदरूपं घनघातिकर्मसंहतिक्षयात्केवलज्ञान नोत्पन्नमित्यतो ज्ञानमेव प्रधानमैहिकामुष्मिकफलप्राप्तिकारण, युक्तियुक्तत्वादिति । अधुना क्रियानयामिप्रायोऽभिधीयते, तद्यथा--क्रियैव प्रधान हिकामुष्मिकफलप्राप्तिकारणं, युक्तियुक्तत्वात, यस्माद्दर्शितेऽपि ज्ञानेनार्थक्रियासमर्थेऽर्थे प्रमाता प्रेक्षापूर्वकारी यदि हानोपादानरूपी प्रवृत्तिक्रिया न कुर्यात् ततो ज्ञानं विफलतामियात्, तदर्थत्वात्तस्येति, यस्य हि यदर्थ प्रवृत्तिस्तत्तस्य प्रधानमितरदप्रधानमिति न्यायात, संविदा विषयव्यवस्थानस्याप्यर्थक्रियार्थत्वाक्रियायाः प्राधान्यम् , अन्वयव्यतिरेकावपि क्रियायां समुपलभ्येते, यतःसम्यकचिकित्साविधिज्ञोऽपि यथार्थोषधावाप्तावपि उपयोगक्रियारहितो नोलापतामेति, तथा चोक्तम्-"शास्त्राण्यधोत्यापि भवन्ति मूर्खा, यस्तु क्रियावान् पुरुषः स विद्वान् । संचिन्त्यतामौषधमातरं हि किं ज्ञान
Page #182
--------------------------------------------------------------------------
________________
उप..
भीजाचाराजवृत्तिः (डीलाहा.)
.६२४ ॥
XXX
मात्रेण करोत्यरोगम!॥ १" तथा "क्रयैव फलदा पुसां, न ज्ञानं फलदं मतम् । यतः स्त्रीभक्ष्यभोगज्ञो, न ज्ञानात्मुखितो भवेत् ॥ १॥" इत्यादि, तक्रियायुक्तस्तु यथाऽभिलषितार्थभाग्भवस्यपि, कृत इति
उद्देशक चेतन हि दृष्टेऽनुपपन्नं नाम, न च सकललोकप्रत्यक्षसिद्धेऽर्थेऽन्यत्प्रमाणान्तरं मृग्यत इति, तथाऽऽमुष्मिकफल प्राप्त्यर्थिनाऽपि तपश्चरणादिका क्रियैव कर्तव्या, मौनीन्द्रं प्रवचनमप्येवमेव व्यवस्थितं, यत उक्तं-'बेयकुलगणसङ्घ आयरियाणं च पवयण सुए य । सव्वेसुऽवि तेण कयं तवसञ्जममुजमन्तेणं ॥ १॥" इतश्वैतदेवमङ्गीकर्तव्यं, यतस्तीर्थकदादिभिः क्रियारहितं ज्ञानमप्यफलमुक्तं, उक्तं च-सुपहुं पि सुअमधीतं किं काहि चरणविप्पहूण(मुक्कस्स। अंधस्स जह पलित्ता दीवसतसहस्सकोडोवि.॥ १॥" दृशिक्रियापूर्वकक्रियाविकलत्वात्तस्येति भावः, न केवलं क्षायोपशमिकाज्ज्ञानाक्रिया प्रधाना, क्षायिकादपि, यतः सत्यपि जीवाजीवाद्यखिलवस्तुपरिच्छेदके ज्ञाने समुल्लसिते न ध्युपरतक्रियानिवर्तिध्यानक्रियामन्तरेण अवधारणीयकम्र्मोच्छेदः, तदच्छेदाच्चन मोक्षावाप्तिरित्यतो न ज्ञानं प्रधान, चरणक्रियायां पुनहिकामुष्मिकफलावाप्तिरित्यतः सैव प्रधानभावमनुभवतीति, तदेवं । ज्ञानमृते सम्यक्क्रियाया अभावः, तदभावाच्च तदर्थप्रवृत्तस्य ज्ञानस्य वैफल्यम् । एवमादीनां युक्तीनामुभयत्राप्युपलब्धेाकुलितमतिः शिष्यः पृच्छति-किमिदानी तत्त्वमस्तु , आचार्य आह-नन्वभिहितमेव विस्मरणशीलो देवानांप्रियो
१चैत्यकुलगणसधे प्राचार्ये च प्रवचने श्रुते का सर्वेष्वपि तेन कृतं तपःसंयमबोरुपच्छता H-१ ॥ २ सुबहपि श्रुतमधीतं किं. ६२४॥ करिष्यति विहीणचरणस्य ।। अन्धस्य यथा प्रदीमा दीपशतसहस्रकोट्यपि ॥ १ ॥
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
Page #183
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ ६२५ ॥
܀܀܀܀܀܀܀
यथा ज्ञानक्रियायों परस्परमव्यपेक्षौ सकलकर्मकन्दोच्छेदात्मकस्य मोक्षस्य कारणभृताविति, प्रदीप्तसमस्तनगगन्तवत्तिपरस्परोपकार्योपकारकभावावाप्तानाबाधस्थानौ पद्मबन्धाविवेति तथा चोक्तम् - " " संजोयसिहीए फलं वदन्ती' त्यादि, स्वतन्त्रप्रवृत्तौ तु न विवक्षितकार्यं साधयत इत्येतच्च प्रसिद्धमेव, यथा 'हयं णाण' मित्यादि, आगमेऽपि सर्वनयोपसंहारद्वारेणायमेवार्थोऽभिहितो, यथा - "सव्वेसिंपि णयाणं बहुविहवत्तवयं णिसामेत्ता । तं सव्वणयविसुद्ध जं चरणगुणडिओ साह ॥ १ ॥ त्ति, तदेतदाचाराङ्गं ज्ञानक्रियात्मकं अधिगतसम्यक्पथानां कुश्रतसरित्कषायझपकुलाकुलं प्रियविप्रयोगाप्रिय संप्रयोगाद्यनेकव्यसनोपनिपात महावत्तं मिथ्यात्व पवनेरणोपस्थापित भयशोकहास्यरत्यरत्यादितरङ्गं विश्रसावेलाचितं (विलं) व्याधिशतनक्रचक्रचक्रालयं महागम्भीरं भयजननं पश्यतां त्रासोत्पादकं महासंसारार्णवं साधूनामुत्तितीर्पतां तदुत्तरणसमर्थमव्याहतं यानपात्रमिति, अतो मुमुक्षुणाऽऽत्यन्तिकै कान्तिकानाबाधं शाश्वतमनन्तमजरममरमक्षयमव्याबाधमुपरत समस्तद्वन्द्वं सम्यग्दर्शनज्ञानत्रतचरणक्रियाकलापोपेतेन परमार्थ परमकार्यमनु
मोक्षस्थानं लिप्सुना समालम्वनीयमिति तदात्मकस्य ब्रह्मचर्याख्यश्रुतस्कन्धस्य निर्ऋतिकुलीन श्री शीलाचार्येण तत्त्वादित्या परनाम्ना पाहरिसाधुसहायेन कृता टीका परिसमाप्तेति ॥ श्लोकतो ग्रन्थमानम् - ६७६ ।।
१ संयोगसिद्धेः फलं वदन्ति ( जैव कचक्रेण रथः प्रयाति । अन्धश्च पङगुश्च वने समेत्य तौ संप्रयुक्तौ नगरं प्रविष्टौ ॥ १ ॥ ) २ हतं ज्ञानं क्रियाहीनं, ३ सर्वेषामपि नयानां बहुविधवक्तव्यतां निशम्य । तत्सर्वनयविशुद्धं यच्चरणगुणस्थितः साधुः ॥ १ ॥
*******
॥ ६२५ ॥
Page #184
--------------------------------------------------------------------------
________________
बीआचाराजवृत्तिः (धोलावा.
दासप्तत्यधिकेषु हि शतेषु सप्तसु गतेषु गुप्तानाम्। संवत्सरेषु मासि च भाद्रपदे शक्लपञ्चम्याम् ॥१॥ शीलाचार्येण कृता गम्भूतायां स्थितेन टीकैषा । सम्यगुपयुज्य शोध्या मात्सर्यविनाकृतैरायः ॥२॥ कृत्वाऽऽचारस्य मया टीका यत्किमपि संचितं पुण्यम् । तेप्नुनायाजगदिदं निर्वृतिमतुलां सदाचारम् ॥३॥ वर्णः पदमथ वाक्यं पद्यादि च यन्मया परित्यक्तम् । तच्छोधनीयमत्र च व्यामोहः कस्य नो भवति ? ॥४॥
उप.. उद्देशका ४
तत्त्वादित्यापराभिधानश्रीमच्छीलाचार्यविहिता वृत्तिमचर्यश्रतस्कन्धस्य आचाराङ्गस्य समाप्ता ॥
*
इति श्रीमद्भगद्रयाहुस्वामिसंदृब्धनियुक्तिसंकलिनाचाराङ्गप्रथमश्रुतस्कन्धस्य वृत्तिः श्रीवाहरिगणिविहितसाहाय्यकेन श्रीशोलाङ्काचार्येण तत्त्वा
दित्यापराभिधानेन विहिताऽऽयाता संपूर्तिम ।
Page #185
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥६२७॥
॥ अहम् ॥ ॥ अथ द्वितीयोऽग्राख्य-श्रुतस्कन्धः ॥ ॥ चूलिका १ ॥ पिण्डैषणाऽध्ययनं १ ॥ उद्देशकः १ ॥ जयत्यनादिपर्यन्तमनेकगुणरत्नभृत् । न्यत्कृताशेषतीर्थेशं तीर्थ तीर्थाधिपैनुतम् ॥१॥ नमः श्रीवर्डमानाय, सदाचारविधायिने । प्रणताशेषगीर्वाणचूडारत्नार्चिताहये ॥२॥ .
आचारमेरोर्गदितस्य लेशतः, प्रवच्मि तच्छेषिकचूलिकागतम्।
आरिप्सितेऽथे पुणवान् कृती सदा, जायेत निःशेषमशेषितक्रियः॥३॥ उक्तो नवब्रह्मचर्याध्ययनात्मक आचारश्रुतस्कन्धः, साम्प्रतं द्वितीयोऽप्रश्रुतस्कन्धः समारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-उक्तं प्रागाचारपरिमाणं प्रतिपादयता, तद्यथा-"'नवबंभचेरमइओ अट्ठारसपयसहस्सिओ वेओ। हवह य सपंचचूलो बहुबहुअयरो पयग्गेणं ॥१॥" तत्राद्य श्रुतस्कन्धे नवब्रह्मचर्याध्ययनानि प्रतिपादितानि, तेषु च न समस्तोऽपि विवक्षितोऽर्थोऽभिहितः अभिहितोऽपि सक्षेपतोऽतोऽनभिहितार्थाभिधानाय सक्षेपोक्तस्य च प्रपञ्चाय तदअमृताश्चतस्रश्चूडा उक्तानुक्तार्थसमाहिकाः प्रतिपाद्यन्ते, तदात्मकश्च द्वितीयोऽप्रश्रुतस्कन्धः, इत्यनेन
१ नवब्रह्मचर्यमयोऽष्टादशपदसहस्रका वेदः । मवति च सपञ्चचूलो पहुबहुसरः पदाप्रेण ॥१॥
६२७॥
Page #186
--------------------------------------------------------------------------
________________
के सम्बन्धेनायातस्यास्य व्याख्या प्रतन्यते , नत्र नामस्थापने अनादृत्य द्रव्याग्रनिक्षेपार्थ नियुक्तिकृदाहश्रीआचा
श्रतस्कं०२ रावृत्तिः दवोगाहण आएस काल कमगणणसंचए भावे । अग्गं भावे उपहाणयहुय उवगारओ तिविहं ॥४॥
| चूलिका १ शीलाढा.) तत्र द्रव्याग्रं द्विधा-आगमतो नोआगमत इत्यादि भणित्वा व्यतिरिक्त विधा-सचित्ताचित्तमिश्रद्वन्यस्य वृक्षकुन्ता- पिण्डै?
देर्यदग्रमिति, अवगाहनाग्रं यद्यस्य द्रव्यस्याधस्तादवगाढं तदवगाहनाग्रं, तद्यथा-मनुष्यक्षेत्रे मन्दरवर्जानो पर्वतानामु-18 उद्देशक, ३२८॥
च्छ्यचतुर्भागो भूमावबगाढ इति मन्दराणां तु योजनसहस्रमिति, आदेशाग्रम् आदिश्यत इत्यादेशः-व्यापारनियोजना, अग्रशब्दोऽत्र परिमाणवाची, ततश्च यत्र परिमितानामादेशो दीयते तदादेशाग्रं, तद्यथा-त्रिभिः पुरुषैः कर्म कारयति तान वा भोजयतीति, कालाग्रम्-अधिकमासकः, यदिवाऽग्रशब्दः परिमाणवाचकस्तत्रातीतकालोऽनादिग्नागतोऽनन्तः सर्वाद्धा वा, क्रमाग्रं तु क्रमेण-परिपाटयाऽग्रं क्रमानं, एतद् द्रव्यादि चतुर्विधं, तत्र द्रव्याग्रमेकाणुकाद् द्वयणुक द्वयणुकाद् ज्यणुकमित्येवमादि । क्षेत्राग्रम्-एकप्रदेशावगाढाद् द्विप्रदेशावगाढं, द्विप्रदेशावगाढान्त्रिप्रदेशावगाढमित्यादि । कालाग्रमेकसमयस्थितिकाद् द्विममयस्थितिकं द्विममयस्थिति कान्त्रिसम्यस्थितिकमित्यादि, भावाग्रमेकगुणकृष्णाद् द्विगुणकृष्णं द्विगुणकृष्णात्रिगुणकृष्णमित्यादि, गणना ग्रं तु सङ्ख्याधर्मस्थानात्स्थानं, दशगुणमित्यर्थः, तद्यथा-एको दश शतं सहस्रामत्यादि, सञ्चयाग्रं तु सश्चितम्य द्रव्यम्प पदुपरि जन्मश्चयाय, यथा ताम्रोपस्करस्य सश्चितम्योपरि शङ्कः, भावाग्रं तु त्रिविधं-प्रधानाग्रं प्रभृताग्रं २ उपकाराग्र ३ च, नत्र प्रधानाय सचित्तादि विधा, सचित्तमपि द्विपदा- ६.८। दिभेदाविधव, तत्र द्विपदेषु तीर्थकरश्चतुष्पदे मिह : अपदेष कल्पवृक्षः, अनि वयादि मिथं तीर्थकर एवालङकृत
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
Page #187
--------------------------------------------------------------------------
________________
इति, प्रभूतान' त्वापेक्षिक, तद्यथा-"'जीवा पोग्गल समया दव्य परसा य पज्जवा चेव । थोवाऽणताणता
विसेसमहिया दुवे गंता ॥" अत्र च यथोचरमन, पर्यायान तु सर्वाग्रमिति, उपकारानतु यत्पूर्वोक्तस्य विस्तरतोऽनुक्तस्य च प्रतिपादनादुपकारे वर्त्तते तद् यथा दशवकालिकस्य द्वे चूडे,. अअमेव वा श्रुतस्कन्ध आचारस्येत्यतोत्रोपकाराणाधिकार इति । आह च नियुक्तिकार:उवयारेण उ पगयं आयारस्सेव उवरिमाईतु । रुक्खस्स य पव्वयस्स य ज अग्गाइतहेयाई॥
उपकाराग्रेणात्र प्रकृतम्-अधिकारः, यस्मादेतान्याचारस्यैवोपरि वर्तन्ते, तदुक्तविशेषवादितया तत्संबद्धानि, यथा वृक्षपर्वतादेरग्राणीति | शेषाणि त्वग्राणि शिष्यमतिव्युत्पत्त्यर्थमस्य चोपकाराग्रस्य सुखप्रतिपत्त्यर्थमिति, तदुक्तम
'उच्चारिअस्स सरिसं जं केणइ त पख्वए विहिणा । जेणऽहिगारो तंमि उ परूविए होइ सुहगेझं ॥१॥" तत्रेदमिदानी वाच्यं-केनैतानि नियुढानि 1 किमर्थं १ कुतो वेति', अत आहथेरेहिऽणुग्गहहा सीसहिअं हीउ पागडत्थं च । आयाराओ अत्थो आयारंगेसु पविभत्तो ॥६॥
१जीवा: पुद्गलाः समयाः (कालिकाः ) द्रव्याणि प्रदेशाश्व पर्यवाश्चंव । स्तोकाः अनन्तगुणा अनन्तगुणा विशेषाधिकाः Hद्वयेऽनन्ताः (अनन्तगुणाः अनन्तगुणाः)॥१॥ २ सच्चारितस्य सदृशं यत्केनचित् तत् प्ररूप्यते विधिना । येनाधिकारस्तस्मिस्तु
प्ररूपिते भवति सुखग्राह्यम् ॥ १॥
॥
२९॥
Page #188
--------------------------------------------------------------------------
________________
भीआचारावृत्तिः (चोलाङ्का ॥६३०॥
'स्थविः' इतवृद्धश्चतुर्दशपूर्वविद्भिनियूढानीति, किमर्थ ?, शिष्यहितं भवत्विति कृत्वाऽनुग्रहार्थ, तथाऽप्रकटोऽर्थः प्रकटो यथा स्यादित्येव मर्थ च, कुतो नियूढानि ?, आचारात्सकाशात्समस्तोऽप्यर्थ आचागग्रेषु विस्तरेण प्रविभक्त इति ॥ साम्प्रतं यद्यस्मानियूद तद्विभागेनाचष्ट इतिबिइअस्स य पंचमए अट्ठमगस्स थिइयमि उद्देसे । भणिओ पिंडो सिज्जा वत्थं पाउग्गही चेव ॥ ७ ॥ पंचमगस्स चउत् पिणजई समासेणं । छट्ठस्स य पंचमए भासजायं वियाणाहि ॥ ८॥
१४ सत्तिक्कगाणि सत्तवि निज्जूहाइ महापरिनाओ। सत्थपरिना भावण निज्जूढा उ धुय विमुत्ती ॥९॥
चूलिका पिण्डै० . उद्देशक
१५
आयारपकप्पो पुण पञ्चक्खाणस्स तयवत्थूओ | आयारनामधिज्जा वीसइमा पाहुडच्छेया ॥१०॥
ब्रह्मचर्याध्ययनानां द्वितीयमध्ययनं लोकविजयाख्य, तत्र पञ्चमोद्देशक इदं सूत्रम् - "सवामगंधं परिन्नाय निरामगंधो परिव्वए" तत्रामग्रहणेन हननाद्यास्तिस्रः कोटयो गृहीता गन्धोपादानादपरास्तिमः, एताः पडप्यविशोधिकोट्यो
गृहीताः, नाश्चेमाः-म्बनो हन्ति घातयति नन्तमन्यमनुजानीने, तथा पचति पाचयति पचन्त(मन्य)मनुजानीत इति, Ra तथा तत्रैव मूत्रम्- "अदिम्ममाणो कयविक्कयएहि"ति, अनेनापि तिम्रो-विशोधिकोटयो गृहीताः, ताश्चेमा:-क्रीणाति
Page #189
--------------------------------------------------------------------------
________________
०६३१॥
क्रापयति क्रीणन्न मन्यमनुजानाने, तथाऽयमम्य-विमोहाध्ययनस्य द्वितीयोदेशक इदं सूत्रम्-भिक्ख परकर्मजा चिटेज वा निसीएज वा तुयटिज वा सुसाणं सि वे"त्यादि यावद् “बहिया विहरिजा तं भिकावु गाहावती उवसंकमित्त वएज्जा-अहमाउसंतो समणा ! तुम्भावाए असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पाणाई भूयाइ जीवाई सत्ताईसमारम्भ समुद्दिस्स कोयं पामिच"मित्य दि, एतानि सर्वाण्यपि सूत्राण्याश्रित्यैकादश पिण्डैषणा नियूढाः, तथा तस्मिन्नेव द्वितीयाध्ययने पञ्चमोद्देशके सूत्रम्- “से वत्थं पडिग्गहं कंबलं पायपुछणं उग्गहं च कडासण"मिति, तत्र वस्त्रकम्बल पाइपुञ्छनग्रहणाद् वस्त्रषणा नियू ढा. पतद्ग्रहपदात पात्रषणा नियुढा, अवग्रह इत्येतस्मादवग्रहप्रतिमा नियूढा, कटासनमित्येतस्माच्छय्येति, तथा पश्चमाध्ययनावन्त्याख्यस्य चतुर्थोदेशके सूत्रम्-"गामाणुगामं दूइजमाणस्स दुजायं दुप्परिक्कंतं" इत्यादिनेर्या सक्षेपेण व्यावर्णितेत्यत एव ईर्याध्ययनं नियूढम् , तथा षष्ठाध्ययनस्य धृताख्यस्य पञ्चमोद्देशके सूत्रम् - "आइक्खइ विहयइ कि धम्मकामी"त्येतस्माद्भाषाजाताध्ययनमाकृष्टमित्येवं विजानीयास्त्वमिति । तथा महापरिज्ञाध्ययने सप्तोद्देशकास्तेभ्यः प्रत्येक सप्तापि सप्तकका नियूढाः, तथा शस्त्रपरिज्ञाध्ययनाद्भावना नियुढा, तथा धृताध्ययनस्य द्वितीयचतुथोंदेशकाभ्यां विमुक्त्यध्ययनं नियंढमिति, तथा 'आचारप्रकल्प:'निशीथः, स च प्रत्याख्यानपूर्वस्य यत्तृतीयं वस्तु तस्यापि यदाचाराख्यं विंशतितमं प्राभृतं ततो नियूढ इति ॥ ब्रह्मचर्याध्ययनेभ्य आचाराग्राणि नियूढान्यतो नियूहनाधिकारादेव तान्यपि शस्त्रपरिज्ञाध्ययनानियूढानीति दर्शयति--
Page #190
--------------------------------------------------------------------------
________________
बीआचारावृत्तिः 'चोलाङ्का.
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
अव्वागडा उ भणिओ सत्थपरिन्नाए दंडनिक्खेवो । सो पुण विभजमाणी तहा तहा होइ नायव्वो ॥११॥ 'अव्याकृतः' अव्यक्तोऽपरिस्फुट इतियावत् 'भणितः' प्रतिपादितः, कोऽसो ?-दण्डनिक्षेपः' दण्ड:-प्राणिपीडा
चूलिका. लक्षणस्तस्य निक्षेपः-परित्यागः संयम इत्यर्थः, स च शस्त्रपरिज्ञायामव्यक्तोऽभिहितो यतस्तेन पुनः विभज्यमानः ।
पिण्डे, अष्टस्वप्यध्ययनेष्वसावेव तथा नथा-अनकप्रकागे ज्ञातव्यो भवतीति ।। कथं पुनरयं मयमः सक्षेपाभिहितो विस्तायते ! |
उद्देशका । इत्याहएगविही पुण सो संजमुत्ति अज्झत्थ बाहिरा य दुहा । मणवयणकाय तिविहो चउविही चाउजामी उ॥१२॥ पंच य महव्वयाई तु पंचहा राइभोअणे छट्ठा। सीलंगसहस्साणि य 'आयारस्सप्पवीभागा ।। १३ ॥ ____ अविरतिनिवृत्तिलक्षण एकविधः संयमः, म एवाध्यात्मिकवाद्यभेदाद् विधा भवति, पुनर्मनोवाक्ययोगभेदान्त्रिविधः, म एव चतुर्यामभेदाच्चतुर्धा, पुनः पञ्चमहाव्रतमेदान्पश्चधा, गत्रीभोजनविरतिपरिग्रहाच्च पोढा, इत्यादिकया प्रक्रियया भिद्यमानो यावदष्टादशशीलाङ्गसहस्रपरिमाणो भवतीति । किं पुनरसो संयमस्तत्र तत्र प्रवचने पञ्चमहाव्रतरूपतया भिद्यते ? इत्याहआइक्विउ विभइउ विना व सुहतर होइ । एएण कारणेणं महब्बया पंच पन्नत्ता।। १४॥ संयमः पञ्चमहाव्रतरूपतया व्यवस्थापितः मन्त्राख्यातु विमक्तु विज्ञातु च सुखेनैव भवतीन्यतः कारणात्पश्चमहा१ असगरस निःपत्तो प्र. मो : अरमन्नयो होइ प्र.
Page #191
--------------------------------------------------------------------------
________________
बनानि प्रज्ञाप्यने ।। नानि चपन महावनानि अलिनानि फलवान्त भवन्यतो रक्षामन्ती विधयम्सदमाह.. तेसि च रवणदा य भावणा पंच पंच हकिक्के । ना मन्त्रपरिवारासो अस्भिनरी हाई ।।५।।
तेषां च' महावताना मेकै काय तवृत्ति कल्पाः पञ्च फच भावना भवन्ति नाश्च द्वितीयाग्रश्रुतम्कन्धे प्रतिपाद्य-ने. ऽनोऽयं शबपरिज्ञाध्ययनाभ्यन्तगे भवतीति ।। माम्प्रतं चूडानां यथाम्ब परिमाणमा-- जावोग्गहपतिमाओं पढमा सत्तिक्कगा विह प्रचूला। भावण विमुनि आयार पक्कप्पा निन्नि इअ पंच ॥१६॥ ___ पिण्डषणाध्ययनादारभ्यायग्रहप्रतिमाध्ययनं यावदतानि सप्ताध्ययनानि प्रथमा चूडा, मप्तमप्नकका द्वितीया, भावना तृतीया, विमुक्तिश्चतुर्थी. आचारप्रकल्पो निशीथः, सा च पञ्चमा डेति । तत्र चूडाया निक्षेपो नामादिः पड्विधः, नामस्थापनं तुण्णे, द्रव्यचूडा व्यतिरिक्ता सचित्ता कुकुटम्य अचिना मुकुटम्य चूडामणिः मिश्रा मयूरस्य, क्षेत्रचूडा लोकनिष्कुटरूपा, कालचडाऽधिकमासकस्वभावा, भावचूडा स्वियमेव, नायोपमिकमावर्तित्वात । इयं च सप्ताध्ययनामिका, तत्राद्यमध्ययनं पिण्डेपणा, तस्य चत्वार्यनुयोगद्वाणि भवन्ति, यावन्नामनिष्पन्ने निक्षेपे पिण्डेपणाऽध्ययनं, तम्य निक्षेपद्वारेण म; पिण्डनियुक्तिरत्र भणनीयेति ।। माम्प्रतं सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयं, तच्चे दम्--
से भिक्खू चा भिक्षुणी वा गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुपविढे समाणे से जं पुण जाणिला-असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पाणेहिं वा पणगेहिं वा
Page #192
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीआचागावृत्तिः श्रिीलावा.)
श्रुतस्कं.. चूलिक'.. पिण्डेष. उद्देशकः १
बोएहि वा हरिएहिं वा ससत्तं उम्मिस्सं सोओदएण वा आरितं रयसा वा परिघा. (वा,सियं वा नहप्पगारं असणं वा पाणं वा खोइमं वा साहम वा परहन्थंसि वा पर पायंसि वा अफासुयं अणेसणिज्जति मन्नमाणे लाभेऽवि सते नो पडिग्गाहिज्जा ॥ से य आहच्च पडिग्गहे सिया से तं आयाय एगंतमवक्कमिज्जा, एगंतमवक्कमित्ता अहे आरामंसि वा अहे उवस्सयंसि वा अप्पंडे अप्पपाणे अप्पयोए अप्पहरिए अप्पोसे अप्पुदए अप्पुत्तिंगपणगदगमट्टियमकडासंनाणए विगिंचिय २ उम्मीसं विसोहिय २ तओ संजयामेव भुजिज वा पीइज्ज वा, जंच नो संचाइजा भुत्तए वा पायए वा से तमायाय एगंतमयक्कमिजा, अहे सामथंडिलंसि वा अहिरासिंसि वा किरासिंसि वा तुसरासिसि वा गोमयरासिंसि वा अन्नयरंसि वा तहप्पगारंसि थंडिलंसि पडि.
लेहिय पडिलेहिय पमज्जिय पमल्जिय तओ संजयामेव परिदुविजा ॥ सू. १॥ 'से' इति मागधदेशीवचनतः प्रथमान्तो निर्देशे वर्तते, यः कश्चिद्भिक्षणशीलो भावभिक्षुमलोत्तरगुणधारी विविधाभिग्रहरतः 'मिक्षणि पा' साध्वी, स भावमिक्षुर्वेदनादिभिः कारणैराहारग्रहणं करोति, तानि चामनि-- 'वेअण १ वेआबच्चे २ इरियहाए य ३ संजमट्ठाए ४। तह पाणवत्तियाए ५ छठं पुण धम्मचिंताए ६ ॥१॥" इत्यादि,
१ वेदना वैयावृत्त्य ईथं च संयमार्थ च । तथा प्राणप्रत्ययाय षष्ठं पुनधर्मचिन्तायै ॥१॥
Page #193
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥६३५॥
| अमीषां मध्येऽन्यत मेनापि कारणेनाहारार्थी सन् गृहपतिः-गृहस्थस्तस्य कुलं -गृहं तदनुप्रविष्टः, किमर्थ :--'पिंडवाय
पडियाए'त्ति पिण्डपातो--भिक्षालाभम्तत्प्रतिज्ञया--अहमत्र भिनां लप्स्य इति, स प्रविष्टः सन् यत्पुनरशनादि जानीयात् , कमिति दर्शयति-'प्राणिभिः' रमजादिभिः ‘पन कैः' उल्लीजीवः मंसक्तं 'बीज' गोधमादिभिः 'हरितैः' दुर्वाऽकुगदिभिः 'उन्मिभं' शबलीभूतं. तथा शीतोदकेन वा 'अवसितम्' आकृतं 'रजसा वा' सचित्तन 'परिघासियं त्ति परिगुण्डितं, कियद्वा वश्यनि ? 'तथाप्रकारम्' एवंजातीयमशुद्धमशनादि चतुर्विधमप्याहारं 'परहस्ते' दाहस्ते परपात्र वा स्थितम् 'अप्रासुक' मचित्तम् 'अनेषणीयम्' आधाकर्मादिदोषदुष्टम् 'इति' एवं मन्यमानः 'स' भावभिक्षुः सत्यपि लाभे न प्रति गृह्णीयादिन्युत्सर्गतः, अपवादतस्तु द्रव्यादि ज्ञात्वा प्रतिगृह्णीयादपि, तत्र द्रव्यं दुर्लभद्रव्यं क्षेत्रं साधारणद्रव्यलाभरहितं सरजस्कादिभावितं वा कालो दुर्भिक्षादिः भावो ग्लानतादिः, इत्यादिभिः कारणरुपस्थितैरल्पबहुत्वं पर्यालोच्य गीतार्थों गृह्णीयादिति ॥ अथ कथञ्चिदनाभोगात्संसक्तमागामिसचोन्मिश्रं वा गहीतं तत्र विधिमाह-से आहच्चे'त्यादि स च भावभिनुः 'आहच्चे ति सहसा संसक्तादिकमाहारजातं कदाचिदनाभोगात्प्रतिगृहीयात्, स चानाभोगो दातृप्रतिगृहीतृपदद्वयाच्चतुर्धा योजनीय इति 'तम्' एवंभूतमशुद्धमाहारमादायैकान्तम् 'अपक्रामेत्' गच्छेत , तं 'अपक्रम्य' गत्वेति । यत्र सागारिकाणामनालोकमसम्पातं च भवति तदेकान्तमनेकधेति दर्शयति'अहे आरामंसि वत्ति अथारामे वा अथोपाश्रये वा अथशब्दोऽनापातविशिष्टप्रदेशोपसङ्ग्रहार्थः, वाशब्दो विकल्पार्थः शून्यगृहाद्युपसङग्रहार्थो वा,, तद्विशिनष्टि-'अल्पाण्डे' अल्पशब्दोऽभाववचनः; अपगताण्ड इत्यर्थः, एवमन्पबीजे
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
Page #194
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रतस्कं०२ चूलिका पिण्डे . . उद्देशका
पहरिते 'अल्पावश्याये' अवश्याय उदकसूक्ष्मतुषारः, अल्पोदके, तथा 'अल्पोत्तिङ्गपनकदगमृत्तिकामकटबोआचा नवृत्तिः
सन्तानके' तत्रोत्तिङ्गस्तृणाग्रउदकबिन्दुः, । भुञ्जीतेत्युत्तरक्रियया सम्बन्धः ) पनक:-उल्लीविशेषः, उदकप्रधाना भोलावा.)
मृत्तिका उदकमृत्तिकेति, मकट:-सूक्ष्मजीव विशेषस्तेषां मन्तानः, यदिवा मर्कटकसन्तान:-कोलियकः तदेवमण्डादिदोषरहिते आरामादिके स्थण्डिले गत्वा प्रारगृहीताहारस्य यत्संसक्तं तद् 'विविच्य विविच्य' त्यक्त्वा त्यक्त्वा, क्रियाऽभ्यावृत्त्याऽशुद्धस्य परित्यागनिःशेषतामाह, 'उन्मिश्रं वा' आगामुकसत्त्वसंवलितं सक्तुकादि ततः प्राणिनः 'विशोध्य विशोध्य' अपनीयापनीय 'तत:' तदनन्तरं शेष शुद्धं परिज्ञाय सम्पग्यत एव भुञ्जीन पिवेद्वा रागद्वेषविप्रमुक्तः सन्निति, उक्तञ्च-पायालीसेसणसंकडंमि गहणंमि जीव ! ण हु छलिओ। इहि जह न छलिजसि भुजतो रागदोसेहिं ॥१॥ रागेण सइंगालं दोसेण सधूमगं वियाणाहि । रागद्दोसविमुक्को भुजेजा निजरापेहो ॥२॥" यच्चाहारादिकं पातु मोक्तु वा न शक्नुयात्प्राचुर्यादशुद्धपृथक्करणासम्भवा । स भिक्षुः 'तद' आहार जात
मादायकान्तमपक्रामेत् , अपक्रम्य च तदाहारजातं 'परिष्ठापयेत्' त्यजेदिति सम्बन्धः, यत्र च परिष्ठापयेत्तद्दर्शयति18 'अहे शामथंडिलंसि वेति' 'अथ' आनन्तर्याः वाशब्द उत्तरापेक्षया विकन्यार्थः 'झामेति दग्धं तस्मिन् वा स्थण्डिलेऽस्थिराशौ वा किडो-लोहादिमलस्तद्राशौ वा तुषराशौ वा, गोमयराशौ वा, कियद्वा वक्ष्यते इत्युपसंहरति-अन्य
१द्वाचत्वारिंशदेषणासंकटे गहने जीव ! नव छलितः । इदानीं यथा न छल्यसे भुञ्जन रागद्वेषाभ्यां । तथा प्रवर्तस्व ) ॥ १॥ रागेण मानारं द्वषेण सधूमकं विजानीहि । रागद्वेषविमुक्तो भुजीत वा निर्जरापेक्षी ॥२॥
......
al॥६३६॥
Page #195
--------------------------------------------------------------------------
________________
.६३७॥
तरराशौ वा 'तथाप्रकारे' पूर्वसदृशे प्रासुके स्थण्डिले गत्वा तत् प्रत्युपेक्ष्य प्रत्युपेश्य अक्ष्मा प्रमृज्य २ रजोहरणादिना, अत्रापि द्विवचनमादरख्यापनार्थमिति, प्रत्युपेक्षणप्रमार्जनपदाभ्यां सप्त भङ्गका भवन्ति, तद्यथा-अपत्युपेक्षितमप्रमार्जितम् । अप्रत्युपेक्षितं प्रमार्जितं २, प्रत्युपेक्षितमप्रमार्जितं ३, तत्राप्यप्रत्युपेक्ष्य प्रमृजन् स्थानात्स्थानसक्रमणेन सान् विराधः यति, प्रत्युपेक्ष्याप्यप्रमृजनागन्तुकपृथ्वीकायादीन् विराधयतीति, चतुर्थभङ्गके तु चत्वारोऽमी, तद्यथा-दुष्प्रत्युपेक्षितं दुष्प्रमाणितं ४, दुष्प्रत्युपेक्षित सुप्रमार्जितं ५, सुप्रत्युपेक्षितं दुष्प्रमाणितं ६, सुप्रत्युपेक्षितं सुप्रमार्जितमिति ७, स्थापना । तत्रैवभूते सप्तममझायाते स्थण्डिन्ने 'संयत एव' सम्यगुपयुक्त एव शुद्धाशुद्धपुञ्जभागपरिकल्पनया 'परिष्ठापयेत्' त्यजेदिति ॥ साम्प्रतमौषधिविषयं विधिमाह
से भिक्खु वा भिक्खूणी वा गाहावहकुलं जाव पविढे समाणे से जाओ पुण ओसहीओ जाणिजा-कसिणाओ सासियाओ अविदलकडाओ अतिरिच्छच्छिन्नाओ अवु. च्छिण्णाओ तरुणियं वा छिवाडि अणभिक्कंतभलियं पेहाए अफासुय अणेसणिज्जति मन्नमाणे लाभे संते नो पडिग्गाहिज्जा १॥ से भिक्खू वा जाव पविढे समाणे से जाओ पुण ओसहीओ जाणिज्जा-अकसिणाओ असासियाओ विदलकडाओ तिरिच्छच्छिन्नाओ वुच्छिन्नाओ तरुणियं वा छिवाडि अभिक्कंतं भज्जियं पेहाए फासुर्य एसणिज्जति मनमाणे लाभे संते पडिग्गाहिज्जा २॥ सू०२॥
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
॥६३७॥
Page #196
--------------------------------------------------------------------------
________________
भीआचारावृत्तिः शीलाहा.)
܀܀܀܀܀
܀܀܀
܀܀܀܀܀܀܀܀
स भावभिक्षुहपतिकूलं प्रविष्टः सन् याः पुनः “औषधी" शालिचीजादिकाः एवंभृता जानीयात् , तद्यथा-'कसि
श्रुतस्कं. २ णाओ'त्ति 'कृत्स्ना सम्पूर्णा अनुपहताः, अत्र च द्रव्यभावाभ्यां चतुर्भङ्गिका, तत्र द्रव्यकृत्स्ना अशस्त्रोपहताः, माव
चूलिका.? कृत्स्नाः सचित्ताः, तत्र कृत्स्ना इत्यनेन चतुर्भङ्गकेवाद्यं भङ्गत्रयमुपातं, 'सासियाओ'त्ति, जीवस्य स्वाम-आत्मीया
पिण्डैप.. मुत्पत्तिं प्रत्याश्रयो यासु ताः स्वाश्रया:, अविनष्टयोनय इत्यर्थः, आगमे च कासाश्चिदौषधीनामविनष्टो योनिकाला
उद्देशकः १ पठ्यते, तदुक्तम्-"एतेसि णं भंते ! सालीणं केवइ कालं जोणी संचिट्ठ" इत्याद्यालापकाः, 'अविदलकाओ'त्ति न द्विदलकृताः अद्विदलकृताः, अनूर्ध्वपाटिता इत्यर्थी, अतिरिच्छच्छिन्नाओ'त्ति तिरश्चीनं छिन्ना:कन्दलीकृतास्तत्प्रतिषेधादतिरश्चीनच्छिमाः, एताश्च द्रव्यतः कृत्स्ना भावतो भाज्याः, 'अव्वोच्छिन्नाओ'त्ति व्यव-a च्छिमा-जीवरहिता न व्यवच्छिन्नाः अव्यवच्छिन्नाः, भावतः कृत्स्ना इत्यर्थः, तथा 'तरुणियं वा छिवार्षि"ति, 'तरुगीम् अपरिपक्कां 'छिवाडि'न्ति मुद्गादेः फलिं, तामेव विशिनष्टि–'अणभिय कंतमज्जियन्ति, नामिक्रान्ता जीविताद् अनभिक्रान्ता, सचेतनेत्यर्थः, 'अभजिय' अभग्नाम्-अमर्दितामविराषितामित्यर्थः, इति प्रेक्ष्य' दृष्ट्वा तदेवंभूतमाहारजातमप्रासुकमनेषणीयं वा मन्यमानो लामै सति न प्रतिगृह्णीयात् ।। साम्प्रतमेतदेव सूत्रं विपर्ययेणाह-स एव भावमिक्षाः पुनरौषधीरेवं जानीयात , तद्यथा-'अकृत्स्ना : असम्पूर्णा द्रव्यतो भावतश्च पूर्ववचर्चः, 'अस्वाश्रयाः विनष्टयोनयः, "द्विवलकृताः' ऊर्ध्वपाटिता: 'तिरश्चीनच्छिन्नाः' कन्दलीकृताः तथा तरुणिका वा फलीं जीवितादपक्रान्तां भग्नां
१ एतेषां भवन्त ! शालीनां कियन्तं कालं योनिः संविष्ठति ?
܀܀܀܀܀܀܀
Page #197
--------------------------------------------------------------------------
________________
चेति, तदेवंभृतमाहारजातं प्रासुकमेषणीयं च मन्यमानो लाभे सति कारण गृह्णीयादिति २ ॥ ग्राह्याग्राघाधिकार एवाहारविशेषमधिकृत्याह
से भिक्खू वा जाव समाणे से जं पुण जाणिजा-पिहुयं वा बहुरयं वा भुजियं वा मंथु वा चाउलं वा चाउलपलंबं वा सई संभजियं अफासुयं जाव नो पडिगाहिज्जा। से भिक्खू वा जाव समाणे से जं पुण जाणिजा- पिहुयं वा जाव चा उलपलंबं वा असई भजियं दुक्खुत्तो वा निकावुनी वा भन्जियं फास्यं एसणिज्जं जाव पडिगा
हिन्जा २॥ सू०३॥ स भावभिक्षु हपतिकुलं प्रविष्टः सन् इत्यादि पूर्ववद्यावत् 'पिहुय वत्ति पृथुकं जातावेकवचनं नवस्य शालिव्रीह्यादेरग्निना ये लाजाः क्रियन्ते त इति, बहु रजा-तुषादिकं यस्मिस्तद्बहुरजः, 'भुजिय'न्ति अग्न्यर्द्धपक्वं गोधूमादेः शीर्षकमन्यद्वा तिलगोधूमादि, तथा गोधूमादेः 'मन्थु' चूर्ण तथा 'चाउलाः' तन्दुला: शालिव्रीह्यादेःत एव चूणीकृतास्तत्कणिका वा चाउलपलंचंति, तदेवंभूतं पृथुकाद्याहारजातं सकृद् एकवारं 'संभजिय'ति आमर्दितं किश्चिदग्निना किञ्चिदपरशस्त्रेणापासुकमनेषणीयं मन्यमानो लाभे सति न प्रतिगृह्णीयात् १॥ एतद्विपरीतं ग्राह्यमित्याह-पूर्ववत , नवरं यदसकृद्-अनेकशोऽग्न्यादिना पक्कमामर्दितं वा दुष्पक्कादिदोषरहितं प्रासुकं मन्यमानो लामे सति गृह्णीयादिति २॥ साम्प्रतं गृहपतिकुल प्रवेशविधिमाह
Page #198
--------------------------------------------------------------------------
________________
भीआचागावृत्तिः हीलाका.)
श्रुतस्कं. २ चूलिका-१ पिण्डेप.. उद्देशक
से भिक्ख वा भिक्षुणी वा गाहावइकुलं जाव पविसिउकामे नो अन्न उत्थिएण वा गारथिएण वा परिहारिओ वा अप्परिहारिएणं सहिं गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए पविसिज्ज वा निक्खमिज वा १॥ से भिक्ख वा जाव बहिया वियारभूमि वा विहारभृमि वा निक्खममाणे वा पविसमाणे वा नो अन्नउथिएण वा गारथिएण वा परिहारिभो वा अपरिहारिएण सद्धिं बहिया वियारभूमि वा विहारभूमि वा निक्स्वमिन्ज वा पविसिज्ज वा २॥ से भिक्ख वा जाव गामाणगामं दृाजमाणे नो अन्न उत्थिएण वा
जाव गामाणगाम दुइजिजा ३ ॥ सू०४॥ ____स भिक्षुर्यावद्गृहपतिकुल प्रवेष्टुकाम एमिर्वक्ष्यमाणैः सार्धं न प्रविशेत् प्राक् प्रविष्टो वा न निष्क्रामेदिति सम्बन्धः । यैः सह न प्रवेष्टव्यं तान् स्वनामग्राहमाह-तत्रान्यतीर्थिकाः--सरजस्कादयः 'गृहस्थाः' पिण्डोपजीविनो विगजातिप्रभृतयः, तैः सह प्रविशताममी दोषाः, तद्यथा--ते पृष्ठतो वा गच्छेयुग्यतो वा, तत्राग्रतो गच्छन्तो यदि साध्वनुवृत्या गच्छेयुस्ततस्तत्कृत ईप्रित्ययः कर्मबन्धः प्रवचनलाघवं च, तेषां वा स्वजात्याद्युत्कर्ष इति, अथ पृष्ठतस्ततस्तत्वषो दातुर्वाभद्रकस्य, लाभं च दाता संविभज्य दद्यात्तेनावमौदर्यादी दुर्भिक्षादौ प्राणवृत्तिन स्यादित्येवमादयो दोषाः, तथा परिहरणं-परिहारस्तेन चरति पारिहारिक:-पिण्डदोषपरिहग्णादुटुक्तविहारी साधुरित्यर्थः, स एवंगुणकलितः साधुः 'अपरिहारिकेण' पार्श्वस्थावसन्नकुशीलमंसवतयथारछन्दरूपेण न प्रविशेन , तेन सह प्रविष्टानामनेषणीयभिक्षाग्रहणाग्रहण कृता
॥६१०॥
Page #199
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥६४१॥
दोषाः, तथाहि अनेषणीयग्रहणे तत्प्रवृत्तिरनुन्नाता भवति, अग्रहणे तैः सहासङ्खडादयो दोषाः, तत एतान् दोषान् ज्ञात्वा साधु हतिकुलं पिण्डपातप्रतिज्ञया तैः सह न प्रविशेनापि निष्कामेदिति । । तैः सह प्रसंगतोऽन्यत्रापि गमन प्रतिषेधमाह-भिक्षुर्वहिः 'विचारभूमि' सञ्चाव्युत्सर्गभूमि तथा 'विहारभमि' स्वाध्यायभूमि तैरन्यतीर्थिकादिभिः सह दोषसम्भवान प्रविशेदिति सम्बन्धः, तथाहि--विचारभूमौ प्रासुकोदकस्वच्छास्वच्छबह्वल्पनिलेपनकृतोपघातसद्धावाद्, विहारभूमौ वा सिद्धान्तालापकविकत्थनभयात्सेहाद्यसहिष्णुकलहसद्भावाच्च साधुस्ता तैः सह न प्रविशेनापि ततो निष्क्रामेदिति २॥ तथास भिक्षुर्दामाद्ग्रामो ग्रामान्तरमुपलक्षणार्थत्वान्नगरादिकमपि 'दइज्जमाणो'त्ति गच्छन्नेमिरन्यतीथिकादिभिः सह दोषसम्भवान्न गच्छेद , तथाहि--कायिक्यादिनिरोधे सत्यात्मविराधना, व्युत्सर्गे च प्रासुकाप्रासुकग्रहणादावुपघातसंयमविराधने भवता, एवं भोजनेऽपि दोपसम्भवो भावनीयः सेहादिविप्रतारणादिदोषश्चेति ३॥ साम्प्रतं तदानप्रतिषेधार्थमाह
से भिक्खू वा भिक्खणो वा जाव पविढे समाणे नो अन्नउत्थियरस वा गारत्थियस्स वा परिहारिओ वा अपरिहारियस्स असणं वा पाणं वा स्वाइमं वा साइमं वा दिज्जा
वा अणुपइज्जा वा ॥ सू०५॥ समिक्षुर्यावद्गृहपतिकुल प्रविष्टः सन्नुपलक्षणत्वादपाश्रयस्थो वा तेभ्योऽन्यतीर्थिकादिभ्यो दोषसम्भवादशनादिकं ४ न दद्यात स्वतो ताप्यनुप्रदापयेदपरेण गृहस्थादिनेति, तथाहि-तेभ्यो दीयमानं दृष्टा लोकोऽभिमन्यते--एते यैवंविधा
६४१.
Page #200
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीआचागङ्गवृत्तिः शीलाबा.)
श्रुतः २ चूलिका पिण्डै०१
उद्देशकः १
नामपि दक्षिणाः , अपि च-तदुपष्टम्भादसंयमप्रवर्तनादयो दोषा जायन्त इति ॥ पिण्डाधिकार एवानेषणीयविशेषप्रतिषेधमधिकृत्याह
से मिक्स्व वा जाव समाणे असणं वा ४ अस्सिपडियाए एगं साहम्मियं समुद्दिस्स पाणाई भूयाई जीवाई सत्ताइ समारब्भ समुद्दिस्स कीयं पामिच्चं अच्छिज्जं अणिसह अभिहडं आहट्ट चेएइ, तं तहप्पगारं असणं वा ४ पुरिसंतरकडं वा अपुरिसंतरकडं वा यहिया नोहडं वा अनीहडं वा अत्तट्टियं वा अणत्तहियं वा परिभुत्तं वा अपरिभुत्तं वा आसेवियं वा अणासेवियं वा अफासुयं जाव नो पडिग्गाहिज्जा १॥ एवं पहवे साहम्मिया एगं साहम्मिणिं बहवे साहम्मिणोओ समुद्दिस्स चत्तारि आला.
वगा भाणियव्वा २॥ सू०६॥ स-भिक्षर्यावद्गृहपतिकुल प्रविष्टः सन्नेवभूतमाहारजातं नो प्रतिगृह्णीयादिति सम्बन्धः, 'अस्संपडियाए'त्ति, न विद्यते स्वं-द्रव्यमस्य सोऽयमस्वो-निर्ग्रन्थ इत्यर्थः, तत्प्रतिज्ञया कश्चिद्गृहस्थः प्रकृतिमद्रक एक 'साधर्मिक' साधु 'समुद्दिश्य' अस्वोऽयमित्यभिसन्धाय 'प्राणिनो भूतानि जीवाः सत्त्वाच' एतेषां किश्चिद्भेदारेदः, तान् समारम्येत्यनेन मध्यग्रहणात्संरम्भसमारम्भारम्भा गृहीताः, एतेषां च स्वरूपमिदम-""संकप्पो संरंभो परियावकरो
१संकल्पा संरम्मः परितापको भवेत समारम्भः । आरम्म उपद्रवतः शुद्धनयानां च सर्वेषाम् ॥१॥
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
॥६४२॥
Page #201
--------------------------------------------------------------------------
________________
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
भवे समारम्भो। आरंभो उद्दवओ.सुखनयाणं तु सब्वेसिं॥१॥" इत्येवं समारम्भादि 'समुद्दिश्य' अधिकृत्याधाकर्मादि कुर्यादिति, अनेन सर्वाऽविशुद्धिकोटिगृहीता, तथा 'क्रीत' मृन्यगृहीतं 'पामिच्चं' उच्छिन्त्रक 'आच्छेद्य' परस्मार्बलादाच्छिन्नम् 'अणिसिह'ति 'अनिसृष्टं' तत्स्वामिनाऽनुत्सङ्कलितं चोल्लकादि 'अभ्याहृतं' गृदस्थेनानीतं, तदेवंभृतं क्रीताद्याहृत्य 'चेएइ'त्ति ददाति, अनेनापि समस्ता विशुद्धिकोटिग होता, 'तद्' आहारजातं चतुर्विधमपि 'तथाप्रकारम्' आधाकर्मादिदोषदुष्टं यो ददाति तस्मात्पुरुषादपरः पुरुषः पुरुषान्तरं तत्कृतं वा अपुरुषान्तरकृतं वा--तथा तेनैव दात्रा कृतं, तथा गृहान्निर्गतमनिर्गतं वा, तथा तेनैव दात्रा स्वीकृतमस्वीकृतं वा, तथा तेनैव दात्रा तस्माद्बहुपरिभुक्तमपरिभुक्तं वा, तथा स्तोकमास्वादितमनास्वादितं वा, तदेवमप्रासुकमनेषणीयं च मन्यमानो लाभे सति न प्रतिगृह्णीयादिति । । एतच्च प्रथमचरमतीर्थकृतोरकम्पनीयः मध्यमतीर्थकराणां चान्यस्य कृतमन्यस्य । कल्पत इति । एवं बहून् सावर्मिकान् समुद्दिश्य प्राग्वचर्चः । तथा साध्वीसूत्रमप्येकत्वबहुत्वाभ्यां योजनीयमिति २। पुनरपि प्रकारान्तरेणाविशुद्धिकोटिमधिकृत्याह
से भिक्ख वा जाव समाणे से जं पुण जाणिज्जा असणं वा ४ षहवे समणा माहणा अतिहि किवणवणोमए पगणिय २ समुद्दिस्स पाणाई' वा ४ समारम्भ जाव नो
पडिग्गाहिज्जा ॥ सू० ७॥ स भावमिक्षुर्यावद्गृहपतिकुलं प्रविष्टस्तद्यत्पुनरेवंभूतमशनादि जानीयात्, तद्यथा-पहून् श्रमणानुद्दिश्य, ते च
1६४३॥
Page #202
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीआचारावृत्तिः शीलाङ्का.)
चूलिका १ पिण्डै० १ उद्देशक
पञ्चविधाः-निग्रन्थशाक्यतापसगैरिकाजीविका इति, ब्राह्मणान् भोजनकालापस्थाय्यपूर्वो वाऽतिथिस्तानिति कृपणादरिद्रास्तान वणीमका-बन्दिप्रायास्तानपि श्रमणादीन् बहन् 'उद्दिश्य' प्रगणय्य प्रगणय्योदिशति, तद्यथा-द्वित्राः श्रमणाः पञ्चषाः ब्राह्मणा इत्यादिना प्रकारेण श्रमणादीन परिसङ्ख्यातानुद्दिश्य, तथा प्राण्यादीन् समारभ्य यदशनादि संस्कृतं तदासेवितमनासेवितं वाऽप्रासुकमनेषणीयमाधाकर्म, एवं मन्यमानो लाभे सति न प्रतिगृह्णीयादिति ॥ विशोधिकोटिमधिकृत्याह--
से भिक्खू वा भिक्खणी वा जाव पविढे समाणे से जं पुण जाणिज्जा-असणं वा ४ घहवे समणमाहण-अतिहि-किवणवणीमए समुहिस्स जाव चेएइ तं तहप्पगारं असणं वा ४ अपुरिसंतरकडं वा अवहियानीहडं अणत्तट्ठिय अपरिभुतं अणासेवियं अफासुयं अणेसणिज्जं जाव नो पडिग्गाहिज्जा । अह पुण एवं जाणिज्जा पुरिसंतरकडं पहियानीहडं अत्तडियं परिभुत्तं आसेवियं फासुयं एसणिज्जं जाव पडिग्गा
हिज्जा २॥ सू० ८॥ स मियत्पुनरशनादि जानीयात, किंभृतमिति दर्शयति-बहुन् श्रमणबाह्मणातिथिकृपणवणीमकान् समुद्दिश्य श्रमणाद्यर्थमिति यावत, प्राणादींश्च समारभ्य यावदाहृत्य कश्चिद् गृहस्थो ददाति, तत्तथाप्रकारमशनाद्यपुरुषान्तरकृतमबहिनिगतमनात्मीकृतमपरिभुक्तमनासेवितमप्रासुकमनेषणीयं मन्यमानो लाभ सति न प्रतिगृह्णीयात् १ ॥ इयं च "जावं.
॥६४४॥
Page #203
--------------------------------------------------------------------------
________________
तिया भिक्खु" चि, एतद्वयत्ययेन ग्राह्यमाह-अथशब्दः पूर्वापेक्षी पुनःशब्दो विशेषणार्थः, अथ समिक्षुः पुनरेवं जानीयात, तद्यथा--'पुरुषान्तरकृतम्' अन्यार्थ कृतं बहिर्निर्मतमात्मीकृतं परिभुक्तमासेवितं प्रासुकमेषणीयं च ज्ञात्वा लामे सति प्रतिगलीयात, इदमुक्त भवति-अविशोधि कोटियथा तथा न कल्पते, विशोधिकोटिस्तु पुरुषान्तरकृतात्मीयकृतादिविशिष्टा कन्पत इति २॥ विशुद्धिकोटिमधिकृत्याह--
से भिक्ख वा भिक्खुणी वा गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए पविसिउकामे से जार पुण कुलाई जाणिज्जा-इमेसु खल कुलेसु निइए पिंडे दिज्जा अग्गपिंडे दिज्जा नियए भाए विज्जड नियए अवड्डमाए दिज्जह, तहप्पगाराई कुलाई निइयाइ' निउमाणाईनो भत्ताए वा पाणाए वा पविसिज्ज वा निक्वमिज्ज वा १॥ एय खल तस्स भिक्खस्स भिक्रवणीए वा सामग्गियं जं सव्वहिं समिए सहिए सया
जए सिमि २॥ सू०९॥ पिण्डैषणाध्ययन आयोद्देशकः॥२-1-1-२॥ समिक्षविद्गृहपतिकुल प्रवेष्टुकामः से-तच्छन्दार्थे स च व.क्यार्थोपन्यासा:, यानि पुनरेवभूतानि कुलानि जानीयात , तद्यथा-इमेषु कुलेषु 'खल' वाक्यालङ्कारे नित्यं प्रतिदिनं 'पिण्ड' पोषो दीयते, तथा अग्रपिण्ड:शान्योदनादेः प्रथममुद्धृत्य मिक्षार्थ व्यवस्थाप्यते सोऽपिण्डो नित्यं भाग:-अर्धपोषो दीयते, तथा नित्यमुपार्द्धभाग:पोषचतुर्थभागः, तथाप्रकाराणि कुलानि 'नित्यानि' नित्यदान युक्तानि नित्यदानादेव 'निहउमाणाइ'न्ति नित्यम् ।
Page #204
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीआचागवृत्तिः भोलाङ्का.) ६४६
श्रुत. २. चूलिका-१ पिण्डै०१ उद्देशका
'उमाणं'ति प्रवेशः स्वपक्षपरपक्षयोर्येषु तानि तथा, इदमुक्तं भवति-नित्यलाभात्तेषु स्वपक्षः-संयतवर्गः परपक्षः-अपरभिक्षाचरवर्गः सर्वो भिक्षार्थं प्रविशेत , तानि च बहुभ्यो दातव्यमिति तथाभूतमेव पाकं कुयुः, तत्र च षट्कायवधा, अल्पे च पाके तदन्तरायः कृतः स्यादित्यतस्तानि नो भक्तार्थ पानार्थ वा प्रविशेनिष्क्रामेद्वेति १॥ सर्वोपसंहारार्थमाह__'एतदिति यदादेरारभ्योक्तं खलुशंब्दो वाक्यालङ्कारार्थः, एतत्तस्य भिक्षोः 'सामग्र्यं समग्रता यदुद्गमोत्पादनग्रहणैषणासंयोजनाप्रमाणेङ्गालधूमकारणैः सुपरिशुद्धस्य पिण्डस्योपादानं क्रियते तज्ज्ञानाचारसामग्र्यं दर्शनचारित्रतपोवीर्याचारसंपन्नता चेति, अथवैतत्पामग्र्यं सूत्रेणेव दर्शयति-यत् 'सर्वार्थः' सरसविरसादिभिराहारगतैः यदिवा रूपरसगन्धस्पर्शगतैः सम्यगितः समितः, संयत इत्यर्थः, पश्चभिर्वा समितिभिः समितः शुभेतरेषु रागद्वेषविरहित इतियावत , एवंभूतश्च सह हितेन वर्तत इति सहितः, सहितो वा ज्ञानदर्शनचारित्रैः एवंभूतश्च सदा 'यतेत' संयमयुक्तो भवेदित्युपदेशः, ब्रवीमीति जम्बूनामानं सुधर्मस्वामीदमाह-भगवतः सकाशाच्छ, त्वाऽहं ब्रवीमि, न तु स्वेच्छयेति । शेषं पूर्ववदिति २॥ पिण्डैषणाध्ययनस्य प्रथमोद्देशकः समाप्तः॥ श्रु० २ ० १ ० १ उ०१॥
Page #205
--------------------------------------------------------------------------
________________
- ॥ अथ प्रथम-पिण्डैषणाध्ययने द्वितीयोद्देशकः । उक्तः प्रथमोद्देशकः, साम्प्रतं द्वितीय आरभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरोद्देशके पिण्डः प्रतिपादितस्तदिहापि तद्गतामेव विशुद्धकोटिमधिकृत्याह
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गाहावइकुलं पिंड वायपडियाए अणुपविढे समाणे से जं पुण जणिजा--असणं वा ४ अहमिपोसहिएसु वा अडमासिएमु वा मासिएसु वा दोमासिएसु वा तेमासिएसु वा चाउभ्मासिएसु वा पंचमासिएसु वा छम्मासिएसु वा उऊसु वा उटसंधीसु वा उउपरियहेसु वा बहवे समणमाहणअतिहिकिवणवणीमगे एगाओ उक्खाओ परिएसिज्जमाणे पहाए दोहिं उक्खाहिं परिएसिज्जमाणे पहाए तिहिं उक्खाहिं परिएसिज्जमाणे पहाए कु'भीमुहाओ वा कलोवाहओ वा संनिहिसंनिचयाओ वा परिएसिज्जमाणे पेहाए तहप्पगार असणं वा ४ अपुरिसंतरकडं जाव . अणासेवियं अफासुयं जाव नो पडिग्गाहिज्जा १॥ अह पुण एवं जाणिज्जा पुरि
संतरकडं जाव आसेवियं फासुयं पडिग्गाहिज्जा २॥ सू० १०॥ स भावभिक्षुर्यत्पुनरशनादिकमाहारमेवंभूतं जानीयात् , तद्यथा-अष्टम्यां पौषधा-उपवासादिकोऽष्टमीपौषधः स विद्यते ।
६४७॥
Page #206
--------------------------------------------------------------------------
________________
बीजाचागावृत्तिः (धोलावा.)
श्रुत• १ चूलिका-३ | पिण्डै ! उद्देशका
.६४८॥
येषां तेऽष्टमीपौषधिका-उत्सवाः तथा मासिकादयश्च ऋतुसन्धिः--ऋतोः पर्यवसानम् ऋतुपरिवतः-ऋत्वन्तरम् , इत्यादिषु प्रकरणेषु बहून् श्रमणब्राह्मणातिथिकृपणवणीमगानेकस्मारिपठरका ग्रहीत्या कूरादिकं 'परिएसिज्जमाणे'त्ति तद्दीयमानाहारेण भोज्यमानान् 'प्रेक्ष्य' दृष्टा, एवं द्विकादिकादपि पिठरकाद् गृहीत्वेत्यायोजनीयमिति, पिठरक एव सङ्कटमुखः कुम्भी, 'कलोवाइओ वत्ति पिच्छी पिटकं वा तस्माद्वैकस्मादिति, सन्निधेः-गोरसादेः संनिचयस्तस्माद्वेति, 'तओ एवं विहं जावंतियं पिंडं समणादीणं परिएसिज्जमाणं पेहाए'त्ति,] एवंभूतं पिण्डं दीयमानं दृष्ट्वा अपुरुषान्तरकृतादिविशेषणमप्रासुकमनेषणीयमिति मन्यमानो लाभे सति न प्रतिगहीयादिति १॥ एतदेव सविशेषणं ग्राघमाह-अथ पुनः स भिक्षरेवंभूतं जानीयात्तत्तो गह्णीयादिति सम्बन्धा, तद्यथा--पुरुषान्तरकृतमित्यादि २॥ साम्प्रतं येषु कुलेषु भिक्षार्थ प्रवेष्टव्यं तान्यधिकृत्याह
से भिक्खू वा २ जाव समाणे से जाईपुण कुलाई जाणिज्जा, तंजहा-उग्गकुलाणि वा भोगकुलाणि वा राइनकुलाणि वा खत्तियकुलाणि वा इकखागकुलाणि वा हरिवंसकुलाणि वा एसियकुलाणि वा वेसियकलाणि वा गंडागकलाणि वा कोहागकलाणि वा गामरक्खकुलाणि वा बुक्कासकुलाणि(पोक्कसाइयकुलाणि) वा अन्नयरेसु वा तहप्प. गारेसु कुलेसु अदुगुछिएसु अगरहिएसु असणं वा ४ फासुयं जाव पडिग्गाहिज्जा ॥ सू. ११॥
॥
६
.
Page #207
--------------------------------------------------------------------------
________________
४९॥
समिक्षभिक्षार्थ प्रवेष्टुकामो यानि पुनरेवंभृतानि कुलानि जानीयात्तेषु प्रविशेदिति सम्बन्धः, तद्यथा--उग्रा--आरमिकाः, भोगा--राय: पूज्यस्थानीयाः, राजन्या:--सखिस्थानीयाः, क्षत्रिया-राष्ट्रकूटादयः, इच्वाकवः - ऋषमस्वामि-15 वंशिकाः, हरिवंशा:--हरिवंशजाः अरिष्टनेमिवंशस्थानीयाः, 'एसित्ति गोष्ठाः, वैश्या- वणिजः, गण्डको-नापितः, यो हि ग्राम उद्घोषयति, कोट्टागा:--काष्ठतक्षका वर्द्धकिन इत्यर्थः, बोकशालिया:--तन्तुवायाः, कियन्तो वा वक्ष्यन्ते इत्युपसंहरति--अन्यतरेषु वा तथाप्रकारेष्वजुगुप्सितेषु कुलेषु, नानादेशविनेयसुखप्रतिपत्त्यर्थं पर्यायान्तरेण दर्शयति--अगह्य षु, यदिवा जुगुप्सितानि चर्मकारकुलादीनि गाणि-दास्यादिकुलानि तद्विपर्ययभूतेषु कुलेषु लभ्यमानमाहारादिकं प्रासुकमेषणीयमिति मन्यमानो गृह्णीयादिति ॥ तथा
से भिक्ख वा २ जाव समाणे से जं पुण जाणिज्जा-असणं वा ४ समवाएसु वा पिंड नियरेसु वा इदमहेसु वा खंदमहेसु वा एवं रुद्दमहेसु वा मुगुदमहेसु वा भूयमहेसु वा जखमहेसु वा नागमहेसुवाथूभमहेसुवा चेइयमहेसु वा रुक्खमहेसुवा गिरिमहेसु वा दरिमहेसु वा अगडमहेसु वा तलागमहेसु वा दहमहेसु वा नइमहेसु वा सरमहेसु वा सागरमहेसु वा आगरमहेसु वा अन्नयरेसु वा तइप्पगारेसु विरूवरूवेषु महामहेसु वहमाणेसु बहवे समणमाहणअतिहिकिवणवणीमगे एगाओ उक्खाओ परिएसिज्जमाणे पेहाए दोहिं जाव संनिहिसंनिचयाओ वा परिएसिज्जमाणे पेहाए तहप्पगारं
६४९॥
Page #208
--------------------------------------------------------------------------
________________
| श्रुतस्कं०२
चूलिका १ पिण्डै०१ उद्देशकः २
असणं वा ४ अपुरिसंतरकडं जाव नो पडिग्गाहिज्जा १॥ अह पुण एवं जाणिज्जा श्रोत्राचा राजवृत्तिः
दिन्नं जं तेसिं दायवं, अह तत्थ भुजमाणे पेहाए गाहावहभारियं वा गाहावहभगिर्णि शीलावा.)
वा गाहावइपुत्तं वा धूयं वा सुण्हं वा धाइ वा दासं वा दासिं वा कम्मकरं वा कम्म
करिं वा से पुवामेव आलोइज्जा-आउसित्ति वा भगिणित्ति वा दाहिसि मे इत्तो । ६५०॥
अन्नयरं भोयणजायं, से सेवं वयंतस्स परो असणं वा ४ आहह दलइज्जा तहप्पगारं असणं वा ४ सयं वा पुण जाइज्जा परो वा से दिज्जा फासुयं जाव पडिग्गा
हिज्जा २॥ सू० १२ ॥ स भिक्षुर्यत्पुनरेवंभूतमाहारादिकं जानीयात्तदपुरुषान्तरकृतादिविशेषणमप्रासुकमनेषणीयमिति मन्यमानो नो गलीयादिति सम्बन्धः, तत्र समवायो-मेलकः शङ्खच्छेदश्रेण्यादेः पिण्डनिकर:-पितृपिण्डो मृतकभक्तमित्यर्थः, इन्द्रोत्सवःप्रतीतः स्कन्दः-स्वामिकार्तिकेयस्तस्य महिमा-पूजा विशिष्टे काले क्रियते, रुद्रादयः-प्रतीता: नवरं मुकुन्दो-पलदेवः, तदेवंभूतेषु नानाप्रकारेषु प्रकरणेषु सत्पु तेषु च यदि यः कश्चिच्छ्रमणब्राह्मणातिथिकपणवणीमगादिरापतति तस्मै सर्वस्मै
दीयत इति मन्यमानोऽपुरुषान्तरकृतादिविशेषणविशिष्टमाहारादिकं न गहीयात, अथापि सर्वस्मै न दीयते तथाऽपि ka जनाकीर्णमिति मन्यमान एवंभूते सङ्खडिविशेषे न प्रविशेदिति ॥ एतदेव सविशेषणं ग्राममाह
अथ पुनरेवंभूतमाहारादिकं जानीयात , तद्यथा-दत्तं यत्तेभ्यः श्रमणादिभ्यो दातव्यम्, 'अथ' अनन्तरं तत्र स्वत
|| ६५.॥
Page #209
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥६५॥
एव तान् गहस्थान भुञ्जानान् 'प्रेक्ष्य' दृष्ट्वाऽऽहाराों तत्र यायात् , तान् गृहस्थान् स्वनामग्राहमाह तद्यथा--गृहपतिमार्यादिकं भुञ्जानं पूर्वमेव 'आलोकयेत् पश्येत् प्रभु प्रभुसंदिष्टं वा ब्र यात , तद्यथा-आयुष्मति ! भगिनि ! इत्यादि, दास्यसि मह्यमन्यतरद्भोजनजातमिति, एवं वदते साधवे परो-गृहस्थ आहृत्याशनादिकं दद्यात, तत्र च जनसङ्कलवात्सति वाऽन्यस्मिन् कारणे स्वत एव साधुर्याचेत्, अयाचितो वा गहस्थो दद्यात् , तत्प्रासुकमेषणीयमिति मन्यमानो गृह्णीयादिति ॥ अन्यग्रामचिन्तामधिकृत्याह
से भिक्ख वा २ परं अजोयणमेराए संखहिं नच्चा संखडिपडियार नो अभिसंधारिज्जा गमणाए १॥ से भिक्ख वा २ पाईणं संखडिं नचा परीणं गच्छे अणाढायमाणे, पडीणं संखडि नच्चा पाईणं गच्छे अणाढायमाणे, दाहिणं संखडि नच्चा उदोणं गच्छे अणाढायमाणे, उईणं संखडि नच्चा दाहिणं गच्छे अणाढायमाणे, जत्थेव सा संखडि सिया, तंजहा-गामंसि वा नगरंसि वा खेडंसि वा कब्बडंसि वा मडंबंसि वा पट्टणंसि वा आगरंसि वा दोणमुहंसि वा नेगमंसि वा आसमंसि वा संनिवेसंसि वा जाव रायहाणिंसि वा संखडि संखडिपडियाए नो अभिसंधारिज्जा गमणाए २॥ केवलो बूया-आयाणमेयं आययणमेयं) संखडिं सखडिपडियाए अभिधारेमाणेआहाकम्मियं वा उद्देसियं वा मीसजायं वा कीयगडं वा पामिच्चं वा अच्छिज्जं वा
६५१.
Page #210
--------------------------------------------------------------------------
________________
गावृत्तिः
܀
܀܀
अणिसिह वा अभिहडं वा आहह दिल्जमाणं भुजिज्जा ३ ॥ भीआचा
श्रुतस्कं. २ स भिक्षः 'पर' प्रकणार्द्धयोजनमात्रे क्षेत्र संखण्डयन्ते-विराध्यन्ते प्राणिनो यत्र सा सङ्कडिस्ता ज्ञात्वा तत्प्रतिज्ञया
चूलिका० १ 'नाभिसंधारयेत्' न पर्यालोचयेत्तत्र गमनमिति, न तत्र गच्छेदितियावत् ॥ यदि पुनमेषु परिपाटथा पूर्वप्रवृत्तं गमनं श्रीलङ्का.)
पिण्डैष.. तत्र च सङ्खडिं परिज्ञाय यद्विधेयं तदर्शयितुमाह
उद्देशक स भिक्षुर्यदि 'प्राचीनां' पूर्वस्यां दिशि सङ्घडिं जानीयात्ततः 'प्रतीचीनम्' अपरदिग्भागं गच्छेत, अथ प्रतीचीनां जानीयात्ततः प्राचीनं गच्छेत , एवमुत्तरत्रापि व्यत्ययो योजनीयः, कथं गच्छेत १-'अनाद्रियमाणः सङ्कडिमनादरयन्नित्यर्थः, एतदुक्तं भवति-यत्रैवासौ सङ्खडिः स्यातत्र न गन्तव्यमिति, क चासौ स्यादिति दर्शयति, तद्यथा-पामे वा प्राचुर्येण ग्रामधर्मोपेतत्वात् , करादिगम्यो वा ग्रामः, नास्मिान् करोऽस्तीति नकर, धूलिप्राकारोपेतं खेटं, कट-कुनगर, सर्वतोऽर्द्धयोजनात्परेण स्थितग्राम मडम्बं पत्तनं-यस्य जलस्थलपथयोरन्यतरेण पर्याहारप्रवेशः, आकरा-ताम्रादेरुत्पत्तिस्थानं, द्रोणमुखं-यस्य जलस्थलपथावुभावपि, निगमा-वणिजस्तेषां स्थानं नैगमम् , आश्रमं यत्तीर्थस्थानं, राजधानी-यत्र राजा स्वयं तिष्ठति, सन्निवेशो यत्र प्रभूतानां भाण्डानां प्रवेश इति, तत्रैतेषु स्थानेषु सङ्खडिं ज्ञात्वा सङ्घडि
प्रतिज्ञया न गमनम् 'अभिसंधार येव' न पर्यालोचयेत् , किमिति !, यतः केवली ब्रयात् 'आदानमेतत्' कर्मोपादानहै मेतदिति, पाठान्तरं वा 'आययणमेयंति आयतनं-स्थानमेतदोषाणां यत्सङ्घडीगमनमिति, कथं दोषाणामायतनमिति am
॥६॥२॥ दर्शयति-'संखर्डि संखडिपडियाए'त्ति, या या सङ्खडिस्तां ताम् 'अभिसन्धारयतः' तत्प्रतिज्ञया गच्छतः साधोरवश्यमे
܀
܀
܀܀
܀
܀܀
܀
܀܀
Page #211
--------------------------------------------------------------------------
________________
तेषां मध्येऽन्यतमो दोषः स्यात्, तद्यथा-प्राधाकर्म वा औद्देशिक वा मिश्रजातं वा क्रांतकृतं वा उद्यतकं वा आच्छेद्यं । वा अनिसृष्टम (टं वाऽ) पाहृतमि (तं वेति,) एतेषां दोषाणामन्यतम दोषदुष्टं भुञ्जोत, म हि प्रकरण कतैवमभिसंधारयेत्-यथाऽयं यतिमत्प्रकरणमुद्दिश्येहायातः, तदस्य मया येन ६ नचित्प्रकारेण देयमित्यभिसन्धायाधाकर्मादि विदध्यादिति, यदिवा यो हि सोलुपतया सङ्खडिप्रतिज्ञया गच्छेत् स तत एवाधाकर्माद्यपि भुञ्जीते ति । किञ्च-म डिनिमितमागग्छतः साधूनुद्दिश्य गृहस्थ एवंभूता वसतीः कुर्यादित्याह
अस्संजए भिक्खुपडियाए खुड्डियदुवारियाओ महल्लियदुवारियाओ कुजा, महल्लियदुवारियाओ खुड्डियदुवारियाओ कुज्जा, समाओ सिज्जाओ विसमाओ कज्जा, विसमाओ सिज्जाओ समाओ कुज्जा, पवायाओ सिज्जाओ निवायाओ कुज्जा, निवायाओ सिज्जाओ पवायाओ कुज्जा, अंतो वा बहिं वा उवस्सयस्य हरियाणि छिदिय छिंदिय दालिय दालिय संथारगं संथारिज्जा, एस विलुगयामो सिज्जाए (एस खलु भगवया मोसज्जाए), तम्हा से संजए नियंठे तहप्पगारं पुरेसंखडिं वा पच्छासंखडि वा संखडिं संखडिपडियाए नो अभिसंधारिज्जा गमणाए ४। एयं खल तस्स भिक्खुस्स जाव
सया जर ५ । त्तिबेमि ॥ सू. १३ ॥ पिण्डैषणाध्ययने द्वितीयः ॥२-१-१-२॥ 'असंयतः' गृहस्थः स च श्रावकः प्रकृतिभद्रको वा स्यात् तत्रासौ साधुप्रतिज्ञया क्षद्रद्वारा:-सङ्कटद्वाराः सत्यस्ता
॥
५३॥
Page #212
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीआचारावृत्तिः शीलावा.)
श्रुतः३, चूलिका
उद्देशक
महाद्वाराः कुर्यात्, व्यत्ययं वा कार्यापेक्षया कुर्यात्, तथा समाः शय्या-वसतयो विषमाः सागारिकापातभयात् कुर्यात्, साधुसमाधानार्थ वा व्यत्ययं कुर्यात, तथा प्रवाताः शय्याः शीतभयान्निवाताः कुर्यात, ग्रीष्मकालापेक्षया वा व्यत्ययं विदध्यादिति तथाऽन्तः-मध्ये उपाश्रयस्य बहिर्वा हरितानि छिया छित्त्वा विदार्य विदार्य उपाश्रयं संस्कुर्यात, संस्तारकं वा संस्तारयेत्, गहस्थश्चानेनाभिसन्धानेन संस्कुर्याद्-यथैषा-साधुः शय्यायाः संस्कारे विधातव्ये 'विलुंगयामो' (एस खलु भगवया मीसज्जाए)त्ति निग्रन्थः अकिञ्चन इत्यतः स गृहस्थः कारणे संयतो वा स्वयमेव संस्कारयेदित्युपसंहरतितस्मात् 'तथाप्रकाराम्' अनेकदोषदुष्टां सङ्घडि विज्ञाय सा पुरःसङ्खडिः पश्चात्सङ्खडिर्वा भवेत्, जातनामकरणविवाहादिका पुरःसङ्खडिः तथा मृतकसङ्खडिः पश्चात्सङ्खडिरिति, यदिवा पुर:- अग्रतः सङ्खडिर्भविष्यति अतोऽनागतमेव यायात, वसतिं वा गृहस्थः संस्कुर्यात्, वृत्ता वा सङ्खडिरतोऽत्र तच्छेषोपभोगाय साधवः समागच्छेयुरिति, सर्वथा सो सङ्खडिं सङ्खडिप्रतिज्ञया 'नोऽभिसंधारयेत्' न पर्यालोचयेद्गमनक्रियामिति, एवं तस्य मिक्षोः सामग्र्यं-सम्पूर्णता मिक्षमावस्य यत्सर्वथा सङ्खडिवर्जनमिति ॥ प्रथमस्य द्वितीयः समाप्तः ॥ २-१-१-२॥
.. ॥ अथ प्रथमपिण्डैषणाध्ययने तृतीयोःशकः ॥ ___ उक्तो द्वितीयः, साम्प्रतं तृतीय आरभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तगेद्देशके दोषसंभवात्सङ्खडिगमनं निषिद्ध, प्रकारान्तरेणापि तद्गतानेव दोषानाह- .
॥५४॥
Page #213
--------------------------------------------------------------------------
________________
० ६५५ ।।
****
से एगइओ अनयरं संखडि आसित्ता पिषित्ता हडिज्ज वा वमिज वा भुत्ते वा से नो सम्मं परिणमिज्जा अन्नयरे वा से दुक्खे रोगायंके समुप्पज्जिज्जा केवली बूया आयाणमेयं ॥ सू० १४ ॥ इह खलु भिक्खू गाहावईहिं वा गाहावईणीहिं वा परिधायएहिं वा परिवाईयाहिं वा एगज्जं सद्धिं सुडं पाउ भो वइमिस्स हुरत्था वा उवस्सयं पडिलेहेमाणो नो लभिजा तमेव उवस्सयं संमिस्सीभावमावज्जिज्जा, अन्नमणे वा से मत्तं विप्परियासियभूए इत्थिविग्गहे वा किलीये वा तं भिक्खु उवसंकमित्त बूया - आउसंतो समणा ! अहे आरामंसि वा अहे उवस्सयंसि वा राओ वा वियाले वा गामधम्मनियंतियं कहु रहस्सियं मेहुणधम्मपरियारणाप आउट्टामो, तं चेवेगईओ सातिज्जिज्जा - अकरणीज्जं चेयं संखाए एए आयाणा (आयतणाणि) संति संविज्ज(माणा पच्चवाया भवंति, तम्हा से संजए नियंठे तहप्पगारं पुरेसंखडिं वा पच्छासंखडिं वा संखडि संखपिडियाए नो अभिसंधारिजा गमणाए । सू० १५ ॥
स भिक्षुः 'एकदा ' कदाचिद् एकचरो वा 'अन्यतरां' काश्चित्पुरःसङ्घडिं पश्चात्सङ्घडि वा 'सङ्घडि ' मिति सङ्घडि - भक्तम् 'आस्वाद्य' शुक्ला तथा पीत्वा शिखरिणीदुग्धादि, तच्चातिलोलुपतया रसगृद्धयाऽऽहारितं सत् 'छड्डु ज्ज वा' छर्दि विदध्यात् कदाचिचा परिणतं सद्विशुचिकां कुर्यात्, अन्यतरो वा रोगः- कुष्ठ। दकः आतङ्कस्त्वा शुजीवितापहारी
।। ६५५ ।।
Page #214
--------------------------------------------------------------------------
________________
बीधाचा
त्तिः भालावा.
चूलिका.१ पिण्डै०१ उदेशका ३
शूलादिकः समुत्पद्येत, केवली-मर्वज्ञो व यात्, यथा 'एतत' संखडीमवतम् 'आदान' कर्मोपादानं वर्तत इति । यथैनदादानं भवति तथा दर्शयति–'इहेति सङ्खडिस्थानेऽस्मिन् वा भवेऽमी अप याः आप्नुमिकास्तु दुर्गतिगमनादयः, खलु| शब्दो वाक्यालङ्कारे, मिक्षणशीलो भिक्षुः स गृहपतिभिस्तद्भार्याभिर्वा परिवाजकैः परिवाजिकाभिर्वा सार्द्ध मेकद्यम्-एकवाक्यतया संप्रधार्य 'भा' इत्यान्त्रणे एतानामन्य चैतदर्शयति-संखडिगतस्य लोलुपतया सर्व संभाव्यत इत्यतस्तैद्यतिमिश्रं 'सोंड'ति सीधुमन्यद्वा प्रसन्न दिकं पातु पीत्वा ततः 'हुरवत्था वा बहिर्वा निर्गत्योगश्रयं याचेत, यदा च प्रत्युपेशमाणो विवक्षितमुपाश्रयं न लमेत ततस्तमेवोपाश्रयं यत्रासो संखडिस्तवान्यत्र वा गृहस्थपरिवाजिकादिमिर्मिश्रीभावमापद्येत, तत्र चासावन्यमना मत्तो गृहस्थादिको विपर्यासीभूत आत्मानं न स्मरति, स वा भिक्षुगत्मानं न स्मरेत् , अस्मरणाच्चैवं चिन्तयेद्-यथाऽहं गृहस्थ एक, यदिवा-स्त्रीविग्रहे शरीरे 'विपर्यासीभूतः' अभ्युपपन्नः 'क्लीवे वा नसके वा, सा च स्त्री नपुंसको वा, तं भिक्षम् 'उपसक्रम्य' आसन्नीभ्य ब्र यात्, तद्यथा-आयुष्मनु ! श्रमण ! त्वया सहकान्तमहं प्रार्थयामि, तद्यथा-आरामे वोपाश्रये वा कालतश्च रात्रौ वा विकाले वा, तं मिक्षं ग्रामध:-विषयोपमोगगतैापारैनियन्त्रितं कृत्वा, तद्यथा-मम त्वया विप्रियं न विधेयं, प्रत्यहमहमनुसरणीयेति एवमादिभिर्नियम्य ग्रामासन्ने वा कुत्रचिद्रहसि मिथुनं-दाम्पत्यं तत्र भवं मैथुनम्-अब्रह्मति तस्य धर्माः-तद्गता व्यापारास्तेषां परियारणा-आसे. वना तया 'माउद्दामो'त्ति प्रव महे, इदमुक्तं भवति-साधुमुद्दिश्य रहसि मैथुनप्रार्थना काचित्कुर्याद, तां चैकः कश्चिदेकाकी वा 'साइज्जेज्ज'त्ति अभ्युपगच्छेद, अकरणीयमेतद् एवं 'सङ्घयाय' ज्ञात्वा संखड़िगमनं न कुर्याद्, यस्मादे
Page #215
--------------------------------------------------------------------------
________________
तानि 'आयतनानि' कर्मोपादानकारणानि 'सन्ति' भवन्ति 'संघीयमानानि' प्रतिक्षणमुपचीयमानानि इदमुक्तं भवति-अन्यान्यपि कर्मोपादानकारणानि भवेयुः, यत एवमादिकाः प्रत्यपाया भवन्ति तस्मादसौ संयतो निर्ग्रन्थस्तथाप्रकारां संखडिं पुरःसंखडिं पश्चात्संखडिं वा संखडिं ज्ञात्वा संखडिप्रतिज्ञया 'नाभिसंधारयेद् गमनाय' गन्तुन पर्यालोचयेदित्यर्थः । तथा
से भिक्खू वा २ अनयरिं संखडि सुच्चा निसम्म संपहावइ उस्सुयभूएण अप्पाणणं, धुवा संखडी, नो संचाएइ तत्थ इयरेयरेहिं कुलेहिं सामुदाणियं एसियं वेसियं पिंडवायं पडिग्गाहित्ता आहारं आहारित्तए, माइहाणं संफासे, नो एवं करिजा ॥ से तत्थ कालेण अणपविसित्ता तस्थियरेयरेहिं कुलेहिं सामुदाणियं एसियं वेसियं पिंडवार्य
पडिगाहित्ता आहारं आहारिज्जा २ ॥ सू० १६॥ स भिक्षान्यतरां पुरःसंखडिं पश्चात्संखडि वा श्रुत्वाऽन्यतः स्वतो वा 'निशम्य' निश्चित्य कुतश्चिद्धेतोस्ततस्तदमिमुखं संप्रधावत्यु सुकभूतेनात्मना-यथा ममात्र भविष्यत्यद्भतभूतं भोज्यं, यतस्तत्र 'ध्रवा' निश्चिता संखडिरस्ति, 'नो संचापति न शक्नोति 'तत्र' संखडिग्रामे इतरेतरेभ्यः कुलेभ्यः संखडिरहितेभ्य: 'सामुयाणियंति मैक्षं, किम्भूतम :'एषणीयम' आधाकर्मादिदोषरहितं 'वेसियंति केवलरजोहरणादिवेषालम्धमुत्पादनादिदोषरहितम्, एवंभूतं पिण्डपातम| आहारं परिगृह्याभ्यवहत्तुं न शक्नोतीति सम्बन्धः, तत्र चासौ म तृस्थानं संस्पृशेत, तस्य मातृस्थानं संभाव्येत, कथं :
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
Page #216
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रुतस्कं०२ चूलिका १ पिण्ड १ उद्देषक ३
यद्यपीतरकुलाहारप्रतिज्ञया गतो, न चासौ तमभ्यवर्तमलं पूर्वोक्शया नीत्या, ततोऽसौ संखडिमेव गच्छेत् . एवं च मातृपोप्राचा राजवृत्तिः
स्थानं तस्य संभाव्येत, तस्मान्नैवं कुर्याद्-ऐहिकामुष्मिकापायभयात संखडिग्रामगमनं न विदध्यादिति ॥ यथा च कुर्याशीलाका.)
तथाऽऽह–'सः' भिक्षुः 'तत्र' संखडिनिवेशे कालेनानुप्रविश्य तत्रेतरेतरेभ्यो गृहेभ्यः उग्रकलादिभ्यः 'सामुदानिक'
8 समुदान-मिक्षा तत्र भवं सामुदानिकम् 'एषणीयं' प्रासुकं 'वैषिक' केवलवेषावाप्तं धात्रीपिण्डादिरहितं पिण्डपातं ॥ ६५८॥
प्रतिगृह्याहारमाहारयेदिति ।। पुनपि संखडिविशेषमधिकृत्याह
से भिक्खू वा २ से जे पुण जाणिज्जा गाम वा जाव रायहाणिं वा इमसि खल गामंसि वा जाव रायहाणिसि वा संखडी सिया तंपि य गाम वा जाव रायहाणिं वा संखडिं संखडिपडियाए नो अभिसंधारिजा गमणाए ? ॥ केवली बूया आयाणमेयं आइना. ऽवमा णं संखडिं अणुपविस्समाणस्स-पाएण वा पाए अवकंतपुव्वे भवइ, हत्थेण वा हत्थे संचालियपुव्वे भवेइ, पाएण वा पाए आवडियपुग्वे भवइ, सीसेण वा सीसे संघट्टियपुवे भवह, कारण वा काए संखोभियपुव्वे भवद, दंडेण वा अट्ठीण वा मुट्ठीण वा लेलुणा वा कवालेण वा अभिहयपुव्वेण वा भवइ, सीओदएण वा उस्सित्तपुब्वे भवइ, रयसा वा परिघासियपुव्वे भवद, अणेसणिज्जे वा परिभुत्त वे वह, अ सिं वा दिजमाणे पडिग्गाहियपुरे भवड, तम्हा से संजए नियठे तहप्पगारं आइनावमा णं
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
॥ ६५०
Page #217
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ ६५६ ॥
संखडिं संखडिपडियाए नो अभिसंधारिज्जा गमणाए २ ॥ सू० १७ ॥
समिक्षुर्यदि पुनरेवंभूतं ग्रामादिकं जानीयात्, तद्यथा- ग्रामे वा नगरे वा यावद्राजधान्यां वा संखडिभविष्यति, तत्र च चरकादयोऽपरे वा मिक्षाचराः स्युग्तस्तदपि ग्रामादिकं संखडिप्रतिज्ञया 'नाभिसन्धारयेद्गमनाथ' न तंत्र गमनं कुर्या - दित्यर्थः ॥ तद्गतांश्च दोषान् सूत्रेणैवाह - केवली . याद् यथैतदादानं - कर्मोपादानं वत्तत इति दर्शयति-सा च संखडि: आकीर्णा वा भवेत् - चरकादिभिः संकुला 'अवमः 'हीना शतस्योपस्कृते पञ्चशतोपस्थानादिति, तां चाकीर्णामवमां चानुप्रविशतोऽपी दोषाः, तद्यथा - पादेनापरस्य पाद आक्रान्तो भवेत् हस्तेन वा हस्तः संचालितो भवेत्, 'पात्रेण वा' भाजनेन वा 'पानं भाजनमापतितपूर्वं भवेत्, शिरसा वा शिरः सङ्घट्टितं भवेत्, कायेना परस्य -- चरकादेः कायः संचोभितपूर्वो भवेदिति, स च चरकादिरारुषितः कलहं कुर्यात्, कुपितेन च तेन दण्डेनास्थ्ना वा मुष्टिना वा लोष्ठेन वा कपालेन वा साधुभिहतपूर्वो भवेत्, तथा शीतोदकेन वा कश्चित्सिञ्चेत्, रजसा वा परिधर्षितो भवेत् । एते तावत्सङ्कीर्णदोषाः, अवमदोषाश्रामी--अनेपणीयपरिभोगो भवेत् स्तोकस्य संस्कृतत्वात्प्रभूतत्वाच्चार्थिनां, प्रकरणकारस्यायमाशयः स्याद्यथा मत्प्रकरणमुद्दिश्यैते समायातास्तत एतेभ्यो मया यथाकथश्चिद्देयमित्यभिसन्धि नाऽऽघाकर्माद्यपि कुर्याद्, अतोऽनेषणीय परिभोगः स्यादिति, कदाचिद्वा दात्राऽन्यस्मै दातुमभिवाञ्छितं तच्चान्यस्मै दीयमानमन्तराले साधुगृह्णीयात्, तस्मादेतान् दोषानभिसंप्रधार्य संयतो निर्ग्रन्थस्तथाप्रकारामाकीर्णामवमां सङ्घडिं विज्ञाय सङ्घडिप्रतिज्ञया नाभिसंधारयेद् गमनायेति ॥ साम्प्रतं सामान्येन पिण्डशङ्कामधिकृत्याह
॥ ६५६ ॥
Page #218
--------------------------------------------------------------------------
________________
भोआचागनवृत्तिः
भीलाबा.)
चूलिका.. पिण्डैष. १ उद्देशक
से भिक्खू वा २ जाव समाणे से जं पुण जाणिज्जा असणं वा ४ एसणिज्जे सिया . अणेसणिज्जे सिया वितिगिछसमावन्नेण अप्पाणेण असमाहडाए लेसाए तहप्पगारं
असणं वा ४ लाभे संते नो पडिगाहिज्जा ॥ सू०१८॥ स भिक्षाहपतिकुलं प्रविष्टः सन् यत्पुनराहारजातमेषणीयमप्येवं शङ्केत, तद्यथा-विचिकित्सा-जुगुपण वाऽनेषणीयाशङ्का तया समापन्नः- शङ्कागहीत आत्मा यस्य स तथा तेन शङ्कासमापन्नेनात्मना 'असमाहडाए' अशुद्धया लेश्यया--उद्गमादिदोषदुष्टमिदमित्येवं चित्तविप्लुत्याऽशुद्धा लेश्या--अन्तःकरणरूपोपजायते तया सत्या 'तथाप्रकारम्' अनेषणीयं शङ्कादोषदुष्ट माहारादिकं सति लामे "जं संकेतं समावज्जे" इति वचनान प्रतिगहीयादिति ॥ साम्प्रतं गच्छनिर्गतानधिकृत्य सूत्रमाह
से भिक्खू वा २ गाहावइकुलं पविसिउकामे सव्वं भंडगमायाए गाहावाकुलं पिंडवायडियाए पविसिज्ज वा निक्खमिज्ज घा१॥ से भिक्खू वा २ बहिया विहारभूमि वा वियारभूमि वा निक्खममाणे वा पविसमाणे वा सव्वं भंडगमायाए बहिया विहारभूमि वा वियारभूमि वा निक्वमिज्ज वा पविसिज वा २॥ से भिक्ख पा २ गामाणुगाम
दूइज्जमाणे सव्वं भंडगमायाए गामाणगामं दूइज्जिज्जा ३॥ सू. १९॥ स भिक्षुर्गच्छनिर्गतो जिनकल्पिकादिर्गृहपतिकुलं प्रवेष्टुकामः 'सर्व' निरवशेष 'भण्डक' धर्मोपकरणम् 'आदाय'
Page #219
--------------------------------------------------------------------------
________________
।। ६६१ ॥
***
܀܀܀܀
गृहीत्वा गृहपतिकुलं पिण्डपातप्रतिज्ञया: प्रविशेद्वा ततो निष्क्रामेद्वा । तस्य चोपकरणमनेकधेति, तद्यथा - "दुग निग चक्क पंचग नव दस एक्कारसेव बारसहे "त्यादि । तत्र जिनकल्पिको द्विविध:- छिद्रपाणिरच्छिद्रपाणिश्च तत्राच्छिद्रपाणेः शक्त्यनुरूपाभिग्रहविशेषाद् द्विविधमुपकरणं, तद्यथा-रजोहरणं मुखखिका च, कस्यचित्वकत्राणार्थं क्षौमपटपरिग्रहात्त्रिविधम् अपरस्योद कविन्दु परितापादिरक्षणार्थमौर्णिकपट परिग्रहाच्चतुर्द्धा तथाऽसहिष्णुतरस्य द्वितीयक्षौमपटपरिग्रहात्पञ्चधेति । छिद्रपाणेस्तु जिनकम्पिकस्य सप्तविधपात्र नियोगसमन्वितस्य रजोहरणमुखवत्रिकादिग्रहणक्रमेण यथायोगं नवविधो दशविध एकादशविधो द्वादशविधश्चोपधिर्भवति, पात्रनिर्योगश्च - " " पत्तं ? पत्ताबंधी २ पायडवणं ३ च पायकेसरिया ४ । पडलाइ ५ रत्ताणं ६ च गाच्छओ ७ पायनिज्जोगो ।। १ ।। " अन्यत्रापि गच्छता सर्वमुपकरणं गृहीत्वा गन्तव्यमित्याह--स भिक्षुग्रमादेवहिर्विहारभूमिं वा स्वाध्यायभूमिं वा तथा 'विचारभूमि' विष्ठोत्सर्गभूमिं सर्वमुपकरणमादाय प्रविशेनिष्क्रामेद्वा एतद्वितीयं, एवं ग्रामान्तरेऽपि तृतीयं सूत्रम् ॥ साम्प्रतं गमनाभावे निमित्तमाह
सेभिक्खु वा २ अह पुण एवं जाणिज्जा - तिब्वदेसियं वासं वासेमाणं पेहाए तिव्वदेसियं महियं संनिचयमाणं पेहाए महवाएण वा रयं समुद्धयं पेहाए तिरिच्छपाइमा वा तसा पाणा संथडा संनिचयमाणा पेहाए से एवं नच्चा नो सव्वं भंडगमायाए गाहा१ पात्रं पत्रवधः पात्रस्थापनं च पात्र केशरिका। पटलानि रजखाणं च गोच्छुकः पात्रनिर्योगः ॥ १ ॥
॥ ६६१.
Page #220
--------------------------------------------------------------------------
________________
भीआचा-- राजवृत्तिः 'चीलावा.)
चूलिका पिण्डै०१ उद्देशन
.६१२॥
वइकुलं पिंडवायपडियाए पविसिज वा निक्खमिज वा पहिया विहारभूमि वा विया.
रभूमि वा निक्खमिज वा पविसिज्ज वा गामाणगामं दृइन्जिना ।। सू०२०॥ __स भिक्षुरथ पुनरेवं विजानीयात् , तद्यथा--तीव्र--बृहद्वारोपेतं देशिकं--बृहत्क्षेत्रव्यापि तीव्र'च तद्देशिकं चेति समासः, बृहद्वारं महति क्षेत्रे वर्षन्तं प्रेक्ष्य, तथा तीव्रदेशिका-महति देशेऽन्धकारोपेतां 'महिकां वा' धूमिका संनिपतन्तीं 'प्रेक्ष्य' उपलभ्य, तथा महावातेन वा समुद्भुतं रजः प्रेक्ष्य तिरश्चीनं वा संनिपततो--गच्छतः 'प्राणिनः' पतङ्गादीन् 'संस्कृ(स्तृ)तान्' घनान् प्रेक्ष्य स भिक्षुरेवं ज्ञात्वा गृहपतिकुलादौ सूत्रत्रयोद्दिष्टं सर्वमादाय न गच्छेनापि निष्क्रामेद्वेति, इदमुक्तं भवति-सामाचार्ये वैसा यथा गच्छता साधुना गच्छनिर्गतेन तदन्तर्गतेन वा उपयोगो दातव्यः, तत्र यदि वर्षमहिकादिकं जानीयात्ततो जिनकल्पिको न गच्छत्येव, यतस्तस्य शक्तिरेषा यया षण्मासं यावत्पुरीपोत्सर्गनिषे(गे), विदध्यात्, इतरस्तु सति कारणे यदि गच्छेत् न सर्वमुपकरणं गृहीत्वा गच्छेदिनि तात्पर्यार्थः ॥ अधस्ताज्जु. गुप्सितेषु दोषदर्शनात्प्रवेशप्रतिषेध उक्तः, साम्प्रतमजुगुप्सितेष्वपि केषुचिद्दोषदर्शनात्प्रवेशप्रतिषेधं दर्शयितुमाह
से भिक्खू वा २ से जाइं पुण कुलाइजाणिजातंजहा-खत्तियाण वा राईण वा कुरा. ईण वा रायपेसियाण वा रायवंसडियाण वा अंतो वा बाहिं वा गच्छंताण वा संनिविहाण वा निमंतेमाणाण वा अनिमंतेमाणाण वा असणं वा४लाभे संते नो पडिगाहिज्जा ॥ सू० २१ ।। पिण्डैषणायां तृतीय उद्देशकः ।। २-१-१-३ ॥
Page #221
--------------------------------------------------------------------------
________________
.१६३॥
स भिक्षुर्यानि पुनरेवंभूतानि कुलानि जानीयात् , तद्यथा--क्षत्रियाः -चक्रवत्तिवासुदेवबलदेवप्रभृतयस्तेषां कुलानि, राजानः क्षत्रियेभ्योऽन्ये, कुराजानः--प्रत्यन्तराजानः, राजप्रेष्याः--दण्डपाशिकप्रभृतयः, राजवंशे स्थिता- राज्ञो मातुलभागिनेयादयः, एतेषां कुल्लेषु संपातभयान प्रवेष्टव्य, तेषां च गृहान्तर्बहिर्वा स्थिताना 'गच्छता' पथि वहतां संनिविटानाम्' आवासितानां निमन्त्रयतामनिमन्त्रयतां वाऽशनादि सति लाभे न गृह्णीयादिति ॥ प्रथमस्याध्ययनस्य तृतीय उद्देशकः समाप्तः ॥२-१-१-३॥
॥ अथ प्रथमपिण्डैषणाध्ययने चतुर्थोद्देशकः ।। उक्तः तृतीयोद्देशकः, साम्प्रतं चतुर्थ आरभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरोदेशके सङ्खडिगतो विधिरभिहितस्तदिहापि तच्छेपविधेः प्रतिपादनार्थमाह
से भिक्ख वा २ जाव समाणे से जं पुण जाणेजा मंसाइयं वा मच्छाइयं वा मंसखलं वा मच्छखलं वा आहेणं वा पहेणं वा हिंगोलं वा संमेलं वा होरमाणं पेहाए अंतरा से मग्गा बहुपाणा बहुषीया बहुहरिया बहुओसा बहुउदया बहुउत्तिंगपणगदगमट्टीयमकडासंताणया बहवे तत्थ समणमाहणअतिहिकिवणवणीमगा उवागया उवागमिस्संति ( उवागच्छंति) तत्थाइन्ना वित्ती नो पन्नस्स निक्खमणपवेसाए नो पन्नस्स वायणपुच्छ
॥६॥३॥
Page #222
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रन
२
भीत्राचा
प्रवृत्तिः भालावा.)
पिण्डै १ उद्देशका
॥६६४॥
गपरियट्टणाणप्पेहधम्माणओगचिंताए, से एवं नच्चा तहप्पगारं पुरेसंखडि वा पच्छासंखडिं वा संखडिं संखडिपडिआए नो अभिसंधारिज्जा गमणाए ॥ से भिक्खू वा २ से जं पुण जाणिज्जा मंसाइयं वा मच्छाइयं वा जाव हीरमाणं वा पेहाए अंतरा से मग्गा अप्पा पाणा जाव संताणगा नो जत्थ बहवे रूमण २ जाव उवागमिस्संति अप्पाइन्ना वित्ती पन्नस्स निक्वमणपवेसाए पन्नस्स वायणपुच्छणपरियट्टणाणप्पेहधम्माणुओगचिंताए, सेवं नच्चा तहप्पगारं पुरेसबडि वा पच्छासंखडिं वा संखडि
संखडिपडिआए अभिसंधारिज गमणाए २॥ सू०२२ ।। स भिक्षुः क्वचिद्ग्रामादौ भिक्षार्थ प्रविष्टः सन् यद्येवंभूता सङ्घडि जानीयात् तत्प्रतिज्ञया नामिसंधारयेद् गमनायेत्यन्ते क्रिया, यादृगभूता च सङ्खडिं न गन्तव्यं तां दर्शयति-मांसमादौ प्रधानं यस्यां सा मांसादिका तामिति, इदमुक्तं भवति-मांसनिवृत्ति कतु कामाः पूर्णायां वा निवृत्ती मांसप्रचुर्ग सङ्खडिं कुयुः, तत्र कश्चित्स्वजनादिस्तदनुरूपमेव किश्चिन्नयेत् , तच्च नीयमानं दृष्वा न तत्र गन्तव्यं, तत्र दोषान् वक्ष्यतीति, तथा मत्स्या आदौ प्रधानं यस्यां सा तथा, एवं मांसखलमिति, यत्र सङ्खडिनिमित्तं मांस छित्त्वा छित्त्वा शोष्यते शुष्कं मां पुञ्जीकृतमास्ते तत्तथा, क्रिया पूर्ववत , एवं मत्स्यखलमपीति, तथा 'आहेणं'ति द्विवाहोत्तरकालं वधूप्रवेशे वरगृहे भोजनं क्रियते, 'पहेणं'ति वध्वा नीयमानाया यत्पितगृहभोजनमिति, हिंगोलं'ति मृतकमक्तं यक्षादियात्राभोजनं वा, 'संमेलं'ति परिजनसन्मानभक्तं गोष्ठी
॥६६४.
Page #223
--------------------------------------------------------------------------
________________
भक्तं वा, तदेवंभृतां सङ्कडि ज्ञात्वा तत्र च केनचित्स्वं जनादिना तन्निमित्तमेव किश्चिद् 'ह्रियमाणं' नीयमानं प्रेक्ष्य तत्र भिक्षार्थ न गच्छेद्, यतस्तत्र गच्छतो गतस्य च दोषाः संभवन्ति, तांश्च दर्शयति-गच्छतस्तावदन्तरा-अन्तराले 'तस्य' मिक्षोः 'मार्गाः पन्थानो बहवः प्राणा:-प्राणिन:-पतङ्गादयो येषु ते तथा, तथा बहुचीजा बहुहरिता बह्ववराया बहृदका बहूतिङ्गपनकोदकमृत्तिकामकटसन्तानकाः, प्राप्तस्य च तत्र सङ्खडिस्थाने बहवः श्रमणब्राह्मणातिथिकृपणवणीमगा उपागता उपागमिष्यन्ति तथोपागच्छन्ति च, तत्राकीर्णा चरकादिभिः 'वृत्तिः' वर्त्तनम् अतो न तत्र प्राज्ञस्य निष्क्रमणप्रवेशाय वृत्तिः कल्पते, नापि प्राज्ञस्थ वाचनाप्रच्छनापरिवर्तनाऽनुप्रेक्षाधर्मानुयोगचिन्तायै वृत्तिः कल्पते, न तत्र जनाकीर्णे गीतवादित्रसम्भवात् स्वाध्यायादिक्रियाः प्रवन्त इति भावः, समिक्षरेवं गच्छगतापेक्षया बहुदोषां तथाप्रकारां मांसप्रधानादिकां पुरःसङ्खडि पश्चात्सङ्खडि वा ज्ञात्वा तत्प्रतिज्ञया नाभिसन्धारयेद्गमनायेति १॥ साम्प्रतमपवादमाह -स भिरध्यानक्षीणो ग्लानोत्थितस्तपश्चरणकर्षितो वाऽवमौदर्य वा प्रेक्ष्य दुर्लभद्रव्यार्थी वा स यदि पुनरेवं जानीयात्-मांसादिकमित्यादि पूर्ववदालापका यावदन्तरा-अन्तराले 'से' तस्य भिक्षोर्गच्छतो मार्गा अल्पप्राणा अन्पषीजा अल्पहरिता इत्यादि व्यत्ययेन पूर्ववदालापकाः, तदेवमन्पदोषां सङ्खडिं ज्ञात्वा मांसादिदोषषरिहरणसमर्थः सति कारणे तत्प्रतिज्ञयाऽभिसंधारयेद्गमनायेति २॥ पिण्डाधिकारेऽनुवर्तमाने भिक्षागोचरविशेषमधिकृत्याह
से भिक्ख वा २ जाव पविसिउकामे से जं पुण जाणिज्जा खोरिणियाओ गावीओ खोरिजमाणोओ पेहाए असणं वा ४ उवसंखडिज्जमाणं पेहाए पुरा, अप्पजूहिए सेवं
Page #224
--------------------------------------------------------------------------
________________
बीआचागावृत्तिः क्षिीलावा.) .६६६ ॥
श्रुतस्कं.२ चूलिका०१ पिण्डैष.. उद्देशक
बच्चा नो गाहावइकुलं पिंजवायपडियाए निक्खमिज्ज वा पविसिज्ज वा १ ॥ से तमादाय एर्गतम्वक्कम्ज्जि अणावयमसंलोए चिहिज्जा, अह पुण एवं जाणिज्जास्वीरिणियाओ गावाओ खीरियाओ पहाए असणं वा ४ उपक्वडियं पेहाए पुराए जूहिए
सेवं नचाओ संजयामेव गाहावाकुलं पिंडवायपडियाए निक्ख मिज्ज वा २, २॥सू.२३॥ स भिक्षुगृहपतिकुलं प्रवेष्टुकामः सनथ पुनरेवं विजानीयाद्, यथा क्षीरिण्यो गावोऽत्र दुह्यन्ते, ताश्च दुह्यमानाः प्रेक्ष्य तथाऽशनादिकं चतुर्विधमप्याहारमुपसंस्क्रियमाणं प्रेक्ष्य तथा अप्पजूहिए'त्ति सिद्धेऽप्योदनादिके 'पुरा' पूर्वमन्येषामदत्ते सति प्रवर्तमानाधिकरणापेक्षी पूर्वत्र च प्रकृतिभद्रकादिः कश्चिद्यतिं दृष्ट्वा श्रद्धावान् बहुतरं दुग्धं ददामीति वत्सकपीडां कुर्यात् सेयु; दुह्यमाना गावस्तत्र संयमात्मविराधना, अर्द्धपक्कौदने च पाकाथ त्वरयाऽधिकं यत्नं कुर्यात ततः संयमविराधनेति, तदेवं ज्ञात्वा स भिक्षाहपतिकुलं पिण्डपातप्रतिज्ञया न प्रविशेनापि निष्क्रामेदिति ॥ यच्च कुर्यात्तद्दयितुमाह___ 'स' भिक्षः 'तम्' अर्थ गोदोहनादिकम् 'आदाय' गृहीत्वाऽवगम्येत्यर्थः, तत एकान्तमपक्रामेद् , अपक्रम्य च गृहस्थानामनापातेऽसलोके च तिष्ठेत् , तत्र तिष्ठनथ पुनरेवं जानीयाद् यथा क्षीरिण्यो गावो दुग्धा इत्यादि पूर्वव्यत्ययेनालापका नेया यावनिष्क्रामे प्रविशेद्वेति ॥ पिण्डाधिकार एवेदमाह
मिक्खागा नामेगे एवमाहंसु-समाणा वा वसमाणा वा गामाणुगामं दूइज्जमाणे
Page #225
--------------------------------------------------------------------------
________________
खडाए स्वल भयं गामे संनिरुडाए नो महालए से हंता भयंतारो बाहिरगाणि गामाणि भिक्खायरियाए वयह, संति तत्थेगइयस्स भिक्खुस्स पुरेसंथुया वा पच्छासंथुया वा परिवसंति, तंजहा-गाहावई वा गाहावइणीओ वा गाहावइपुत्ता वा गाहावइधुयाओ वा गाहावईसुण्हाओ वा धाइओ वा दासा वा दासीओ वा कम्मकरा वा कम्मकरीओ वा, तहप्पगाराई' कुलाई पुरेसंथुयाणि वा पच्छासंथु. याणि वा पुवामेव मिक्खायरियाए अणुपविसिस्सामि । अविय इत्थ लभिस्सामि पिंडं वा लोयं वा खीरं वा दहिं वा नवणीयं वा घयं वा गुल्लं वा तिल्ल या मई वा मज्जं वा मसं वा सक्कुलिं वा फाणियं वा पूर्व वा सिहिरिणिं वा, तं पुच्वामेव भुच्चा पिञ्चा पडिग्गहं च संलिहिय संमजिय तओ पच्छा भिक्खुहिं सडि गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए पविसिस्सामि वा निक्वमिस्सामि वा, माइहाणं संफासे, तं नो एवं करिजा २ ॥ से तत्थ भिक्खूहि सद्धिं कालेण अणुपविसित्ता तत्थियरेयरेहिं कुलेहि सामुदाणियं एसियं वेसियं पिंडयायं पडिगाहित्ता आहारं आहारिजा३ । एयं खल तस्स भिक्खुस्स वा मिक्खुणीए वा सामग्गियं जं सव्वढेहिं समिए महिए सयाजए तिमि ४॥ सू० २४॥ पिण्डषणायां चतुर्थ उद्देशकः॥२-१-१-४।।।
Page #226
--------------------------------------------------------------------------
________________
धोनाचा गावृत्तिः शीलावा.)
अतरक०२ चूलिका १ पिण्ड. १ उद्देशक
५.६६८॥
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
भिक्षणशीला भिक्षुका नामके साधव चवमुक्तवन्तः, किम्भूताम्ते इत्याह- :' इति जवाबलपरिक्षणतपैकस्मिन्नेव क्षेत्रे तिष्ठन्तः, तथा वसमाना:' मासकल्पविहारिणः, त एवंभृताः प्राघूर्णकान् समायातान ग्रामानुग्राम द्यमानान्-गच्छत एवमृचुः-यथा क्षलकोऽयं ग्रामोऽम्पगृहभिक्षादो बा, तथा संनिरुद्धः- सूतकादिना, नो महानिति पुनर्वचनमादरख्यापनार्थम् , अतिशयेन कृतक. इत्यर्थः, ततो हन्त ! इत्यामन्त्रणं, यूयं भवन्तः-ज्या बहिामेषु भिक्षाचर्यार्थ व्रजते त्येचं कुर्यात् , यदिवा तत्रैकस्य वास्तव्यस्य भिक्षोः 'पुर संस्तुना 'भ्रातृव्यादयः 'पश्चात्संस्तुता:' श्वशुरकुलम्बद्धवाः परिवमन्नि, नान् स्वनामग्राहमाह, तद्यथा-गृहपतिर्वेत्यादि सुगम यात्तथाप्रकाराणि कुलानि पुरःपश्चात् - संस्तुतानि पू मेव भिक्षाकालादह नेषु भिक्षार्थं प्रवेक्ष्यामि, अपि चैतेषु स्वजनादिकुलेपभिप्रेत लाभं लप्स्ये, तदेव दर्शयति-पिण्डं' शाल्योदनादिकं 'लार म्' इतीन्द्रियानुकूलं साधुपेत मुच्यते, तथा क्षीरं वेत्यादि सुगमं यावत्सिहरिणीं वेति, नबरं मद्यमांसे छेदसूत्राभिप्रायेण व्याख्येये, अथवा कश्चिदतिप्रमादायष्टोऽन्यन्तगृनुतया मधुमद्यमांसान्यप्याश्रयेदतस्तदुपादानं, 'फाणिय'ति उदकेन द्रवीकृतो गुडः क्वथितोऽक्वथितो वा शिखरिणी मार्जिता, तल्लब्धं पूर्वमेव भुक्त्वा पेयं च पीत्वा पतद्ग्रह संलिह्य निग्वया कृत्वा संमृज्य च बबादिनाऽऽर्द्रतामानीय ततः पश्चादुपागते भिक्षाकालेऽविकृतवदनः प्रापूर्णकभिक्षुभिः साई गृहपतिकुल पिण्डपातप्रतिज्ञया प्रवेक्ष्यामि निष्क्रमिष्यामि चेत्यभिसन्धिना मातृस्थान संस्पृशेदपावित्याः प्रतिपध्यते-नै कुर्यादिति ॥ कथं च कुर्यादित्याह
'स:' भिक्षु तत्र' ग्रामादौ प्राघूर्ण कभिक्षुभिः सार्द्ध 'कालेन भिक्षावसरेण प्राप्तेन गृहपतिकुलमनुप्रविश्य तत्र 'इत
॥६६८
Page #227
--------------------------------------------------------------------------
________________
● ६६६ ।।
रेतरेभ्यः' उच्चावचेभ्यः कुलेभ्यः 'सामुदानिकं' भिक्षापिण्डम् 'एषणीयम्' उद्गमादिदोषरहितं 'वैषिक' केवलपावाप्तं धात्रीदूतनिमित्तादिपिण्डदोषरहितं 'पिण्डपातं' भैक्षं प्रतिगृह्य प्राघूर्णकादिभिः सह ग्रासैषणादिदोषरहितमाहारमाहारयेद्, एतत्तस्य भिक्षोः 'सामग्र्यं' संपूर्णो भिक्षुभाव इति ॥ प्रथमस्य चतुर्थः समाप्तः ॥ २-१-१-४ ॥
॥ अथ प्रथमपिण्डेषणाध्ययने पञ्चम उद्देशकः ॥
उक्तश्चतुर्थोद्देशकः, अधुना पश्चमः समारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः - इहानन्तरोद्देश के पिण्डग्रहणविधिरभिहितः, अत्रापि स एवाभिधीयत इत्याह
सेभिक्षा २ जाव विट्ठे समाणे से जं पुण जाणिजा - अग्गपिंडं उक्तिप्पमाणं पेहाए अग्गपिंड निक्खिप्पमाणं पेहाए अग्गपिंडं हीरमाणं पेहाए अग्गपिंडं परिभाइज्जमाणं पेहाए अग्गपिंडं परिभुञ्जमाणं पेहाए अग्गपिंडं परिहविज्जमाणं पेहाए पुरा असिणाइ वा अवहाराइ वा पुरा जत्थपणे समणमाहणअतिहिकिवणवणीमगा ख २ उवसंकमंति से हंता अहमवि खडं २ उवसंकमामि, माइट्ठाणं संफासे, नो एवं करेज्जा ॥ सु० २५ ॥
भिक्षुगृहपतिकुलं प्रविष्टः सन् यत्पुनरेवं जानीयात्तद्यथा - अग्रपिण्डो - निष्पन्नस्य शान्योदनादेराहारस्य देवताद्यर्थं
********
॥ ६६६ ॥
Page #228
--------------------------------------------------------------------------
________________
भीमाचागङ्गवृत्तिः शालाङ्का.)
h ६७० ॥
स्तोकस्तोकोद्धारस्तमुत्क्षिप्यमाणं दृष्ट्रा तथाऽन्यत्र निक्षिप्यमाणं, तथा 'हियमाणं' नीयमानं देवतायतनादौ, तथा 'परिभज्यमानं' विभज्यमानं स्तोक स्तोकमन्येभ्यो दीयमानं, तथा परिभुज्यमानं तथा परित्यज्यमानं देवायतनाच्चतुर्दिक्षु क्षिप्यमाण, तथा 'पुरा असिणाइ व'त्ति - 'पुरा' पूर्वमन्ये श्रमणादयो येसुमग्रपिण्डमशितवन्तः तथा पूर्वमपहृतवन्तो व्यवस्थथाऽव्यवस्थया वा गृहीतवन्तः तदभिप्रायेण पुनरपि पूर्वमिव वयमत्र लप्स्यामह इति यत्रापिण्डादौ श्रमणादयः 'खद्धं खर्द्ध'ति' त्वरितं स्वरितमुपसंक्रामन्ति स भिक्षरेतदपेक्ष्य कश्विदेवं 'कुर्याद' आलोचयेद्, यथा 'हन्त' इति वाक्योपन्यासार्थः अहमपि त्वरितमुपसंक्रमामि एवं च कुर्वन् भिक्षुर्मावस्थानं संस्पृशेदित्यतो नैवं कुर्या दिति । साम्प्रतं भिक्षाटन विधिप्रदर्शनार्थमाह
से भिक्खू वा २ जाव समाणे अंतरा से वप्पाणि वा फलिहाणि वा पांगाराणि वा तोरणाणि वा अग्गलाणि वा अग्गलपासगाणि वा सति परक्कमे संजघामेव परिक्कमिजा नो उज्जयं गच्छा १ । केवली बूया आयाणमेयं, से तत्थ परक्कममाणे पयलिज वा पक्खलेज वा पवज्जि वो, से तत्थ पयलमाणे वा पक्खलेज्जमाणे वा पवडमाणे वा तत्थ से का उच्चारेण वा पासवणेण वा खेलेण वा सिंघाणेण वा वतेण वा पित्ते वा पूरण वा सुक्केण वा सोणिएण वा उवलित्ते सिया, तहपगारं कार्यं नो भनंतरहियाए पुढवीए नो ससिणिडाए पुढवीए नो ससरक्खाए पुढवीए नो चित्तमंताए सिलाए नो
श्रुत• २ चूलिका १ fque ? उद्देशकः ५
॥ ६७० ॥
Page #229
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ ६७१ ।।
चित्तमंताए लेलूए कोलावासंसि वा दारुए जीवपइट्टिए सअंडे सपाणे जाव ससंताणए नो आमजिज्ज वा पमजिज्ज वा संलिहिज्ज वा निलिहिज्ज वा उब्वलेख वा उव्वहिज्ज वा आयो वा पयाविज वा २ । से पुव्वामेव अप्पससरक्खं तणं वा पत्तं वा कई वा सक्करं वा जाइज्जा, जाइत्ता से तमायाय एगंनमवक्कमिजा २ अहे झामथंडिलंसि वा जाव अन्नयरंसि वा तहप्पगारंसि पडिलेहिय पडिलेहिय पमज्जिय पमज्जिय तओ संजयामेव आमज्जिज्ज वा जाव पयाविज्ज वा ३ ॥ सू० २६ ।।
स भिक्षुर्भिक्षार्थं गृहपतिकुलं-पाटकं रथ्यां ग्रामादिकं वा प्रविष्टः सन् मार्ग प्रत्युपेक्षैत, तत्र यदि 'अन्तरा' अन्तराले 'से' तस्य भिक्षोर्गच्छत एतानि स्युः, तद्यथा - 'वमा: ' समुन्नता भूभागा ग्रामान्तरे वा केदाराः, तथा परिखा वा प्राकारा वा गृहस्य पत्तनस्य वा, तथा तोरणानि वा, तथाऽर्गला वाडर्गलपाशका वा यत्रार्गलाऽग्राणि निक्षिपन्ते, एतानि चन्तिराले ज्ञात्वा प्रक्रम्यतेऽनेनेति प्रक्रमो मार्गस्तस्मिन्नन्यस्मिन् सति संयत एव तेन 'पराक्रमेत' गच्छेत् नैवजुनप्र गच्छेत्, किमिति १, यतः 'केवली' सर्वज्ञो ब्रूयाद् 'आदानं' कर्मादानमेतत् संयमात्मविराधनातः, तामेव दर्शयति'स' भिक्षुः 'तत्र' तस्मिन् वप्रादियुक्ते मार्गे 'पराक्रममाणः गच्छन् विषमत्वान्मार्गस्थ कदाचित् ' प्रचलेत्' कम्पेत् प्रखलेद्वा तथा प्रपतेद्वा स तत्र प्रस्खलन प्रपतन् वा षण्णां कायानामन्यतमं विराधयेत्, तथा तत्र 'से' तस्य काय उच्चारेण वा प्रस्रवणेन वा श्लेष्मणा वा सिङ्घानकेन वा वान्तेन वा पित्तेन वा पूतेन वा शुक्रेण वा शोणितेन वा उप
॥ ६७१ ॥
Page #230
--------------------------------------------------------------------------
________________
पीआचागावृत्तिः शीलावा.)
श्रुतस्कं. २ चूलिका० १ पिण्डैष.. उद्देशकः ५
.६७२ ॥
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
लिप्तः स्यादित्यत एवं भृतेन पंथा न गन्तव्यम् , अथ मार्गान्तरामावाचेनैव गतः प्रस्खलितः सन् कर्दमाद्यपलिप्तकायो नैवं कुर्यादिति दर्शयति-स यतिस्तथाप्रकारम्-अशुचिकर्दमाधुपालप्तं कायमन तर्हितया-अव्यवहितया पृथिव्या तथा 'सस्निग्धया' आर्द्रया एवं साजस्कया वा, तथा 'चित्तवत्या' सचित्तया शिलया, तथा चित्तवता 'लेलना' पृथिवीशकलेन वा, एवं कोलाघुणास्तदावासभृते दारुणि जीवप्रतिष्ठिते साण्डे सपाणिनि यावन्ससन्तान के 'नो' नैव सकृदामृज्यानापि पुनः पुनः प्रज्यात् , कर्दमादि शोधयेदित्यर्थः, तथा तत्रस्थ एव 'न संलिहेजा' न संलिखेत् , नोद्वर्त्तनादिनोद्वलेत , नापि तदेवेपच्छुक मुद्वयेत् , नापि तत्रस्थ एव सकृदातापयेत् . पुनः पुनर्वा प्रतापयेत् , यत्कुर्यात्तदाहस भिक्षुः 'पूर्वमेव' तदनन्त मेवान्परजस्कं तृणादि याचेत, तेन चैकान्तस्थण्डिले स्थितः सन् गात्रं 'प्रमृज्यात' शोधयेत् , शेषं सुगममिति ॥ किञ्च
से भिक्ख वा २ से जं पुण जाणिज्जा गोणं वियाल पडिपहे पेहाए महिसं वियालं पडिपहे पेहाए, एवं मणस्सं आसं हत्थि सीहं वग्धं विगं दीवियं अच्छं तरच्छ परिसरं सियालं विरालं सुणयं कोलसुणयं कोकंतियं चित्ताचिल्लत्यं वियालं पचिपहे पेहाए सइ परक्कमे संजयामेव परक्कमेजा, नो उज्जुयं गच्छिजा १ से भिक्ण्व वा २ जाव समाणे अंतरा से उवाओ वा खाणए वा कंटए वा धसी वा भिलगा वा विसमे वा विज्जले वा परियावज्जिाजा, सह परक्कमे संजयामेव, नो उज्जुयं गच्छिज्जा २॥ सू०२७॥
Page #231
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ ६७३ ॥
स भिक्षुर्भितार्थ प्रविष्टः सन् पथ्युपयोगं कुर्यात्, तत्र च यदि पुनरेवं जानीयाद् यथाऽत्र किञ्चिद्गवादिकमस्ति इति तन्मार्ग रुन्धानं 'गा' बलीवर्द "व्याल' दृप्तं दुष्टमित्यर्थः पन्थानं प्रति प्रतिपथस्तस्मिन् स्थितं प्रत्युपेच्य शेषं सुगमं, यावत्सति पराक्रमे - मार्गान्तरे ऋजुना पथाऽऽत्मविराधनासम्भवान्न गच्छेत्, नवर 'विगं'ति वृकं दोपिनं' चित्रकम् 'अच्छं'ति ऋक्षं 'परिसर' न्ति सरभं 'कोलसुणयं' महासूकरं 'कोकंतियन्ति शृगालाकृतिर्लोमटको रात्रौ को को इत्येवं रारटीति, ‘चित्ताचिल्लड यं' ति आरण्यो जीवविशेषस्तमिति १ ॥ तथा-स भिक्षुर्भिक्षार्थं प्रविष्टः सन् मार्गोपयोगं दद्यात्, तत्रान्तराले यद्येतत्पर्यापद्येत - स्यात्, तद्यथा - 'अवपातः' गर्त्तः स्थाणुर्वा कण्टको वा घसी नाम-स्थलादधस्तादवतरणं 'भिलुग'त्ति स्फुटितकृष्ण भूराजिः विषमं निम्नोगतं विज्जलं - कर्दमः तत्रात्मसंयमविराधनासम्भवात् 'पराक्रमे' मार्गान्तरे सति ऋजुना पथा न गच्छेदिति ॥ तथा
भिक्खू वा २ जावगाहावइकुलस्स दुवारबाहं कंटगबु दियाए परिपिहियं पेहाए तेसिं पुव्वामेव उग्गहं अणणुन्नविय अपडिलेहिय अप्पमजिय नो अवंगुणिज वा पविसिज्ज वा मिक्खमिज़ वा, तेसिं पुष्वामेव उग्गहं अणुन्नविय पडिलेहिय पडिलेहिय पमजिय पमज्जिय तओ संजयामेव अवंगुणिज्ज वा पविसेज वा निक्खमेज्ज वा ॥ सू. २८ ॥ स भिक्षुर्भिक्षार्थं प्रविष्टः सन् गृहपतिकुलस्य 'दुवारबाहं'ति द्वारभागस्तं कण्टकशाखया 'पिहितं' स्थगित प्रेश्य येषां तद्गृहं तेषामवग्रहं पूर्वमेव 'अननुज्ञाप्य' अयाचित्वा तथा अप्रत्युपेच्य चक्षुषाऽप्रमृज्य च रजोहरणादिना
।। ६७३ ।।
Page #232
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीआचारावृत्तिः शीलाङ्का.) .६७४ ॥
चूलिका पिण्डे० १ उद्देशकः ५
'नोऽवंगुणेन्ज'त्ति नैवोद्घाटयेद्, उद्घाटथ चन प्रविशेनापि निष्कामत, दोषदर्शनात , तथाहि-गृहपतिः प्रद्वेष गच्छेद् , नष्टे च वस्तुनि साधुविषया शङ्कोत्पद्यत, उद्घाटद्वारे चान्यत् पश्वादि प्रविशेदित्येवं च संयमात्मविगधनेति । सति कारणेऽपवादमाह-स भिक्षुर्येषां तद्गृहं तेषां सम्बन्धिनमवग्रहम् 'अनुज्ञाप्य' याचित्वा प्रत्युपेक्ष्य प्रमृज्य च गृहोद्घाटनादि कुर्यादिति, एतदुक्तं भवति-स्वतो द्वारमुद्घाटय न प्रवेष्टव्य मेव, यदि पुनर्लानाचार्यादिप्रायोग्यं तत्र लभ्यते वैद्यो वा तत्रास्ते दुर्लभं वा द्रव्यं तत्र भविष्यति अवमौदर्ये वा सत्येभिः कारोरुपस्थितैः स्थगितद्वारि व्यवस्थितः सन् शब्दं कुर्यात , स्वयं वा यथाविध्युद्घाटय प्रवेष्टव्यमिति ॥ तत्र प्रविष्टस्य विधि दर्शयितुमाह
से भिक्खू वा २ जाव से जं पुण जाणिज्जा समणं वा माहणं वा गामपिंडोलगं वा अतिहिं वा पुव्वपविढे पहाए नो तेसिं संलोए सपडिदुवारे चिहिज्जा, (केवली बूयाआयाणमेयं पुरा पेहाए तस्सहाए परी असणं वा ४ आहट्ट दलइज्जा, अह भिक्खूणं पुवोवइट्ठा एस पइन्ना एस उवएसो जं नो तेसिं संलोए सपडिदुवारे चिट्ठज्जा) से तमायाय एगंतमवक्कमिज्जा २ अणावायमसंलोए चिहिज्जा १ से से परो अणावायमसलोए चिट्ठमाणस्स असणं वा ४ आहटु दलइज्जा, से य एवं वइज्जा-भाउसंतो समणा ! इमे भे असणे वा ४ सव्वजणाए निसट्टे तं भुजह वा णं परिभाएह वा णं, तं चेगइओ पडिगाहित्ता तुसिणीओ उवेहिज्जा, अवियाईएयं मममेव सिया, माइहाणं
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
॥६७४॥
Page #233
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ ६७५ ।।
*******
फासे, नो एवं करिज्जा २ । से तमायाए तत्थ गच्छिज्जा २ से पुव्वामेव आलोइज्जाआउसंतो समणा ! इमे भे असणे वा ४ सव्वजणाए निसिडे तं भुजहवा णं जाव परिभारह वा णं, सेणमेव वयंत परो वइज्जा आउसंती समणा ! तुमं चेव णं परिभाएहि, से तत्थ परिभाएमाणे नो अप्पणो खड २ डायं २ ऊस २ रसियं २ मणुनं २ निड २ लुक्खं २, से तत्थ अमुच्छिए अगिड) अग (ना)ढिए अणज्झोववन्ने बहुसममेव परिभाइज्जा ३ । से णं परिभाएमाणं परो वइज्जा आउसंतो समणा ! मा णं तुमं परिभाएहि सव्वे वेगइआ ठिया उ भुक्खामो वा पाहामो वा ४ से तत्थ भुजमाणे नो अप्पणा खड खड' जाव लुक्खं, से तत्थ अमुच्छिए ४ बहुसममेव भुजिज्जा वा पाइज्जा वा ५ । ॥ सू० २९ ॥
भिक्षुग्रमादौ भिक्षार्थं प्रविष्टो यदि पुनरेवं विजानीयाद् यथाऽत्र गृहे श्रमणादिः कश्चित्प्रविष्टः, तं च पूर्वप्रविष्टं प्रेक्ष्य दातृ प्रतिग्रह का समाधानान्तरायभयान्न तदालोके तिष्ठेत् नापि तन्निर्गमद्वारं प्रति दातृप्रतिग्राहकासमाधानान्तरायभयात्, किन्तु स भिक्षुस्तं श्रमणादिकं भिक्षार्थमुपस्थितम् 'आदाय' अवगम्यैकान्तमपाक्रामेत्, अपक्रम्य चान्येषां चानापाते - विजनेऽसंलोके च संतिष्ठेत्, तत्र च तिष्ठतः स गृहस्थः 'से' तस्य भिक्षोश्रतुर्विधमप्याहारमाहृत्य दद्यात्, प्रयच्छंश्चेतन याद्-यथा यूयं बहवो भिक्षार्थमुपस्थिता अहं च व्याकुलत्वामाहारं विभाजयितुमलमतो हे आयुष्मन्तः !
॥ ६७५ ।।
Page #234
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीआचागङ्गवृतिः शीलाङ्का.) ।। ६७६ ॥
******
************
*******
श्रमणाः ! अयमाहारचतुर्विधोऽपि 'भे' युष्मभ्यं सर्वजनार्थं मया निसृष्टो - दत्तस्तत्साम्प्रतं स्वरुच्या तमाहारमेकत्र वा भुध्वं परिभजध्वं वा विभज्य वा गृहोतेत्यर्थः, तदेवंविध आहार उत्सर्गतो न ग्राह्यः, दुर्भिक्षे वऽध्वाननिर्गतादौ वा द्वितीयपदे कारणे सतगृह्णीयाद्, गृहीत्वा च नैवं कुर्याद् यथा तमाहारं गृहीत्वा तूष्णीको गच्छन्नेवमुत्प्रेक्षेत - यथा ममैवायमेकस्य दत्तोऽपि चायमल्पत्वान्ममेवैकस्य स्याद्, एवं च मातृस्थानं संस्पृशेद्, अतो नैवं कुर्यादिति, यथा च कुर्यात्तथा च दर्शयति स भिन्तमाहारं गृहीत्वा तत्र श्रमणाद्यन्तिके गच्छेद्, गत्वा च सः 'पूर्वमेव' आदावेव तेषामाहारम् 'आलोकयेत्' दर्शयेत् इदं च ब्रूयाद्-यया मो आयुष्मन्तः श्रमणादयः ! अयमशनादिक अहागे सर्वार्थविभक्त एव गृहस्थेन निसृष्टो- दत्तस्तद्ययमेकत्र भुवं विभजध्वं वा 'से' अथैनं साधुमेवं ब्रुवाणं कश्चिच्छ्रमणादिरेवं ब्रूयाद् यथा भो आयुष्मन् ! भ्रमण ! त्वमेवास्माकं परिभाजय, नैवं तावत्कुर्यात्, अथ सति कारणे कुर्यात् तदाऽनेन विधिनेति दर्शयति-स भिक्षुर्वि भाजयनात्मनः 'स्वयं २' प्रचुरं २ 'डाग' 'ति शाकम् 'ऊसढं 'ति तं वर्णादिगुणोपेतं शेषं सुगमं यावदूत्रमिति न गृह्णीयादिति । अपि च- 'सः' भिक्षुः 'तत्र' आहारेऽमृर्छितोSasareas पप इति एतान्यादरख्यापनार्थमेकार्थिकान्युपात्तानि कथश्चिद्भेदाद्वा व्याख्यातव्यानीति, 'बहुसम' मिति सर्वमत्र समं किश्चित्सिकथादिना यद्यधिकं भवेदिति, तदेवं प्रभृतसमं परिभाजयेत् तं च साधु परिभाजयन्त कश्विदेवं वाद्, यथा आयुष्मन् ! श्रमण ! मा स्वं परिभाजय, किन्तु सर्व एव चैकत्र व्यवस्थिता वयं भोच्यामहे. 'पास्यामो वा, तत्र परतीर्थिकैः सार्द्धं न भोक्तव्यं, स्वयूथ्यैश्व पार्श्वस्थादिभिः सह सम्मोगिकैः सहौघालोचनां दत्त्वा
श्रतरकं० २ चूलिका १ पिण्ड ० उद्देशक ५
।। ६७६ ॥
Page #235
--------------------------------------------------------------------------
________________
६७७॥
भुञ्जानानामयं विधिः, तद्यथा-नो आत्मन इत्यादि, सुगममिति ॥ इहानन्तासूत्रे बहिरालोकस्थान निषिद्धं, साम्प्रतं तत्प्रवेशप्रतिषेधार्थमाह
से भिक्ख वा २ जाव से जं पुण जाणिज्जा समणं वा माहणं वा गामपिंडोलगं वा . अतिहिं वा पुरवपविट्ठ पेहाए नो ते उवाइकम्म पविसिज्ज वा ओभासिज्ज वा, से तमायाय एगंतमवकमिजा २ अणावायमसंलोए चिहिजा अह पुणेवं जाणिजा-पडिसेहिए वा दिने वा, तओ तंमि नियत्तिए संजयामेव पविसिज वा ओभासिन्ज वा एयं खल तस्स भिक्खुस्स वा भिक्खुणीए वा सामग्गिय जाप जएवासि तिमि ॥ सू०३०॥
पिण्डषणा पश्चम उद्देशकः ॥२-१-१-५॥ स भिक्षभिक्षार्थ ग्रामादौ प्रविष्टः सन् यदा पुनरेवं विजानीयात् , तद्यथा-अत्र गृहपतिकुले श्रमणादिका प्रविष्टः, तंच पवप्रविष्टं श्रमणादिक प्रेक्ष्य ततो न तान् श्रमणादीन् पूर्वप्रविष्टानतिक्रम्य प्रविशेत् , नापि तत्स्थ एव 'अवभाषेत' दातारं याचेत् , अपि च-स तम् 'आदाय' अवगम्यै कान्तमपक्राभेद् अनापातासंलोके च तिष्ठेत् तावद्यापञ्छमणादिके प्रतिसिद्ध पिण्डे या तस्मै दत्ते, ततस्तस्मिन् । हानिर्गते सति तत: संयत एवं प्रविशेदवभाषेत वेति, एवं च तस्य भिक्षोः 'सामग्र्यं' सम्पूर्णो भिक्षुभाव इति । प्रथमस्य पश्चमोद्देशकः समाप्तः ॥ २-१-१-५॥
" -:*:
॥६७७॥
Page #236
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रोत्राचा रावृत्तिः शीलाका.) ॥६७८॥
श्रुतस्कं०२ चूलिका १ पिण्डै.. उद्देशका ६
॥ अथ प्रथमपिण्डैषणाध्ययने षष्ठ उद्देशकः ॥ पञ्चमोद्दे शकानन्तरं षष्ठ समारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरोद्देशके श्रमणाधन्तरायभयाद्गृहप्रवेशो निषिद्धः, तदिहाप्यपरप्राण्यन्तगयप्रतिषेधार्थमाह
से भिक्ख वा २ जाव से जं पुण जाणिजा-रसेसिणो बहवे पाणा घासेसणाए संथडे संनिवइए पेहाए, तंजहा-कुक्कुडजाइयं वा सूयरजाइयं वा अग्गपिंडंसि वा वायसा
संथडा संनिवडया पेहाए सह परक्कमे संजया नो उज्जुयं गच्छिज्जा ॥ सू०३१॥ स भिक्षुर्भिक्षार्थ प्रविष्टः सन् यदि पुनरेवं विजानीयात् , तद्यथा-बहवः 'प्राणा:' प्राणिनः रस्पते-आस्माद्यत इति रसस्तमेष्टुं शीलमेषां ते रसैषिणः, रसान्वेषिण इत्यर्थः, ते तदथिनः सन्तः पश्चाद् ग्रासार्थ क्वचिद्रथ्यादौ संनिपतितास्ताथाहारार्थ संस्कृ(स्तृ)तान्-घनान् संनिपतितान् प्रेक्ष्य ततस्तदभिमुखं न गच्छेदिति सम्बन्ध , तांश्च प्राणिनः स्वनामग्राहमाह-कुक्कुटजातिकं वेत्यनेन च पक्षिजातिरुद्दिष्टा, सूकरजातिकमित्यनेन च चतुष्पदजातिरिति, 'अग्रपिण्डे वा' काकपिण्डयां वा बहिः क्षिप्तायां वायसा: संनिपतिता भवेयुः, तांश्च दृष्वाऽग्रतः, ततः सति पराक्रमे-अन्यस्मिन् मार्गान्तरे 'संयतः सम्यगुपयुक्तः संयतामान्त्रणं वा ऋजुस्तदभिमुखं न गच्छेद्, यतस्तत्र गच्छनोऽन्तरायं भवति, तेषां चान्यत्र संनिपतिताना वधोऽपि स्यादिति ॥ साम्प्रतं गृहपतिकुलं प्रविष्टस्य साधोविधिमाह
||६७८॥
Page #237
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥६७४
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
से भिक्खू वा २ जाव नो गाहावइकुलस्स वा वारसाहं अवलंपिय २ चिहिज्जा, नो गाहावइकुलस्स वा दगच्छ हुणमत्तए चिहिज्जा, नो गाहावह कुलस्स चंदणिउयए चिट्ठिज्जा, नो गाहावइकुलस्स सिणाणस्स वा वच्चस्स वा सलोए सपडिदुवारे चिहिज्जा, नो गाहावाकुलस्स आलोयं वा थिग्गलं वा संधिं वा दगभवणं वा पाहाओ पगिझिय २ अंगुलियाए वा उद्दिसिय १ उण्णमिय २ अवनमिय निज्झाइजा, नो गाहावई अंगुलियाए उद्दिसिय २ जाइज्जा, नो गाहावई अंगुलिए चालिय २जाइज्जा, नो गाहावई अंगुलिए तज्जिय २ जाइजा, नो गाहावह अंगुलिए उक्खुलंपिय [ उक्खलं दिय] २ जाइज्जा,
नो गाहावई वंदिय २ जाइज्जा नो वयणं फरुसं वइज्जा ॥ सू० ३२॥ ___ स भिक्षमिक्षार्थ गृहपतिकुलं प्रविष्टः सन्नैतन्कुर्यात् , तद्यथा--नो गृहपतिकुलस्य द्वारशाखाम् 'अवलम्ब्यावलम्ब्य' पौन:पुन्येन भृशं वाऽवलम्ब्य तिष्ठेद् , यतः सा जीणत्वात्पतेद् दुष्प्रतिष्ठितत्वाद्वा चलेत् ततश्च संयमात्मविराधनेति, तथा 'उदकप्रतिष्ठापनमात्रके' उपकरणधावनोदकप्रक्षेपस्थाने प्रवचनजुगुप्साभयान तिष्ठेत् , तथा 'चंदणिउदय'त्ति आचमनोदकप्रवाहभूमौ न तिष्ठेद् , दोषः पूर्वोक्त एव, तथा स्नानवर्चःसंलोके तत्प्रतिद्वारं वा न तिष्ठेत् , एतदुक्तं भवति--यत्र स्थितैः स्नानवः क्रिये कुर्वन् गृहस्थः समवलोक्यते तत्र न तिष्ठेदिति, दोषश्चात्र दर्शनाशङ्कया निःशङ्कतक्रियाया अभावेन निरोधप्रद्वेपसम्भव इति, तथा नैव गृहपतिकुलस्य 'आलोकम् आलोकस्थानं गवाक्षादिक,
॥६७४ ।।
Page #238
--------------------------------------------------------------------------
________________
भीआचा राङ्गवृत्तिः
(शीलाङ्का.)
॥ ६८ ।।
܀܀܀܀܀܀܀܀܀
'थिग्गलं 'ति प्रदेशपतित संस्कृतं तथा 'संधि'न्ति चौरखातं भितिसन्धि वा, तथा 'उदकभवनम्' उदकगृह, सर्वाण्यप्येतानि 'प्रगृह्य प्रगृह्य' पौनःपुन्येन प्रसार्य तथाऽङ्गुन्योद्दिश्य तथा कायमवनम्योन्नम्य च न निध्यापयेत्--न प्रलोकयेाप्यन्यस्मै प्रदर्शयेत् सर्वत्र द्विर्वचनमादरख्यापनार्थं तत्र हि हतनष्टादौ शङ्कोत्पद्यत इति ॥ अपि च-स भिक्षुपतिप्रष्टः सन्नैव गृहपतिमङ्गुल्याऽत्यर्थमुद्दिश्य तथा चालयित्वा तथा 'तर्जयित्वा' भयमुपदर्श्य तथा कण्डूयनं कृत्वा तथा गृहपतिं 'वन्दित्वा' वाग्मिः स्तुत्वा प्रशस्य नो याचेत, अदत्ते च नैव तद्गृहपतिं परुपं वदेत्, तद्यथा--यक्षस्त्वं परगृहं रक्षसि कुतस्ते दानं १, वार्त्तव भद्रिका भवतो न पुनरनुष्ठानम् अपि च - " अक्षरद्वयमेतडि, नास्ति नास्ति यदुच्यते । तदिदं देहि देहीति, विपरीतं भविष्यति ॥ १ ॥ अन्यच्च -
अह तत्थ कंचि भुजमाणं पेहाए गाहावई' वा जाव कम्मकरिं वा से पुण्वामेव आलोइज्जा आउसोत्ति वा भइणिन्ति वा दाहिसि मे इत्तो अन्नयरं भोयणजायं ?, से सेवं वयंतस्स परो हत्थं वा मत्तं वा दवि वा भायणं वा सोओदगवियडेण वा उसि गोदगवियडेण वा उच्छोलिज का पहोइज वा १ । से पुव्वामेव आलोइज्जा आउसोत्ति वा भणिति वा ! मा एयं तुमं हृत्थं वा ४ सीओदगवियडेण वा २ उच्छोलेहि वा २, अभिकखसि मे दाउ एवमेव दलयाहि २ । से सेवं वयंतस्स परो हत्थं वा ४ सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलित्ता पहोइत्ता आहद्दु दलइज्जा, तहष्पगारेणं
श्रुतस्कं० २ चूलिका० १ पिण्डैष० १ उद्देशाक८
।। ६८० ।।
Page #239
--------------------------------------------------------------------------
________________
पुरेकम्मकएणं हत्थेण वा ४ असणं वा ४ अफासुयं जाव नो पडिगाहिज्जा३। अह पण एवं जाणिज्जा नो पुरेकम्मकएणं उदउल्लेणं तहप्पगारेणं वा उदउल्लेण वा हत्थेण वा ४ असणं वा ४ अफासुयं जाव नो पडिगाहिज्जा ४ । अह पुणेवं जाणिज्जा-- उदउल्लेण ससिणिण सेसं तं चेव ५। एवं-ससरक्खे उदउल्ले, ससिणि मट्टिया ऊसे। हरियाले हिंगुलए, मणोसिला अंजणे लोणे ॥१॥ गेरुय वन्निय सेढिय सोरद्रिय पिट्ठ कुकुस उक्नुहसंसहण ६ । अह पुणेवं जाणिज्जा नो अससह संसह तहप्पगारेण
संस?ण हत्थेण वा ४ असणं वा ४ फासुयं जाव पडिगाहिज्जा ७॥ सू० ३३॥ अथ भिक्षस्तत्र गहपतिकुले प्रविष्टः सन् कश्चन गृहपत्यादिकं भुञ्जानं प्रेक्ष्य स भिक्षुः पूर्वमेवालोचयेद्-यथाऽय गृहपतिस्तद्भार्या वा यावत्कर्मकरी वा युङ्क्ते, पर्यालोच्य च सनामग्राई याचेत, तद्यथा-'आउसेत्ति वेत्ति, अमुक इति गृहपते ! भगिनि ! इति वा इत्याद्यामन्य दास्यसि मेऽस्मादाहारजातादन्यतरद्भोजनजातमित्येवं याचेत, तच्च न वर्तते । एवं कत्त', कारणे वा सत्येवं वदेत्-अथ 'से' तस्य भिक्षोरेवं वदतो याचमानस्य परो गृहस्थः कदाचिद्धस्तं मात्रं दीं। भाजनं वा 'शीतोदकविकटेन' अकायेन 'उष्णोदकविकटेन' उष्णोदकेनाप्रासुकेनात्रिदण्डोवृत्तन पश्चाद्वा सचित्तीभतेन च्छोलेजति सकुदकेन प्रक्षालनं कुर्यात , 'पहोएज्जत्ति प्रकण वा हस्तादेविनं कुर्यात , स भिहस्तादिक पूर्वमेव प्रक्षाल्यमानमालोचयेद् , दत्तावधानो भवेदित्यर्थः, तच्च प्रक्षाल्यमानमालोच्यामुक इत्येवं स्वनामग्राहं निवारयेद् ,
॥६८१ ।।
Page #240
--------------------------------------------------------------------------
________________
भीआचागावृत्तिः श्रीलाङ्का.)
| श्रुतस्कं०२ चूलिका.. पिण्डैष.. उद्देशका
.६८२ ॥
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
यथा-मैवं कृथास्त्वमिति, यदि पुनरसौ गृहस्थो हस्तादिकं सचित्तोदकेन प्रक्षाल्य दद्यात्तदप्रासुकमिति ज्ञात्वा न प्रतिगृह्णीयादिती ॥ किश्च-अथासौ भिक्षर्ग हपतिकुलं प्रविष्टः सन् यदि पुनरेवं विजानीयात , तद्यथा-'नो' नैव साधुभिक्षादानार्थ पुरः-अग्रतः कृतं प्रक्षालनादिकं कम-क्रिया यस्य हस्तादेः स तथा तेनोदकेनाद्रेणेति-गलद्विन्दुनेति, एतदुक्तं भवति-साधुभिक्षादानार्थ नैव हस्तादिकं प्रक्षालितं किन्तु तथाप्रकार एव स्वतः कुतोऽप्यनुष्ठानादुदकाो हस्तस्तेन, एवं मात्रादिनाऽपि गलद्विन्दुना दीयमानं चतुर्विधमप्याहारमप्रासुकमनेषणीयमिति मत्वा नो गलीयादिति ॥ अथ पुनरेवं विजानीयात् , तद्यथा-नैव 'उदकाण' गलविन्दुना हरतादिना दद्यात , किन्तु 'सस्निग्धेन' शीतोदकस्तिमितेनापि हस्तादिना दीयमानं न प्रतिगृह्णीयात् , 'एव'मिति प्राक्तनं न्यायमतिदिशति, यथोदकस्निग्धेन हस्तेन न ग्राह्य तथाऽन्येन रजमाऽपि, एवं मृत्तिकाद्यप्यायोज्यमिति, तत्रोष:-क्षारमृत्तिका हरितालहिङगुलकमनःशिलाऽञ्जनलवणगेरुकाः प्रतीताः, सचिताश्च खनिविशेषोत्पत्तेः, वर्णिका--पीतमृत्तिका, सेटिका--खटिका, सोराष्ट्रिका-तुबरिका, पिष्टम्अच्छटिततन्दुचूर्णः, कुक्कुसा:--प्रतीताः, 'उक्कुटुंति पीलुपर्णिकादेरदूखलचूर्णितमार्द्रपर्णचूर्णमित्येवमादिना सस्निग्धेन हस्तादिना दीयमानं न गृह्णीयात् , इत्येवमादिना तु असंसष्टेन तु गह्णीयादिति । अथ पुनरेवं जानीयान्नोऽसंसृष्टः किं तहि ?-संसृष्टस्तज्जातीयेनाहारादिना तेन संसृष्टेन हस्तादिना प्रासुकमेषणीयमिति गृह्णीयात् , अत्र चाष्टौ मङ्गाः, तद्यथा-"असंसढे हत्थे असंसट्टे मत्ते निरवसेसे दव्वे" इत्येकैकपदव्यभिचारान्नेयाः, स्थापना चेयम्--अथ पुनरसौ भिक्षुरेवं जानीयात् , तद्यथा-उदकादिनाऽसंसृष्टो हस्तादिस्ततो गलीयात् , यदिवा तथाप्रकारेण दातव्यद्रव्यजातीयेन
।६८२ ।।
Page #241
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ ६८३ ॥
܀܀܀܀
संसृष्टो हस्तादिस्तेन तथाप्रकारेण हस्तादिना दीयमानमाहारादिकं प्रासुकमेषणीयमितिकृत्वा प्रतिगृह्णीयादिति ॥ विश्वसे भिक्खु वा २ जाव से जं पुण जाणिजा पिहूयं वा बहुरयं वा जाव चाउलपलंबं वा असंजए भिक्खुपडियाए चित्तमंताएं सिलाए जाव संताणाए कुहिंसु वा कुहिंति वा कुहिस्संति वा उष्फणिंसु वा ३ तहप्पगारं पिहूय वा बहुरयं वा जाव अष्कासुर्य नो पंडिगाहिज्जा ॥ सू० ३४ ॥
भिक्षुभिक्षार्थं गृहतिकुलं प्रविष्टः सन् यदि पुनरेवं विजानीयात् तद्यथा - 'पृथुकं' शाल्यादिलाजान् 'बहुरयं'ति पहुँकं 'चाउलपलंबं ति अर्द्धपक्वशात्यादिकणादिकमित्येवमादिकम् 'असंयतः ' गृहस्थः 'भिक्षुप्रतिज्ञया' भिक्षुमृद्दिश्य चित्तमत्यां शिलायां तथा सबीजायां सहरितायां साण्डायां यावन्मर्कटसन्तानोपेतायाम् 'अकुट्टिए : ' कुट्टितवन्तः तथा कुट्टन्ति कुटिष्यन्ति वा, एकवचनाधिकारेऽपि छान्दसत्वात्तिङ्क्षयत्ययेन बहुवचनं द्रष्टव्यं, पूर्वत्र वा जातावेकवचनं तच्च पृथुकादिकं सचित्तमचित्तं वा चित्तमत्यां शिलायां कुट्टयित्वा 'उत्फणिंसु'त्ति सामर्थं वाताय दत्तवन्तो ददति दास्यन्ति वा तदेवं तथाप्रकारं पृथुकादि ज्ञात्वा लाभे सति तो प्रतिगृह्णीयादिति ॥ सेभिक्खू वा २ जांव समाणे से जं पुण जाणिजा बिलं वा लोणं अस्सं जाव संताणाए भिदिंसु वा ३ रुचिंसु वा ३ बिलं वा लोणं अफासु नो पडिगाहिजा ॥ सू० ३५ ॥
किञ्च -
उभयं वा लोणं उभयं वा लोणं
॥ ६८३ ॥
Page #242
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीआचा रावृत्तिः (शीलाङ्का.)
॥६४४॥
स भिक्षर्यदि पुनरेवं विजानीयातू , तद्यथा-बिलमिति खनिविशेषोत्पन्नं लवणम् , अस्य चोपलक्षणार्थत्वात्सैन्धवसौ
श्रुतस्कं० २ वर्चलादिकमपि द्रष्टव्यं, तथोद्भिज्जमिति समुद्रोपकण्ठे क्षारोदकसम्पाद् यदुद्भिद्यते लवणम् , अस्याप्युपक्षणार्थत्वा
चूलिका १ क्षारोदकसेकाद्यद्भवति रुमकादिकं तदपि ग्राह्य, तदेवंभूतं लवणं पूर्वोक्तविशेषणविशिष्टायां शिलायामभैत्सु:-कणिकाकारं
पिण्डै.. कुयुः, तथा साध्वर्थमेव मिन्दन्ति मेत्स्यन्ति वा तथा श्लक्ष्णतरार्थ 'रुचिंसु वत्ति पिष्टवन्तः पिंपन्ति पेक्ष्यन्ति वा, तदपि
उद्देशका ६ लवणमेवंप्रकारं ज्ञान्या नो प्रतिगृह्णीयात् ॥ अपि च
से भिक्ख वा २ जाव जंपुण जाणिज्जा असणं वा ४ अगणिनिक्खत्तं तहप्पगारं असणं वा ४ अफासुयं नो पडिगाहिज्जा, केवलो बूया आयाणमेयं, अस्संजए भिक्खुपडियाए उस्सिचमाणे वा निस्सिचमाणे वा आमजमाणे या पमजमाणे वा ओयारेमाणे वा उच्चत्तमाणे वा अगणिजोवे हिंसिज्जा १। अह भिक्षणं पुव्वोवइट्ठा एस पइन्ना एस हेऊ एस कारणे पसुवएसे जं तहप्पगारं असणं वा ४ अगणिनिक्खत्तं अफासुयं नो पडिगाहिज २ । एयं खल तस्स भिक्खुस्स वा भिक्खुणीए वा सामग्गियं जाव सया
जएजासि त्ति बेमि ३ ॥ सू० ३६॥ पिण्डैषणायां षष्ठ उद्देशकः ॥२--१-१.-६ ॥ स भिक्षुरा पतिकुलं प्रविष्टश्चतुर्विधमप्याहारमग्नावुपरि निक्षिप्तं तथाप्रकारं ज्वालासंबद्धं लाभे सति न प्रतिगृह्णीय त् ।। अत्रैव दोषमाह-केवली व यात् , 'भादानं' कर्मादान मेतदिति, तथाहि 'असंयतः' गृहस्थो भिक्षुप्रतिज्ञया तवाग्न्यु-8
Page #243
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ ६८५ ॥
परिव्यवस्थितमाहारम् 'उत्सिञ्चन्' आक्षिपन् 'निः सिञ्चन' दत्तोद्वरितं प्रक्षिपन् तथा 'आमर्जयन' सकृद्धस्तादिना शोधयन् तथा प्रकर्षेण मार्जयन् - शोधयन् तथाऽवतारयन् तथा अपवर्त्तयन्' तिरश्वीनं कुर्वन्नग्निजीवान् हिंस्यादिति । 'अथ' अनन्तरं 'भिक्षूणां साधूनां पूर्वोपदिष्टा एषा प्रतिज्ञा एष हेतुरेतत्कारणमयमुपदेशः यत्तथाप्रकार मग्निसंबद्धमशनाद्यग्निनिक्षिप्तमा सुकमनेषणीयमिति ज्ञात्वा लाभे सति न प्रतिगृह्णीयात् एतत्खलु मिक्षोः 'सामग्र्यं' समग्रो भिक्षुभाव इति ॥ प्रथमाध्ययनस्य षष्ठ उद्देशकः समाप्तः ।। २-१-१-६ ॥
5.-
॥ अथ प्रथमपिण्डेपणाध्ययने सप्तम उद्देशकः ॥
षष्ठोदेशकानन्तरं सप्तमः समारभ्यते, अस्य चामममिसम्बन्धः-- इहानन्तरो देशके संयमविराधनाऽभिहिता, इह तु मात्मा विराधना तया च विराधनया प्रवचन कुत्सेत्येतदत्र प्रतिपाद्यत इति —
सेभिक्खू वा २ जाव समाणे से जं पुण जाणिज्जा असणं वा ४ संधंसि वा थंभंसि वा मंचंसि वा मालंसि वा पासायंसि वा हम्मियतलंसि वा अन्नयरंसि वा तहप्पगारंसि अंत लित्र खजायंसि उपनिक्खित्ते सिया तहपगारं मालोहडं असणं वा ४ अफासुगं नो पडिगाहिज्जा १ । केवली बूया आयाणमेयं, अस्संजए भिक्खुपडियाए पीढं वा फलगं वा निस्सेणिं वा उदूहलं वा आहद्दु उस्सविय दुरूहिज्जा से तत्थ दुरूहमाणे पर्यालिज्ज
॥ ६८५ ॥
Page #244
--------------------------------------------------------------------------
________________
भीआचाराणावृत्तिः (घीलाका.)
.६८६ ।।
वा पवडिज वा २ । से तत्थ पयलमाणे वा २ हत्थं वा पाय वा बाहुं वा ऊरु वा उदरं
श्रुतस्कं०२ वा सीसं वा अन्नयरं वा कायंसि इंदियजालं लूसिज वा पाणाणि वा ४ अभिहणिज
चूलिका.. वा वित्तासिज वा लेसिज्ज वा संघसिज्ज वा संघहिज वा परियाविज वा किलामिज वा
पिण्डैष.. ठाणाओ ठाणं संकामिज वा, तं तहप्पगारं मालोहडं असणं वा ४ लाभे संते नो पति
उद्देशका ७ गाहिज्जा ३। से भिवखू वा २ जाव समाणे से जं पुण जाणिज्जा, असणं वा ४ कुहियाओ वा कोलेजाउ वा अस्संजए भिक्खुपडियाए उक्कुन्जिय अवउन्जिय ओहरिय
आहटटु दलइजा, तहप्पगारं असणं वा ४ लाभे संते नो पडिगाहिज्जा ४ ॥ सू. ३७।। स भिक्षुर्भिक्षार्थ प्रविष्टः सन् यदि पुनरेवं चतुर्विधमप्याहारं जानीयात् , तद्यथा-'स्कन्धे अर्द्धप्राकारे 'स्तम्भे वा' शैलदारुमयादी. तथा मश्चके वा माले वा प्रासादे वा हऱ्यातले वा अन्यतरस्मिन् वा तथाप्रकारेऽन्तरिक्षजाते स आहार: 'उपनिक्षिप्तः' व्यवस्थापितो भवेत् , तं च तथाप्रकारमाहारं मालाहृतमिति मत्वा लाभे सति न प्रतिगृह्णीयात् , केवली ब्र याद्यत आदानमेतदिति, तथाहि-असंयतो भिक्षुप्रतिज्ञया साधुदानार्थ पीठकं वा फलकं वा निश्रेणिं वा उखलं वाऽऽहत्य-ऊर्च व्यवस्थाप्यारोहेत्, स तत्रारोहन प्रचनेता प्रपतेद्वा, स ता प्रवलन् प्रपतन् वा हस्तादिकमन्यतरद्वा काये इन्द्रियजातं 'लसेन्ज'त्ति विराधयेत् , तथा प्राणिनो भूतानि जीवान् सचानमिहन्याद्वित्रासयेद्वा लेषयेद्वा-संश्लेषं वा
an६८६॥ कुर्यात तथा संघर्ष वा कुर्यात् तथा सङ्घन्ट वा कुर्यात , एतच्च कुस्तान् परितापयेद्वा क्लामयेद्वा स्थानात्स्थानं
Page #245
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ ६८७ ।।
܀܀܀܀
*********
सङ्क्रामयेद्वा, तदेतज्ज्ञात्वा यदाहारजातं तथाप्रकारं मालाहृतं तल्लाभे सति नो प्रतिगृह्णीयादिति ॥ स भिक्षुर्यदि पुनरेवंभूतमाहारं जानीयत्, तद्यथा - 'कोष्ठिकातः' मृन्मय कुशूलसंस्थानायाः तथा 'कोलेज्जाओ'त्ति अधोवृत्तखाताकाराद् असंयतः 'भिक्षुप्रतिज्ञया' साधुमुद्दिश्य कोष्ठिकातः 'उक्कुजिय'त्ति ऊर्वकायमुन्नम्य ततः कुब्जीभूय तथा कोलेज्जाओ 'अवउजिअ 'त्ति अधोऽवनम्य, तथा 'ओहरिय'त्ति तिरश्वीनो भूत्वाऽऽहारमाहृत्य दद्यात्, तच्च भिक्षुस्तथाप्रकारमधोमालाहृतमिति कृत्वा लाभे सति न प्रतिगृह्णीयादिति ॥ अधुना पृथिवीकायमधिकृत्याह
सेभिक्खू वा २ जाव से जं पुण जाणिज्जा असणं वा ४ महियाउलित्तं तहप्पगारं अरुणं वा ४ लाभे संते नो पडिगाहिज्जा १ । केवली बुया आयाणमेअं, अस्संजए भिक्खुपडियाए महिओलित्तं असणं वा ४ उभिदमाणं पुढविकायं समारंभिज्जा तह तेजवाउवणरसइतसकार्य समारंभिज्जा, पुणरवि उल्लिपमाणे पच्छाकम्मं करिज्जा २ । अह भिक्खूणं पुण्वोषइठा जं तहप्पगारं महिओलित्तं असणं वा ४ लाभे संते नो पडिगाहिज्जा ३ । से भिक्खू वा २ जाव से जं पुण जाणिज्जा असणं वा ४ पुढविकायपद्रियं तपगारं असणं वा ४ अफासुर्य वा नो पडिगाहिज्जो ४ । से भिक्खू वा २ जाव जं पुण जाणिज्जा असणं वा ४ आउकायपइट्टियं चेव, एवं अगणिकायपट्ठियं लाभे संते नो डिगाहिज्जा ५ । केवली बुया आयाणमेअं, अस्संजए भिक्खुपडियाए
॥ ६८७ ॥
Page #246
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीआचारावृत्तिः शीलाङ्का.)
श्रुत०२
चूलिका १ | पिण्डै०१ उद्देशका ७
.६८८॥
अगाण उस्सक्किय निस्सक्किय ओहरिय आहटु दलइज्जा अह भिक्खूणं जाव नो पडि
1 गाहिज्जा ६॥ सू. ३८ ॥ स भिक्षुगृहपतिकुलं प्रविष्टः सन् यदि पुनरेवं जानीयात् , तद्यथा-पिठरकादौ मृत्तिकयाऽवलिप्तमाहारं 'तथाप्रकार'मित्यवलिप्त केनचित्परिज्ञाय पश्चात्कर्मभयाच्चतुर्विधमप्याहारं लाभे सति न प्रतिगृह्णीयात् , किमिति ?, यतः केवली ब्र यात्कर्मादानमेतदिति, तदेव दर्शयति–'असंयत:' गृहस्थो भिक्षुप्रतिज्ञया मृत्तिकोपलिप्तमशनादिकम्-अशनादिभाजनं तच्चोद्भिन्दन् पृथिवीकार्य समारभेत, स एव केवल्याह, तथा तेजोवायुवनस्पतित्रसकायं समारभेत, दत्ते सत्युत्तरकालं पुनरपि शेषरक्षार्थ तद्भाजनमवलिम्पन् पश्चात्कर्म कुर्यात, अथ भिक्षणां पूर्वोपदिष्टा एषा प्रतिज्ञा एष हेतुरेतत्कारणमयमुपदेशः यत्तथाप्रकारं मृत्तिकोपलिप्तमशनादिजातं लाभे सति नो प्रतिगृह्णीयादिति ॥ स भिक्षगृहपतिकुलं प्रविष्टः सन यदि पुनरेवंभृतमशनादि जानीयात् , तद्यथा-'सचित्तपृथिवीकायप्रतिष्ठितं' पृथ्वीकायोपरिव्यवस्थितमाहारं विज्ञाय पृथिवीकायसङ्घट्टनादिभयान्लामे सत्यप्रासुकमनेषणीयं च ज्ञात्वा न प्रतिगृह्णीयादिति ॥ एवमकायप्रतिष्ठितमग्निकार्यप्रतिष्ठितं लाभे सति न प्रतिगलीयाद्, यतः केवली व यादादानमेतदिति । तदेव दर्शयति-असंयतो भिक्षप्रतिज्ञयाऽग्निकायममुकादिना 'ओसक्रियत्ति प्रज्वान्य (निषिच्य), तथा 'ओहरिय'त्ति अग्निकायोपरि व्यवस्थितं पिठरकादिकमाहारभाजनमपवृत्त्य तत आहृत्य-गृहीत्वाऽऽहारं दद्यात् , तत्र भिक्षणां पूर्वोपदिष्टा एषा प्रतिज्ञा यदेतत्तथाभृतमाहारं नो प्रतिगृहणीयादिति ॥
८॥
Page #247
--------------------------------------------------------------------------
________________
. ६८६
से भिक्ख वा २ जाव से ज पुण जाणिज्जा असणं वा ४ अच्चुसिणं अस्संजए भिक्खपडियाए सुप्पेण वा विहुयणेण वा तालियंटेण वा पत्रोण वा साहाए वा साहाभंगेण वा पिडणेण वा पिणहत्येण वा चेलेण वा चेलकण्णेण वा हत्थेण वा मुहेण वा फुमिज्ज वा बीइज्ज वा १। से पुवामेव आलोइज्जा-आउसोत्ति वा भइणित्ति वा! मा एतं तुम असणं वा ४ अच्चुसिणं सुप्पेण वा जाव फुमाहि-वा वीयाहि वा अभिकंखसि मे दाउं. एमेव दलयाहि, से सेवं वयं तस्स परो सुप्पेण वा जाव वोइत्ता आहह दलइज्जा
तहप्पगारं असणं वा ४ अफासुयं वा नो पडिगाहिज्जा ॥ सु०३१॥ समिक्षुगृहपतिकुलं प्रविष्टः सन् यदि पुनरेवं जानीयाद् यथाऽत्युष्णमोदनादिकमसंयतो भिक्षुप्रतिज्ञया शीतीकरणार्थ । पेण वा वीजनेन वा तालबन्तेन वा मयूरपिच्छकृतव्यजनेनेत्यर्थः, तथा शाखया शाखामङ्गेन पल्लवेनेत्यर्थः, तथा 0 बहेण वा बर्ह कलापेन वा, तथा वस्त्रेण वस्त्रकर्णेन वा हस्तेन वा मुखेन वा तथाप्रकारेणान्येन वा केनचित् 'फुमेज्जा वेति मुखवायुना शीतीकुर्याद् वस्त्रादिभिर्वा वीजयेत् , स भिक्षुः पूर्वमेव 'आलोकयेद्' दत्तोपयोगो भवेत् , तथाकुर्वाणं च दृष्ट्वैतद्वदेत् , तद्यथा-अमुक ! इति वा भगिनि ! इति वा इत्यामन्ध्य #वं कृथा यद्यभिकाङ्क्षसि मे दातुं तत एवं स्थितमेव ददस्व, अथ पुनः स परो गृहस्थः 'से' तस्य भिक्षोरेवं वदतोऽपि सूर्पण वा यावन्मुखेन वा वीजयित्वाऽऽहृत्य ।
||६८९॥ । तथाप्रकारमशनादिकं दद्यात् । स च साधुरनेषणीयमिति मत्वा न परिगृहणीयादिति ॥ पिण्डाधिकार एवैषणादोष
Page #248
--------------------------------------------------------------------------
________________
भीआचागङ्गवृत्तिः शालाका.)
चूलिका.१ पिण्डै १ उद्देशका ७
॥ ६९०॥
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
मधिकृत्याह
से भिक्खू वा २ जाव से जं पुण जाणिज्जा असणं वा ४ वणस्सइकायपइडियं तहप्प. गार असणं वा ४ वणस्सइकायपइडियं लाभे संते नो पडिगाहिज्जा। एवं तस.
काएवि ॥ सू० ४०॥ ___स भिनुपतिकुलं प्रविष्टः सन् यत्पुनरेवं जानीयाद्-वनस्पतिकायप्रतिष्ठितं, तं चतुर्विधमप्याहारं न गहणीयादिति ॥ एवं त्रसकायसूत्रमपि नेयमिति । अत्र च वनस्पतिकायप्रतिष्ठितमित्यादिना निक्षिप्ताख्य एषणादोषोऽभिहितः, एवमन्येऽप्येपणादोपा यथासम्भवं सूत्रेष्वेवायोज्याः। ते चामी-'संकिय १ मक्खिय २ निक्खित्त ३ पिहिय ४ साहरिय ५ दायगु ६ म्मीसे ७। अपरिणय ८ लित्त ९ ड्डिय १. एसणदोसा दस हवंति ॥" तत्र शङ्कितमाधाकर्मादिना ।, प्रक्षितमुदकादिना २, निक्षिप्तं पृथिवीकायादौ ३, पिहितं वीजपूरकादिना ४, 'साहरियं'नि मात्रकादेस्तुषाद्यदेयमन्यत्र सचित्तपृथिव्यादौ संहृत्य तेन मात्रकादिना यद्ददाति तत्संहृतमिन्युच्यते ५, 'दायगत्ति दाता बालवृद्धाद्ययोग्यः ६, उन्मिश्रं-सचित्तमिश्रम् ७, अपरिणतमिति यद्देयं न सम्यगचित्तीभूतं दातृग्राहकयोर्वा न सम्यग्भावोपेतं ८, लिप्तं वसादिना है, 'छड्डियंति परिशाटव १० दित्येषणादोषाः ॥ साम्प्रतं पानकाधिकारमुद्दिश्याह
से भिक्ख वा २ जाव से जे पुण पाणगजायं जाणिज्जा, तंजहा-उस्सेइमं वा १ शङ्कितं म्रक्षित निक्षिप्तं निहितं हृतं दायकोषदुष्टं सम्मिश्रम। भपरिणतं लिप्तं चर्दित एषणा दोषा दश भवन्ति ।। १॥
|६९०॥
Page #249
--------------------------------------------------------------------------
________________
संसहम वा २ चाउलोदगं वा ३ अन्नयरं वा तहप्पगारं पाणगजायं अहुणाधोयं अणंबिलं अव्वक्कंतं अपरिणयं अविडत्थं अफासुगं जाव नो पडिगाहिना । अह पुण एवं जाणिज्जा चिराधोयं अंबिलं वुक्कंतं परिणयं विद्वत्थं फासुयं पडिगाहिज्जा ।। से भिक्ख वा २ से जं पुण पाणगजायं जाणिज्जा, तंजहा-तिलोदगं वा ४ तुसोदगं वा ५ जवोदगं वा ६ आयामं वा ७ सोवीरं वा ८ सुद्धवियडं वा ९ अन्नयरं वा तहप्पगारं वा पाणगजायं पुवामेव आलोइजा-आउसोत्ति वा भइणित्ति वा! दाहिसि मे इत्तो अन्नररं पाणगजायं, से सेवं वयंतस्स परो वइन्जा-आउसंतो समणा! तुम चेवेयं पाणगजायं पडिग्गहेण वा उस्सिचिया णं उयत्तिया णं गिण्हाहि, तहप्पगारं पाण
गजायं सयं वा गिहिज्जा परो वा से दिजा, फासुयं लाभे संते पडिगाहिज्जा ३ ॥सू०४१॥ स भिक्षुहपतिकुलं पानकार्थ प्रविष्टः सन् यत्पुनरेवं जानीयात् तद्यथा-'उस्सेइमं वेति पिष्टोत्स्वेदनार्थ दक। 'संसेइमं वेति तिलधावनोदकं, यदिवाऽरणिकादिसंस्विन्नधावनोदकं २, तत्र प्रथमद्वितीयोदके प्रासुके एव, तृतीयचतुर्थे तु मिश्रे, कालान्तरेण परिणते भवतः, 'चाउलोदय'ति तन्दुलधावनोदकं ३, अत्र च त्रयोऽनादेशाः, तद्यथा-बुबुदविगमो वा १ भाजनलग्नबिन्दुशोषो वा २ तन्दुलपाको वा ३, आदेशस्त्वयम्-उदकस्वच्छीभावः, तदेवमाद्यदकम 'अनाम्लं' स्वस्वादादचलितम् अव्युत्क्रान्तमपरिणतमविश्वस्तमप्रासुकं यावन्न प्रतिगृहणीयादिति ॥ एतद्विपरीतं तु ग्राह्य- 21
Page #250
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रवस्कं०२
'श्रीआचाराजवृत्तिः
(शीलासा.)
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
चूलिका १ पिण्डै.. उद्देशका ७
॥ ६६२॥
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
मित्याह-अहेत्यादि सुगमम् । पुनः पानकाधिकार एव विशेषार्थमाह-स भिक्षुग हपतिकुलं प्रविष्टो यत्पुनः पानकजातमेवं जानीगत्, तद्यथा-तिलोदकं' तिलैः केनचित्प्रकारेण प्रासुकीकृतमुदकम् ४, एवं तुषयवैर्वा ५-६, तथा 'आचा। म्लम्' अवश्यानं ७, 'सौधोरम्' आरनालं- 'शद्धविकटं' प्रासुकमुदकम् 8, अन्यद्वा तथाप्रकारं द्राक्षापानकादि 'पानकजातं' पानीयसामान्य पूर्वमेव 'अवलोकयेत्' पश्येत , तच्च दृष्टा तं गृहस्थम् अमुक ! इति वा भगिनि ! इति वेत्यामध्ये ब्र याद्-यथा दास्यसि में किश्चित्पानकजातं , स परस्तं भिक्षुमेव वदन्तमेवं व याद्-यथा आयुष्मन् ! श्रमण ! त्वमेरेदं पानकजातं स्वकीयेन पतद्ग्रहेण टोप्परिकया कटाहकेन वोत्मिच्यापवृत्य वा पानकमाण्डक गृहाण, स एवमभ्यनुज्ञातः स्वयं गृह्णीयात् परो वा तस्मै दद्यात् , तदेवं लाभे सति प्रतिग्रहणीयादिति ॥ किञ्च
सं भिक्खु वा ३ाव से जं पुण पाणमं जाणिज्जा-अणंतरहियाए पुढवोए जाव संतापए उडटु मिक्खित्ते सिया, असंजए भिक्खुपखियाए उदउल्लेण या ससिणिडेण वा सकसाएण वा मत्तण वा सीओदगेण वा संभोइत्ता आहटु दलहज्जा, तहप्पगारं पाणगजायं अफासुयं नो पडिगाहिज्जा, एवं खलु तस्स भिक्खुस्स वा भिक्खुणीए वा सामग्गियं
जाव सया जएज्जासि तिबेमि ॥ सू०४२॥ पिण्डैषणायां सप्तमः ॥ १-१-१-२॥ स मिस्र्यदि पुनरेवं जानीयात् तत्पानकं सचित्तेष्वव्यवहितेषु पृथिवीकायादिषु तथा मर्कटकादिसन्तानके वाऽन्यतो भाजनादुवृत्योवृत्य निक्षिप्त' व्यवस्थापितं स्यात् , यदिवा स एव 'असंयतः' गृहस्थः 'भिक्षप्रतिज्ञया'
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
॥६२॥
Page #251
--------------------------------------------------------------------------
________________
.६४३॥
मिक्षमुद्दिश्य 'उदकाण' गलद्विन्दुना 'सस्निग्धेन' गलदुदकविन्दुना 'सकषायेण' सचित्तपृथिव्याघवयवगुण्ठितेन 'माण' भाजनेन शीतोदकेन वा 'संभोएत्ता मिश्रयित्वाऽऽहत्य दद्यात् , तथाप्रकारं पानकजातमप्रासुकमनेषणीयमिति मत्वा न परिगृहणीयात् , एतत्तस्य भिक्षोर्मिक्षुण्या या 'सामा ' समग्रो भिक्षभाव इति ॥ प्रथमस्य सप्तमः समाप्तः ॥२-१-१-७॥
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
॥ अथ प्रथमपिण्डैषणाध्ययने अष्टम उद्देशकः ॥ उक्तः सप्तमोद्देशकः, साम्प्रतमष्टमः समारभ्यते, अस्य चायममिसम्बन्धः-इहानन्तरोद्देशके पानकविचारः कृतः इहापि तद्गतमेव विशेषमधिकृत्याह
से भिक्खु वा २ जाव पविढे समाणे से जं पुण पाणगजायं जाणिजा, तंजहा-अंबपाणगं वा १० अंबागपाणगं वा ११ कविठ्ठपाणगं वा १२ माउलिंगपाणगं वा १३ मुद्दियापाणगं वा १४ दालिमपाणगं वा १५ खज्जूरपाणगं वा १६ नालियेरपाणगं वा १७ करीरपा. णगं वा १८ कोलपाणगं वा १९ आमलपाणगं वा २० चिंचापाणगं वा२१ अन्नयर वा तहप्पगार पाणगजातं सअडियं सकणुयं सषीयगं अस्संजए भिक्खुपडियाए छब्वेण षा
॥६६३.
Page #252
--------------------------------------------------------------------------
________________
भीआचाराङ्गवृत्तिः
बीलाङ्का.)
॥ ६९४ ॥
दूसेण वा वालगेण वा आविलियाण परिवालियाण परिसावियाण आहहु दलहज्जा तप्पगारे पाणणजायं अफासुर्य लाभे संते नो पडिगाहिजा ॥ सू० ४३ ॥
भिक्षुगृहपतिकुलं प्रविष्टः सन् यत्पुनरेवंभूतं पानकजातं जानीयात् तद्यथा- 'अंबगपाणगं वे 'त्यादि सुगमं, नवरं 'मुहिया' द्राक्षा कोलानि-बदराणि, एतेषु च पानकेषु द्राक्षावदशम्बिलिकादिकतिचित्पानकानि तत्क्षणमेव संम क्रियन्ते अपराणि त्वाम्राम्बाडका दिपानकानि द्वित्रादिदिनसन्धानेन विधीयन्त इत्येवंभूतं पानकजातं तथाप्रकारमन्यदपि 'सास्थिकं' सहास्थिना कुलकेन यद्वर्त्तते, तथा सह कणुकेन त्वगाद्यवयवेन यद्वर्त्तते, तथा बीजेन सह यद्वर्त्तते, अस्थिबीजयोश्चामलकादौ प्रतीतो विशेषः, तदेवंभूतं पानकजातम् 'असंयतः' गृहस्थो भिक्षुमुद्दिश्य - साध्वर्थं द्राक्षादिकमामधें पुनर्वंशत्वग्निष्पादितच्छब्ब केन वा, तथा दूसं वस्त्रं तेन वा, तथा 'वालगेणं'ति गव। दिवालधिवालनिष्पन्नचालनकेन सुघरका गृहकेन वा इत्यादिनोपकरणेनास्थ्याद्यपनयनार्थं सकृदापीडय पुनः पुनः परिपीडय तथा परिस्राव्य निर्गान्याहृत्य च साधुसमीपं दद्यादिति, एवंप्रकारं पानकजातमुद्गमदोषदुष्टं सत्यपि लाभे न प्रतिगृह्णीयात्, ते चामी उद्गमदोषाः - ' आहाकम्मु ? देसिभ २ पूतीकम्मे ३ अ मीसजाए अ ४ । ठषणा ५ पाहुडियाए ६ पाओअर ७ की ८ पामिच्चे ६ ॥ १ ॥ परियहिए १० अभिहडे ११ उम्भिन्ने १२ मालोहडे १३ इअ । अच्छेज्जे १४ अणिसट्टे १५ अज्झोअरए १६ अ सोलसमे ॥ २ ॥” सार्थं यत्सचित्तमचित्तीक्रियते अचित्तं वा यस्पच्यते तदाघाकर्म १ । तथाऽऽत्मार्थं यत्पूर्वसिद्धमेव लड्डुकचूर्णकादि साधुमुद्दिश्य पुनरपि संतप्तगुडादिना संक्र
श्रुत. २ चूलिका १ पिण्डै० १
उद्देशकः ८
॥ ६९४ ॥
Page #253
--------------------------------------------------------------------------
________________
तद्देशिक सामान्येन, विशेषतो विशेषत्रादवगन्तव्यमिति २ । यदाधाकर्माद्यवयवसम्मिश्रं तत्पूतीकर्म ३ । संयतासंयता-द्यर्थमादेशरभ्याहारपरिपाको मिश्रम् ४ । साध्वर्थं क्षीरादिस्थापन स्थापना मण्यते ५ । प्रकरणस्य सामर्थमुत्सर्पणमवसर्पणं वा प्राभृतिका ६ । साधूनुद्दिश्य गवाक्षादिप्रकाशकरण बहिर्वा प्रकाशे आहारस्य व्यवस्थापनं प्रादुष्करणम् ७ । द्रव्यादिविनिमयेन स्वीकृतं क्रीतम् ८ । साध्वर्थं यदन्यस्मादुच्छिन्नकं गृह्यते तत्पामिच्चंति ९ । यच्छाल्योदनादि कोद्रवा
दिना प्रातिवेशिकगृहे परिवत्त्य ददाति तत्परिवर्तितम् १० । यद्गृहादेः साधुवसतिमानीय ददाति तदाहृतम् ११ । B गोमयाद्युपलिप्तं भाजनमुद्भिद्य ददाति तदुद्भिन्नम् १२ । मालाद्यवस्थितं निश्रेण्यादिनाऽवतार्य ददाति तन्मालाहृतम् १३ ।
भृत्यादेगच्छिद्य यहीयते तदाच्छेद्यम् १४ । सामान्य श्रेणीमक्तकायेकस्य ददतोऽनिसष्टम् १५ । स्वार्थमश्रियणादों कृते पश्चात्तन्दुलादिप्रसत्यादिप्रक्षेपादध्यवपूरकः १६ । तदेवमन्यतमेनापि दोषेण दुष्टं न प्रतिगृहणीयादिति ॥ पुनरपि भक्तपानविशेषमधिकृत्याह
से भिक्खू वा २ जाव पदिठे समाणे आगंतारेसु वा आरामागारेसु वा गाहावईगिहेसु घा परियावसहेसु वा अन्नगंधाणि वा पाणगंधाणि वा सुरभिगंधाणि वा आघाय २ से तत्थ आ.सायपडियाए मुच्छिए गिडे गढिए अज्झोववन्ने अहो गंधो २ नोगंधमाघाइजा
॥ सू० ४४॥ 'आगंतारेसु वत्ति पत्तनाद्वहिगृहेषु, तेषु ह्यागत्यागत्य पथिकादयस्तिष्ठन्नीति, तथाऽऽरामगृहेषु वा गृहपतिगृहेषु
॥६५॥
Page #254
--------------------------------------------------------------------------
________________
बीआचाराजवृत्तिः बोलाङ्का.)
श्रुत. चूलिका.१ पिण्डै०१ उद्देशका
६९.॥
वा 'पर्यावसथेषु' इति भिक्षुकादिमठेषु वा, इत्येवमादिप्यन्नपान गन्धान सुरभीनाघ्रायाघ्राय स भिक्षस्तेष्वास्वादनप्रतिज्ञया मृञ्छितो गृद्धो अथितोऽध्युपपन्नः सन्नहो। गन्धः अहो। गन्ध इत्येवमादग्वान् न गन्धं जिघ्र दिति ॥ पुनरप्याहारमधिकृत्याह
से भिक्खू वा २ जाव से जं पुण जाणिज्जा सालुयं वा बिरालिय वा सासवनालियं वा अन्नयरं वा तहप्पगारं आमगं असत्थपरिणयं अफासुयं नो पडिगाहिज्जा १ से भिक्खू वा २ जाव से जं. पुण जाणिज्जा पिप्पलिं वा पिप्पलचुण्णं वा मिरियं वा मिरियचुण्णं वा सिंगबेरं वा सिंगबेरचुण्णं वा अन्नयरं वा तहप्पगारं वा आमगं वो असत्थपरिणयं अफासुयं नो पडिगाहिज्जा २। से भिक्ख वा जाव से जं पुण पलंघजायं जाणिज्जा, तंजहा-अंबपलंब वा अंबाडगपलंयं वा तालपलंबं वा झिझिरिपलंबं वा सुरहिपलंसं वा सल्लरपलंबं वा अन्नयरं तहप्पगारं पलंबजाय आमगं असत्यपरिणय अफासुयं नोपडिगाहिज्जा३। से भिक्खं वा २ जाव से जं पुण पवालजायजाणिज्जा, तंजहाआसोट्ठपवाल वा निग्गोहपवालं वा पिलखुपवालं वा निपूरपवालं वा सल्लइपवालं वा अन्नयरं वा तहप्पगार पवालजायं आमगं असत्थपरिणयं अफासुयं जाव नो पडि. गाहिजा । से भिक्ख वा जाव. से जं पुण सरडुयजायं जाणिज्जा, तंजहा
Page #255
--------------------------------------------------------------------------
________________
सरडुयं वा (अंबसरडय' वा अंधाडसरडुयं वा) कविसरडुप वा दाखिमसरडय वा बिल्लसरडुय वा अन्नयरं वा तहप्पगारं सरडयजाय आमं असत्थपरिणय अफासुय जाव नो पडिगाहिजा से भिक्ख वा जाव से जं पुण मंथुजायं जाणिज्जा, तंजहाउ'परमंथु' चा नग्गोहमथु वा पिलुखुमंथु वा आसोत्थमंथु वा अन्नयरं वा तहप्पगारं
वा मंथुजाय आमयं दुस्वकं साणुषीय अफासु जाव नो पडिगोहिना ६ ॥सू० ४५॥ सुगम 'सालुकम्' इति कन्दको जलजः, 'बिरालियं' इति कन्द एव स्थलजः, 'सासवणालिअन्ति सर्पपकन्दन्य इति ॥ किश्व-पिप्पलीमरिचे-प्रतीते 'शृङ्गाबरम् आद्रेक तथाप्रकारमामलकादि आमम्-अशस्त्रोपहर्त न प्रतिगृहणीयादिति । सुगम, नवरं पलम्बजातमिति फलसामान्यं झिल्झिरी-वली पलाशः सुरभिः-शतरिति । गतार्थ, नवरम् 'आसोहे'त्ति अश्वत्थः 'पिलखति पिप्परी णिपूरो-नन्दीवृक्षः॥ पुनरपि फलविशेषमधिकृत्याहसुगम, नवरं 'सरडुअं वेति अबद्धास्थिफलं, तदेव विशिष्यते कपित्थादिमिरिति । स्पष्टं, नवरं 'मंथुन्ति चूर्ण: 'दुरुक्कं ति ईषत्पिष्टं 'साणबीयन्ति अविध्वस्तयोनिवीजमिति ।
से भिक्खू वा २ जाव समाणे से जं पुण जाणिज्जा आमडागं वा पूइपिन्नागं वा महुँ वा मज वा सपि वा खोल वा पुराणगं वा इत्थ पाणा अणुप्पसूयाइ'जायाई संवुड्डाई अव्वुक्कताई अपरिणया इत्थ पाणा अविडत्था नो पडिगाहिज्जा ॥ सू० ४६ ॥
Page #256
--------------------------------------------------------------------------
________________
भीमाचासवृत्तिः (शीलावा.
चूलिका.१ पिण्डै०१ उद्देशका ८
स भिक्षुर्यत्पुनरेवं जानीयत् , तद्यथा-'आमडागं वेति 'आमपत्रम्' अरणिकतन्दुलीयकादि तच्चा पक्कमपक्वं वा, 'पूतिपिन्नाग'न्ति कुथितखलं मधुमद्य-प्रतीते 'सर्पिः' घृतं 'खोलं' मद्याधःकर्दमः, एतानि पुराणानि न ग्राह्याणि, यत एतेषु प्राणिनोऽनुप्रसूता जाताः संवृद्धा अव्युत्क्रान्ता अपरिणता:-अविश्वस्ताः, नानादेशजविनेयानुग्रहार्थमेकाथिकान्येवैतानि किश्चिद्भेदाद्वा भेदः॥
से भिक्खू वा २ जाव समाणे से जं पुण जाणिज्जा उच्छुमेरगं वा अंककरेलगं वा कसेरुगं वा सिंघाडगं वा पूइआलुगं वा अन्नयरं वा तहप्पगारं आमगं असत्थपरिणय जाव नो पडिगाहिज्जा १ से भिक्खू वा २ जाव समाणे से जं पुण जाणिजा उप्पलं वा उप्पलनालं वा मिसं वा भिसमुणोलं वा पुक्खलं वा पुक्खलविभंगं वा अन्नयरं वा
तहप्पगारं आमगं असत्थपरिणयं जाव नो पडिगाहिज्जा २॥ सू०४७॥ 'उच्छुमेरगं ति अपनीतत्वगिक्षुगण्डिका 'अंककरेलुअं वा' इत्येवमादीन् वनस्पतिविशेषान् जलजान् अन्यद्वा तथाप्रकारमामम्-अशस्त्रोपहतं नो प्रतिगृहणीयादिति ॥ स मिचर्यत्पुनरेवं जानीयात, तद्यथा-'उत्पलं'नीलोत्पलादि नालं-तस्यैवाधार, 'भिसं' पद्मकन्दमूलं 'भिसमुणालं' पद्मकन्दोपरिवर्तिनी लता 'पोक्खलं पद्मकेसरं 'पोक्खलविभंग' पद्मकन्दः अन्यद्वा तथाप्रकारमामम्-अशस्त्रोपहतं न प्रतिगृहणीयादिति ॥
Page #257
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ ६६६ ।।
******
से भिक्खु वा २ जाव समाने से जं पुण जाणिजा अग्गबोयाणि वा मूलबीयाणि वा संघीयाणि वा पोरबोयाणि वा अग्गजायाणि वा मूलजायाणि वा खंधजायाणि वा पोरजायाणि वा नन्नत्थ तकलिमस्थए ण वा तलिसीसे ण वा नालियेर मत्थए ण वा खजूरिमत्थए ण वा तालमत्थंए ण वा अन्नयरं वा तहप्पगारं आमं असत्यपरिणयं लाभे संते नो पडिगाहिजा १ । से भिक्खू वा २ जाव समाणे से जं पुण जाणिजा उच्छु वा काणगं वा अंगारियं वा संमिस्सं विगदूमियं वित्त (प्त) ग्गगं वा कंदलीऊसुर्ग अन्नयरं वा तहप्पारं आमं असत्यपरिणयं लाभे संते नो पडिगाहिजा २ । से भिक्खू वा २ जाव समाणे से जं पुण जाणिजा लसुणं वा लसुणपत्तं वा लसुणनालं वा लसुणकंदं वा लसुणचोयगं वा अन्नयरं वा तहप्पगारं आमं असत्थपरिणयं लाभे संते नो पडिगाहिजा ३ । से भिक्खू वा २ जाव समाणे से जं पुण जाणिजा अच्छियं वा कुभिपक्कं निंदुगं वा वेलुगं वा कासवनालिय वा अन्नयरं वा तहप्पगारं आमं असत्थपरिणय' लाभे संते नो पडिगाहिज्जा ४ । से भिक्खू वा २जाव समाणे से जं पुण जाणिज्जा कणं वा कणकु खगं वा कणपूयलिय वा घाउलं वा चाडलपिडं वा तिलं वा तिलपिट्ठ वा तिलपपडगं वा अन्नयरं वा तहप्पगारं आमं असत्यपरिणय लाभे संते नो पडिगाहिज्जा
܀܀܀܀܀
॥ ६६६ ॥
Page #258
--------------------------------------------------------------------------
________________
भीआचागनवृत्तिः (शी लावा.
॥ ७.०॥
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
५। एवं खलु तस्स भिक्खुस्स वा भिक्खणीए वा सामग्गिय जाव सया जएजासि
श्रुत• २ त्तिबेमि ६॥ सू०४८॥ पिण्डैषणायामष्टम उद्देशकः ॥ २-१-१-८॥
चूलिका-१ स भिक्षुर्यत्पुनरेवं जानीयात् , तद्यथा-'अग्रबोजानि' जपाकुसुमादीनि 'मूलबीजानि' जात्यादीनि 'स्कन्ध
पिण्डै०१ बीजानि' सल्लवयादीनि 'पर्वबीजानि' इक्ष्वादीनि, तथा अग्रजातानि मूलजातानि स्कन्धजातानि पर्वजातानीति,
उद्देशकः ८ 'जन्नत्यत्ति नान्यस्मादग्रादेरानीयान्यत्र प्ररोहितानि किन्तु तत्रैवाग्रादौ जातानि, तथा 'तकलिमत्थए ण वा' तकलीकन्दली 'ण' इति वाक्यालङ्कारे तन्मस्तकं-तन्मध्यवती गर्भः, तथा 'कन्दलीशीर्ष' कन्दलीस्तबकः, एवं नालिकेरादेरपि द्रष्टव्यमिति, अथवा कन्दल्यादिमस्तकेन सदृशमन्यद्यच्छिन्नानन्तरमेव ध्वंसमुपयाति तत्तथाप्रकारमन्यदामम्-अशस्त्रपरिणतं न प्रतिगृह्णीयादिति ॥ स भिक्षुर्यत्पुनरेवं जानीयात् , तद्यथा-इक्षा काणगंति व्याधिविशेषासच्छिद्रं, तथा 'अंगारकितं' विवर्णीभूतं, तथा 'सम्मिश्र' स्फुटितत्वक् 'विगदूमिय'ति कैः शृगालै| ईपद्धक्षितं, न बतावता रन्ध्राद्युप-11 द्रवेण तत्प्रासुकं मवतीति सूत्रोपन्यासः, तथा 'वेत्तगंति वेत्राग्रं 'कंदलीऊसुर्य'ति कन्दलीमध्यं, तथाऽन्यदप्येवंप्रकारमामम्-अशस्त्रोपहतं न प्रतिगृह्णीयादिति ॥ एवं लशुनसूत्रमपि सुगम, नवरं 'चोअगं'ति कोशिकाकारा बशुनस्य बाह्यत्वक, सा च यावत्साा तावत्सचित्तेति ॥ 'अच्छियंति वृक्षविशेषफलं 'तंदुयंति टेम्बरूयं 'वेलयं ति बिल्वं 'कासवनालिय'ति श्रीपर्णीफलं कुम्भीपक्कशब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यते, एतदुक्तं भवति-यदच्छिकफलादिग दावप्राप्त- Ealn७००॥ पाककालमेव बलात्पाकमानीयते तदामम्-अपरिणतं न प्रतिगृह्णीयादिति ॥ 'कणम' इति शान्यादेः कणिकास्तत्र कदा
Page #259
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥७०१॥
चिन्नामिः संमवेत 'कणिककुण्डं' कणिकाभिर्मिश्राः कुक्कुसाः कणपूयलिति कणिकाभिमिश्राः पूपलिकाः कणपूपलिकाः, अत्रापि मन्दपक्कादौ नामिः संभाव्यते, शेष सुगमे यावत्तस्य भिक्षोः 'सामग्र्य' सम्पूर्णो मिक्षुभाव इति ॥ प्रथमस्याष्टमोद्देशकर समाप्तः॥ १०२ चू०१.०१.८॥
॥ अथ प्रथमपिण्डैषणाध्ययने नवम उद्देशकः ॥ . उक्तोऽष्टमोदेशकः, साम्प्रतं नवम आरभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-दहानन्तरमनेषणीयपिण्डपरिहार उक्तः, इहापि प्रकारान्तरेण, स.एवाभिधीयते
इह खलु पाईणं वा ४ संतेगहया सड्ढा, भवंति, गाहावई वा जाव कम्मफरी वा, तेसिं चणं एवं वृत्तपुठ्वं भवइ-जे इमे भवंति समणा भगवंता सीलवतो वयवंतो गुणवंतो संजया संवुडा बंभयारो उवरया मेहुणालो. धम्माओ, नो खल एएसिं कप्पड आहाकम्मिए असणे वा ४ भुत्तए वा पायए वा ? । से जं पुण इमं अम्हं अप्पणों अहाए निट्ठियं तं असणं ४ सव्वमेयं समणाणं निसिरामो, अवियाई वयं पच्छा अप्पणो अढाए असणं वा ४ चेहस्सामो २ । एयप्पगारं निग्घोसं सुचा निसम्म तहप्पगारं असणं वा ४ अफासुयं अणेसणिज्जं लाभे संते नो पडिगाहिज्जा ३॥ सू०४९॥
M
Page #260
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रुत.. चूलिका पिण्ड.. उद्देशक
___'इहे ति वाक्योपन्यासे प्रज्ञापकक्षेत्रे वा, सलुशन्दो वाक्यालङ्कारे प्रज्ञापकाद्यपेक्षया प्राच्यादौ दिशि सन्ति-विद्यन्ते श्रीआचा
पुरुषाः तेषु च केचन श्रद्धालवो भवेयुः ते च श्रावकाः प्रकृतिभद्रका वा, ते चामा-गृहपतिर्यावत्कर्मकरी वेति, तेषां गणवृत्तिः
चेदमुक्तपूर्व भवेत्-'णम्' इति वाक्यालङ्कारे, य हमे 'श्रमणा:' साधवो भगवन्तः 'शीलवन्तः' अष्टादशशीलाङ्गशीलाका.)
सहस्रधारिणः 'व्रतवन्तः' रात्रिभोजनविरमणषष्ठपञ्चमहाव्रतधारिणः ‘गुणवन्तः' पिण्डविशुद्धथाद्युत्तरगुणोपेताः 'संयता:
इन्द्रियनोइन्द्रियसंयमवन्तः 'संवताः पिहितास्रवद्वाराः 'ब्रह्मचारिणः' नविधब्रह्मगुप्तिगुप्ताः 'उपरता मैथुनाडर्मात् BE अष्टादशविकल्पब्रह्मोपेता(संयता), एतेषां च न कम्पते आधाकर्मिकमशनादि भोक्तु पातुवा, अतो यदात्मार्थमस्माकं
निष्ठितं सिद्धमशनादि ४ तत्सर्वमेतेभ्यः श्रमणेभ्यः 'णिसिरामोत्ति प्रयच्छामः, अपि च-वयं पश्चादात्मार्थमशनाद्यन्यत् 'चेतयिष्यामः' सङ्कन्पयिष्यामो निवर्तयिष्याम इतियावत् , तदेवं साधुरेवं निर्घोष' ध्वनि स्वत एवं श्रुत्वाऽन्यतो
वा कुतश्चित् 'निशम्य ज्ञात्वा तथाप्रकारमशनादि पश्चात्कर्मभयादप्रासुकमिन्यनेषणीयं मत्वा लामे सति न प्रतिगृहणीया18 दिति ॥ किश्व
से भिक्खू वा २ जाव समाणे वसमाणे वा गामाणगाम वा दइजमाण से जं पुण जाणिज्जा गामं वा जाव रायहाणि वा इमंसि खलु गामंसि वा रायहाणिसि वा संने. गझ्यस्स भिक्खुस्स पुरसथुया वा पच्छासथया था परिवसनि. जहा---गाहावई वा जाव कम्मकरी वा, नापगागा' कुलाद नो पुवामंच मनात वा निकावमिज़ वा
Page #261
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥७०३ ॥
४०*०***
पविसेज वा १ । केवली बूया आयाणमेय, पुरा पेहाए तस्स परो अडाए असणं "वा ४ उपकरिज था, उवक्खडिज वा अह भिक्खुणं पुव्वोवइझ ४ जं नो तहप्पगाराह कुलाइ पुव्वामेव भत्ताए वा पाणाए वा पविसिन वा निक्खमिज वा २ । से तमायाय एगंतमवकमिज्जा २ अणावायमसंतोए चिडिया, से तत्थ काळेणं अणुपविसिज्जा २ तत्थियरे यरेहिं कुलेहिं सामुदाणियं एसियं वेसियं पिंडवायं एसित्ता आहारं आहारिज्जा, सिया से परो कालेण अणपविट्ठस्स आहाकम्मियं असणं वा ४ उवकरिज वा उथक्वजि वा तं वेगइओ तुसिणीओ उवेहेजा, आहडमेव पचाइ क्विस्सामि, माइट्ठाणं संफासे, नो एवं करिजा ३ । से पुव्वामेव आलोइजा - आउसोत्ति वा भइणित्ति वा ! नो खलु मे कप्प आहाकम्मियं असणं वा ४ भुत्तए वा पायए वा, मा उनकरेहि मा उचक्खडेहि, से सेवं वयंतस्स परो आहाकम्मियं असणं वा ४ उवक्खडावित्ता आह
लज्जा तहप्पगारं असणं वा ४ अफासुर्य जाव बाभे संते नो पड़िगाहिजा ४ ॥ सू० ५० ॥ समिक्षुर्यत्पुनरेवं जानीयात्, तद्यथा-ग्रामं वा यावद्राजधानीं वा, अस्मिश्च ग्रामादौ 'सन्ति' विद्यन्ते कस्यचिद्भिक्षोः 'पूर्वसंस्तुताः' पितृव्यादयः 'पश्चात्संस्तुता वा' श्वशुरादयः, ते च तत्र बद्धगृहाः प्रबन्धेन प्रतिवसन्ति, ते चामीगृहपतिर्वा यावत्कर्मकरीना, तथाप्रकाराणि च कुलानि भक्तपानाद्यर्थं न प्रविशेत् नापि निष्क्रामेत्, स्वमनीषिकापरिहारा
❖❖❖❖❖❖❖❖❖❖&
॥ ७०३ ॥
Page #262
--------------------------------------------------------------------------
________________
भीआचाराजवृत्तिः श्रीलावा.)
७०४॥
܀
र्थमाह-केवली व याकर्मोपादानमेतत् , किमिति ?, यतः पूर्वमेवैतत् 'प्रत्युपेक्षेत' पर्यालोचयेत् , तथा 'एतस्य' भिक्षोः । कृते ‘परः' गृहस्थोऽशनाद्यर्थम् 'उपकुर्यात्' ढौकये दुपकरण जातम् , 'उचक्ख डेज'ति तदशनादि पचेद्वेति, 'अथ'
श्रुतस्क०२
चूलिका०१ अनन्तरं भिक्षूणां पूर्वोपदिष्टमेतत्प्रतिज्ञादि, यथा-नो तथाप्रकागणि स्वजनसम्बन्धीनि कुलानि पूर्वमेव-मिक्षाकालादारत
पिण्डैष.. एव भक्ताद्यर्थ प्रविशेद्वा निष्क्रामेद्वेति । यद्विधेयं तद्दर्शयति- ‘से तमादायेति 'सः' साधुः 'एतत्' स्वजनकुलम् | 'आदाय' ज्ञात्वा केनचित्स्वजनेन।ज्ञात एवैकान्तमपक्रामेद्, अपकम्य च स्वजनाधनापातेऽनालोके च तिष्ठेत् , स च । तत्र स्वजनसम्बद्धग्रामादौ 'कालेन' मिक्षाऽवसरेणानुप्रविशेत् , अनुप्रविश्य च 'इतरेतरेभ्यः कुलेभ्यः स्वजनरहितेभ्यः एसियंति एषणीयम्-उद्गमादिदोषरहित 'वेसियति वेषमात्रादवाप्तमुत्पादनादिदोषरहितं. 'पिण्डपात', भिवाम् al एषित्वा' अन्विष्य एवंभूतं ग्रासैषणादोषरहितमाहारमाहारयेदिति । ते चामी उत्पादनादोषाः, तद्यथा-"धाई दुइ निमित्ते ३ आजीव ४ वणीमगे ५ तिगिच्छा.६ य । कोहे ७ माणे ८ माया ९ लोभे १० य हवन्ति । इस एए |.१ ॥ पुविपच्छासंथव ११ विज्जा १२ मंते १३ अ चुण्ण १४ जोगे १५ य । उप्पायणाय । दोसा सोलसमे मूलकम्मे य १६ ॥॥" तत्राशनाद्यर्थ . दातुरपत्योपकारे वर्तत इति धात्रीपिण्डः १, तथा कार्यसङ्घट्टनाय दौत्यं विधत्ते इति दूतीपिण्डः २, निमित्तम्-अङ्गुष्ठप्रश्नादि तदवाप्तो निमित्तपिण्डः ३, तथा जात्याद्याजीवनादवाप्त आजीविकापिण्डः ४, दातुर्यस्मिन् भक्तिस्तस्प्रशंसयाऽबाप्तो वणीमगपिण्डः ५, सूक्ष्मेतरचिकित्सया.
॥७०४॥ वाप्तश्चिकित्सापिण्डः ६, एवं क्रोधमानमायालोभैरवाप्तः क्रोधादिपिण्डः १०, भिक्षादानात्पूर्व पश्चाद्वा दातुः 'कर्णायते
.
...
.
22.....
...
.
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
Page #263
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ ७०५ ।।
भवानि' त्येवं संग्तवादवाप्तः पूर्वपश्चात्संस्तवपिण्डः ११, विद्ययाऽवाप्तो विद्यापिण्डः १२, तथैव मन्त्रजापावाप्तो मन्त्रपिण्ड. १३, वशीक णाद्यर्थं द्रव्यचूर्णादवाप्तश्च पिण्डः २४, योगाद्-अञ्जना देवाप्तो योगपिण्डः १५, यदनुष्ठानाद्गर्भशातनामूलमवाप्यते तद्विधानादवाप्तो मूलपिण्डः १६, तदेवमेते साधुसमुत्थाः षोडशोत्पादनादोषाः । ग्रासषणादोषाश्चामी— " संजोअणा १ पमाणे २ इंगाले ३ धूम ४ कारणे ५ चेव ।" तत्राह । रलोलुपतया द्रधिगुडादेः संयोजनां विदधतः संयोजन दोषः १, द्वात्रिंशत्कवल प्रमाणातिरिक्तमाहारमाहारयतः प्रमाणदोषः २, तथाऽऽहाररागाद्गादर्थाद् भुञ्जानस्य चारित्राङ्गारत्वापादनादङ्गा दोष: ३ तथाऽन्तप्रान्तादावाहारद्वेषाश्चारित्रस्याभिधूमनाद्धूम्रदोषः ४, वेदनादिकारणमन्तरेण
नस्य कारणदोषः ५, इत्येवं वेषमात्रा वाप्तं ग्रासैषणादिदोषरहितः सन्नाहारमाहारयेदिति । अथ कदाचिदेवं स्यात्, सः 'पर' गृहस्थः कालेन नुप्रविष्टस्यापि मिचोराधाकर्मिकमशनादि विदध्यात् तच्च कश्चित्साधुस्तूष्णीभावेनोत्प्रेक्षेत, किमर्थम् १, आहृतमेव प्रत्याख्यास्यामीति, एवं चं मातृस्थानं संस्पृशेत्, न चैवं कुर्यात्, यथा च कुर्याद्दर्शयति-स पूर्वमेव 'आलोकयेत्' दत्तोपयोगो भवेत् दृष्ट्टा चाहारं संस्क्रियमाणमेवं वदेद्यथा अमुक ! इति वा भगिनि ! इति वा न खलु मम कल्पत आधाकर्मिक आहारो भोक्तुं वा पातु वातस्तदर्थं यत्नो न विधेयः, अथैवं वदतोऽपि पर आधाकर्मादि कुर्यात्ततो लाभे सति न प्रतिगृह्णीयादिति ॥
से भिक्खु वा २ जाव से जं पुण जाणिज्जा-मंसं वा मच्छं वा भज्जिज्जमाणं पेहाए तिलपूयं वा आएसाए उचक्खडिज्जमाणं पेहाए नो स्वद्धं २ उपसंकमित्तु ओभासिज्जा,
❖❖❖8
******
॥ ७०५ ॥
Page #264
--------------------------------------------------------------------------
________________
भीआचाराजवृत्तिः डीलावा.)
श्रुतस्कं. २ चूलिका पिण्डैष.. उद्देशक
नन्नत्थ गिलाणणीसाए ॥ सू० ५१ ॥
स पुनः साधुर्यदि पुनरेवं जानीयात, तद्यथा-मांस वा मत्स्यं वा 'भज्यमान मिति पच्यमानं तैलप्रधानं वा पूर्प, तच्च किमर्थं क्रियते इति दर्शयति-यस्मिन्नायाते कर्मण्यादिश्यते परिजनः म आदेशः-प्राघूर्णकस्तदर्थ संस्क्रियमाणमाहारं प्रेक्ष्य लोलुपतया नो' नैव 'खडं ति शीघ्र २, द्विवचनमादरख्यापनार्थमुपसंक्रम्यावभाषेत-याचेत, अन्यत्र ग्लानादिकार्यादिति ॥
से भिक्ख पा २ जाव समाणे अन्नयरं भोयणजायं पडिगाहित्ता सुभि सुभि भुच्चा दुभि २ परिहवेइ, माइहाणं संफासे, नो एवं करिजा । सुभि वा दुभि वा सव्वं
भुञ्जिजा नो किंचिवि परिहविजा (सव्वं भुजे न छडुए)२॥ सू०५२ ॥ स भिक्षुरन्यतरद् भोजनजातं परिगृह्य सुरभि सुरभि भक्षयेत् दुर्गन्धं २ परित्यजेत्. बीप्सायां द्विवचन, मातृस्थानं चैवं संस्पृशेत , तच्च न कुर्यात, यथा च कुर्यात् तदर्शयति-सुरभि वा दुर्गन्धं वा सर्व भुञ्जीत न परित्यजेदिति ।
से भिक्ख वा २जाव समाणे अन्नयरं पाणगजायं पडिगाहित्ता पुप्फ २ आविइत्ता कसायं २ परिहवेह, माइहाणं संफासे, नो एवं करिजा १ । पुप्फ पुप्फेह वा कसायं
कसाइ वा सव्वमेयं भुञ्जिज्जा, नो किंचिवि परिवेज्जा २ ॥ सू०५३॥ एवं पानकमत्रपि, नवरं वर्णगन्धोपेतं पुष्पं तद्विपरीतं कषायं, वीप्सायां द्विवचनं, दोषश्वानन्तरत्रयोराहारगाद्धर्थात
Page #265
--------------------------------------------------------------------------
________________
७०७॥
स्त्रार्थहानिः कर्मबन्धश्चति ॥
से भिक्खू वा २ बहुपरियावन्नं भोयणजायं पडिगाहित्ता बहवे साहम्मिया तत्थ वसति संभोइया समणना अपरिहारिया अदूरगया, तेसिं अणालोइया अणामंते परिवेइ, माइहाणं संफासे, नो एवं करेजा १। से तमायाए तत्थ गच्छिज्जा २ से पुवामेव आलोइज्जा-आउसंतो समणा! इमे मे असणे वा पाणे वा बहुपरियावन्ने तं भुञ्जह णं से सेवं वयंतं परो वइजा-आउसंतो समणा ! आहारमेयं असणं वा ४ जावइयं २ सरह तावइयं २ भुक्खामो वा पाहामो वा सव्वमेयं परिसडा सव्वमेयं भुक्खामो
वा पाहामो वा ३॥ सू०५४ ॥ स भिक्षुर्बह्वशनादि पर्यापन्न-लब्धं परिगृह्य बहुभिर्वा प्रकारैराचार्यग्लानप्राघूर्णकाद्यर्थ दुर्लभद्रव्यादिभिः पर्यापनमा हारजातं परिगृह्य तद्वहुत्वाद्भोक्तुमसमर्थः, तत्र च साधर्मिकाः सम्मोगिकाः समनोज्ञा अपरिहारिका एकार्थाचालापकाः, इत्येतेषु सत्स्वद्गगतेषु वा ताननापृच्छय प्रमादितया 'परिष्ठापयेत्' परित्यजेत्, एवं च मातृस्थानं संस्पृशेत, नैवं कुर्यात, यच्च कुर्यात्तदर्शयति-समिक्षस्तदधिकमाहारजातं परिगृह्य तत्समीपं गच्छेद्, गत्वा च पूर्वमेव 'आलोकयेत' दर्शयेत, एवं चत्र याद-आयुष्मन् ! श्रमण ! ममैतदशनादि बहु-पर्यापन्न नाहं मोक्तुमलमतो यूयं किश्चित् मुजवं, तस्य चैवं वदतः स परोन याद्-यावन्मानं भोक्त' शक्नुमस्तावन्मानं भोक्ष्यामहे पास्यामो वा, सर्व वा 'परिशटति'
॥७.७॥
Page #266
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीआचा
राङ्गवृत्तिः
'शीलाङ्का.)
॥ ७०८ ॥
उपयुज्यते तत्सर्वं मोक्ष्यामहे पास्याम इति ॥
से भिक्खु दा २ से जं पुण जाणिज्जा असणं वा ४ परं समुद्दिस्स बहिया नीहडं जं परेहिं असमणुन्नायं अणिसि अफासुर्य जाव नो पडिगाहिज्जा जं परेहिं समणुष्णायं सम्म णिसिहं फासूयं जावें पडिगाहिज्जा १ । एवं खलु तस्स भिक्खुस्स भिक्खुणीए वा सामग्गियं जाव सया जसज्जासि त्तिबेमि २ ॥ सू० ५५ ॥ ॥ पिण्डैषणायां नयम उद्देशकः ॥ २-१-१-९॥
स पुनर्यदेवंभूतमाहारजातं जानीयात्, तद्यथा - 'परं' चारभटादिकमुद्दिश्य गृहान्निष्क्रान्तं यच्च परैर्यदि भवान् कस्मैचिद्ददाति ददावित्येवंन समनुज्ञातं नेतुर्दातुर्वा स्वामित्वेनानिसृष्ट' वा तद् बहुदोषदुष्टस्वादप्रा सुकमनेषणीयमिति मत्वा न प्रतिगृह्णीयात्, तद्विपरीतं तु प्रतिगृह्णीयादिति, एतत्तस्य भिक्षोः सामग्रयमिति ॥ प्रथमाध्ययनस्य नवमोद्देशकः परिसमाप्तः ॥
-11-1
॥ अथ प्रथमपिण्डेषणाध्ययने दशम उद्देशकः ॥
उक्तो नवमोऽधुना दशम आरभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः - इहानन्तरं पिण्डग्रहणविधिः प्रतिपादितः, इह तु साधारणादिपिण्डावाप्तौ वसतौ गतेन साधुना यद्विधेयं तद्दर्शयितुमाह
श्रुत० २ चूलिका १ पिण्डै० १ उद्दे शका १०
॥ ७०८ ॥
Page #267
--------------------------------------------------------------------------
________________
.
७.९
॥
से एगइओ साहारणं वा पिंडवायं पडिगाहित्ता ते साहम्मिए अणापुच्छित्ता जस्स जस्स इच्छह तस्स तस्स खडं खडं दलहं, माइहाणं संफासे, नो एवं करिजा १ । से तमायाय तत्थ गच्छिब्जा २ एवं वइज्जा--आउसंतो समणा! संति मम पुरेसंथुया वा पच्छासंथुया, तंजहा-आयरिए वा१ उवज्झाए वा पवित्ती वा ३ थेरे वा ४ गणो वा ५ गणहरे वा ६ गणावच्छेहए वा ७ अवियाई एएसिं खडं वळ दाहामि, सेणेवं वयंतं परो वहज्जा-कामं खलु आउसो ! अहापज्जतं निसिराहि, जावइयं २ परो वदह
तावइयं र निसिरिजा, सव्वमेवं परो वयइ सव्वमेयं निसिरिजा २ ॥ सू० ५६ ॥ 'सः' भिक्षः 'एकतर' कश्चित् 'साधारणं' बहूनां सामान्येन दत्तं वाशब्दः पूर्वोत्तरापेक्षया पक्षान्तरद्योतकः पिण्डपातं परिगृह्य तान् साधर्मिकाननापृच्छय यस्मै यस्मै रोचते तस्मै तस्मै स्वमनीषिकया 'खडं खड़'ति प्रभूतं प्रभूतं प्रय. च्छति, एवं च मातृस्थानं संस्पृशेत् तस्मान्नैवं कुर्यादिति ॥ असाधारणपिण्डावाप्तावपि यद्विधेयं तदर्शयति। 'स' भिक्षुः 'तम्' एषणीयं केवलवेषावाप्तं पिण्डमादाय 'तत्र' आचार्याद्यन्तिके गच्छेद , गत्वा चैवं वदेद् , यथाआयुप्मन् ! श्रमण ! 'सन्ति' विद्यन्ते मम 'पुरःसंस्तुताः' यदन्तिके प्रबजितस्तत्सम्बन्धिनः ‘पश्चात्संस्तुता वा' यदन्तिकेऽधीतं श्रुतं वा तत्सम्बन्धिनो वाऽन्यत्रावासिताः, ताश्च स्वनामग्राहमाह, तद्यथा-'आचार्यः' अनुयोगधरः १ 'उपाध्यायः' अध्यापकः २ प्रवृत्तियथायोगं वैयावृत्त्यादौ साधूनां प्रवर्तक ३, संयमादौ सीदतां साधूनां स्थिरी
Page #268
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रुतस्कं० २ पिण्डै
उद्देश्यका १०
करणास्थविरः ४, गच्छाधिपो गणी ५, यस्त्वाचार्यदेशीयो गुर्वादेशात् साधुगणं गृहीत्वा पृथग्विहरति स गणधरः ६, श्रीआचा राजवृत्तिः
गणावच्छेदकस्तु गच्छकार्यचिन्तकः ७, 'अवियाई"ति इत्येवमादीनुद्दिश्यैतद्वदेद्-यथाऽहमेतेभ्यो युष्मदनुज्ञया 'खड शीलावा.)
खडंति प्रभूतं प्रभृतं दास्यामि, तदेवं विज्ञप्तः सन् 'परः' आचार्यादिर्यावन्मात्रमनुजानीते तावन्मात्रमेव 'निसृजेत्' दद्यात् सर्वानुज्ञया सर्व वा दद्यादिति ॥ किश्च
से एगइओ मणुन्नं भोयणजायं पडिगाहित्ता पंतेण भोयणेण पलिच्छाएइमा मेयं दाइयं संतं दट्टण सयमाइए आयरिए वा जाव गणावच्छेए वा । नो खल मे कस्सह किंचि दायव्वं सिया, माइट्ठाण संफासे, नो एवं करिजा २। से तमायाए तत्थ गच्छिज्जा २ पुवामेव उत्ताणए हत्थे पडिग्गहं कट्ट इमं स्खल इमं खलुत्ति आलोइन्ना, नो किंचिवि णिमूहिज्जा ३ । से एगइओ अन्नयरं भोयणजायं पडिगाहित्ता भद्दयं २
भुच्चा विवन्नं विरसमाहरइ, माइहाणं संफासे, नो एवं करेजा ४ ॥ सू०५७॥ सगमं, यावन्नैवं कुत, यच्च कुर्यात्तद्दर्शयति-'सः' भिक्षुः 'त' पिण्डमादाय 'तत्र' आचार्याधन्तिके गच्छेद, गत्वा च सर्व यथाऽवस्थितमेव दर्शयेत् , न किश्चित् 'अवगृहयेत्' प्रच्छादयेदिति ॥ साम्प्रतमटतो मातृस्थानप्रतिषेधमाह___ 'स' मिचः 'एकतरः कश्चित् 'भन्यतरत्' वर्णाद्युपेतं भोजनजातं परिगह्याटन्नेव रसगृध्नुतया भद्रकं २ भुक्त्वा ॐ यद् 'विवर्णम्' अन्तप्रान्तादिक तत्प्रतिश्रये 'समाहरति' आनयति, एवं च मातृस्थानं संस्पृशेत् , न चैवं कुर्या
॥ ७१०॥
Page #269
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ ७११ ॥
****
दिति ॥ किञ्च -
सेभिक्खू वा २ से जं पुण जाणिज्जा अंतरुच्त्रियं वा उच्छुगंडियं वा उच्छुचोयगं वा उच्छुमेरगं वा उच्छुसालगं वा उच्छुडालगं वा सिंबलिं वा सिंबलथालगं वा अस्सि खलु पडिग्गहियंसि अप्पे भोषणजाए बहु उज्झियधम्मिए तह पगारं अंतरुच्यं वा जाव सिंपलथालगं वा अफासुयं अणेसणिज्जं लाभे संते जाव नो पडिगाहिज्जा १ । सेभिक्खू वा २ से जं पुण जाणिजा बहुअट्ठियं वा मंसं वा मच्छं वा चहुकंटयं अहिंस खलु ाहितंसि अप्पे सिया भोषणजाए बहुउज्झियधम्मिए तहप्पगारं बहुअडियं वा मंसं वा मच्छं वा बहुकंदयं वा लाभे संते जाव नो पडिगाहिज्जा २ । से भिक्खू वा २ जाव समाणे सिया णं परो बहुअडिएणं मंसेण वा मच्छ्रेण वा उवनिमंतिजाआउसंतो समणा ! अभिकंखसि बहुअट्ठियं मंसं पडिगाहित्तए : एयप्पगारं निग्धोसं सुच्चा निसम्म से पुव्वामेव आलोइज्जा - आउसोत्ति वा २ नो खलु मे कप्पइ बहुअडियं मंसं पडिगाहित्तए ३ । अभिकंखसि मे दाउं जावइयं तावइयं पुग्गलं दलयाहि, मा य अडियाइ', से सेवं वयंतस्स परो अभिद्दु अंतो पडिग्गहगंसि बहुअट्ठियं मंसं परिभाइत्ता निहद्दु दलइज्जा, तहप्पगारं पडिग्गहं परहत्थंसि वा परपायंसि वा अफासूर्य
❖❖❖❖❖❖❖❖
****
४**
॥ ७११ ॥
Page #270
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीआचा. राङ्गवृत्तिः शीलाङ्का.)
श्रुत०२ चूलिका १ पिण्डे०१ उद्देशक:१०
अणेसणिज्जं लाभे संते जाव नो पडिगाहिज्जा ४। से आहच पडिगाहिए सिया तं नोहित्ति वइज्जा नो अणिहित्ति वजा ५। से तमायाय एगंतमवकमिज्जा २ अहे आरामंसि वा अहे उवस्सयंसि वा अप्पंडे जाव संताणए मंसगं मच्छगं भुच्चा अद्वियाई कंटए गहाय से तमायाय एगंतमवकमिज्जा २ अहे झामथंडिलंसि वा जाव पम
जिय पमन्जिय परहविज्जा ६॥ सू०५८॥ समिक्ष्यत्पुनरेवंभूतमाहारजातं जानीयात् , तद्यथा-'अंतरुच्छुअं वत्ति इक्षुपर्वमध्यम् 'इक्षुगंडिय'ति सपर्वेक्षुशकलं 'चोयगो' पीलितेतुच्छोदिका 'मेरुकं त्यग्रं 'सालगं'ति दीर्घशाखा 'डालगं"ति शाखैकदेशः 'सिंबलिन्ति मुद्गादीनां विध्वस्ता फलिः 'सिंबलिथालगंति वल्ल्या(खा)दिफलीनां स्थाली फलीनां वा पाकः, अत्र चैवंभूते परिगहीतेऽप्यन्तरिवादिकेऽम्पमशनीयं बहुपरित्यजनधर्मकमिति मत्वा न प्रतिगृह्णीयादिति ॥ एवं मांससूत्रमपि नेयम्, अस्य चोपादानं क्वचिन्लूताद्यपशमनार्थ सद्वैद्योपदेशतो बाह्यपरिभोगेन स्वेदादिना ज्ञानाद्यपकारकत्वात्फलवदृष्टं, भुजिश्चात्र बहिःपरिभोगार्थे नाम्यवहारार्थ पदातिभोगवदितिच्छेदसूत्रवपि प्रायो द्रष्टव्यः । एवं गृहस्थामन्त्रणादिविधिपुद्गलसूत्रमपि सुगममिति, तदेवमादिना छेदसूत्राभिप्रायेण ग्रहणे सत्यपि कण्टकादिप्रतिष्ठापनविधिरपि सुगम इति ॥
से भिक्खू वा २ जाव समाणे सिया से परो अभिहट्टु अंतो पडिग्गहे विलं वा लोणं उभियं वा लोणं परिभाइत्ता नोहदु दलइजा, तहप्पगारं पडिग्गहं परहत्थंसि वा २
॥७१२॥
Page #271
--------------------------------------------------------------------------
________________
।७१३॥
अफासुयं जाव नो पबिगाहिजा ११ से आहच्च परिगाहिए सिया तं च नाइदूरगए जाणिज्जा २। से तमायाए तत्थ गच्छिज्जा २ पुवामेव आलोइज्जा-आउसोत्ति वा २ इमं किं ते जाणया दिन्नं उयाहु अजाणया?, से य भणिज्जा-नो खलु मे जाणया दिन, अजाणया दिनं, कामं खल आउसो! इयाणि निसिरामि, तं भुञ्जह वा णं परिभाएह वा णं तं परेहि समन्नायं समणसट्टे तओ संजयामेव भुझिज वा पोइज्ज चा३। जं च नो संचाएइ भोत्तए वा पायए वा साहम्मिया तत्थ वसंति संभोइया समणुन्ना अपरिहारिया अदूरगया, तेसिं अणप्पयायव्वं सिया, नो जत्थ साहम्मिया जहेव बहुपरियार कीरइ तहेव कायव्वं सिया ४। एवं खल तस्स भिक्खुस्स भिक्खुणोए वा सामग्गियं जाव सया जएज्जासि त्ति बेमि ५ ॥ सू० ५६॥
॥पिण्डैषणायां दशम उद्देशकः ॥२-१-१-१०॥ स भिक्षुगृ हादौ प्रविष्टः, तस्य च स्यात्-कदाचित् 'परः' गृहस्थः 'अभिहट्ट अंतो' इति अन्तः प्रविश्य पतद्ग्रहेकाष्ठच्छब्बकादौ ग्लानाद्यर्थ खण्डादियाचने सति 'बिडं वा लवणं' खनिविशेषोत्पन्नम् 'उद्भिज वा' लवणाकराद्यत्पन्नं 'परिभाएत्त'त्ति दातव्यं विभज्य दातव्यद्रव्यात्कश्चिदंशं गृहीत्वेत्यर्थः, ततो निःसृत्य दद्यात्, तथाप्रकारं परहस्तादिगतमेव प्रतिषेधयेत् , तच्च 'आहच्चे ति सहसा प्रतिगृहीतं भवेत् , तं च दातारमदूरगतं ज्ञात्वा स भिक्षुस्त
Page #272
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रुतस्कं०२ चूलिका १ पिण्डै १ उद्देशका ११
ल्लवणादिकमादाय तत्समीपं गच्छेद् , गत्वा च पूर्वमेव तल्लवणादिकम् 'आलोकयेत्' दर्शयेद्, एतच्च याद्श्रीआचा. राजवृत्तिः
8 अमुक ! इति वा भगिनि ! इति वा, एतच्च लवणादिकं किं त्वया जानता दत्तमुताजानता ?, एवमुक्तः सन् पर एवं शीलाङ्का.)
वदेद्-यथा पूर्व मयाऽजानता दत्त, साम्प्रतं तु यदि भवतोऽनेन प्रयोजनं ततो दत्तम्, एतत्परिभोगं कुरुध्वं, तदेवं परैः
समनुज्ञातं समनुसृष्टं सत्प्रासुकं कारणवशादप्रासुकं वा भुञ्जीत पिबेद्वा, यच्च न शक्नोति भोक्तुं पातु वा तत्साधर्मि॥ ७१४॥
a| कादिभ्यो दद्यात् , तदभावे बहुपर्यापनविधि प्राक्तनं विदध्यात्, एतत्तस्य भिक्षोः सामग्र्यमिति ॥ प्रथमस्य दशमः समाप्तः॥ २-१-१-१०॥
॥ अथ प्रथमपिण्डैषणाध्ययने एकादश उद्देशकः ॥ ___ उक्तो दशमः, अधुनैकादशः समारभ्यते, अस्य चायममिसम्बन्धा-इहानन्तरोद्देशके लब्धस्य पिण्डस्य विधिरुक्तः, तदिहापि विशेषतः स एवोच्यते
भिक्खागा नामेगे एवमाहंसु समाणे वा वसमाणे वा गामाणुगामं वा दूइज्जमाणे मणन्नं भोयणजायं लभित्ता से भिक्खू गिलाइ, से हंदह णं तस्साहरह, से य भिक्ख नो भुञ्जिजा तुमं चेव णं भुजिज्जासि, से एगइओ भोक्खामित्तिक१ पलिउ चिय २ आलोइज्जा, तंजहा-इमे पिंडे इमे लोए इमे तित्ते इमे कडुयए इमे कसाए इमे अंबिले
Page #273
--------------------------------------------------------------------------
________________
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
इमे महुरे इत्तो किंचि गिलाणस्स सयइत्ति माइहाणं संफासे, नो एवं करिना। तहाठियं आलोइजा जहाठियं गिलाणस्स सयइत्ति, तंजहा-तित्तयं
तित्तएत्ति वा कडयं कडुयं कसा कसायं अंबिलं अंबिलं महुरं महुरंत्ति वा २॥ सू०६०॥ भिक्षामटन्ति भिक्षाटाः भिक्षणशीलाः साधव इत्यर्थः, नामशब्दः सम्भावनायां, वक्ष्यमाणमेषां संभाव्यते, 'एके' केचन एवमाहुः--साधुसमीपमागत्य वक्ष्यमाणमुक्तवन्तः, ते च साधवः 'समाना वा' साम्भोगिका भवेयुः, वाशब्दादसाम्भोगिका वा, तेऽपि च 'वसन्तः वास्तव्या अन्यतो वा ग्रामादेः समागता भवेयुः, तेषु च कश्चित्साधुः 'ग्लायति' ग्लानिमनुभवति, तत्कृते तान् सम्भोगिकादींस्ते भिक्षाटा मनोज्ञ मोजनलामे सत्येवमाहुरिति सम्बन्धः, 'से' इति एतन्मनोज्ञमाहारजातं 'हन्दह' गृह्णीत यूयं णम्' इति वाक्यालङ्कारे 'तस्य' ग्लानस्य 'आहरत' नयत, तस्मै प्रयच्छत इत्यर्थः, ग्लानश्चेन भुङ्क्ते ग्राहक एवाभिधीयते -त्वमेव भुक्ष्वेति, स च भिक्षमिक्षोहस्ताद् ग्लानार्थ गृहीत्वाऽहारं तत्राध्युपपन्नः सन्नेक एवाहं भोक्ष्य इतिकृत्वा तस्य ग्लानस्य 'पलिउंचिअ पलिउंचिय'त्ति मनोज्ञं गोपित्वा गोपित्वा वातादिरोगमुद्दिश्य तथा तस्य 'आलोकयेत्' दर्शयति यथाऽपथ्योऽयं पिण्ड इति बुद्धिरुत्पद्यते, तद्यथा--अग्रतो ढौकयित्वा वदति--अयं पिण्डो भादर साधुना दत्तः, किन्त्वयं 'लोए'त्ति रूक्षः, तथा तिक्तः कटुः कषायोऽम्लो मधुरो
वेत्यादि दोषदुष्टत्वानातः किश्चिद् ग्लानस्य 'स्वदतीति' उपकारे न वर्तत इत्यर्थः, एवं च मातृस्थान संस्पृशेत , न १ चैतत्कुर्यादिति । यथा च कुर्यात्तदर्शयति-तथाऽवस्थितमेव ग्लानस्यालोकयेद्यथाऽवस्थितमिति, एतदुक्तं भवति--मात
॥७१५॥
Page #274
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीआचा
राङ्गवृत्तिः
शीलाङ्का.)
॥ ७१६ ॥
स्थान परित्यागेन यथाऽवस्थितमेव न यादिति शेषं सुगमम् ॥ तथा
भिक्खागा नामेगे एवमाहंसु-समाणे वा वसमाणे था गामाणुगामं दृइजमाणे वा मन्नं भोग्रणजायं लभित्ता से य भिक्खू गिलाह से हंदह णं तस्स आहरह, से य भिक्खु नो भुञ्जिज्जा आहारिजा, से णं नो खल मे अंतराए आहरिस्सामि, इच्चेयाई आयतणाई' उवाइकम्म ॥ सू० ६१ ॥
'भिक्षादा: ' साधवो मनोज्ञमाहारं लब्ध्वा समनोज्ञांस्तांश्च वास्तव्यान् प्राघूर्णकान् वा ग्लानमुद्दिश्यैवमृचुः-- एतन्मनोज्ञमाहारजातं गृह्णीत यूयं ग्लानाय नयत, स चेन्न भुङ्क्ते ततोऽस्मदन्तिकमेव ग्लानाद्यर्थम् 'आहरेत्' आनयेत्, स चैवमुक्तः सन्नेवं वदेद् -- यथाऽन्तराय मन्तरेणा हरिष्यामीति प्रतिज्ञयाऽऽहारमादाय ग्खानान्तिकं गत्वा प्राक्तनान् भक्तादिरूक्षादिदोषानुद्घाटय ग्लानायादत्त्वा स्वत एव लौल्याद्युक्त्वा ततस्तस्य साधोनिवेदयति, यथा मम शूलं वैयावृत्य कालापर्याप्त्यादिकमन्तरायिकमभूदतोऽहं तद् ग्लानभक्तं गृहीत्वा नायात इत्यादि मातृ[सं] स्थानं संस्पृशेत्, एतदेव दर्शयति- इत्येतानि - पूर्वोक्तान्यायतनानि - कर्मोपादानस्थानानि 'उपातिक्रम्य' सम्यक परिहृत्य मातृस्थान परिहारेण ग्लानाय वा दद्याद्दात्साधुसमीपं वाऽऽहरेदिति ॥ पिण्डाधिकार एव सप्तपिण्डेषणा अधिकृत्य सूत्रमाह
अह भिक्खू जाणिजा सत्त पिंडेसणाओ सत्त पाणेसणाओ, तत्थ खलु इमा पढमा पिंडेसणा - असंसट्ठे हत्थे असंसट्ठे मत्ते, तहृप्पगारेण असंसण हत्थेण वा मत्तेण वा
******
श्रुत• २ चूलिका १ पिण्डै० १ उद्द े शका ११
॥ ७१६ ।।
Page #275
--------------------------------------------------------------------------
________________
.७१७॥
असणं वा ४ सयं वा णं जाइज्जा परो वा से दिजा फासुयं जाव पडिगाहिज्जा, पढमा पिंडेसणा ।। अहावरा दुच्चा पिंडेसणा-संसढे हत्थे संसढे मत्ते, तहेव दुच्चा पिंडेसणा २॥ अहावरा तच्चा पिंडेसणा-इह खलु पाइणं वा ४ संतेगइया सड्ढा भवंति-गाहावई वा जाव कम्मकरी वा, तेसिं च णं अन्नयरेसु विरूवरूवेसु भायणजाएसु उवनिक्खित्तपुब्वे सिया, तंजहा-थालंसि वा पिढरंसि वा सरगंसि घा परगंसि वा वरगंसि वा, अह पुणेवं जाणिज्जा--असंसढे हत्ये संसढे मत्ते, संसह वा हत्थे असंसढे मत्ते, से य पडिग्गहधारी सिया पाणिपडिग्गहिए वा, से पुवामेव आलोएजा-आउसोसि वा भगि. णित्ति वा! एएण तुमं असंस?ण हत्थेण संस?ण मत्तेणं संसडेण वा हत्थेण असंसहण मत्तेण अस्सि. पडिग्गहगंसि वा पाणिंसि वा निहह उचित्त दलयाहि तहप्पगारं भोयणजायं सयं वा णं जाइज्जा परो वा से देजा फासुयं जाव पडिगाहिज्जा, तइया पिंडेसणा ३ ॥ अहावरा चउत्था पिंडेसणा-से भिक्खू वा २ से जं पुण जाणिज्जा पिहुयं वा जाव चाउलपलंबं वा अस्सि खर पडिग्गहियंसि अप्पे पच्छाकम्मे अप्पे पजवजाए, तहप्पगारं पिहयं वा जाव चाउलपलंसं वा सयं वा णं जाइजा जाव पतिगाहिज्जा, चउत्था पिंडेसणा४। अहावरा पंचमा पिंडेसणा-से भिक्खू वा २ उग्गहि
Page #276
--------------------------------------------------------------------------
________________
बीआचा राङ्गवृत्तिः (छीलाङ्का.)
● ७१८ ॥
यमेव भोयणजायं जाणिजा, तंजहा—सरावंसि वा डिंडिमंसि वा कोसगंसि वा, अह पुणेवं जाणिज्जा बहुपरियावने पाणीसु दगलेवे, तहप्पगारं असणं वा ४ सयं वा णं जाइज्जा जाय पडिगाहिज्जा, पंचमा पिंडेसणा ५ || अहावरा छट्ठा पिंडेसणा-सेभिक्खू वा २ पग्गहियमेव भोयणजायं जाणिज्जा, जं च सयहाए पग्गहियं, जं च परट्ठाए पग्गहियं तं पायपरियावन्नं तं पाणिपरियावनं फासूयं जाव पडिगाहिज्जा, छट्ठा पिंडेसणा ६ || अहावरा सत्तमा पिंडेसणा-से भिक्खू वा २ जाव समाणे बहुउज्झियधम्मियं भोयणजायं जाणिज्जा, जं चन्ने बहवे दुपयच उप्पय समणमाहणअतिहि किवणवणीमगा नावकखंति, तहप्पगारं उज्झियधम्मियं भोयणजायं सयं वा णं जाइज्जा परो वा से दिजा फासूयं जाव पडिगाहिज्जा, सत्तमा पिंडेसणा ७ ॥ १ । इच्चेयाओ सत्त पिंडेसणाओ, अहावराओ सत्त पाणेसणाओ, तत्थ खलु इमा पढमा पाणेसणा-असंसट्टे हत्थे असंस मत्ते, तं चैव भाणियव्वं नवरं चउत्थाए नाणत्तं २ । से भिक्खू वा २ जाव समाणे से जं पुण पाणगजायं जाणिजा, तंजहा - निलोदगं वा तुसोदगं वा जवोदगं वा आयामं वा सोवीरं वा सुद्धवियडं वा, अस्सि खलु पडिग्गहियंसि अप्पे पच्छाकम्मे तहेव पडिगाहिज्जा ३ ।। सू० ६२ ।।
܀܀܀܀
श्रुतस्कं० २ चूलिका० १ पिण्डैष० १ उद्देशका ११
॥ ७१८ ॥
Page #277
--------------------------------------------------------------------------
________________
M ७१९
܀܀܀
अथशब्दोऽविकारान्तरे, किमधिकुरुते ९, सप्त पिण्डेषणाः पानैषणाश्चेति, 'अथ' अनन्तरं भिक्षुर्जानीयात्, काः ? - सप्तपिण्डेषणाः पानैषणाश्च ताश्चेमाः, तद्यथा – “ असंसडा १ संसडा २ उद्धडा ३ अप्पलेषा ४ उग्गहिआ ५ पग्गहिया ६ उज्झियधम्मेति, अत्र च द्वये साधवो गच्छान्तर्गताश्च गच्छविनिर्गताश्च तत्र गच्छान्तर्गतानां सप्तनामपि ग्रहणमनुज्ञातं गच्छनिर्गतानां पुनराद्ययोर्द्वयोरग्रहः पञ्चस्वभिग्रह इति, तत्राद्यां तावद्दर्शयति- 'तत्र' तासु मध्ये 'खलु' इत्यलङ्कारे, इमा प्रथमा पिण्डेषणा, तद्यथा - असंसृष्टो हस्तोऽसंसृष्टं च मात्रं द्रव्यं पुनः सावशेषं वा स्यान्निरवशेषं वा, तत्र विशेषे पश्चात्कर्मदोषस्तथाऽपि गच्छस्य बालाद्याकुलत्वात्तन्निषेधो नास्ति, अत एव सूत्रे तच्चिन्ता न कृता, शेषं सुगमम् ॥ तथाऽपरा द्वितीया पिण्डैषणा, तद्यथा - संसृष्टो हस्तः संसृष्टं मात्रकमित्यादि सुगमम् ॥ अथापरा तृतीया पिण्डेषणा, तद्यथा इह खलु प्रज्ञापकापेक्षया प्राच्यादिषु दिक्षु सन्ति केचित् श्रद्धालवः, ते चामी -गृहपत्यादयः कर्मकरीपर्यन्ताः, तेषां च गृहेष्वन्यतरेषु नानाप्रकारेषु भाजनेषु पूर्वमुत्क्षिप्तमशनादि स्यात्, भाजनानि च स्थालादीनि सुबोध्यानि नवरं 'सरगम्' इति शरिकाभिः कृतं सूर्पादि 'परगं' वंश निष्पन्नं छब्बकादि 'वरगं' मण्यादि महार्घमूल्यं, शेषं सुगमं यावत्परिगृह्णीयादिति, अत्र च संसृष्टासंसृष्टसावशेषद्रव्यैरष्टौ भङ्गा, तेषु चाष्टमो मङ्गः संसृष्टो हस्तः संसृष्टं मानं सावशेष द्रव्यमित्येष गच्छनिर्गतानामपि कल्पते, शेषास्तु भङ्गा गच्छान्तर्गतानां सूत्रार्थहान्यादिकं कारणमाश्रित्य कल्पन्त इति || अपरा चतुर्थी पिण्डेषणान्पलेपा नाम, सा यत्पुनरेवमन्पलेपं जानीयात् तद्यथा - 'पृथुकम्' इति भुग्नशाल्याद्यपगततुषं यावत् 'तन्दुललम्बे' इति भुग्नशान्यादितन्दुलानिति, अत्र च पृथुकादिके गृहीतेऽप्यल्पं पश्चात्कर्मादि, तथा पं
॥ ७१९ ॥
Page #278
--------------------------------------------------------------------------
________________
राङ्गवृत्तिः
पर्यायजातमल्पं तुषादि त्यजनीयमित्येवंप्रकारमम्पलेपम् , अन्यदपि ववचनकादि यावत्परिरहीयादिति ॥ अथापरा पञ्चमी श्रीआचापिण्डैषणाऽवगृहीता नाम, तद्यथा-समिक्षुर्यावदुपहतमेव भोक्तुकामस्य भाजनस्थितमेव भोजनजातं दौकितं जानीयात् ,
चूलिका १ तत्पुनर्भाजनं दर्शयति, तद्यथा-'सरावं' प्रतीतं 'डिण्डिम' कंश (कांस्य) भाजनं 'कोशक' प्रतीतं, तेन च दात्रा शीलाका.)
पिण्डै०१ | कदाचित् पूर्वमेवोदकेन हस्तो मात्रकं वा धौतं स्यात् , तथा च निसिद्धं ग्रहणम् , अथ पुनरेवं जानीयाबहुपर्यापन्न:
उद्देशका ११ .७२०॥ परिणतः पाण्यादिषदकलेपः, तत एवं ज्ञात्वा यावद् गृहीयादिति ।। अथापरा पष्ठी पिण्डैषणा प्रगृहीता नाम-स्वार्थ
परार्थ वा अपि पिठरकादेरुद्धृत्य चटुकादिनोत्क्षिप्ता परेण च न गृहीता प्रव्रजिताय वा दापिता सा प्रकर्षण गृहीता है। प्रगहीता तां तथाभूतां प्राभूतिका 'पानपर्यापन्नां वा' पात्रस्थितां 'पाणिपर्यापनां वा' हस्तस्थितां वा यावत्प्रति
गृह्णीयादिति ॥ अथापरा सप्तमी पिण्डैषणा उज्झितधर्मिका नाम, सा च सुगमा ॥ आसु च सप्तस्वपि पिण्डेपणासु KB संसृष्टाद्यष्टभङ्गका भणनीयाः, नवरं चतुझं नानात्वमिति, तस्या अलेपत्वात्संसृष्टाद्यभाव इति ॥ एवं पानेषणा अपि नेया | ka भङ्गकाश्चायोज्याः, नवरं चतुर्थी नानात्वं, स्वच्छत्वाच्च तस्या अल्पलेपत्वं, ततश्च संसृष्टाद्यभाव इति, आसां चैषणानां |
यथोत्तरं विशुद्धितारतम्यादेष एव क्रमो न्याय्य इति ॥ साम्प्रतमेताः प्रतिपद्यमानेन पूर्वप्रतिपन्नेन वा यद्विधेयं तदर्शवितुमाहइच्चेयासिं सत्तण्हं पिंडेसणाणं सत्तण्हं पाणेसणाणं अन्नयरं पडिमं पडिबजमाणे नो
Ban७२०॥ एवं वहज्जा--मिच्छापडिवन्ना खलु एए भयंतारो, भहमेगे सम्म पडिवन्ने, जे एए भयं.
Page #279
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥७२१
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
तारो एयाओ पडिमाओ पडिवजित्ता णं विहरति जो य अहमंसि एवं पडिमं पडिवजित्ताणं विहरामि सव्वेऽवि ते उ जिणाणाए उवढिया अनुन्नसमाहोए, एवं च जं विहरंति, एयं खल तस्स भिक्खुस्स मिक्खुणोए वा सामग्गियं जाव सया जएजासि
तिमि ॥ सू०६३ ॥ पिण्डैषणायामेकादश उद्देशकः ॥२-१-१-११॥ इत्येतासां सप्तान पिण्डैषणानां पानैषणानां वाऽन्यतरां प्रतिमा प्रतिपद्यमानो तद्वदेव, तद्यथा-'मिथ्याप्रतिपन्नाः' न सम्यक पिण्डैषणाद्यभिग्रहवन्तो भगवन्तः-साधवः, अहमेवैकः सम्यकप्रतिपन्नो, यतो मया विशुद्धः पिण्डैषणाभिग्रहः कृत एमिश्च तथा न, इत्येवं गच्छनिर्गतेन गच्छान्तर्गतेन वा समदृष्टया द्रष्टव्या, नापि गच्छान्तर्गतेनोत्तरोत्तरपिण्डेषणाभिग्रहवता पूर्वपूर्वतरपिण्डैषणाभिग्रहवन्तो दृप्या इति, यच्च विधेयं तद्दर्शयति-य एते भगवन्तः-साधवः एताः 'प्रतिमाः' पिण्डैषणाद्यभिग्रहविशेषान् 'प्रतिपद्य' गृहीत्वा ग्रामानुग्राम 'विहरन्ति' यथायोगं पर्यटन्ति, यां चाहं प्रतिमा प्रतिपद्य विहरामि, सर्वेऽप्येते जिनाज्ञायां जिनाज्ञया वा 'समुत्थिता:' अभ्युद्यतविहारिणः संवृत्ताः, ते चान्योऽन्यसमाधिना यो
यस्य गच्छान्तर्गतादेः समाधिभिहितः, तद्यथा-सप्तापि गच्छवासिना, तन्निर्गताना तु द्वयोरग्रहः पञ्चस्वभिग्रहः इत्यनेन Bal 'विहरन्ति' यतन्त इति, तथाविहारिणश्च सर्वेऽपि ते जिनाज्ञां नातिलवन्ते, तथा चोक्तम्-"'जोऽवि दुवस्थतिवत्थो बहुवत्थ अचेलओव्व संथरइ । न हु ते हीलंति परं सव्वेवि ते जिणाणाए ॥१॥" एतत्तस्य
१ योऽपि द्विवस्त्रत्रिवस्त्रो बहुवस्त्रोऽचेलको वा संस्तरति । नैव ते हीलन्ति परान् सर्वेऽपिकते जिनाज्ञायाम् ॥ १॥
॥७२१॥
Page #280
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री आचागङ्गवृत्तिः
(शोलाङ्का.)
॥ ६२२ ॥
भिक्षोभिण्या वा 'सामग्र्यं सम्पूर्णो भिक्षुभावो यदात्मोत्कर्षवर्जन मिति ॥ २-१-१-११ ॥ द्वितीयश्रुतस्कन्धे प्रथमाध्ययनटीका परिभ्रमाप्ता ॥
---
॥ अथ द्वितीय - शय्यैषणाध्ययने प्रथमोह शकः ॥
उक्तं प्रथममध्ययनं साम्प्रतं द्वितीयमारभ्यते, अस्य वायमभिसम्बन्धः - इहानन्तराध्ययने धर्माधारशरीरपरिपालनार्थमादावेव पिण्ड ग्रहण विधिरुक्तः, स च गृहीतः सम्भवश्यमम्पसागारिके प्रतिश्रये भोक्तव्य इत्यतस्तद्गत गुणदोषनिरूपणार्थं द्वितीयमध्ययनम् अनेन च सम्बन्धेनायातस्यास्याध्ययनस्य चत्वार्यनुयोगद्वाराणि व्यावर्णनीयानि, तत्र नाम निष्पन्ने निक्षेपे शय्यैषणेति, तस्या निक्षेपविधानाय पिण्डेषणानियुक्तिर्यत्र संभवति तां तत्रातिदिश्य प्रथमगाथया अपरासां च नियुक्तीनां यथायोगं संभवं द्वितीयगाथया आविर्भाव्य निक्षेपं च तृतीयगाथया शय्याषट्कनिक्षेपे प्राप्ते नामस्थापने अनाहत्य नियुक्तिकदाह
दव्वे खिते काले भावे सिजाय जा तहिं पंगयं । केरिसिया सिज्जा खलु संजयजोगप्ति नायव्वा १ ॥ २९८ ॥
द्रव्यशय्या क्षेत्रशय्या कालशय्या भावशय्या, अत्र व या द्रव्यशय्या तस्यां प्रकृतं तामेव च दर्शयति-कीदृशी सा द्रव्यशय्या ? संयतानां योग्येत्येवं ज्ञातव्या भविष्यति ॥ द्रव्यशय्या व्याचिख्यासयाऽऽहतिविहाय दव्वसिज्जा सचिताऽचित्त मीसगा चेव । वित्तंमि जंमि खित्ते काले जा जंमि कालंमि ॥ २९९ ॥
श्रुत• २ चूलिका ० १ शय्यैष० १ उह शकः १
।। ६२२ ।।
Page #281
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ ७२३ ॥
त्रिविधा द्रव्यशय्या भवति, तद्यथा - सचित्ता अचित्ता मिश्रा चेति, तत्र सचित्ता पृथिवीकायादौ, अचित्ता तत्रैव प्रासुके, मिश्राऽपि तत्रैवार्द्ध परिणते, अथवा सचित्तामुत्तरगाथया स्वत एव नियुक्तिकृद् भावयिष्यति । 'क्षेत्र' मिति तु क्षेत्रशय्या, सा च यत्र ग्रामादिके क्षेत्रे क्रियते, कालशय्या तु या यस्मिन्नुतुबद्धादिके काले क्रियते । तत्र सचित्तद्रव्यशय्योदाहरणार्थमाह
उकलकलिंग गोअम वग्गुमई चेव होइ नायव्वा । एवं तु उदाहरणं नाथव्वं दव्वसिजाए ॥ ३०० ॥ अस्या भावार्थ: कथानकादवसेयः, तच्चेदम् - एकस्यामटव्यां द्वौ भ्रातरावुत्कलकलिङ्गाभिधानौ विषयप्रवेशे पनि निवेश्य चौर्येण वर्त्तेते, तयोश्च भगिनी वन्गुमती नाम, तत्र कदाचिद् गौतमाभिधानो नैमित्तिकः समायातः ताभ्यां च प्रतिपन्नः, तया च वन्गुमत्योक्तं यथा नायं भद्रकः, अत्र वसन् यदा तदाऽयमस्माकं पञ्चिविनाशाय भविष्यत्यतो निर्द्धाटयते, ततस्ताभ्यां तद्वचनान्निर्द्धाटितः, स तस्यां प्रद्वेषमापन्नः प्रतिज्ञामग्रहीद्, यथा-नाहं गौतमो भवामि यदि वल्गुमत्युदरं विदार्य तत्र न स्वपिमीति, अन्ये तु भणन्ति - सैव वल्गुमत्यपत्यानां लघुत्वात्पल्लिस्वामिनी, उत्कल कलिङ्गौ नैमित्तिको, सातयोक्त्या गौतमं पूर्वनैमित्तिकं निर्द्धाटितवती, अतस्तत्प्रद्वेषात्प्रतिज्ञामादाय सर्पपान् वपन्निर्गतः सर्षपाश्च वर्षाकालेन जाताः, ततस्तदनुसारेणान्यं राजानं प्रवेश्य सा पन्ली समस्ता लुण्टिता दग्धा च गौतमेनापि वल्गुमत्या उदरं पाटयित्वा सावशेषजीवितदेद्दाया उपरि सुप्तमित्येषा वा सचित्ता द्रव्यशय्येति । भावशय्याप्रतिपादनार्थमाहदुविहाय भावसिज्जा कायगए छव्विहे य भावंमि । भावे जो जत्थ जया सुहदुहगन्भाइ सिज्जासु ॥ १०१ ॥
•8888
॥ ७२३ ॥
Page #282
--------------------------------------------------------------------------
________________
धोआचा राजवृत्तिः शीलाङ्का.)
श्रुतस्कं०२ चूलिका १ शय्यैष. २ उद्देशका १
॥ ७२४॥
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
द्वे विधे-प्रकारावस्याः सा द्विविधा, तद्यथा-कायविषया षडभावविषया च, तत्र यो जीव: 'या' औदयिकादौ भावे 'यदा' यस्मिन् काले वर्तते सा तस्य षड्भावरूपा भावशय्या, शयनं शय्या स्थितिरितिकृत्वा, तथा च्यादिकायगतो गर्भत्वेन स्थितो यो जीवस्तस्य स्च्यादिकाय एव भावशय्या, यतः स्यादिकाये सुखिते दुःखिते सुप्ते उत्थिते वा तादृगवस्थ एव तदन्तर्वी जीवो भवति, अतः कायविषया भावशय्या द्वितीयेति ॥ अध्ययनार्थाधिकारः सर्वोऽपि शय्याविषयः, उद्देशार्थाधिकारप्रतिपादनाय नियुक्तिकृदाहसव्वेवि य सिजविसोहिकारगा तहवि अस्थि उ विसेसो । उद्देसे उद्देसे वुच्छामि समासओ किंचि ॥३०२
'सर्वेऽपि त्रयोप्युद्देशका यद्यपि शय्याविशुद्धिकारकास्तथाऽपि प्रत्येकमस्ति विशेषस्तमहं लेशतो वक्ष्य इति ॥ एतदेवाहउग्गमदोसा पढमिल्लुयमि संसत्तपञ्चवाया य ?। पीमि सोअवाई बहुविहसिन्जाविवेगो २ य॥३०३॥
तत्र प्रथमोद्देशके वसतेरुद्गमदोषाः-आधाकर्मादयस्तथा गृहस्थादिसंसक्तप्रत्यपायश्च चिन्त्यन्ते ?, तथा द्वितीयोद्देशके शौचवादिदोषा बहुप्रकारः शय्याविवेकश्च-त्यागश्च प्रतिपाद्यत इत्ययमर्थाधिकारः २॥ तइए जयंतछलणा सज्झायस्सऽणुवरोहि जइयव्वं । समविसमाईएसु य समणेणं निजरद्वार ३॥३०४।
॥ सिजानिज्जुत्ती समत्ता॥ तृतीयोद्देशके यतमानस्य-उद्गमादिदोषपरिहारिणः साधोर्या छलना स्यात्तत्परिहारे यतितव्यं, तथा स्वाध्यायातु
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
७२४॥
Page #283
--------------------------------------------------------------------------
________________
.
॥७२५ ॥
.
| परोधिनि समविषमादौ प्रतिश्रये साधुना निर्जरार्थिना स्थातव्यमित्ययमर्थाधिकारः ३ ॥ गतो नियुक्त्यनुगमा, अधुना सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुचारयितव्यं, तच्चेदम्
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा अभिकंखिन्ना उवस्सयं एसित्तए अणुपविसित्ता गाम वा जाव रायहाणिं वा, से जं पुण उवस्सयं जाणिजा सअंडं जाव ससंताणयं तहप्पगारे उक्स्सए नो ठाणं वा सिज्ज वा निसीहियं वा चेइज्जा से भिक्खू चा से जं पुण अवस्सयं जाणिजा अप्पंडं जाव अप्पसंताणयं तहप्पगारे उवस्सए पडिलेहिता पमजित्ता तओ संजयामेव ठाणं वा ३ चेइजा २। से जं पुण उवस्सयं जाणिजा अस्सि पखियाए एगं साहम्मियं समुद्दिस्स पोणाई ४ समारब्भ समुद्दिस्स कोयं पामिच्चं अच्छिज्जं अणिसह अभिहडं आहह चेहए, तहप्पगारे उवस्सए पुरिसंतरकडे वा जाव अणासेविए वा नो ठाणं वा ३ चेइज्जा ३ । एवं बहवे साहम्मिया एगं साहम्मिणिं पहवे साहम्मिणीओ४। से भिक्ख वा २ से जं पुण उवस्सयं जाणेज्जा अस्संजए भिक्खुपडियाए षहवे समणमाहणअतिहिकिविणवणीमए पगणिय २ समुहिस्सतं चेव भाणियब्वं ५ । से भिक्ख वा २ से जं पुण उवस्सयं जाणिज्जा, बहवे समणमाहणअतिहिकिविणवणीमए पगणिय २ समुहिस्स पाणाई'४ जाव चेएति, तहप्पगारे उवस्सए अपुरिसंतरकडे
॥७२५॥
Page #284
--------------------------------------------------------------------------
________________
बीआचाराजवृत्तिः (शीलाका.
। ६२६ ॥
जाव अणासेविए नो ठाणं वा ३ चेइज्जा ३,६। अह पुणेवं जाणिजा पुरिसंतरकडे जाव सेविए पडिलेहित्ता पमन्जित्ता तओ संजयामेव चेहज्जा ७ । से भिक्खू वा २ से जं पुण उपस्सयं जाणिज्जा-अस्संजए भिक्खुपडियाए कहिए वा उक्कंबिए वा छन्ने वा
चूलिका-१
शय्यैष०१ लित्ते वा घढे वा मढे वा संमढे वा संपधूमिए वा तहप्पगारे उवस्सए अपुरिसंतरकडे जाव अणासेविए नो ठाणं वा सेज वा निसोहिं वा चइज्जा, अह पुण एवं जाणिज्जा
उद्देशका १ पुरिसंतरकडे जाव आसेविए पडिलेहित्ता २ तओ चेइज्जा ८॥ सू० ६४ ॥ स भिक्षुः 'उपाश्रय' वसतिमेषितु यद्यमिकाङ्क्षत्ततो ग्रामादिकमनुप्रविशेत , तत्र च प्रविश्य साधुयोग्यं प्रतिश्रयमन्वेषयेत् , तत्र च यदि साण्डादिकपाश्रयं जानीयात्ततस्तत्र स्थानादिकं न विदध्यादिति दर्शयति-सुगम, नवरं । 'स्थानं कायोत्सर्गः शय्या' संस्तारक: 'निषीथिका' स्वाध्यायभूमिः 'णो चेइज्जत्ति नो चेतयेत्-नो कुर्यादित्यर्थः॥ एतद्विपरीते तु प्रत्युपेक्ष्य स्थानादीनि कुर्यादिति ॥ साम्प्रतं प्रतिश्रयगतानुगमादिदोषान् विमणिषुगह-'स' भावभिक्षुर्यत्पुनरेवंभूतं प्रतिश्रयं जानीयात् , तद्यथा-'अस्सिपडियाए'त्ति एतत्प्रतिज्ञया एतान् साधुन् प्रतिज्ञाय-उद्दिश्य प्राण्युपमर्दैन साधुप्रतिश्रयं कश्चिच्छाद्धः कुर्यादिति । एतदेव दर्शयति-एक साधर्मिकं 'साधुम्' अर्हत्प्रणीतधर्मानुष्ठायिनं सम्याहिश्य-प्रतिज्ञाय प्राणिनः 'समारभ्य' प्रतिश्रयार्थमुपमर्च प्रतिश्रयं कुर्यात , तथा तमेव साधु सम्यगुद्दिश्य 'क्रोतं'
B॥ ६२६ ॥ मन्येनावाप्तं, तथा 'पामिच्छति अन्यस्मादुच्छिन्नं गृहीतम् 'आच्छेद्यमिति भृत्यादेवलादाच्छिद्य गृहीतम् 'अनिसृष्टं'
Page #285
--------------------------------------------------------------------------
________________
.७२७॥
स्वामिनाऽनुत्सङ्कलितम् 'अभ्याहृतं' निष्पन्नमेवान्यतः समानीतम् , एवंभूतं प्रतिश्रयम् 'आहृत्य' उपेत्य 'चेएइति साधवे ददाति, तथाप्रकारे चोपाश्रये पुरुषान्तरकृतादौ स्थानादि न विदध्यादिति ॥ एवं बहुवचनसूत्रमपि नेयम् ॥ तथा साध्वीपत्रमप्येकवचनबहुवचनाभ्यां नेयमिति ॥ किश्च-सूत्रद्वयं पिण्डैषणानुसारेण नेयं, सुगर्म च ॥ तथास भिक्षुर्यत्पुनरेवंभूतं प्रतिश्रयं जानीयात् , तद्यथा-भिक्षुप्रतिज्ञया 'असंयत:' गृहस्था प्रतिश्रयं कुर्यात , स चैवंभूतः स्यात् , तद्यथा-'कटकित:' काष्ठादिभिः कुडयादौ संस्कृतः 'उक्कंषिओ'त्ति 'वंशादिकम्बाभिरवबद्धः 'छन्ने वत्ति दर्भादिभिश्छादितः लिप्सः गोमयादिना घृष्टः सुधादिखरपिण्डेन मृष्टः स एव लेपनिकादिना समीकृतः 'संमृ(स)ष्ट' भूमिकर्मादिना संस्कृतः 'संप्रधूपितः दुर्गन्धापनयनाथ धूपादिना धूपितः, तदेवंभूते प्रतिश्रयेऽपुरुषान्तरस्वीकृते यावदनासेविते स्थानादि न कुर्यात् , पुरुषान्तरकृतासेवितादौ तु प्रत्युपेक्ष्य स्थानादि कुर्यादिति ॥
से भिक्खू वा से जं पुण उपस्सयं जाणिज्जा अरसंजए भिक्खुपडियाए खुडियाओ दुवारियाओ महल्लियाओ कुजा, जहा पिंडेसणाए जाव संथारग संथारिजा बहिया वा निन्नक्खु तहप्पगारे उवस्सए अपुरिसंतरकडे नो ठाणं वा ३ चेइज्जा, अह पुणेवं जाणिजा-पुरिसंतरकडे आसेविए पडिलं हित्ता तओ संजयामेव जाव चेइज्जा १॥से भिक्ख वा २ से जं उवस्सयं जाणिज्जा, अस्संजए भिक्खुपडियाए उदग्गप्पसूयाणि कंदाणि वा मूलाणि वा पत्ताणि वा पुप्फाणि वा फलाणि वा बोयाणि वा हरियाणि वा
॥७२७॥
Page #286
--------------------------------------------------------------------------
________________
भीआचारावृत्तिः (घीलाङ्का.)
| श्रुतस्कं०२ चूलिका शय्यैष०२ उद्देशक
.७२८॥
8
ठाणाओ ठाणं साहरइ पहिया वा निण्णक्न तहप्पगारे उवस्सए अपुरिसंतरकडे जावं नो ठाणं वा ३ चेइजा, अह पुण एवं जाणिज्जा पुरिसंतरकडं जाव चेइज्जा २ ॥ से भिक्खू वा से जं पुण जाणिज्जा अस्संजए भिक्खुपडियाहा पोढं वा फलगं वा निस्सेणिं वा उदुखलं वा ठाणाओ ठाणं साहरइ बहिया वा निण्णवख तहप्पगारे उवस्सए अपुरिसंतरकडे जाव नो ठाणं वा ३ चेइज्जा, अह पुण एवं जाणिजा पुरिसंतरकडे जाव
चेइज्जा ३ ॥ सू० ६५ ॥ स भिक्षुर्य पुनरेवंभूतं प्रतिश्रयं जानीयात् , तद्यथा-'असंयतः' गृहस्थः साधुप्रतिज्ञया लघुद्वार प्रतिश्रयं महाद्वार विदध्यात् , तत्रैर्वभूते पुरुषान्तरास्वीकृतादौ स्थानादि न विदध्यात्, पुरुषान्तरस्वीकृतासेवितादौ तु विदध्यादिति, अत्र सूत्रद्वयेऽप्युत्तरगुणा अभिहिता, एतद्दोषदुष्टाऽपि पुरुषान्तरस्वीकृतादिका कल्पते, मूलगुणदुष्टा तु पुरुषान्तरस्वीकृताऽपि न कन्पते, ते चामी मूलगुणदोषाः-'पट्टी वंसो दो धारणाउ चत्तारि मूलवेलीओ" एतैः पृष्ठवंशादिभिः साधुप्रतिज्ञया या वसतिः क्रियते सा मूलगुणदुष्टा ॥ स भिक्षुर्य पुनरेवम्भूतं प्रतिश्रयं जानीयात् , तद्यथा-गृहस्थः साधुप्रतिज्ञया उदकप्रसूतानि कन्दादीनि स्थानान्तरं सङ्क्रामयति बहिर्वा 'निण्णक्खु'त्ति निस्सारयति तथाभूते प्रविश्रये पुरुषान्तरास्वीकृते स्थानादि न कुर्यात् , पुरुषान्तरस्वीकृते तु कुर्यादिति ॥ एवमचित्तनिःसारणसूत्रमपि नेयम्, अत्रच
१ पृष्ठिवंशो धारणे चतस्रो मूलवेल्यः ।
॥ ७२८॥
Page #287
--------------------------------------------------------------------------
________________
.७२६॥
सादिविराधना स्यादिति भावः ॥ किन
से भिक्ख वा २ से जं पुण उवस्सयं जाणिजा, तंजहा-खंधंसि वा मंचंसि वा मालंसि वा पासायसि वा हम्मियतलंसि वा अन्नयरंसि वा तहप्पगारंसि अंतलिक्खजायसि. नन्नत्थ आगाढागाढेहिं कारणेहिं ठाणं वा ३ नो चेइज्जा १॥से आहच चेहए सिया नो तत्थ सीओदगवियडेण वा उसिणीदगवियडेण वा हस्थाणि वा पायाणि वा अच्छीणि वा दंताणि वा मुहं वा उच्छालिज वा पहोइज्ज वा नो तत्थ ऊसद पकरेजा, तंजहाउच्चारं वा पासवणं वा खेलं वा सिंघाणं वा वंतं वा पित्तं वा पूयं वा सोणियं वा अन्नयरं वा सरीरावयवं वा २ । केवली चूया आयाणमेयं, से तत्थ ऊस पगरेमाणे पयलिज वा पवडेज वा। से तत्थ पयलमाणे वा पवडमाणे वा हत्थं वा जाव सोस वा अन्नयरं वा कायसि इदियजायं लूसिज्ज वा पाणाणि वा ४ अभिहणिज्ज वा जाव ववरोविज वा । अथ भिक्खण पुवोवइहा ४ तहप्पगारे उवस्सए अंतलिक्खजाए नो ठाणं
था ३ चेइज्जा ५॥ सू० ६६ ॥ स भिक्षुर्य पुनरेवंभृतमुपाश्रयं जानीयात् , तद्यथा-स्कन्धः-एकस्य स्तम्भस्योपर्याश्रया, मश्चमालौ-प्रतीतौ, प्रासादो-1 द्वितीयभूमिका, हयंतलं-भूमिगृहम् , अन्यस्मिन् वा तथाप्रकारे प्रतिश्रये स्थानादि न विदध्यादन्यत्र तथाविधप्रयो
Page #288
--------------------------------------------------------------------------
________________
भीआचा राङ्गवृत्तिः
(शीलाङ्का.)
॥ ७३० ।।
܀܀܀܀܀܀܀܀
जनादिति, स चैवंभूतः प्रतिश्रयस्तथाविधप्रयोजने सति यद्याहृत्य - उपेत्य गृहीतः स्यात्तदानीं यत्तत्र विधेयं तद्दर्शयति-न तत्र शीतोदकादिना हस्तादिघावनं विदध्यात्, तथा न च तत्र व्यवस्थितः 'उत्सृष्टम्' उत्सर्जनं-त्यागमुच्चारादेः कुर्यात्, केवल यत्कर्मोपादानमेतदात्मसंयम विराधनातः, एतदेव दर्शयति - स तत्र त्यागं कुर्वेन् पतेद्वा पतंश्चान्यतरं शरीरावयवमिन्द्रियं वा विनाशयेत् तथा प्राणिनश्चाभिहन्याद्यावज्जीविताद् 'व्यपरोपयेत्' प्रच्यावयेदिति, अथ भिक्षूणां पूर्वोपदिष्टमेतत्प्रतिज्ञादिकं यत्तथाभूतेऽन्तरिक्षजाते प्रतिश्रये स्थानादि न विधेयमिति ॥ अपि च
त्र
"
सेभिक्खू वा २ से जं पुण उवस्सयं जाणिज्जा, सइत्थियं सखुड्डं सपसुभत्तपाणं तहपगारे सागारिए उवस्सए नो ठाणं वा ३ चेइज्जा १ । आयाणमेयं भिक्खुस्स गाहावइकुलेण सद्धिं संवसमाणस्स अलसगे वा विसूइया वा छड्डो वा उव्वाहिजा अन्नयरे वा से दुक्खे रोगायंके समुपज्जिज्जा, अस्संजए कलुणपडियाए तं भिक्खुस्स गायं तिल्लेण वा घरण वा नवणीण वा वसाए वा अन्भंगिज वा मक्खिन वा सिणाणेण वा कक्केण वा लुडेण वा वण्णेण वा चुण्णेण वा पउमेण वा आघंसिज्ज वा पसिज वा उव्वलिज वा उव्वट्टिज वा सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलिज वा (पहोएज वा) पक्खालिज वा सिणाविज वा सिंचिज वा दारुणा वा दारुपरिणामं कट्टू अगणिकायं उज्जालिज वा पज्जालिज वा उज्जालित्ता कार्यं आयाविजा बा
*********
श्रुतस्कं० २ चूलिका ० १ शय्यैष० २ उद्देशः १
॥ ७३० ॥
Page #289
--------------------------------------------------------------------------
________________
.
पयाविजा वा २ अह भिक्खूणं पुच्चोवइट्ठा एस पतिन्ना जं तहप्पगारे सागारिए उवस्सए
नो ठाणं घा। चेइज्जा ३॥ सू० ६७॥ स भिक्षयं पुनरेवंभूतमुपाश्रयं जानीयात् तद्यथा-यत्र स्वियं तिष्ठन्ती जानीयात , तथा 'सखुड्डु'न्ति सबालं, यदिवा | सह क्षद्वैरवबद्धः-सिंहश्वमार्जारादिभिर्यो वर्तते, तथा पशवश्च मक्तपाने च, यदिवा पशूनां भक्तपाने तयुक्तं तथाप्रकारे सागारिके गृहस्थाकुलप्रतिश्रये स्थानादि न कुर्याद् , यतस्तत्रामी दोषाः, तद्यथा-आदानं कर्मोपादानमेतद्, भिक्षोगृहपतिकुटुम्बेन सह संबसतो यतस्तत्र भोजनादिक्रिया निःशङ्का न संभवति, व्याधिविशेषो वा कश्चित्संभवेदिति दर्शयति-'अलसगे'त्ति हस्तपादादिस्तम्भः श्वयथुर्वा, विशूचिकाछी प्रतीते, एते व्याधयस्तं साधुमुबाधेरन् , अन्यतरद्वा दुःखं 'रोग' ज्वरादिः 'आतङ्कः' सद्यः प्राणहारी शूलादिस्तत्र समुत्पद्येत, तं च तथाभूतं रोगातङ्कपीडितं दृष्ट्वाऽसंयतः कारुण्येन भक्त्या वा तद्भिक्षुगात्रं तैलादिनाऽभ्यङ्ग्यात् तथेषन्म्रक्षयेद्वा पुनश्च स्नान-सुगन्धिद्रव्यसमुदयः, कन्काकषायद्रव्य क्वाथः, लोध्र-प्रतीतं, वर्णकः-कम्पिल्लकादिः, चू! यवादीनां पद्मक-प्रतीतम् , इत्यादिना द्रव्येण ईषत्पुनः पुनर्वा घर्षयेत् , घृष्ट्वा चाभ्यङ्गापनयनार्थमुद्वर्त्तयेत् , ततश्च शीतोदकेन वा उष्णोदकेन वा 'उच्छोलेज'त्ति ईषदुच्छोलनं विदध्यात् प्रक्षालयेत पुनः पुनः, स्नानं वा-सोत्तमाङ्गं कुर्यात्सिञ्चेद्वेति, तथा दारुणा वा दारूणां परिणामं कृत्वासंधः कृत्वाऽग्निमुज्ज्वालयेत्प्रज्वालयेद्वा, तथा च कृत्वा साधुकायम् 'आतापयेत्' सकृत् प्रतापयेत्पुनः पुनः। अथ साधूनां पूर्वोपदिष्टमेतत्प्रतिज्ञादिकं यत्तथाभूते सागारिके प्रतिश्रये स्थानादिकं न कुर्यादिति ।।
॥ ७३१॥
Page #290
--------------------------------------------------------------------------
________________
भीआचाराङ्गवृत्तिः
(शीलाङ्का.
॥ ६३२ ॥
७
आयाणमेयं भिक्खुस्स सागारिए' उवस्सए संवसमाणस्स इह खलु गाहावई वा जाव कम्मकरी वा अन्नमन्नं अक्कोसंति वा पचति वा (बंधंति वा पचति वा वहति वा ) रुति वा उद्दति वा, अह भिक्खूणं उच्चावयं मणं नियंलिजा, एए खल अन्नमन्नं असंतु वा मा वा अक्कोसंतु जाव मा वा उद्दविंतु, अह भिक्खूणं पुव्ववड्डा एस पन्ना जाव जं तहप्पगारे सागारिए उवस्सए नो ठाणं वा ३ चेइज्जा ।। सू० ६८ ।। कर्मोपादानमेतत्भिक्षोः ससागारिके प्रतिश्रये वसतो, यतस्तत्र बहवः प्रत्यपायाः संभवन्ति तानेव दर्शयति- 'इह' इत्थंभूते प्रतिश्रये गृहपत्यादयः परस्परत आक्रोशादिकाः क्रियाः कुर्युः, तथा च कुर्वतो दृष्ट्वा स साधुः कदाचिदुच्चावचं मनः कुर्यात्, तत्रोच्चं नाम मैवं कुर्वन्तु, अवचं नाम एवं कुर्वन्विति शेषं सुगममिति ॥
आयाणमेयं भिक्खस्स गाहावईहिं सद्धिं संवसमाणस्स, इह खलु गाहावई अप्पणो सहाए अगणिकार्य उज्जालिज्ज वा पज्जालिज्ज वा विज्झविंज्ज वा १ । अह भिक्खू उच्चावयं मणं नियंछिज्जा, एए स्वंलु अगणिकायं उज्जालिंतु वा मा वा उज्जालिं पज्जालिंतु वा मा वा पज्जालिंतु, विज्झविंतु वा मा वा विझविंतु २ । अह भिक्खूणं पुoयोवदिट्ठा जाव जं तहप्पगारे उवस्सए नो ठाणं वा ३ चेइज्जा ॥ सू० ६९ ।। एतदपि गृहपत्यादिभिः स्वार्थमग्निसमारम्मे क्रियमाणे मिक्षोरुच्चावच मनः सम्भवप्रतिपादकं सूत्रं सुगमम् ॥ अपि च
श्रुत• २ चूलिका • १ शय्यैष० २ उद्देशकः १
॥ ६३२ ॥
Page #291
--------------------------------------------------------------------------
________________
७३३
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
आयाणमेयं भिक्खस्स गाहावईहिं सर्हि संवसमर्माणस्स, इह खलु गाहावइस्स कु'उले वा गुणे वा मणो वा मुत्तिए वा हिरण्णे वा सुवण्णे वा कडगाणि चा तुखियाणि वा तिसराणि वा पालंबाणि वा हारे वा अडहारे वा एगावलो वा कणगावली वा मुत्ता. वली वा रयणावली वा तरूणीयं वा कुमारिं अलंकिय विभूसियं पेहाए । अह भिक्ख उच्चावयं मणं नियच्छेज्जा, एरिसिया वा सा नो वा एरिसिया इय वा णं बूया इय वा ण मणं साइज्जा २ । अह भिक्खणं पुव्वोवदिट्ठा जाव जं तहप्पगारे उघस्सए ना ठाणं
वा जाव चेइज्जा३॥ सू०७०॥ गृहस्थैः सह संवसतो मिचोरेते च वक्ष्यमाणा दोषाः, तद्यथा-अलङ्कारजातं दृष्ट्वा कन्यका वाऽलङ्कृतां समुपलभ्य । ईदृशी तादृशी वा शोभनाऽशोभना वा मद्भार्यासदृशी वा तथाऽलङ्कारो वा शोभनोऽशोभन इत्यादिकां वाचं ब्रयात, तथोच्चावचं शोभनाशोभनादौ मनः कुर्यादिति समुदायार्थः, तत्र गुणो-रसना हिरण्य-दीनारादिद्रव्यजातं त्रुटितानिमृणालिकाः प्रालम्बः-आप्रदीपन आभरणविशेषः, शेषं सुगमम् ॥ किश्च
आयाणमेयं भिक्खुस्स गाहावई हिं सद्धिं संवसमाणस्स, इह खलु गाहावइणीओ वा गाहावडधूयाओ वा गाहावइ-सुण्हाओ वा गाहावइ-धाईओ वा गाहावइ दासीओ वा गाहावइ-कम्मकरीओ वा तासिं च णं एवं वृत्तपुव्वं भवइ-जे इमे भवंति समणा
७३६॥
Page #292
--------------------------------------------------------------------------
________________
बीआचाराजवृत्तिः (शीलाबा.
1७३४॥
भगवंतो जाव उवरया मेहुणाओ धम्माओ, नो स्खलु एएसिं कप्पइ मेहुणधरमं परि
श्रुत• २ यारणाए आउहित्तए, जो य खलु एएहिं सद्धिं मेहुणधम्म परियारणाए आउटाविजा पुत्तं
चूलिका.१ खल सा लभिजा उयस्सि तेयस्सि वच्चस्सि जसस्सि संपराइयं आलोयणदरसणिज्ज,
शय्यैष०२ एयप्पगारं निग्रोसं सुच्चा निसम्म तासिं च णं अन्नयरी सड्ढी तं तवस्सि भिक्खं
उद्देशक मेहुणधम्मपडियारणाए आउट्टाविजा । अह भिक्खूणं पुव्वोषाहा जाव जं तहप्पगारे सागारिए स्वस्सए नो ठाणं वा ३ चेइज्जा २। एयं खलु तस्स भिक्खुस्स भिक्खु. णीए वा सामग्गियं जाव सया जएज्जासि त्तिबेमि ३ ॥ सू०७१॥
॥ पढमा सिज्जा समत्ता ॥ २-२-२-१॥ ___ पूर्वोक्ते गृहे वसतो भिक्षोरमी दोषाः, तद्यथा-गृहपतिमार्यादय एवमालोचयेयु:-यथैते श्रमणा मैथुनादुपरताः, तदेतेभ्यो यदि पुत्रो भवेत्ततोऽसौ 'ओजस्वी' बलवान् 'तेजस्वी' दीप्तिमान 'वर्चस्वी रूपवान् 'यशस्वी' कीर्तिमान इत्येवं संप्रधार्य तासां च मध्ये एवंभृतं शब्दं काचित्पुत्रश्रद्धालुः श्रुत्वा तं साधु मैथुनधर्म(स्य) 'पडियारणाए'ति आसेवनार्थम 'आउद्यावेज'त्ति अभिमुखं कुर्यात, अत एतद्दोषभयात्साधूनां पूर्वोपदिष्टमेतत्प्रतिज्ञादिकं यत्तथाभते प्रतिश्रये स्थानादिन कार्यामति, एतत्तस्य मिक्षोभिक्षुण्या वा 'सामग्र्यं' सम्पूर्णो मिक्षभाव इति ॥ द्वितीयाध्ययनस्य प्रथमो
an७३५ देशकः समाप्तः ॥ २-१-२-१॥
Page #293
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ ७३५ ॥
॥ अथ द्वितीय - शय्यैषणाध्ययने द्वितीयो६ शकः ॥
उक्तः प्रथमोद्देशकः, अधुना द्वितीयः समारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः - इहानन्तरो देशके सागारिकप्रतिबन्डवसतिदोषाः प्रतिपादिताः, इहापि तथाविधवसतिदोषविशेषप्रतिपादनायाह
गाहावई नामेगे सुहसमायारा भवंति से भिक्खू य असिणाणए मोयसमायारे से तरगंधे दुग्गंधे पडिकूले पडिलोमे यावि भवइ, जं पुव्वं कम्मं तं पच्छा कम्मं जं पच्छा कम्मं तं पुरे कम्मं तं भिक्खपडियाए वट्टमाणा करिजा वा नो करिज्जा वा, अह भिक्खूणं पुवीवहट्ठा जाव जं तहप्पगारे उवस्सए नो ठाणं वा जाव चेइज्जा ॥ सू० ७२ ॥ 'एके' केचन गृहपतयः शुचिः समाचारो येषां ते तथा, ते च भागवतादिभक्ता भवन्ति भोगिनो वा - चन्दनागुरुकुङ्कुमकर्पूरादिसेविनः, भिक्षुश्चास्नानतया तथाकार्यवशात् 'मोया'त्ति कायिका तत्समाचरणात्स भिक्षुस्तद्गन्धो भवति, तथा च दुर्गन्धः, एवंभूतश्च तेषां गृहस्थानां 'प्रतिकूलः' नानुकूलोऽनभिमतः, तथा 'प्रतिलोमः' तद्गन्धाद्विपरीतगन्धो भवति, एकार्थौ तावतिशयानभिमतत्वख्यापनार्थावुपात्ताविति तथा ते गृहस्थाः साधुप्रतिज्ञया यत्तत्र भोजनस्वाध्यायभूमौ स्नानादिकं पूर्वं कृतवन्तस्तत्तेषामुपरोधात्पश्चात्कुर्वन्ति यद्वा पश्चात्कृतवन्तस्तत्पूर्वं कुर्वन्ति, एवमवसर्पणोत्सर्पणक्रियया साधूनामधिकरणसम्भवः, यदिवा ते गृहस्थाः साधुपरोधात्प्राप्तकालमपि भोजनादिकं न कुर्युः, ततश्चान्तराय
11934 11
Page #294
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रुतस्कं० २
चूलिका १ शय्यैष०२ उद्देशका २
भावाचा
ॐ मनःपीडादिदोषसम्भवः, अथवा त एव साधवो गृहस्थोपरोधाद्यपूर्व कर्म-प्रत्युपेक्षणादिकं तत्पश्चाकुयु विपरीतं वा कालाति
क्रमेण कुयुने कुयुर्वा, अथ भिक्षणां पूर्वोपदिष्टमेतत्प्रतिज्ञादिकं यत्तथाविधे प्रतिश्रये स्थानादिकं न कार्यमिति ॥ किश्चराजवृत्तिः (श्रीलङ्का.)
आयाणमेयं भिक्खुस्स गाहावईहिं सद्धिं संवसमाणस्स, इह खलु गाहावइस्स अप्पणो सयट्ठाए विरूवरूवे भोयणजाए उवक्खडिए सिया, अह पच्छा भिक्खुपडियाए असणं वा ४ उवक्खडिज वा उवकरिज वा, तं च भिव खू अभिखिजा भुत्तए वा पायए वा वियहित्तए वा, अह भिक्खूणं पुचोवट्ठा जाव जं नो तहप्पगारे उवस्सए ठाणं वा ३ चेहज्जा। सू०७३ ॥ आयाणमेयं भिक्खुस्स गाहावहणा सडि संवसमाणस्स इह खल गाहावइस्स अप्पणो सयट्ठाए विरूवरूवाई दारुयाई भिन्नपुव्वाई भवंति, अह पच्छा भिक्खुपडियाए विरूवरूवाइं दारुयाईभिंदिन वा किणिज वा पामिच्चेज वा दारुणा वा दारुपरिणामं कह अगणिकायं उज्जालेज वा पजालेज वा, तत्थ भिक्खु अभिकखिजा आयावित्तए वा पयावित्तए वा वियहित्तए वा, अह भिक्खूणं पुवोवइट्ठा
जाव ज नो तहप्पगारे उवस्सए ठाणं वा ३ चेइज्जा ॥ सू०७४ ॥ कर्मोपादानमेतद्भिक्षोर्यदगृहस्थावबद्ध प्रतिश्रये स्थानमिति, तद्यथा-'गाहावइस्स अप्पणो'त्ति, तृतीयाथें षष्ठी, गृहपतिना आत्मना स्वार्थ 'विरूपरूपः' नानाप्रकार आहार: संस्कृतः स्यात, 'अथ अनन्तरं पश्चात्साधनुद्दिश्या.
Page #295
--------------------------------------------------------------------------
________________
܀܀
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
1: शनादिपाकं वा कुर्यात, तदपरकणादि वा ढोक येत् , तं च तथाभूतमाहारं साधुर्मोक्तु पातु वाऽभिवाङक्षेत , 'विअहि। त्तए वत्ति तत्रैवाहारगृया विवर्तितम्-आसितुमाकाक्षेत् , शेषं पूर्वदिति ॥ एवं काष्ठाग्निप्रज्वालनसूत्रमपि नेयमिति ॥ किञ्च
से भिक्खू वा २ उच्चारपासवणेण उव्वाहिज्जमाणे रामो वा वियाले वा गाहावईकुलस्स दुवारचाह अवंगुणिजा, तेणे य तस्संधिचारी अणुपविसिज्जा, तस्स भिक्खुस्स नो कप्पह एवं वहत्तए-अयं तेणो पविसइ वा नो वा पविसइ उवल्लियह वा नो वा उवल्लियइ, आवयह वा नो वा आवयह वयइ वा नो वा चयइ तेणे हडं अन्नण हडं तस्स हडं अन्नस्सह अयं तेणे अयं उवचरए अयं हंता अयं इत्थमकासी तंतवस्सि भिक्ख
अतेणं तेणंति संकइ, अह भिक्खूणं पुव्वोवइहा जाव नो ठाणं वा ३ चेइज्जा ॥सू०७५। . स भिक्षुस्तत्र गृहस्थसंसक्ते प्रतिश्रये वसन्नुच्चारादिना वाध्यमानो विकालादौ प्रतिश्रयद्वारमागमुद्घाटयेत , तत्र च स्तनः चौरः 'तत्सन्धिचारी' छिद्रान्वेषी अनुप्रविशेत , तं च दृष्ट्वा तस्य भिक्षोनवं वक्तु कल्पते-यथाऽयं चौर: प्रविशति न वेति, तथोपलीयते न वेति, तथाऽयमतिपतति न वेति, तथा वदति वा न वदति वा, तेनामुकेनापहृतम् अन्येन वा, तस्यापहृतमन्यस्य वा, अयं स स्तेनस्तदुपचरको वा, अयं गृहीतायुधोऽयं हन्ता अयमत्राकार्षीदित्यादि न वदनीयं, यत एवं तस्य चौरस्य व्यापत्तिः स्यात्, सवा प्रद्विष्टस्तं साधु' व्यापादयेदित्यादिदोषाः, अभणने च तमेव
७३७॥
Page #296
--------------------------------------------------------------------------
________________
भीआचाराङ्गवृत्तिः
(झीलाङ्का.)
॥ ७३८ ।।
*******
तपस्विनं भिक्षुमस्तेनं स्तेनमित्याशङ्केतेति शेषं पूर्ववदिति || पुनरपि वसतिदोषाभिधित्सयाऽऽह
सेभिक्खू वा २ से जं पुण उवस्सयं जाणिज्जा तणपुरं जेसु वा पलालपु जेसु वा सअंडे जाव ससंताणए तहपगारे उपस्सए नो ठाणं वा ३ चेइज्जा १ । से भिक्खू वा २ से जं पुण वस्सयं जाणिज्जा तणपुजसु वा पलालपु जसु वा अप्पंडे जाव चेइज्जा २ ॥ सू० ७६ ॥ एतद्विपरीतसूत्रमपि सुग, नवरमल्पशब्दोऽभाववाची | साम्प्रतं वसतिपरित्यागमुद्देश कार्थाधिकारनिर्दिष्ट
सुगमम्, मधिकृत्याह -
से आगंतारेसु आरामागारेसु वा गाहावइकुलेसु वा परियावसहेसु वा अभिक्खणं साहम्मिएहिं उवयमाणेहिं नो उवइज्जा | सू० ७७ ॥
यत्र ग्रामादेर्बहिरागत्यागत्य पथिकादयस्तिष्ठन्ति तान्यागन्तागाराणि तथाऽऽराममध्यगृहाण्यारामागाराणि, पर्यावसथा - मठाः, इत्यादिषु प्रतिश्रयेषु 'अभीक्ष्णम्' अनवरतं 'साधर्मिकैः' अपरसाधुभिः 'अवपतद्भिः आगच्छद्भिमसादिविहारिभिश्छदितेषु 'नावपतेत्' नागच्छेत्-तेषु मासकल्पादि न कुर्यादिति ॥ साम्प्रतं कालातिक्रान्तवसति - दोषमाह -
से आगंतारेसु वा ४ जे भयंतारो उडु ( उ )बडियं वा वासावासिगं वा कप्पं उवाइणित्ता तत्थेव भुज्जो संवसंति, अयमाउसो ! कालाइ क्कतकिरियावि भवति १ ॥ सू० ७८ ॥
श्रुतस्कं० २ चूलिका० १ शय्यैष० २ उडेाकः २
॥ ७३८ ॥
Page #297
--------------------------------------------------------------------------
________________
.७३8 ।।
तेष्वागन्तागारादिषु ये भगवन्तः 'ऋतुंबडम्' इति शीतोष्णकालयोर्मासकल्पम् 'उपनीय' अतिवाद्य वर्षासु वा चतुरो | मासानतिवाद्य तत्रैव पुनः कारणमन्तरेणासते, अयमायुष्मन् ! कालातिक्रमदोषः संभवति, तथा च स्यादिप्रतिवन्धः स्नेहादुद्गमादिदोषसम्भवो वेत्यतस्तथा स्थानं न कल्पत इति १॥ इदानीमुपस्थानदोषमभिधित्सुराह
से आगंतारेसु वा ४ जे भयंतारो रडुबडियं वा वासावासियं वा कप्पं उवाइणावित्ता तं दुगुणा दु(ति गुणेण वा अपरिहरित्ता तत्थेव भुजो भुज्जो संवंसंति, अयमाउसो!
उवट्ठाणकिरिया यावि भवति २॥ सू०७९॥ ये 'भगवन्त:' साधव आगन्तागारादिषु ऋतुबद्धं वर्षा वाऽतिवाह्यान्यत्र मासमेकं स्थित्वा 'दिगुणत्रिगुणादिना' मास(सादि)कल्पेन अपरिहत्य-द्वित्रैर्मासैर्व्यवधानमकृत्वा पुनस्तत्रैव वसन्ति, अयमेवंभृतः प्रतिश्रय उपस्थानक्रियादोषदष्टो भवत्यतस्तत्रावस्थातुन कम्पत इति २॥ इदानीममिक्रान्तवसतिप्रतिपादनायाह
इह खल पाईणं वा पडीणं वा दाहिणं वा उदोणं वा संतेगइया सड्डा भवंति, तंजहागाहावई वा जाव कम्मकरीभो वा, तेसिं च णं आयारगोयरे नो सुनिसंते भवहतं सहहमाणेहिं पत्तियमाणेहिं रोयमाणेहिं बहवे समण-माहण-अतिहिकिवणवणीमए समुद्दिस्स तत्थ २ अगारीहिं अगाराई चेइयाई भवंति, तंजहा-आएसणाणि या आयतणाणि वा देवकुलाणि वा सहाओ वा पवाणि वा पणियगिहाणि वा पणिय
Page #298
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रोआचा रावृत्तिः 'शीलावा.)
चूलिका शयष.२ उद्देशका
६७४०॥
सालाओ वा जाणगिहाणि वा जाणसालाओ वा सुहाकम्मंताणि वा दन्भकम्मंताणि वा वडकम्मंताणि(वयकम्मंताणि)वा इंगालकमंताणि वा कट्ठकम्मंताणि वा सुसाणकम्मताणि वा सुण्णागारगिरिकंदरसंतिसेलोवट्ठाणकम्मंताणि वा भवणगिहाणि वा, जे भयंताशे तहप्पगाराई आएसणाणि वा जाव गिहाणि वा तेहिं उवयमाणेहिं उवयंति
अयमाउसो ! अभिकंतकिरिया यावि भवइ ३॥ सू०८०॥ इह प्रज्ञापकाद्यपेक्षया प्राच्यादिषु दिक्षु श्रावकाः प्रकृतिमद्रका वा गृहपत्यादयो भवेयुः, तेषां च साध्वाचारगोचरः 'णो सुणिसंतो भवइ'त्ति न सुष्टु निशान्तः-श्रतोऽवगतो भवति, साधूनामेवंभूतः प्रतिश्रयः कल्पते नैवंभूत इत्येवं न ज्ञातं भवतीत्यर्थः, प्रतिश्रयदानफलं च स्वर्गादिकं तैः कुतश्चिदवगतं, तच्छद्दधानः प्रतीयमानै रोचयद्भिरित्येकार्था एते किश्चिद्भेदाढा भेदः, तदेवंभूतः 'अगारिभिः' गृहस्थैर्बहून् श्रमणादीन् उद्दिश्य तत्र तत्रारामादौ यानशालादीनि स्वार्थ । कुर्वद्भिः श्रमणाद्यवकाशार्थं 'चेइयाइ" महान्ति कृतानि भवन्ति, तानि चागाराणि स्वनामग्राहं दर्शयति, तद्यथा'आदेशनानि लोहकारादिशाला: 'आयतनानि' देवकुलपापवरकाः 'देवकुलानि' प्रतीतानि 'सभा' चातुवैद्यादिशालाः 'प्रपाः' उदकदानस्थानानि 'पण्यगृहाणि वा' पण्यापणा 'पण्यशालाः' घशालाः ‘यानगृहाणि' स्थादीनि यत्र यानानि तिष्ठन्ति 'यानशालाः' यत्र यानानि निष्पाद्यन्ते 'सुधाकर्मान्तानि' यत्र सुधापरिकर्म क्रियते, एवं दर्भवर्धवल्कजाङ्गारकाष्ठकर्म[काष्ठ]गृहाणि द्रष्टव्यानि, श्मशानगृहं' प्रतीतं (शून्यागारं-विविक्तिगृह) शान्तिकर्मगृह
Page #299
--------------------------------------------------------------------------
________________
७४१ ॥
***
यत्र शान्तिकर्म क्रियते गिरिगृहं पर्वतोपरिगृहं कन्दरं गिरिगुहा संस्कृता शैलोपस्थापनं - पाषाणमण्डपः, तदेवंभूतानि गृहाणि तैश्वरकब्राह्मणादिभिरभिक्रान्तानि पूर्व पश्चाद् 'भगवन्तः' साधवः 'अवपतन्ति' अवतरन्ति, इयनायुष्मन् ! विनेयामन्त्रणम् अभिक्रान्तक्रिया वसतिर्भवति, अन्पदोषा चेयम् ३ ॥
इह खलु पाईणं वा जाव रोयमाणेहिं बहवे समणमाहणअतिहिकिवणवणिमए समुद्दिस्स तत्थ तत्थ अगारिहिं अंगाराह' चेहयाइ' भवति, तंजहा - आएसणाणि वा जाव भवणगिहाणि वा जे भयंतारो तहप्पगाराई' आएसणाणि जाव भवणगिहाणि वो तेहिं अणोवयमाणेहिं उवयंति अथमाउसो ! अणभिक्कंतकिरिया यावि भवइ ४ ।। सू० ८१ ॥ सुगम, नवरं चरका दिभिरनवसेवितपूर्वा अनभिक्रान्तक्रिया वसतिर्भवति, इयं चानमिक्रान्तत्व | देवा कल्पनीयेति ४ ॥ साम्प्रतं वयभिधानां वसतिमाह
इह खल पाईणं वा ४ जाव कम्मकरीओ वा, तेसिं च णं एवं वुत्तपुव्वं भवइ - जे इमे भवंति समणा भगवंतो जाव उवरया मेहुणाओ धम्माओ, नो खलु एएसि भयंताराण कप्प आहाकम्मिए उवस्सए वत्थए, से जाणिमाणि अम्हं अपणो समझाए चेहयाइ भवंति, तंजहा - आएसणाणि वा जाव भवणगिहाणि वा, सव्वाणि ताणि समणाणं निसिरामो, अवियाई वयं पच्छा अप्पणी सयट्ठाए चेहस्सामो, तंजहा - आए सणाणि
॥ ७४१ ॥
Page #300
--------------------------------------------------------------------------
________________
भोगाचा राजचिः श्रीलाहा.)
श्रतस्कं०२
चूलिका र शर्यष.२ उद्देष्ठका २
१७४२॥
वा जाव भवणगिहाणिवा, एयप्पगारं निग्योसं सुच्चा निसम्म जे भयंतारो तहप्पगाराई । आएसणाणि वा जाव भवणगिहाणि वा उवागच्छंनि इयराइयोहिं पाहडेहिं वहति,
अयमाउसो ! वजकिरियावि भवइ ५ ॥ सू० ८१ ॥ इह खल्वित्यादि प्रायः सुगम, समुदायार्थस्वयम्-गृहस्थैः साध्याचागभिर्यान्यात्मार्थ गृहाणि निर्वतितानि तानि साधुभ्यो दवाऽऽत्मार्थ त्वन्यानि कुर्वन्ति, ते च साधवस्तेवितरेतरेपूच्चावचेषु 'पाहुडेहि'ति प्रदत्तेषु गृहेषु यदि वर्तन्ते ततो वयक्रियाभिधाना वसतिर्भवति, सा च न कन्पत इति ५ ॥ इदानीं महावाभिधानां वसतिमधिकृत्याह
इह खलु पाईणं वा ४ संतेगइआ सट्टा भवंति, तेसिं च णं आयारगोयरे जाव तं रोयमाणेहिं बहवे समणमाहणअतिहिकिवणवणीमगे पगणिय २ समुहिस्स तत्थ २ अगारीहिं अगाराईचेइयाई भवंति, तंजहा-आएसणाणि वा जाव भवणगिहाणि वा, जे भयंतारो तहप्पगाराइं आएसणाणि वा जाव भवणगिहाणि धा उवागच्छंति
इयराइयरेहिं पाहुडेहिं वटॅति, अयमाउसो। महावज्जकिरियावि भवइ ६॥ सू० ८३॥ इहेत्यादि प्रायः सुगममेव, नवरं श्रमणाद्यर्थ निष्पादितायां यावन्तिकवसती स्थानादि कुर्वतो महावाभिधाना वसतिर्भवति, अतः अकल्प्या चेयं विशुद्धकोटिश्चेति ॥ इदानीं सावधाभिधानामधिकृत्याह
इह खल पाईणं वा ४ संतेगइया जावतं सहहमाणहित पत्तियमाणेहिं तं रोयमाणेहिं
७४२॥
Page #301
--------------------------------------------------------------------------
________________
बड़वे समणमाहणअतिहिकिवणवणीमगे पगणिय २ समुद्दिस्स तत्थ २ अगाराई चेइयाई भवंति, तंजहा-आएसणाणि वा जाव भवणगिहाणि वा, जे भयंतारोतहप्पगाराणि आएसणाणि वा जाव भवणगिहाणि वा उवागच्छंति इयराइयरेहिं पाहुडेहिं
वटंति, अयमाउसो ! सावजकिरिया यावि भवइ ७॥ सू० ८४ ॥ इहेत्यादि प्रायः सुगम, नवरं पञ्चविधश्रमणाद्यर्थमेवैषा कल्पिता, ते चामी श्रमणा:-"'निग्गंथ १ सक २ तावस ३ गेरुअ ४ आजीव ५ पंचहा समणा।" इति, अस्यां च स्थानादि कुर्वतः सावधक्रियाऽभिधाना वसतिभवति, अकल्पनीया, चेयं विसुद्धकोटिश्चेति ७॥ महासावद्याभिधानामधिकृत्याह
इह खल पाईणं वा ४ जाव तं रोयमाणेहिं एग समजायं समुद्दिस्स तत्थ २ अगारीहिं अगाराइ चेहयाई भवन्ति, तंजहा-आएसणाणि जाव गिहाणि वा महया पुढविकायसमारंभेणं जाव महया तसकायसमारंभेण महया विरूवरूवेहिं पावकम्मकिच्चेहि, तंजहा–छायणओ लेवणओ संथारदुवारपिहणो सोओदए वा परद्ववियपुव्वे भवइ अगणिकाए वा उज्जालियपुग्वे भवइ, जे भयंतारो तहप्यगाराई आएसणाणि
वा जाव भवणगिहाणि वा उवागच्छंति इयराइयरेहिं पाहुडेहिं वटंति, दुपक्खं ते १ निम्रन्थाः शाख्वाः तापमा गैरिका भाजीविका पन्चधाः श्रमणाः ।
।। ७४३॥
Page #302
--------------------------------------------------------------------------
________________
बीजाचाराजवृत्तिः (शीलावा.
श्रुत.. चूलिका-१ शय्यैष०२ उद्देशका ३
।७४४॥
कम्म सेवंति, अयमाउसो! महासावजकिरिया यावि भव८॥ सू० ८५॥ __ इह कश्चिद्गृहपत्यादिरेकं साधर्मिकमुद्दिश्य पृथिवीकायादिसंरम्भसमारम्भारम्भैरन्यतरेण वा महता तथा 'विरूपरूपैः नानारूपैः पापकर्मकृत्यैः-अनुष्ठानः, तद्यथा-छादनतो लेपनतस्तथा संस्तारकार्थ द्वारढकनार्थ च, इत्यादीनि प्रयोजनान्युद्दिश्य शीतोदकं त्यक्तपूर्वं भवेत् अग्निर्वा प्रज्वालितपूर्वो भवेत्, तदस्यां वसतौ स्थानादि कुर्वन्तस्ते द्विपक्षं कर्मासेवन्ते, तद्यथा-प्रव्रज्याम् आधाकर्मिकवसत्यासेवनाद्गृहस्थत्वं च रागद्वेषं च ईर्यापथं साम्परायिकं च, इत्यादिदोषान्महासावधक्रियाऽभिधाना वसतिर्भवतीति ८॥ इदानीमल्पक्रियाऽभिधानामधिकृत्याह
इह खल पाईणं वा जाव तं रोयमाणेहिं अप्पणो सयट्ठाए तत्थ २ अगारीहिं जाव उज्जालियपुव्वे भवइ, जे भयंतारो तहप्पगाराई' आएसणाणि वा जाव भवणगिहाणि वा उवागच्छंति इयराइयरेहिं पाहुडेहिं एगपक्वं ते कम्म सेवंति, अयमाउसो! अप्पसावजकिरिया यावि भवइ ९॥ एवं स्खल तस्स भिक्खुस्स भिक्खुणोए वा सामग्गियं जाव सया जएज्जासि तिबेमि ॥ सू०.८६॥
॥शय्यैषणायां द्वितीयोद्देशकः ॥२-१-२-२॥ सुगम, नवरमल्पशब्दोऽभाववाचीति ९ । एतत्तस्य भिक्षोः 'सामग्र्यं' संपूर्णो भिक्षुभाव इति ॥“'कालाइकं तु १
॥७ १ नातिकान्त उपस्थाना अभिक्रान्ता चैवानभिकान्ता च । वा च महावा सापद्या महासावद्या अल्पक्रिया च ॥१॥
॥ ७४४॥
Page #303
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥७४५॥
वट्ठाण २ अभिकता ३ चेव अणभिकंता ४ य । वजा य ५ महावज्जा ६ सावज ७ मह ८ एप्पकिरिआ९ य॥१॥" एताच नव वसतयो यथाक्रमं नवमिरनन्तरसूत्रः प्रतिपादिताः, आसु चाभिक्रान्तान्पक्रिये योग्ये शेषास्त्वयोग्या इति ॥ द्वितीयाध्ययनस्य द्वितीयः ॥ २-१-२-२॥
॥ अथ शय्येषणाध्ययने तृतीयोद्देशकः ॥ ___ उक्तो द्वितीयोदेशकोऽधुना तृतीयः समारभ्यते, अस्य चायममिसंबन्धः, इहानन्तरसूत्रेऽन्पक्रिया शुद्ध। वसतिरभिहिता, इहाप्यादिसूत्रेण तद्विपरीता दर्शयितुमाह
से य नो सुलभे फासुए उंछे अहेसणिज्जे नो खलु सुद्धे इमेहिं पाहुडेहि, तंजहा–छायणओ लेवणओ संथारदुवारपिहणओ पिंडवाएसणाओ, से य भिक्खू चरियारए ठाणरए निसीहियारए सिज्जासंथारपिंडवाएसणारए, संति भिक्खुणो एवमक्खाइणो उज्जुया नियागपडिवन्ना अमायं कुव्वमाणा वियाहिया, संतेगड्या पाहुखिया उक्खित्तपुव्वा भवइ, एवं निक्खित्तपुव्वा भवइ, परिभाइयपुव्वा भवइ, परिभुत्तपुन्या भवइ परिह.
वियपुव्वा भवइ, एवं वियागरेमाणे समियाए वियागरेइ , हंता भव ॥ सू०८७॥ अत्र च कदाचित्कश्चित्माधुर्वसत्यन्वेषणार्थ भिक्षार्थ वा गृहपतिकुलं प्रविष्टः सन् केनचिच्छद्धालुनैवमभिधीयते,
॥ ७४५.
Page #304
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शीलाङ्का.)
॥ ७४६ ॥
तद्यथा--प्रचुरान्नपानोऽयं ग्रामोऽतोऽत्र भवता वसतिमभिगृद्य स्थातु' युक्तमित्येवमभिहितः सन्नेवमाचक्षीत--न केवलं पिण्डपातः प्रासुको दुर्लभस्तदवाप्तावपि यत्रासौ भुज्यते स च प्रासुकः--आधाकर्मादिरहितः प्रतिश्रयो दुर्लमः, 'उंछ' इति छादनाद्युत्तरगुणदोषरहितः, एतदेव दर्शयति- 'आहेस णिज्जेत्ति यथाऽसौ मूलोत्तरगुणदोषरहितत्वेनैपणीयो भवति तथाभृतो दुर्लभ इति, ते चामी मूलोत्तरगुणाः - ""पडी वंसो दो धारणाओ चत्तारि मूलवेलीओ । मूलगुणेहिं विसुडा एसा आहागडा वसही ॥ १ ॥ वंसगकडणोककंपण छायण लेवण दुआरभूमीओ । परिकम्मविषमुक्का एसा मूलुत्तरगुणे ॥ २ ॥ दूमिअधूमि अवासिअउज्जोवियबलिकडा अ वत्ता य। सित्ता सम्मावि अ विसोहिकौडीगया वसही ॥ ३ ॥ " अत्र च प्रायशः सर्वज्ञ सम्भवित्वादुत्तरगुण नां तानेव दर्शयति, न चासौ शुद्धो भवत्यमीभिः कर्मोपादानकर्मभिः, तद्यथा - 'छादनतः दर्भादिना, 'लेपनतः ' गोमयादिना संस्तारकम् - अपवर्त्तकमाश्रित्य तथा द्वारमाश्रित्य बृहन्लघुत्वापादानतः, तथा द्वारस्थगनं- कपाटमाश्रित्य तथा पिण्डपातैषणामाश्रित्य तथाहि--कस्मिंश्चित्प्रतिश्रये प्रतिवसतः साधून शय्यातरः पिण्डेनोपनिमन्त्रयेत् तद्ग्रहे निषिद्धाचरणमग्रहे तत्प्रद्वेषादिसम्भव
१ पृष्ठिर्वंशो द्व े धारणे चतस्रो मूलवेल्य: । मूलगुणै विशुद्धा एषा यथाकृता वसतिः ॥ १॥ वंशक कटनो कम्पनच्छादनलेपनं द्वारभूमेः । परिकर्मविप्रमुक्ता एषा मूलोत्तरगुणैः ।। २ ।। वषलिता धूपिता वासिता उद्योतित। कृतवलिकाच व्यक्ता च । सिक्का मृष्टाऽपि च विशोधिकोटीगता वस्रतिः ॥ ३ ॥
܀܀܀܀܀܀
श्रुत० २ चूलिका २ शय्यैष० २ उद्देशकः ३
܀܀܀܀܀
॥ ७४६ ॥
Page #305
--------------------------------------------------------------------------
________________
.७४७॥
इत्यादिभिरुत्तरगुणैः शुद्धा प्रतिश्रयो दुरापः, शुद्धे च प्रतिश्रये साधुना स्थानादि विधेयं, यत उक्तम्-'मूलत्तरगुणसुद्ध थीपसुपंडगविवजियं वसहिं । सेवेज सब्वकाल विवजए हुंति दोसा उ॥१" मलोत्तरगुणशुद्धावातावपि स्वाध्यायादिभूमीसमन्धितो विविक्तो दुराप इति दर्शयति-'से' इत्यादि, तत्र च भिक्षवः चरिता:-निरोधासहिष्णुत्वाच्चक्रमणशीला, तथा 'स्थानरताः' कायोत्सर्गकारिणः 'निशीथिकारताः' स्वाध्यायध्यायिनः शय्यासर्वाङ्गिकी संस्तारकः--अर्द्धतृतीयहस्तप्रमाणः, यदिवा शयनं शय्या तदर्थ संस्तारका शय्यासंस्ता कस्तत्र केचिद्रताः ग्लानादिभावात् , तथा लब्धे पिण्डपाते ग्रासैषणारतास्तदेवं 'सन्ति' भवन्ति केचन भिक्षवः 'एवमाख्यायिनः यथाऽवस्थितवसतिगुणदोषाख्यायिनः ऋजवो नियाग:--संयमो मोक्षो वा तं प्रतिपन्नाः, तथा अमायाविना, एवं विशिष्टाः साधवः 'व्याख्याताः' प्रतिपादिताः, तदेवं वसतिगुणदोषानाख्याय गतेषु तेषु तैश्च श्रावकैरेवंभूतैषणीयवसत्यभावे साध्वर्थमादेगरभ्य वसतिः कृता पूर्वकृता वा छादनादिना संस्कृता भवेत् , पुनश्च तेष्वन्येषु वा साधुषु समागतेषु 'सन्ति' विद्यन्ते तथाभृताः केचन गृहस्थाः य एवंभूतां छलनां विदध्युः, तद्यथा-प्राभृतिकेव प्राभृतिका-दानार्थ कल्पिता वसतिरिह गृह्यते, सा च तैगृहस्थैः 'उत्क्षिप्तपूर्वा' तेषामादौ दर्शिता यथाऽस्यां वसत यूयमिति, तथा 'निक्षिप्तपूर्वा' पूर्वमेव अस्माभिरात्मकृते निष्पादिता, तथा 'परिभाइयपुव्व'त्ति पूर्व मेवास्माभिरियं भ्रातृन्यादेः परिकल्पितेत्येवंभूता मवेत , तथाऽन्यैरपीयं परिभुक्तपूर्वा, तथा पूर्वमेवास्माभिरियं परित्यक्तेति, यदि च भगवता नोपयुज्यते ततो वयमेनाम
१ मूलोत्तरगुणशुद्धां स्त्रीपशुपण्डकविवर्जितां वसतिम्। सेवेत सदाकालं विपर्यये तु भवन्ति दोषाः॥१॥
७४७॥
Page #306
--------------------------------------------------------------------------
________________
भीआचाराजवृत्तिः (चीलाङ्का.)
श्रुतस्कं०३ चूलिका.. शय्यैष०२ उद्देशका ३
-
.७४८॥
पनेष्यामः, इत्येवमादिका छलना साधुना सम्यग विज्ञाय परिहर्तव्येति, ननु किमेवं छलनासम्भवेऽपि यथाऽवस्थितवसतिगुणदोषादिकं गृहस्थेन पृष्टः साधुर्व्याकुर्वन-कथयन् सम्यगेव व्याकरोति?, यदिवैवं व्याकुठन सम्यग् व्याकर्ता भवति , आचार्य आह-हन्त इति शिष्यामन्त्रणे सम्यगेव व्याकर्ता भवतीति ॥ तथाविधकार्यवशाच्चरककार्पटिकादिभिः सह संवासे विधिमाह
से भिक्खू वा २ से जं पुण उवस्सयं जाणिज्जा खुड्डियाओ खुडुदुवारियाओ निययाओ संनिरुद्धाओ भवन्ति, तहप्पगारे उवस्सए राओ घा विधाले वा निक्खममाणे वा . पविसमाणे वा पुरा हत्येण निक्वमिजा वा २ पच्छा पाएण वा तओ संजयामेव निक्खमिज वा २,१। केवली बूया आयाणमेयं, जे तत्थ समणाण वा माहणाण वा छत्तए मत्तए वा दंडए वा लट्ठिया वग मिसिया वा नालिया वा चेलं वा चिलिमिलो वा चम्मए वा चम्मकोसए वा चम्मछेयणए वा दुब्बडे दुन्निक्खित्ते अणिकंपे चलाचले भिक्खू य राओं वा वियाले वा निक्खममाणे वा २ पयलिज्ज वा पवडेज वा २ से तत्थ पयलमाणे वा पवडेमाणे वा हत्थं वा पायं वा जाव इदियजायं वा लसिज्ज वा पाणाणि वा ४ अभिहणेज वा जोव ववरोविज वा, अह भिक्खूणं पुव्वोवइ जाव तहप्पगारे उवस्सए पुरा हत्धेण निक्खमिज वा २ पच्छा पाएणं तओ संजपामेव निक्खमिज्ज वा पविसिज्ज वा ३॥ सू०८८॥
॥ ७४८॥
Page #307
--------------------------------------------------------------------------
________________
.७४
||
समिक्षुर्य पुनरेवंभृतं प्रतिश्रयं जानीयात , तद्यथा-'शुद्रिकाः लष्व्यः तथा क्षुद्रद्वाराः 'नीचाः' उच्चस्त्वरहिताः 'संनिरुद्धाः' गृहस्थाकुला बसतयो भवन्ति, ताश्चैवं भवन्ति-तस्यां साधुवसतौ शय्यातरेणान्येषामपि कतिपयदिवस. है स्थायिनां चरकादीनामवकाशो दत्तो भवेत् , तेषां वा पूर्वस्थितानां पश्चात्साधनामुपाश्रयो दत्तो भवेत् , तत्र कार्यवशा.
द्वसता राज्यादौ निर्गच्छता प्रविशता वा यथा चरकाद्युपकरणोपघातो न भवति तदवयवोपपातो वा तथा पुरो हस्तकरणादिकया गमनागमनादिक्रियया यतितव्यं, शेष कण्ठयं, नवरं 'चिलिमिली' यमनिका 'चर्मकोशः पाणित्रं खनकादिः॥ इदानी वसतियाश्चाविधिमधिकृत्याह
से आगंतारेसु वा अणवीय उवस्सयं जाइजा, जे तत्थ ईसरे जे तत्थ समहिहाए ते उवस्मयं अणुनविजा-कामं खलु आउसो! अहालंद अहापरित्नायं वसिस्सामो जाव आउसंतो! जाव आउसंतस्स उवस्सए जाव साहम्मिया, एतावता उवस्सयं गिहि
स्सामो तेण परं विहरिस्सामो॥ सू०८९॥ समिक्षुरागन्तागारादीनि गृहाणि पूर्वोक्तानि तेषु प्रविश्यानुविचिन्त्य च-किंमतोऽयं प्रतिश्रयः कश्चात्रेश्वर ? इत्येवं पर्यालोच्य च प्रतिश्रयं याचेत, यस्तत्र 'ईश्वरः' गृहस्वामी यो वा तत्र 'समधिष्ठाता' प्रभुनियुक्तस्तानुपाश्रयमनुज्ञापयेत, तद्यथा-'काम' तवेच्छया आयुष्मन् ! त्वया यथापरिज्ञा प्रतिश्रयं कालतो भूमागतश्च तथैवा एवमुक्तः स कदाचिद् गृहस्थ एवं ब्रयाद्-यथा कियत्कालं भवतामत्रावस्थानमिति एवं गृहस्थेन पृष्टः साधु-वसति
Page #308
--------------------------------------------------------------------------
________________
बीआचाराजयतिः (चीलाझा.)
| श्रुतस्कं. १ चूलिका..
शय्येष. २ | उद्देशक
.७५.॥
प्रत्युपेक्षक एतद् ब्र याद्-यथा कारणमन्तरेण ऋतुबद्ध मासमेकं वर्षासु चतुरो मासानवस्थानमिति, एवमुक्तः कदाचिस्परो यात्-नैतावन्तं कालं ममात्रावस्थानं वसतिर्वा, तत्र साधुस्तथाभूतकारणसङ्काये एवं जयाद्-यावत्कालमिहायुष्मन्त आसते यावद्वा भवत उपाश्रयस्तावत्कालमेवोपाश्रयं गृहीष्यामः, ततः परेण विहरिष्याम इत्युत्तरेण सम्बन्धः, साधुप्रमाणप्रश्ने चोत्तरं दद्याद् यथा समुद्रसंस्थानीयाः सूरयो, नास्ति परिमाणं, यतस्तत्र कार्यार्थिनः केचनागच्छन्ति
परे कृतकार्या गच्छन्त्यतो यावन्तः साधर्मिकाः समागमिष्यन्ति तावतामयमाश्रयः, साधुपरिमाणं न कथनीयमिति भावार्थः॥ किंच-...
से भिक्खू वा २ जस्सुवस्सए संवसिज्जा तस्स पुवामेव नामशुत्तं जाणिजा, तओ पच्छा तस्स गिहे निमंतेमाणस वा अनिमंतेमाणस्स वा असणं वा ४ अफासुयं जाव
नो पडिगाहेजा। सू०९०॥ सुगम, नवरं साधूनां सामाचार्येषा, यदुत शय्यातरस्य नामगोत्रादि ज्ञातव्यं, तत्परिज्ञानाञ्च सुखेनैव प्राघूर्णिकादयो भिक्षामटन्तः शय्यातरगृहप्रवेशं परिहरिष्यन्तीति ॥ किश्व
से भिक्खूषा से जं पुण उवस्ययं जाणिज्जा ससागारियं सागणियं सउदयं नो पन्नस्स निक्खमणपवेसाए जावाणचिंताए तहप्पगारे उवस्सए नो ठाणं वा सेज्जं वा निसोहियं वा चेइज्जा ॥ सू०११॥
॥ ७५०॥
Page #309
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥७५१॥
TE स मिचुर्य पुनरेवंभूतं प्रतिश्रयं जानीयात् , तद्यथा-मसागारिक साग्निक सोदक, तत्र स्वाध्यायादिकने स्थानादि न विधेयमिति ॥ तथा- .
से भिक्खू वा २ से जं पुण उवस्सयं जाणिज्जा गाहावइकुलस्स मझमझेणं गंतु पंथए पडिबड घा नो पन्नस्स जाव चिंताए तहप्पगारे उवस्सए नो ठाणं वा सेज्जं वा
निसोहियं वा चेइज्जा ॥ सू० ९२॥ यस्योपाश्रयस्य गृहस्थगृहमध्येन पन्थास्तत्र बह्वपायसम्मवान्न स्थातव्यमिति ॥ तथा
से भिक्ख वा २ से जं पुण उवस्मयं जाणिज्जा, इह खलु गाहावई वा जाव कम्मकरीओ वा अनमन्नं अकोसंति वा जाव उद्दवंति वा नो पन्नस्स जाव चिंताए, सेवं नच्चा तहप्प. गारे उपस्सए नो ठाणं वा ३ चेइज्जा ॥ सू०९३ ॥ से भिक्खू वा २ से जं पुण उवस्सयं जाणिज्जा, इह खल गाहावई वा जाव कम्मअरीओ वा अन्नमन्नस्स गायं तिल्लंण वा नवनीएण वा घएण वा वसाए वा अन्भंगेति वा मक्खेंति वा नो पण्णस्स जाव चिंताए तहप्पगारे उवस्सए नो ठाणं वा जाव चेइज्जा ॥ सू० ९४ ॥ से मिक्स्व वा २ से जं पुण उवस्सयं जाणिना-इह खलु गाहावई वा जाव कम्मकरीओ वा अनमनस्स गायं सिणाणेण वा कक्केण वा लद्देण वा वण्णेण वो चुण्णेण वा पउमेण वा आघंसंति
७५१ ॥
Page #310
--------------------------------------------------------------------------
________________
भीआचारावृत्तिः (चीलावा.)
चूलिका | शय्यैष०२ उद्देशकः३
७५२॥
पा पघंसंति वा उज्वलंति वा उज्वहिंति वा नो पन्नस्स जाव चिंताए, तहप्पगारे उवस्सए नो ठाणं वा जाव चेइज्जा ॥ सू०९५॥ से भिक्ख वा २ से जं पुण उपस्सयं जाणिज्जा, इह स्वल गाहावती वा जाव कम्मकरी वा अण्णमण्णस्स गायं सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलंति वा पहोयंति वा सिंचंति वा सिणावंति वा नो पन्नस्स जाव नो ठाणं वा जाव चेइबा ॥ सू०९३॥
प्रातिवेशिकाः प्रत्यहं कलहायमानास्तिष्ठन्ति तत्र स्वाध्यायाद्यपरोधान्न स्थेयमिति ॥ एवं तैलाद्यभ्यङ्गकल्काद्युद्वर्त्तनोदकपक्षालनसूत्रमपि नेयमिति ॥ किश्च
से भिक्खू वा २ से जं पुण उवस्सयं जाणिज्जा इह स्खल गाहावई वा जाव कम्मकरोओ वा निगिणा ठिया मिगिणा उल्लोणा मेहुणधस्मं विनविंति रहस्सियं वा मंतं मंतंति
नो पन्नस्स जाव नो ठाणं वा ३ चेइज्जा ॥ सू० ९७ ॥ ___ यत्र प्रातिवेशिकस्त्रियः 'णिगिणाउ'त्ति मुक्तपरिधाना आसते, तथा 'उपलीना: प्रच्छन्ना मैथुनधर्मविषयं किश्चिद्रहस्यं रात्रिसम्भोग परस्परं कथयन्ति, अपरं वा रहस्यमकार्यसंबद्धं मन्त्रं मन्त्रयन्ते, तथाभृते प्रतिश्रये न स्थानादि विधेयं, यतस्तत्र स्वाध्याय नतिचित्तविप्लुत्यादयो दोषाः समुपजायन्त इति । अपि च
से भिक्खू वा २ से जं पुण उवस्सयं जाणिज्जा आइन्नसंलिक्खं नो पत्नस्स जाव नो ठाणं
॥७५२॥
Page #311
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ ७५३॥
******
वा ३ चेइज्जा ।। सू० ९८ ॥
कण्ठ्यं, नवरं, तत्रायं दोषः - चित्रभित्तिदर्शनात्स्वाध्यायक्षतिः, तथाविवचित्रस्थस्त्रयादिदर्शनात्पूर्वक्रीडिताक्रीडितस्मरणकौतुकादिसम्भव इति । साम्प्रतं फलहकादिसंस्तारकमधिकृत्याह
सेभिक्खू वा २ अभिकंखिजा संधारगं एसित्तए, से जं पुण संथारगं जाणिजा सअंडं जाव- ससंताणयं, तहप्पगारं संथारं लाभे संते नो पडिग्गाहिज्जा १ ॥ से भिक्खू वा २ से जं पुण संथारयं जाणिजा अप्पंडं जाव संताणगं गरुयं तहप्पगारं लाभे संते नो पडिगाहिज्जा २ || से भिक्खू वा २ से जं पुण संधारयं जाणिला अप्पंडं लहुयं अपाडि - हारियं तहप्पगार लाभे संते नो पडिग्गाहिज्जा ३ ॥ से भिक्खू वा २ से जं पुण संधारयं जाणिजा अप्पंडं जाव अप्पसंताणगं लहुअं पारिहारियं नो अहाबडं तहप्पगारं लाभे संते नो पडिगाहिज्जा ४ ॥ से भिक्खू वा २ से जं पुण संधारगं जाणिजा अप्पंडं जाव संताणगं लहुअं पाडिहारिअं अहाबडं तहप्पगारं संथारगं लाभे संते पडिगहिना ५ ॥ सू० ९९ ॥
,
स भिक्षुर्यदि फलहकादिसंस्तार कमेषितुमभिकाङ्क्षयेत् तं चैवंभूतं जानीयात्, तद्यथा - प्रथमसूत्रे साण्डादित्वात्संयमविराधनादोषः १, द्वितीयसूत्रे गुरुत्वादुत्क्षेपणादावात्मविराधनादिदोषः २, तृतीयसूत्रेऽप्रतिहारकत्वात्तत्परित्यागादिदोषः
******
॥ ७५३॥
Page #312
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (धीलाङ्का.) .७५४॥
श्रुतः २ चूलिका शय्यैष०२ उद्देशका ३
३, चतुर्थसूत्रे स्वबद्धत्वात्तद्वन्धनादिपलिमन्थदोषः ४, पश्चमसूत्रे त्वल्पाण्डं यावदम्पसन्तानकलघुपातिहारिकावबद्धत्वात्सर्वदोषविप्रमुक्तत्वात्संस्तारको ग्राह्य इति सूत्रपञ्चकसमुदायार्थ: ५॥ साम्प्रतं संस्तारकमुद्दिश्याभिग्रहविशेषानाह
इच्चेयाई आयतणाई उवाइक्कम्म-अह भिक्खू जाणिज्जा इमाई चरहिं पडिमाहिं संथारग एसित्तए, तत्थ खल इमा पढमा पडिमा-से भिक्खू वा २ उद्दिसिय २ संथारगं जाइजा, तंजहा-इक्कडं वा कढिणं वा जंतुयं वा परगं वा मोरगं वा तणगं वा सोरगं वा कुसं वा कुच्चगं वा पव्वगं (पिप्पलगंवा पलालगं वा, से पुवामेव आलोइज्जा-आउसोति वा भइणोत्ति वा दाहिसि मे इत्तो अन्नयरं संथारगं! तह प्पगारं संथारगं सयं वा णं जाइजा परो वा देजा फासुयं एसणिज्जं जाव पडि.
गाहिज्जा, पढमा पडिमा १॥ सू० १०॥ 'इत्येतानि' पूर्वोक्तानि 'आयतनादीनि' दोषरहितस्थानानि वसतिगतानि संस्तारकगतानि च 'उपातिक्रम्य' परिहत्य वक्ष्यमाणांश्च दोषान् परिहत्य संस्तारको ग्राह्य इति दर्शयति-'अथ' आनन्तर्ये स भावभिक्षुर्जानीयात् , | 'आभिः' करणभूताभिश्चतसृभिः 'प्रतिमाभिः' अभिग्रह विशेषभूताभिः संस्तारकमन्वेष्टु', ताश्चेमाः-उद्दिष्ट ! प्रेक्ष्य २ तस्यैव ३ यथासंस्तृत ४ रूपाः, तत्रोद्दिष्टा फलहकादीनामन्यतमद्ग्रहीष्यामि नेतरदिति प्रथमा १, यदेव प्रागुद्दिष्टं तदेव द्रक्ष्यामि ततो ग्रहीष्यामि नान्यदीति द्वितीया प्रतिमा २, तदपि यदि तस्यैव शय्यातरस्य गृहे भवति ततो ग्रहीष्यामि
स भावभिक्षुर्जानीयात् ,
तस्यैव ३ यथासंस्वतामः' अभिग्रह विशेषभूताभिः संस्ता
॥५४॥
Page #313
--------------------------------------------------------------------------
________________
.७५५ ॥
नान्यत आनीय तत्र शयिष्य इति तृतीया ३ तदपि फलहकादिक यदि यथासंस्तृतमेवास्ते ततो ग्रहीष्यामि नान्यथेति चतुर्थी प्रतिमा ४। आसु च प्रतिमास्वाद्ययोः प्रतिमयोगच्छनिर्गतानामग्रहः, उत्तरयोरन्यतरस्यामभिग्रहः, गच्छान्तर्गताना तु चतस्रोऽपि कल्पन्त इति, एताश्च यथाक्रम सूत्रैर्दर्शयति-तत्र खल्विमा प्रथमा प्रतिमा तद्यथा-उद्दिश्योद्दिश्येकडादीनामन्यतमद्ग्रहीष्यामीत्येवं यस्याभिग्रहः सोऽपग्लाभेऽपि न प्रतिगृह्णीयादिति, शेषं कण्ठ्यं नवरं 'कठिनं' वंशकटादि 'जन्तुक' तृणविशेषोत्पन्न 'परक' येन तृणविशेषेण पुष्पाणि अध्यन्ते 'मोरगं ति मयूरपिच्छनिष्पन्नं 'कुचगं'ति येन कूर्चकाः क्रियन्ते, एते चैवंभृताः संस्तारका अनूपदेशे सार्दादिभूम्यन्तरणार्थमनुज्ञाता इति ॥
अहावरा दुच्चा पडिमा-से भिक्खू वा २ पेहाए संथारगं जाइजा, तंजहा-गाहावई वा कम्मकरिं वा से पुवामेव आलोइजा-आउसो ! त्ति वा भणी त्ति वा ! दाहिसि मे जाव पडिगाहिज्जा, दुचा पडिमा २ ॥ अहावरा तच्चा पडिमा-से भिक्ख वा २ जस्सुवस्सए संवसिजा जे तत्थ अहासमन्नागए, तंजहा-इकडे वा जाव पलाले हवा तस्स लाभे संवसिज्जा तस्सालाभे उक्कुडुए वा नेसज्जिए वा विहरिजा तच्चा
पडिमा ३॥ सू० १०१॥ अत्रापि पूर्ववत्सर्वं भणनीयं, यदि परं तमिक्कडादिकं संस्तारकं दृष्वा याचते नादृष्टमिति ॥ एवं तृतीयाऽपि नेया, यांस्तु विशेष:-गच्छान्तर्गतो निर्गतो वा यदि वसतिदातैव संस्तारकं प्रयच्छति ततो गृह्णाति, तदभावे उत्कटुको वा
Page #314
--------------------------------------------------------------------------
________________
भोआचाराजवृतिः (शीला.)
श्रुतस्कं०२ चूलिका शय्येष. २ उनका३
॥७५६॥
निषण्णो वा पद्मासनादिना सर्वगत्रमास्त इति ॥
अहावरा चउत्था परिमा-से भिक्ख वा २ अहासंथडमेव संथारगं जाइज्जा, तंजहापुढविसिलं वा कट्ठसिलं वा अहासंथडमेव, तस्स लाभे संते संवसिज्जा, तस्स अलाभे
उक्कुडुए वा २ विहरिज्जो, चउत्था पडिमा ४॥ सू० १.२॥ एतदपि सुगम केवलमस्यामयं विशेष:-यदि शिलादिसंस्तारक यथासंस्तृतं शयनयोग्यं लभ्यते ततः शेते नान्यथेति ॥ किश्व
इच्चेयाणं चसहं पडिमाणं अन्नयरं पडिमं पडिवजमाणे तं चेव जाव अन्नोऽन्नसमाहीए
एवं च णं विहरंति ॥ सू० १०३ ॥ आसां चतसृणां प्रतिमानामन्यतरां प्रतिपद्यमानोऽन्यमपरप्रतिमाप्रतिपन्न साधुन हीलयेद् , यस्मात्ते सर्वेऽपि जिनाझामाश्रित्य समाधिना वर्तन्त इति ॥ साम्प्रतं प्रातिहारिकसंस्तारकप्रत्यर्पणे विधिमाह
से भिक्ख वा २ अभिकंखिज्जा संथारगं पञ्चप्पिणित्तए, से जं पुण संथारगं जाणिज्जा
सअंडं जाव ससंताणयं तहप्पगारं संथारगं नो पञ्चप्पिणिज्जा ॥ सू० १०४॥ स भिक्षुःप्रातिहारिकं संस्तारकं यदि प्रत्यर्पयितुमभिकाङ्क्षेदेवंभूतं जानीयात् तद्यथा-गृहकोकिलकाद्यण्डकसंबद्धमप्रत्युपेक्षणयोग्यं ततो न प्रत्यर्पयेदिति । किञ्च
Page #315
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ ७५७ ।।
88
सेभिक्खू वा २ अभिकंखिजा संधारगं पच्चप्पिणित्तए से जं पुण संथारगं जाणिज्जा अप्पंडे जाव तहप्पारं संथारगं पडिलेहिय २ पमजिय २ आयाविय २ विहुणिय २ तओ संजयामेव पञ्चप्पिणिज्जा ॥ सू० १०५ ॥ सुगमम् । साम्प्रतं वसतौ वसतां विधिमधिकृत्याह
सेभिक्खू वा २ समाणे वा वसमाणे वा गामाणुगामं दूइजमाणे वा पुन्वामेव पन्नस्स उच्चार पासवणभूमिं पडिलेहिजा, केवली बूया आयाणमेयं – अपडिलेहियाए उच्चार - पासवणभूमीए से भिक्खू वा २ राओ वा वियाले वा उच्चारपासवणं परिहवेमाणे पयलिज्ज वा पवडेज वा २, से तत्थ पयलमाणे वा २ हत्थं वा पायं वा जाव लूसेज वा पाणाणि वा ४ ववरोविज्जा, अह भिक्खू णं पुव्वोवइट्ठा जाव जं पुव्वामेव पन्नस्स उच्चार पासवणभूमिं पडिले हिज्जा ।। १०६ ।।
सुग, नवरं साधूनां सामाचार्येषा, यदुत - विकाले प्रश्रवणादिभूमयः प्रत्युपेक्षणीया इति । साम्प्रतं संस्तारकभूमिमधिकृत्याह
सेभिक्खू वा २ अभिकंखिज्जा सिज्जासंधारगभूमिं पडिलेहित्तए नन्नत्थ आयरिएण वा उवज्झाएण वा जाव गणावच्छेएण वा बालेण वा वुड्ढेण वा सेहेण वा गिलाणेण वा
*****
܀܀܀܀܀
॥ ७५७ ॥
Page #316
--------------------------------------------------------------------------
________________
भीआचा राङ्गवृत्तिः
(शीलाङ्का.)
॥ ७५८ ॥
܀܀܀܀܀
आएसेण वा अंतेण वा मज्झेण वा समेण वा विसमेण वा पवाएण वा निवारण वा तओ संजयामेव पडिलेहिय २ पमज्जिय २ तओ संजयामेव बहुफासुग्रं सिज्जासंथारगं संथरिज्जा ॥ सू० १०७ ॥
स भिक्षुराचार्योपाध्यायादिभिः स्वीकृतां भूमिं मुक्त्वाऽन्यां स्वसंस्तरणाय प्रत्युपेक्षेत, शेषं सुगमं, नवरमादेश:प्राघूर्णक इति, तथाऽन्तेन वेत्यादीनां पदानां तृतीया सप्तम्यर्थ इति । इदानीं शयनविधिमधिकृत्याह
से भिक्खू वा २ बहुफासुयं सिज्जासंधारगं संथरित्ता अभिकंखिजा बहुफासुए सिज्जासंधारए दुरुहित्तए । से भिक्खू वा २ बहुफासुए सिज्जासंधारए दुरूहमाणे से पुव्वामेव ससोसोवश्यिं कार्य पाए य पमजिय २ तओ संजयामेव बहुफासुए सिजा संधारए दुरूहित्ता तभी संजयामेव बहुफासुयं सिज्जासंधारयं सहजा ॥ सू० १०८ ॥ से इत्यादि स्पष्टम् । इदानीं सुप्तविधिमधिकृत्याह -
सेभिक्खू वा २ बहुफा सुए सिज्जासंधारए सयमाणे नो अन्नमन्नस्स हत्थेण हत्थं पारण पायं कारण कार्य भासाइजा, से अणासायमाणे तओ संजयामेव बहुफासुयं सिज्जा संधारयं सहजा १ ॥ से भिक्ख वा २ उस्सासमाणे वा नोसासमाणे वा कासमाणे वा छीयमाणे वा जंभायमाणे वा उड्डोए वा वायनिसग्गं वा करेमाणे पुन्वामेव आसयं वा पोसयं वा
श्रतस्कं० २ चूलिका १ शय्यष० २ उद्देशक ३
।। ७५८ ।
Page #317
--------------------------------------------------------------------------
________________
.७५81
पाणिणा परिपेहित्ता तओ संजयामेव ऊससिज्जावाजाव वायनिसग्गं वा करेजा २॥ सू० १.९॥ निगदसिद्धम् , इयमत्र भावना-स्वपद्भिर्ह स्तमात्रव्यवहितसंस्तारकः स्वप्तव्यमिति ॥ एवं सुप्तस्य निःश्वसितादिविधिसूत्रमुत्तानार्थ, नवरम् 'आसयं वत्ति आस्यं 'पोसयं वा' इत्यधिष्ठानमिति ॥ साम्प्रतं सामान्येन शय्यामङ्गीकृत्याह
से भिक्ख वा २ समा वेगया सिज्जा भविजा विसमा वेगया सिज्जा भविजा, पवाया वेगया सिज्जा भविजा, निवाया गया सिना भविज्जा, ससरक्खा वेगया सिज्जा भविजा, अप्पससरक्खा वेगया सिजा भविजा, सदंसमसगा वेगया सिन्जा भविजा, अप्पदंसमसगा वेगया सिज्जा भविजा, सपरिसादा वेगयो सिज्जा भविजा, अपरिसाडा वेगया सिज्जा भविजा, सउवसग्गा गया सिज्जा भविजा, निरुवसग्गा गया सिज्जा भविज्जा १। तहप्पगाराहि सिज्जाहिं संविज्जमाणाहिं पग्गहियतरागं विहारं विहरिज्जा नो किंचिवि गिलाइज्जा २। एवं खलु तस्स भिक्खुस्स भिक्खुणीए वा
सामग्गियं ज सव्वडेहिं सहिए सया जएत्तिमि ।। सू०११. ॥ २-१-२-२॥ सुखोन्नेणे, यावत्तथाप्रकारासु वसतिषु विद्यमानासु 'प्रगृहीततर'मिति यैव काचिद्विषमसमादिका वसतिः संपना। तामेव समचित्तोऽधिवसेन--न तत्र व्यनीकादिक कुर्यात, एतत्तस्य मिक्षोः सामग्रूयं यत्सर्वार्थः सहितः सदा यतेतेति ॥ द्वितीयमध्ययनं शय्याख्यं समाप्तम् ॥२-१-२-२॥
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
॥७५३॥
Page #318
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीआचा
राजवृत्तिः
(शीलाका.)
॥७६०॥
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
॥ अथ तृतीये ईयाध्ययने प्रथमोद्देशकः ॥
श्रुत. उक्तं द्वितीयमध्ययनं, साम्प्रतं तृतीयमारभ्यते, अस्य चायममिसम्बन्धः-इहाद्येऽध्ययने धर्मशरीरपरिपालनार्थ चूलिका ? पिण्डः प्रतिपादितः, स चावश्यमैहिकामुष्मिकापायरक्षणार्थ वसतौ भोक्तव्य इति द्वितीयेऽध्ययने वसतिः प्रतिपादिता, साम्प्रतं तयोरन्वेषणार्थ गमनं विधेयं, तच्च यदा यथा विधेयं यथा च न विधेयमित्येतत्प्रतिपाद्यम् , इत्यनेन सम्बन्धेना- उद्दशका १ यातस्यास्याध्ययनस्य चत्वार्यनुयोगद्वाराणि भवन्ति, तत्र निक्षेपनियुक्त्यनुगमे नामनिक्षेपणार्थ नियुक्तिकृदाहनामं १ ठवणाइरिया २ दव्वे ३खित्ते ४ यकाल५भावे ६ या एसोखल इरियाए निक्खेवोछविहो होइ ॥३०५
कण्ठ्यं । नामस्थापने क्षुण्णत्वादनादृत्य द्रव्येर्याप्रतिपादनार्थमाहदव्वइरियाओ तिविहा सचित्ताचित्तमीसगा चेव । खित्तंमि जंमि खित्ते काले कालो जहिं जो उ ॥३०६॥
तत्र द्रव्येर्या सचित्ताचित्तमिश्रभेदात्त्रिविधा, ईरणमीर्या गमनमित्यर्थः, तत्र सचित्तस्य-वायुपुरुषादेव्यस्य यद्गमनं सा सचित्तद्रव्ये, एवं परमाण्वादिद्रव्यस्य गमनमचित्तद्रव्येर्या, तथा मिश्रद्रव्यर्या ग्थादिगमन मिति, क्षेत्रेर्या यस्मिन् । क्षेत्रे गमनं क्रियते ईर्या वा वयेते, एवं कार्याऽपि द्रष्टव्येति ॥ भावेर्याप्रतिपादनायाहभावइरियाओ दुविहा चरणरिया चेव संजमरिया य । समणस्स कहं गमणं निहोसं होइ परिसुद्ध १॥३०७॥
"al॥७६०॥ भावविषयेर्या द्विधा-चरणेर्या संयमेर्या च, तत्र संयमेर्या सप्तदशविधसंयमानुष्ठान, यदिवाऽसङ्ख्येयेषु संयमस्थाने.
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
Page #319
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥७६१॥
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
वेकस्मात्संयमस्थानादपरं संयमस्थानं गच्छतः संयमेर्या भवति, चरणर्या तु 'अभ्र वभ्रमभ्र चर गत्यर्थाः' चरते वे ल्युट चरणं तद्रूपेर्या चरणेर्या, चरणं गतिर्गमनमित्यर्थः, तच्च श्रमणस्य 'कथं' केन प्रकारेण भावरूपं गमनं निर्दोष । भवति ? इति ॥ आहआलंषणे य काले मग्गे जयणाइ चेव परिसुद्ध। भंगेहिं सोलसविहंज परिसुड पसत्थं तु ॥३०॥
'आलम्बनं प्रवचनसगच्छाचार्यादिप्रयोजनं 'काल' साधूनां विहरणयोग्योऽवसरः 'मार्गः' जनैः पदभ्यां क्षण: पन्थाः 'यतना उपयुक्तस्य युगमात्रदृष्टित्वं, तदेवमालम्बनकालमार्गयतनापदेरेकैकपदव्यभिचाराद् ये भङ्गास्तैः षोडशविधं गमनं भवति ॥ तस्य च यत्परिशुद्धं तदेव प्रशस्तं भवतीति दर्शयितुमाह- ... चउकारणपरिसुद्धं अहवावि होज कारणज्जाए। आलंबणजयणाए काले मग्गे च जइयव्वं ॥३०॥
चतुर्भिः कारणैः साधोर्गमनं परिशुद्धं भवति, तद्यथा-आलम्बनेन दिवा मार्गेण यतनया गच्छत इति, अथवाऽकालेऽपि ग्लानाद्यालम्बनेन यतनया गच्छतः शुद्धमेव गमनं भवति, एवंभूते च मार्गे साधुना यतितव्यमिति, ॥ उक्तो नामनिष्पन्नो निक्षेपः, साम्प्रतमुद्देशार्थाधिकारमधिकृत्याह
सव्वेवि ईरियविसोहिकारगा तहवि अत्थि उ विसेसो । उद्देसे उद्देसे वुच्छामि जहकमं किंचि ॥१०॥ ___ 'सर्वेऽपि त्रयोऽपि यद्यपीर्याविशुद्धिकारकास्तथाऽपि प्रत्युद्देशकमस्ति विशेषः, तं च यथाक्रम किश्चिद्वक्ष्याम इति ॥ यथाप्रतिज्ञातमाह
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ܝ
॥ ७६१॥
Page #320
--------------------------------------------------------------------------
________________
भीजाचाराजवृत्तिः (शीलासा.
श्रुत..
चूलिका-१ ईष०३ उद्देशकः १
आचामावा
पढमे उवागमण निग्गमो य अहोण नावजयणा य। बिइए आरुढ छलणं जंघासंतार पुच्छा य ॥३१॥ __ प्रथमोद्देशके वर्षाकालादावुपागमनं-स्थान तथा निर्गमश्च शरत्कालादौ यथा भवति तदा प्रतिपाद्यमध्वनि यतना चेति, द्वितीयोद्देशके नावादावारूढस्य छलन-प्रक्षेपणं व्यावयेते, जवासन्तारे च पानीये यतना, तथा नानाप्रकारे च प्रश्ने साधुना यद्विधेयमेतच्च प्रतिपाद्यमिति ॥ तइयंमि अदायणया अप्पनिबंधो य होइ उवहिंमि । वजेयव्वं च सया संसारियरायगिहगमणं ॥३१॥
॥इरियानिज्जुत्ती समत्ता॥ तृतीयोद्देशक यदि कश्चिदुदकादीनि पृच्छति, तस्य जानताऽप्यदर्शनता विधेयेत्ययमधिकारः, तथोपधावप्रतिबन्धो विधेयः, तदपहरणे च स्वजनराजगृहगमनं च वर्जनीयं, न च तेषापाख्येयमिति ॥ साम्प्रतं सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयं, तच्चेदम्
अन्भुवगए खल वासावासे अभिपवुढे षहवे पाणा अभिसंभूया बहवे बोया अहुणाभिन्ना अंतरा से मग्गा बहुपाणा बहुबीया जाव ससंताणगा अणभिक्कंता पंथा नो विन्नाया मग्गा सेवं नचा नो गामाणुगाम दुइजिजा, तओ संजयामेव वासावासं उवल्लिइज्जा ॥ सू.१११॥ आभिमुख्येनोपगतासु वर्षासु अभिप्रवृष्टे च पयोमुचि, अत्र वर्षाकालवृष्टिभ्यां चत्वारो भङ्गाः, तत्र साधूनां सामा
७६२॥
Page #321
--------------------------------------------------------------------------
________________
चार्ये वैषा, यदुत-निर्व्याघातेनाप्राप्त एवाषाढचतुर्मासके तृणफलब डगलकभस्मात्रकादिपरिग्रहः, किमिति, यतो जातायां वृष्टौ बहवः 'प्राणिन:' इन्द्रगोपकवीयावकगर्दभकादयः 'अभिसंभूता: प्रादुर्भूताः, तथा बहुनि 'बीजानि' अभिनचाकुरितानि, अन्तराले च मार्गास्तस्य-साधोगच्छतो बहुप्राणिनो बहुबीजा यावत्ससन्तानका अनभिक्रान्ताश्च पन्थाना, । अत एव तृणाकुलत्वान विज्ञाताः मार्गाः, स-साधुरेवं ज्ञात्वा न ग्रामाद्नामान्तरं यायात् , ततः संयत एव वर्षासु यथाऽवसरप्राप्तायां बसतावुपलीयेत-वर्षाकालं कुर्यादिति ॥ एतदपवादार्थमाह
से भिक्खू वा २ सेज पुण जाणिज्जा, गामं वा जाव रायहाणिं वा इमंसि खलु गामंसि वा जाव रायहाणिसि वा नो महई विहारभूमी नो महई वियारभूमो नो सुलभे पीढफलगसिज्जासंथारगे नो सुलभे फासुए उंछे अहेसणिज्जे जत्थ बहवे समणमाहणअतिहिकिवणवणीमगा उवागया उवागमिस्संति य अचाहन्ना वित्तो नो पन्नस्स निक्खमणे जाव चिंताए, सेवं नच्चा तहप्पगारं गामं वा नगरं वा जाव रायहाणि वा नो वासावसं उल्लिइज्जा १। सेभिक्ख वा २ से जं पुण जाणिजा गाम वा जाव रायहाणि वा इमंसि खलु गामंसि वा जाव महई विहारभूमी महई वियारभूमो सुलभे जत्थ पीढ ४ सुलभे फासुए उंछे अहेसणिज्जे नो जत्थ बहवे समणमाहणअतिहिकिवण. वणीमगा उवागया उवागमिस्संति वा अप्पाइन्ना वित्ती जाव रायहाणिं वा तओ
Page #322
--------------------------------------------------------------------------
________________
भीआचाराजवृत्तिः (चीलाङ्का.)
संजयामेव वासावासं उवल्लिइज्जा २॥ सू० ११२॥
श्रुतस्क०२ | स मिचर्यत्पुनरेवं राजधान्यादिकं जानीयात् , तद्यथा-अस्मिन् ग्रामे यावद् राजधान्यां वा न विद्यते महती 'विहा
चूलिका.. रभूमिः स्वाध्यायभूमिः, तथा विचारभूमिः' बहिर्गमनभूमिः, तथा नैवात्र सुलभानि पीठफलहकशय्यासंस्तारका
ईयेष. ३ दीनि, तथा न सुलभः प्रासुकः पिण्डपातः, 'उ'छे'त्ति एषणीयः, एतदेव दर्शयति—'अहेसणीज्जे'त्ति यथाऽसावुद्
सावुउद्देशक गमादिदोषरहित एषणीयो भवति तथाभूतो दुर्लभ इति, यत्र च ग्रामनगरादौ बहवः श्रमणब्राह्मणातिथिकृपणवणीमगादय उपागता अपरे चोपागमिष्यन्ति, एवं च तत्रात्याकीर्णा वृत्तिः, वर्तनं-वृत्तिः, सा च भिक्षाटनस्वाध्यायध्यानबहिर्गमनकार्येषु जनसकुलवादाकीर्णा भवति, ततश्च न प्राज्ञस्य तत्र निष्क्रमणप्रवेशौ यावच्चिन्तनादिकाः किया निरुपद्रवाः । संभवन्ति, स साधुरेवं ज्ञात्वा न तत्र वर्षाकालं विदध्यादिति । एवं च व्यत्ययसूत्रमपि व्यत्ययेन नेमिति ॥ साम्प्रतं गतेऽपि वर्षाकाले यदा यथा च गन्तव्यं तदधिकृत्याह
अह पुणेवं जाणिज्जा-चत्तारि मासा वासावासाणं वीइक्कंता हेमंताण य पंचदसरायकप्पे परिसिए, अंतरा से मग्गे बहुपाणा जाव ससंताणगा नो जत्थ बहवे जाव उवागमिस्संति, सेवं नचा नो गामाणुगामं दूइजिज्जा १॥ अह पुणेवं जाणिज्जा चत्तारि मासा वासावासाणं वीइक्कंता हेमंताण य पंचदसरायकप्पे परिवुसिए, अंतरा से मग्गे अप्पंडा जाव असंताणगा बहवे जत्थ समणमाहणअतिहिकिवणवणिमगा उवागया
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
Page #323
--------------------------------------------------------------------------
________________
.७६५॥
उवागमिस्संति, सेवं नच्चा तओ संजयामेव गामाणुगामं दूइजिज २ ॥ सू० ११३ ॥ अथैवं जानीयाद् यथा चत्वारोऽपि मासाः प्रावृटकालसम्बन्धिनोऽतिक्रान्ताः, कार्तिकचातुर्मासिकमतिक्रान्तमित्यर्थः, तत्रोत्सर्गतो यदि न वृष्टिस्ततः प्रतिपद्येवान्यत्र गत्वा पारणकं विधेयम, अथ वृष्टिस्ततो हेमन्तस्य पञ्चसु दशसुवा दिनेषु 'पर्युषितेषु' गतेषु गमनं विधेयं, तत्रापि यद्यन्तराले पन्थानः साण्डा यावत्ससन्तानका भवेयुनं च तत्र बहवः श्रमणब्राह्मणादयः समागताः समागमिष्यन्ति वा ततः समस्तमेव मार्गशिरं यावत्तत्रैव स्थेयं, तत ऊर्ध्व यथा तथाऽस्तु न स्थेयमिति । एवमेतद्विपर्ययस्त्रमप्युक्तार्थम् ॥ इदानीं मार्गयतनामधिकृत्याह- ...
से भिक्खू पा २ गामाणुगामं दूइज्जमाणे पुरओ जुगमायाए पेहमाणे दडूण तसे पाणे उद्धटु पादं रीइजा साहय़ पायं रीइज्जा वितिरिच्छं वा कुटु पायं रोइज्जा, सइ परकमे संजयामेव परिकमिज्जा नो उज्जुयं गच्छिज्जा, तओ संजयामेव गामाणुगामं दूह. ज्जिज्जा १॥ से भिक्खू वा २ गामाणुगामं दूइज्जमाणे अंतरा से पाणाणि वा
बीयाणि वा हरियाणि वा उदए वा महिआ वा अविडत्थे सह परक्कमे जाव नो उज्जुयं . गच्छिज्जा, तओ संजयामेव गामाणगामं दूइज्जिज्जा ॥ सू० ११४॥ स भिक्षर्यावद ग्रामान्तरं गच्छन 'पुरत:' अग्रतः 'यगमात्र' चतहस्तप्रमाणं शकटोसिस्थितं भमागं पश्या गच्छेत् , तत्र च पथि दृष्ट्वा 'प्रसान् माणिनः' पतङ्गादीन् 'उडटु'त्ति पादमुद्धृत्याग्रतलेन पादपातप्रदेशं बाऽतिक्रम्य ।
७६५॥
Page #324
--------------------------------------------------------------------------
________________
भीआचारामतिः (बीला.)
श्रुतस्कं.. चूलिका.. ईर्येष.३ उद्देशक
गच्छेत् , एवं संहृत्य--शरीराभिमुखमाक्षिप्य पादं विवचितपादपातप्रदेशादारत एव विन्यस्य उत्क्षिप्य वाऽप्रमागं पाणिकया गच्छेत, तथा तिरश्चीनं वा पादं कृत्वा गच्छेत, अयं चान्यमार्गाभावे विधिः; सति त्वन्यस्मिन् पराक्रमेगमनमार्गे संयतः संस्तेनैव 'पराक्रमेत्' गच्छेत , न ऋजुनेत्येवं ग्रामान्तरं गच्छेत सर्वोपसंहारोऽयमिति ॥ से इत्यादि, उत्तानार्थम् ॥ अपि च
से भिक्ख वा २ गामाणगामं दूइज्जमाणे अंतरा से विरूवरूवाणि पच्चंतिगाणि दसु. गाययाणि मिलक्खूणि अणायरियाणि दुसन्नप्पाणि दुप्पन्नवणिज्जाणि अकालपडि. बोहीणि अकालपरिभोईणि सह लाढे विहाराए संथरमाणेहिं जाणवएहिं नो विहारवडियाए(वत्तियाए) पजिजा गमणाए १। केवली बूया आयाणमेयं, तेणं बाला अयं तेणे अयं उवचरए अयं ततो आगएत्तिकदृतं भिक्खु अक्कोसिज्ज वा जाव उद्दविज वा वत्थं पविग्गहं कंबलं पायपुच्छणं अच्छिदिज वा भिंविज वा अवहरिज वा परिविज वा । अह भिक्खूण पुवोवइहा जाव जं तहप्पगाराई विरूवरूवाणि पच्चतियाणि दस्सुगायतणाणि जाव विहारवत्तियाए नो पवजिज वा गमणाए तओ संजयामेव
गामाणुगामं दूइजिजा ॥ सू. ११५॥ . स भिक्षु मान्तरं गच्छन् यत्पुनरेवं जानीयात् , तद्यथा-'अन्तरा' नामान्तराले 'विरूपरूपाणि' नानाप्रकाराणि
॥७६६ ॥
Page #325
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ ७६७ ॥
प्रात्यन्तिकानि दस्यूनां - चौराणामायतनानि - स्थानानि 'मिलक्कूणि 'त्ति वर्चरशवर पुलिन्द्रादिम्लेच्छप्रधानानि 'अनार्याणि' अर्द्धषड्िंवचजनपदबाह्यानि 'दुः सज्ञाप्यानि दुःखेनार्यसञ्ज्ञां ज्ञाप्यन्ते, तथा 'दुष्प्रज्ञाप्यानि ' दुःखेन धर्मसञ्ज्ञोपदेशेनानार्थ सङ्कल्पान्निवर्त्यते 'अकालप्रतिबोधीनि' न तेषां कश्चिदपर्यटनकालोऽस्ति, अर्द्धरात्रादावपि मृगया गमनसम्भवात् तथाऽकाल मोजीन्यपीति, सत्यन्यस्मिन् ग्रामादिके विहारे विद्यमानेषु चान्येष्वार्यजनपदेषु न तेषु म्लेच्छस्थानेषु विहरिष्यामीति गमनं न प्रतिपद्येत, 'किमिति ?, यतः केवली त्र् यात्कर्मोपादानमेतत्, संयमात्मविराधनातः, तत्रात्मविगधने संयमविराधनाऽपि संभवतीत्यात्मविराधनां दर्शयति – 'ते' म्लेच्छाः 'णम्' इति वाक्यालङ्कारे एवमृचुः, तद्यथा-अयं स्तेनः, अयमुपचरकः- चरोऽयं तस्मादस्मच्छत्रुग्रामादागत इतिकृत्वा वाचाऽऽक्रोशयेयुः, तथा दण्डेन ताडयेयुः यावज्जीविताद्वयपरोपयेयुः, तथा वस्त्रादि 'आच्छिन्द्युः' अपहरेयुः, ततस्तं साधु निर्द्धाटयेयुरिति । अथ साधून पूर्वोपदिष्टमेतत्प्रतिज्ञादिकं यत्तथाभूतेषु म्लेच्छस्थानेषु गमनार्थं न प्रतिपद्यते, ततस्तानि परिहरन् संयत एव ग्रामान्तरं गच्छेदिति ॥ तथा
सेभिक्खू वा २ गामाणुगामं दूइजमाणे अंतरा से अशयाणि वा गणरायाणि वा जुवरायाणि वा दोरजाणि वा वेरजाणि वा विरुडरज्जाणि वा सह लाढे विहाराए संथरमाणेणि जणवएहिं नो विहारवडियाए पवज्जेज गमणाए, केवली बूया आयाणमेयं, तेणं बाला भयं तेणं तं चेव जाव गमणाए तओ संजयामेव गामाणुगामं दूह
॥ ७६७ ॥
Page #326
--------------------------------------------------------------------------
________________
भीआचा राङ्गवृत्तिः (झीलाङ्का.)
७६८ ॥
***
जिज्जा ।। सू० ११६ ॥
कण्ठ्यं, नवरम् 'अराजानि' यत्र राजा मृतः 'युवराजानि यत्र नाद्यापि राज्या (जा) भिषेको भवतीति ॥ किञ्च - सेभिक्खू वा २ गामाणुगामं दृइजमाणे अंतरा से विहं सिया, से जं पुण विह जाणिजाएगाहेण वा दुआहेण वा तिआहेण वा चउआहेण वा पंचाहेण वा पाउणिज 'वा नो पाउणिज वा तहप्पगारं विहं अणेगाहगमणिज्जं सह लाढे जाव गमणाए, केवली बूया आयाणमेयं, अंतरा से वासे सिया पाणेसु वा पणएसु वा बीएस वा हरिएस वा उदरसु वा मट्टियाए वा अविद्धत्थाएं, अह भिक्खूणं पुग्वोवहट्ठा जाव जं तह पगारं अणेगांहगमणिज्जं जाव नो पवज्जेज गमणाए, तओ संजयामेव गामाणुगामं दृइज्जिज्जा ॥ सू० ११७ ॥
स भिक्षुर्ग्रामान्तरं गच्छन् यत्पुनरेवं जानीयात् 'अन्तरा' पन्थाः 'स्यात्' भवेत्, तमेवंभूतमध्वानं ज्ञात्वा सत्यन्यस्मिन् सुगमम् ॥ साम्प्रतं नौगमनविधिमधिकृत्याह
ग्रामान्तराले मम गच्छतः 'विह'ति अनेकाहगमनीयः विहारस्थाने न तंत्र गमनाय मतिं विदध्यादिति शेषं
सेभिक्खू वा २ गामाणुगामं दूइजिजमाणे अंतरा से नावासंतारिमे उदए सिया, से जं पुण नावं जाणिज्जा असजए अ भिक्खूपडियाए किणिज वा पामिच्चेज वा
܀܀܀܀
श्रतस्कं० २
चूलिका १ शय्यैष० ३ उद्देशकः ?
।। ७६८ ।।
Page #327
--------------------------------------------------------------------------
________________
.७६६ ॥
नावाए वा नावं परिमाणं कंट्ट थलामो या नावं जलंसि ओगाहिजा जलाओ या नावं थलंसि उक्तसिजा पुण्णं वा नावं उस्सिचित्रा सन्न वा नावं उप्पोलाविजा तहप्पगारं नावं उड़गामिणिं वा अहेगामिणिं वा तिरियगामिणिं वा परं जोयणमेराए अडजोयणमेराए अप्पतरे वा भुजतरे वा नो दूरुहिना गमणाए १॥से भिव खू वा २ पुब्बामेव तिरिच्छसंपाइमं नावं जाणिज्जा, जाणित्ता से तमायाए एगंतमवक्कमिजा २ भण्डगं पडिलेहिज्जा २ एगओ भोयणभंडगं करिना २ ससीसोवरियं कायं पाए पमजिज्जा सागारं भत्तं पच्चक्वाइज्जा, एगं पायं जले किच्चा एगं पायं थले किच्चा तओ संजयामेव नावं दूरूहिज्जा २॥ सू० ११८॥ भिक्षामान्तराले यदि नौसंतार्यमुदकं जानीयात, नावं चैवंभूतां विजानीयात, तद्यथा-'असंयत' गृहस्थो भिक्षप्रतिज्ञया नावं क्रीणीयात, अन्यस्मादुच्छिन्ना वा गृहीयात्, परिवर्तनां वा कुर्यात् , एवं स्थलाद्यानयनादिक्रियो। पेतां नावं ज्ञात्वा नारुहेदिति शेष सुगमम् ॥ इदानीं कारणजाते नावारोहणविधिमाह-सुगमम् ॥ तथा
से भिक्खू वा २ नावं दुरूहमाणे नो नावाओ पुरओ दुलहिज्जा नो नावाओ अग्गओ दुरूहिज्जा नो नावाओ मझओ दुरूहिजा नो बाहाओ पगिझिय २ अंगुलियाए उद्दिसिय २ ओणमिय२ सन्नमिय: निझाइज्जा । से णं परो नावागओ नावागयं
६४
Page #328
--------------------------------------------------------------------------
________________
भीआचाराजवृत्तिः (शीलाका.) ॥ ७७०॥
तस्कं०२ चूलिका १ शर्यष. ३ a उद्देनका १
वइज्जा-आउसंतो! समणा ! एयं ता तुमं नावं उक्कसाहिज्जा वा वुक्कसाहि वा विवाहि वा रज्जूयाए वा गहाय आकासाहि, नो से तं परिनं परिजाणिज्जा, तुसिणीओ उवे.
हिज्जा २1 से णं परो नावागओ नावागय वहजा-आउसंतो समणा! नो संचाएसि. ... तुमं नावं उक्कसित्तए वा ३ रज्जूयाए वा गहाय आकसित्तए वा आहर एयं नावाए
रज्जूयं सयं चेव णं वयं नावं उक्कसिस्सामो वा जाव रज्जूए वा गहाय आकसिस्सामो, नो से तं परिन्नं परियाणेजा तुसिणोओ उवेहेज्जा ३। से परो नावागओ नावागयं वहज्जाआउसंतो समणा ! एअंता तुम नावं आलित्तण वा पीढएण वा वंसेण वा पलएण वा अवलुएण वा वाहेहि, ना से तं परिन्नं परियाणेज्जा तुसिणोओ उवेहेजा ४ । से णं परो नावागओ नावागयं वइन्जा-एयं ता तुमं नावाए उदयं हत्थेण वा पाएण वा मत्तण वा पडिग्गहेण वा नावाउस्सिचणेण वा उस्सिचाहि, नो से तं परिन्नं परिजाणिज्जा तुसिणीओ उवेहिजा ५ । से णं परो नावागओ नावागयं वएन्जा--आउसंतो समणा ! एयं तमं नावाए उत्तिंगं हत्थेण वा पाएण वा बाहुणा वा ऊरुणा वा उदरेण वा सोसेण वा कारण वा उस्सिचणण वा चेलेण वा मट्टियाए वा कुसपत्तएण वा कुदिएण वा पिहेहि, नो से तं परिन्न परिजाणिवा तुसिणोओ उवेहिजा ६। से भिक्खू वा २
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
॥ ७७० ।
Page #329
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥७७१॥
नावाए उत्तिंगेण उदयं आसवमाणं पेहाए उवरुवरिं नावं कन्जलावेमाणि पेहाए नी परं उवसंकमित्तु एवं न्या-आउसंतो! गाहावइ एयं ते नावाए उदयं उत्तिंगेण भास. वह उवरुवरिं नावा वा कन्जलावेइ, एयप्पगारं मणं वा वायं वा नो पुरओ कटु विह. रिजा अप्पुस्सुए अबहिल्लेसे एगनगएण अप्पाणं विठसेजा समाहीए, तओ संजयामेव नावासंतारिमे उदए आहारियं रोइज्जा ७। एयं खल जाव सया जइजासि त्तिमि ८॥
॥ सू० ११९ ॥ इरियाए पढमो उद्देसो ॥ २-१-३-१॥ स्पष्टं, नवरं नो नावोऽग्रभागमारुहेत निर्यामकोपद्रवसम्भवात , नावारोहिणां वा पुरतो नारोहेत . प्रवर्तनाधिकरणसम्भवात् , तत्रस्थश्च नौव्यापारं नापरेण चोदितः कुर्यात् , नाप्यन्यं कारयेदिति । 'उत्तिंगं'ति रन्ध्र 'कजलावेमाण'ति प्लाव्यमानम् 'अप्पुस्सुए'त्ति अविमनस्का शरीरोपकरणादौ म मकुर्वन् तस्मिश्चोदके नावं गच्छन् 'अहारिय'मिति यथाऽऽयं भवति तथा गच्छेद्, विशिष्टाध्यवसायो यायादित्यर्थः, एतत्तस्य भिक्षोः सामग्र्यमिति ॥ तृतीयस्याध्ययनस्य प्रथमोद्देशकः समाप्तः॥२-१-३-१॥
॥ ७७१॥
Page #330
--------------------------------------------------------------------------
________________
भीआचाराजवृचिः (शीलाङ्का.)
॥ ७७२ ।।
॥ अथ तृतीये ईर्याध्ययने द्वितीयो शकः ॥
उक्तः प्रथमोद्देशकोऽधुना द्वितीयः समारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः - इहानन्तरोद्देशके नावि व्यवस्थितस्य विधिरभिहितस्तदिहापि स एवाभिधीयते इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्योद्देशकस्यादिसूत्रम् —
से णं परो णावागओ नावागयं वइज्जा - आउसंतो समणा ! एयं ता तुमं छतगं वा जाव चम्मठेपणगं वा गिण्हाहि, एयाणि तुमं विरूवरूवाणि सत्थजायाणि धारेहि. एयंता तुमं दारगं वा पज्जेहि, नो से तं परिण्णं परिजाणिजा तुसिणोओ उवेहेजा ॥ सू० १२० ॥
सः ' पर : ' गृहस्थादिर्नावि व्यवस्थितस्तत्स्थमेव साधुमेवं ब्रूयात्, तद्यथा - आयुष्मन् ! श्रमण ! एतन्मदीयं तावच्छत्रकादि गृहाण, तथैतानि 'शस्त्रजातानि' आयुधविशेषान् धारय, तथा दारकाद्युदकं पायय, इत्येतां 'परिज्ञां' प्रार्थनां परस्य न शृणुयादिति ॥ तदकरणे च परः प्रद्विष्टः सन् यदि नावः प्रचिपेत्तत्र यत्कर्त्तव्यं तदाह
से णं परो नावागए नावागयं वएज्जा आउसंतो ! एस णं समणे नावाए भंडभारिए भवइ, से णं बहाएं गहाय नावाओ उदगंसि पक्खिविजा, एयप्पगारं निग्घोसं सुच्चा निसम्म से य चीवरधारो सिया विप्पामेव चोवराणि उब्वेदिज्ज वा निवेदिज्ज वा
श्रुतस्कं० २ चूलिका० १ ईष० ३ उद्देशका २
।। ७७२ ।।
Page #331
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥७७३॥
उप्फेसं वा करिजा१। अह पुण एवं जाणिला अभिकंतकूरकम्मा ग्वल बाला बाहाहिं गहाय नावाओ टदगंसि पक्विविजा से पुवामेव वइजा-आउसंतो! गाहावई मा मेत्तो पाहाए गहाय नावाओ उदगंसि पक्विवह, सयं चेव णं अहं नावाओ उदगंसि ओगाहिस्सामि २। से णेवं वयंतं परो सहसा बलसा पाहाहिं गहाय उदगंसि पक्विविजा तं नो सुमणे सिया नो दुम्मण सिया नो उच्चावयं मणं नियंछिज्जा नो तेसि बालाणं घायाए वहाए समुहिज्जा, अप्पुस्सुए जांच समाहोए, तओ संजया
मेय उदगंसि पवि(वज्जि)ज्जा ३॥ सु०१२१॥ . स परः 'णम्' इति वाक्यालङ्कारे नौगतस्तत्स्थं साधुमुद्दिश्यापरमेवं ब्रयात, तद्यथा-आयुष्मन् ! अपमत्र श्रमणो भाण्डवनिश्चेष्टत्वाद् गुरु: भाण्डेन वोपकरणेन गुरुः, तदेनं स्वबाहुग्राहं नाव उदके प्रक्षिपत यूयमित्येवंप्रकारं शब्दं श्रुत्वा तथाऽन्यतो वा कुतश्चित् 'निशम्य' अवगम्य 'सः' साधुर्गच्छगतो निर्गतो वा तेन च चीवरधारिणेतद्विधेयं-क्षिप्रमेव चीवराण्यसाराणि गुरुत्वाभिर्वाहयितुमशक्यानि च 'उबेष्टयेत्' पृथक् कुर्यात् , तद्विपरीतानि तु 'निर्वेष्टयेत्' सुवदानि कुर्यात् , तथा 'उप्फेसं वा कुज्जति शिरोवेष्टनं वा कुर्याद् येन संवृतोपकरणो निर्व्याकुलत्वात्सुखेनैव जलं तरति, तांश्च धर्मदेशनयाऽनुकूलयेत् , अथ पुनरेवं जानीयादित्यादि कण्ठ्यमिति ॥ साम्प्रतमुदके प्लवमानस्य विधिमाह
से भिक्खू वा २ उदगंसि पवमाणे नो हत्येण हत्थं पाएण पायं काएण कायं आसा
Page #332
--------------------------------------------------------------------------
________________
भीआचाराजवृत्तिः (सीलाबा.)
श्रुतस्क.. चूलिका.. ई०३ उद्देशका २
.७७४॥
इज्जा, से अणासायणाए अणासायमाणे तओ संजयामेव उदगंसि पविजा १ । से भिक्खू वा (२) उदगंसि पवमाणे नो उम्मुग्गनिमुग्गियं करिजा, मामेयं उदगं कन्नेसु वा अच्छीसु वा नक्कंसि वा मुहंसि वा परियाव जिजा, तओ संजयामेव उदगसि पविजा । से भिक्खू वा २ उदगंसि. पवमाणे दुब्बलियं पाउणिज्जा विप्पामेव उवहिं विगिचिज वा विसोहिज वा, नो चेव णं साइजिजा, ३ | अह पुण एवं जाणिज्जा, पारए सिया उदगाओ तीरं पाउणित्तए, तओ संजयामेव उदउल्लेण वा ससिणिण वा काएण उदगतीरे चिडिजा४। से भिक्खू वा उदउल्लं वा ससिणिड वा कायं नो आमजिजा वा पमजिज्जा वा संलिहिजा वा निल्लिहिज्जा वा उध्वलिजा वा उध्वहिजा वा आयाविज वा पयाविज वा ५। अह पुण एवं जाणिज्जा, विगओदओ मे काए छिन्नसिणेहे काए तहप्पगारं कायं आमजिन्न वा पयाविज वा तओ संजया.
मेव गामाणुगामं दूइजिजा ६॥ सू. १२२ ॥ स भिक्षुरुदके प्लवमानो हस्तादिकं हस्तादिना 'नासादयेत्' न संस्पृशेद् , अप्कायादिसंरक्षणार्थमिति भावः, ततस्तथा कुर्वन् संयत एवोदकं प्लवेदिति ॥ तथा–स भिक्षुरुदके प्लवमानी मज्जनोन्मज्जने नो विदध्यादिति (शेष) सुगममिति ॥ किश्च स भिक्षुरुदके प्लवमानः 'दौर्बल्यं' श्रमं प्राप्नुयात् ततः क्षिप्रमेवोपधिं त्यजेत् तद्देशं वा विशोषयेत्-त्यजेदिति,
७७४ ।।
Page #333
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ ७५
नैवोपधावासक्तो भवेत । अथ पुनरेवं जानीयात 'पारए सित्ति समर्थोऽहमस्मि सोपधिरेवोदकपारगमनाय ततस्तस्मादुदकादुत्तीर्णः सन् संयत एवोदकाइँण गलबिन्दुना कायेन सस्निग्धेन वोदकतीरे तिष्ठेत , तत्र चेर्यापथिकां च प्रतिक्रामेत् ॥ न चैतत्कुर्यादित्याह-स्पष्टं, नवरमत्रेयं सामाचारी-यदुदकाई वस्त्रं तत्स्वत एव यावन्निष्प्रगलं भवति तावदुदकतीर एक स्थेयम् , अथ चौरादिभयाद्गमनं स्यात्ततः प्रलम्बमानं कायेनास्पृशता नेयमिति ॥ तथा
से भिक्खू वा २ गामाणुगाम दुइज्जमाणे नो परेहिं सद्धिं परिजविय २ गामाणगामं
दइजिजा, तओ संजयामेव गामाणगाम दुइजिजा ॥ सू० १२३॥ कण्ठय, नवरं 'परिजवियर'त्ति परैः सार्द्ध भृशमुल्लापं कुर्वन्न गच्छेदिति ॥ इदानीं जङ्घासंतरणविधिमाह
से भिक्खू वा २ गामाणुगाम दुइजमाणे अंतरा से जंघासंतारिमे उदगे सिया, से पुवामेव ससीसोवरिया कायं पाए य पमजिजा २ एगं पायं जले किच्चा एगं पायं थले किच्चा तओ संजयामेव उदगंसि आहारि रोएज्जा से भिक्ख वा २ आहारिये रीयमाणे नो हत्थेण वा हत्थं पादेण वा पादं काएण वा कार्य आसाएजा से अणासायणाए अणासायमाणे तओ संजयामेव जंघासतारोमे उदए अहारियं रोएन्जा २ ॥ से भिक्खू वा २ जंघासंतारिमे उदए अहारियं रीयमाणे नो सायावडियाए नो परिदाहपडियाए महइमहालयंसि उदयंसि कायं विउसिज्जा, तओ संजयामेव जंघासंतारिमे उदए अहा
७७५॥
Page #334
--------------------------------------------------------------------------
________________
धोत्राचा राजवृतिः (शीलाङ्का.)
॥ ७७६ ॥
****
रियं रोएज्जा ३ । अह पुण एवं जाणिज्जा पारए सिया उदगाओ तीरं पाउत्तिए, तभ संजयामेव उदउल्लेण वो ससिणिडेण वा कारण दगनीरए चिडिज ४ ॥ से भिक्खू वा २ उदउल्लं वा कार्य ससिणिडं वा कार्य नो आमज्जिज्ज वा जाव नो पाविज्ज वा ५ । अह पुण एवं जाणिजा विगओदए मे काए छिन्नसिणेहे तह पगारं कार्य आमज्जिज्ज वा जाव पयाविज्ज वा तओ संजयामेव गामाणुगामं दृइज्जिज्जा ६ ॥ सू० १२४ ॥ 'तस्य' भिक्षोर्ग्रामान्तरं गच्छतो यदा अन्तराले जानुदघ्नादिकमुदकं स्यात्तत ऊद्धर्वकायं मुखत्रस्त्रिकया अधःकार्यं च रजोहरणेन प्रमृज्योदकं प्रविशेत् प्रविष्टश्च पादमेकं जले कृत्वाऽपरमुत्क्षिपन् गच्छेत्, न जलमालोडयता गन्तव्यमित्यर्थः, 'अहारियं रोएज्ज'त्ति यथा ऋजु भवति तथा गच्छेन्नार्दवितदं विकारं वा कुर्वन् गच्छेदिति ॥ समिक्षुfessमेव गच्छन महत्युदके महाश्रये वशःस्थलादिप्रमाणे जङ्घातरणीये नदीहदादौ पूर्वविधिनैव कार्य प्रवेशयेत्, प्रविष्टश्च यद्युपकरणं निर्वाहयितुमसमर्थस्ततः सर्वे सारं वा परित्यजेत्, अथैवं जानीयाच्छक्तोऽहं पारगमनाय ततस्तथाभूत एव गच्छेत्, उत्तीर्णश्च कायोत्सर्गादि पूर्ववत्कुर्यादिति ॥ आमर्जन प्रमार्जनादिसूत्रं पूर्ववन्नेयमिति ॥ साम्प्रतमुदको त्तीर्णस्य गमनविधिमाह-
,
सेभिक्खु वा २ गामाणुगामं दृहजमाणे नो महियागएहिं पाएहिं हरियाणि छिंदिय २ विकुज्जिय २ विफालिय २ उम्मगेण हरियवहाए गच्छिना, जमेयं पाएहिं महियं
श्रुतस्कं० २ चूलिका १ ईर्या० ३ उद्देशकः २
॥ ७७६ ।
Page #335
--------------------------------------------------------------------------
________________
विप्पामेव हरियाणि अवहरंतु, माइहाणं संफासे, नो एवं करिजा, से पुवामेव अपहरियं मग्गं परिलहिज्जा तओ संजयामेघ गामाणुगामं दूइजिज्जा १ । से भिक्खू वा २ गामाणुगामं दूइजमाणे अंतरा से वप्पाणि वा फलिहाणि वा पागाराणि वा तोरणाणि वा अग्गलाणि वा अग्गलपासगाणि वा गडाओ वा दरिलो वा सह परकमे संजयामेव परिकमिज्जा नो उज्जुयं गच्छेज्जा २। केवलीव्या-आयाणं एयं, से तत्थ परकममाणे पपलिज वा. पवडिज वा, से तत्थ पयलमाण वा पवडेमाणे वा रुक्खाणि पा गुच्छाणि वा गुम्माणि वा लयाओ वा वल्लीओ वा तणाणि वा गहणाणि वा हरियाणि वा अवलंषिय उत्तरिजा, जे तत्थ पारिपहिया उवागच्छति ते पाणी जाइज्जा २, तो संजयामेव अवलंबिय २ उत्तरिजा तओ संजयामेव गामाणुगाम दुइज्जिज्जा ३॥से भिक्ख वा २ गामाणुगामं दूइज्जमाणे अंतरा से जवसाणि वा सगडाणि वा रहाणि वासचक्काणि वा परचक्काणि वा से णं वा विरूवरूवं संनिविट्ठ(संनिरुद्ध) पेहाए सइ परकमे संजयामेव परक मेवा, नो उज्जुयं गच्छिन्ना ४ से णं परो सेणागओ वहज्जा आउसंता! एसणं समणे सेणाए अभिनिवारियं करेइ, से णं बाहाए गहाव आगसह, सेणं परो पाहाहिं गहाय आगसिज्जा, तं नो सुमणे सिया जाव समाहीए तओ संजयामेव गामाणुगाम
Page #336
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रुत... चूलिका.१
ईर्या०३
उद्देशका २
इजिज्जा ५॥ सू. १२५॥ बीजाचा
स भिक्षुरुदकादुत्तीर्णः सन् कर्दमाविलपादः सन्(नो) हरितानि भृशं छित्त्वा तथा विकुब्जानि कृत्वा एवं भृशं पाटयिराजवृत्तिः
स्वोन्मार्गेण हरितवधाय गच्छेद-यथैनाः पादमृत्तिका हरितान्यपनयेयुरित्येवं मातृस्थानं संस्पृशेत, न चैतत्कर्याच्छेषं (शौलाहा.)
सुगममिति ॥ स भिक्षुामान्तराले यदि वप्रादिकं. पश्येत्ततः सत्यन्यस्मिन् सङ्क्रमे तेन ऋजुना पथा न गच्छेद्, .७७८॥
यतस्तत्र गर्चादौ निपतन् सचित्तं वृक्षादिकमवलम्बेत, तच्चायुक्तम् , अथ कारणिकस्तेनैव गच्छेद , कथश्चित्पतितश्च गच्छगतो व्रल्न्यादिकमप्यवलम्ब्य प्रातिपथिकं हस्तं वा याचित्वा संयत एव गच्छेदिति ॥ किश्च-स भिक्षुर्यदि ग्रामा
न्तराले 'यवसं' गोधूमादिवान्यं शकटस्कन्धावारनिवेशादिकं वा मवेत् तत्र बहपायसम्भवात्तन्मध्येन सत्यपरस्मिन् पराक्रमे K न गच्छेद , शेषं सुगममिति ॥ तथा- ..
से भिक्ख वा २ गामाणुगामं दूइजमाणे अंतरा से पाडिवहिया उवागच्छिन्ना, ते णं पाडिवहिया एवं धइज्जा-आउसंतो समणा ! केवइए एस गामे वा जाव रायहाणो वा केवईया इत्थ आसा हत्थी गामपिंडोलगा मणस्सा परिवसंति से बहुभत्ते बहुउदए बहुजणे बहुजवसे से अप्पभत्ते अप्पुदए अप्पजणे अप्पजवसे ?, एयप्पगाराणि पसि. णाणि नो पुच्छिज्जा, एयप्पगाराणि पसिणोणि पुट्ठो वा अपुट्ठो वा नो वागरिजा । एवं खलु तस्स भिक्खुस्स भिक्खुणिए वा सामग्गियं जं सव्व हिं समिर सहिए
७८
Page #337
--------------------------------------------------------------------------
________________
.७७४ ।।
सया जएत्ति बेमि ॥ सू०१२६ ॥ २-१-१-२॥ ___'से' तस्य मिक्षोरपान्तराले गच्छतः 'प्रातिपथिका:' संमुखाः पथिका भवेयुः, ते चैवं वदेयुर्यथाऽऽयुष्मन् ! श्रमण ! किम्भृतोऽयं ग्रामः? इत्यादि पृष्टो न तेषामाचक्षीत, नापि तान् पृच्छेदिति पिण्डार्थः, एतत्तस्य मिक्षोः सामग्र्यमिति ॥ तृतीयस्याध्ययनस्य द्वितीयः॥२-१-.३.२॥
॥अथ तृतीये ईर्याध्ययने तृतीय उद्देशकः ॥ उक्तो द्वितीयोद्देशक: साम्प्रतं तृतीयः समारभ्यते, अस्य चायममिसम्बन्धः-इहानन्तरं गमनविधिः प्रतिपादितः, इहापि स एव प्रतिपाद्यते, इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्योद्देशकस्यादिसूत्रम्
से भिक्खू वा २ गामाणुगामं दूइज्जमाणे अंतरा से वप्पाणि वा जाच दरोओ वा जाव कूडागाराणि वा पासायाणि वा नूमगिहाणि वा रुक्खगिहाणि वा पव्वयगिहाणि वा रुक्खं वा चेइयकर्ड थूभंवा चेइयकडं आएसणाणि वा जाव भवणगिहाणि वा नो वाहाओ पगिजिमय २ अंगुलिआए उद्दिसिय २ ओणमिय ३ उन्नमिय २ निशाइना, तओ संजयामेव गामाणुगामं दूइजिजा। से भिक्ख वा २ गामाणुगामं दूइज्जमाणे अंतरा से कच्छाणि वा दवियाणि वा नूमाणि वा वलयाणि या गहणाणि वा गहण
Page #338
--------------------------------------------------------------------------
________________
बीआचाराजपत्तिा (लीलासा.)
७८.॥
विदुग्गाणि वणाणि वा वणविदुग्गाणि वा पन्वयाणि वा पव्वयविदुग्गाणि वा पव्वयगिहाणि वा, अगडाणि वा तलागाणि वा दहाणि वा नईओ वा वावीओ पा पुक्खरि
श्रुतस्कं.. जीओ वा दीहियाओ वा गुञ्जालियाओ वा सराणि वा सरपंतियाणि वा सरसरपंति
aचूलिका !
ई०३. याणि वा नो पाहाओ पगिझिय २ जाव निजाइज्जा २। केवलीवूया आयाणमेय, जे
Bउद्देशकः ३ नत्थ मिगा वा पसू वा पंखी वा सरीसिवा वा सीहा वा जलचरा चा थलचरा वो खहचरा वा सत्ता ते उत्तसिज वा वित्तसिज्ज वा वार्ड वा सरणं वा कंखिजा, चारित्ति मे अयं समणे ३ । अह भिक्खू णं पुव्वोषाहा पतिण्णा जं नो चाहाओ पगिजिमय निझा.
इन्जा, तो संजयामेव आयरिउवज्झाएहिं सद्धिं गामाणुगाम दुइजिज्जा ४ ॥ सू० १२७॥ समिक्षामाद्नामान्तरं गच्छन् यद्यन्तराले एतत्पश्येत, तद्यथा-परिखाः प्राकारान 'कूटागाराणि' पर्वतोपरि गृहाणि 'नूमगृहाणि' भूमीगृहाणि, वृक्षप्रधानानि तदुपरि वा गृहाणि वृक्षगृहाणि, पर्वतगृहाणि-पर्वतगुहाः, 'रुक्खं वा चेहकति वृक्षस्यापोव्यन्तरादिस्थलकं 'स्तूपं वा' व्यन्तरादिकृत, तदेवमादिकं साधुना भृशं बाई 'प्रगृह्य उमिप्य तथाऽङ्गुलिं प्रसार्य तथा कायमवनम्योत्रम्य वा न दर्शनीयं नाप्यवलोकनीय, दोषाश्चात्र दग्धमुषितादौ साधुगशङ्कय ताजि तेन्द्रियो वा संभाव्येत तत्स्थः पक्षिगणो वा संत्रासं गच्छेत्, एतद्दोषभयात्संयत एव 'दूयेत्' गच्छेदिति ॥ तथा--स भिक्षु
॥७८०॥ ओमान्तरं गच्छेत, तस्य च गच्छतो यद्यतानि भवेयुः, तद्यथा-कच्छा' नद्यासमनिम्नप्रदेशा मूलकवालुवादि
Page #339
--------------------------------------------------------------------------
________________
.७८१॥
वाटिका वा 'दवियाणिति अटव्यां घासार्थ राजकुलावरुद्धभूमयः 'निम्नानि' गर्चादीनि 'वलयानि' नद्यादिवेष्टितभू
मागाः 'गहनं' निर्जलप्रदेशोऽरण्यक्षेत्रं वा 'गुञ्जालिका.'दीर्घा गम्भीराः कुटिलाः श्लक्षणाः जलाशयाः 'सरःपङ्H क्तयः' प्रतीताः 'सरासरःपक्मयः' परस्परसंलग्नानि बहूनि सरांसीति, एवमादीनि बाह्वादिना न प्रदर्शयेद्
लोकयेद्वा, यतः केवली व यात्कर्मोपादानमेतत्, किमिति ?, यतो ये तत्स्थाः पक्षिमृगसरीसृपादयस्ते त्रासं गच्छेयुः, तदावासिताना वा साधुविषयाऽऽशवा समुत्पद्येत, अथ साधूनां पूर्वोपदिष्टमेतत्प्रतिज्ञादिकं यत्तथा न यादिभिश्च गीताथैः सह विहरेदिति ॥ साम्प्रतमाचार्यादिना सह गच्छतः साधोविधिमाह
से मिक्खू वा २ आयरिउवज्झाएहिं सद्धिंगामाणगामंदाजमाणे नो आयरियउवझा. यस्स हत्थेण वा हत्थं जाव अणासायमाणे तओ संजयामेव आयरिउवझाहिं सद्धिं जाव दूइन्जिना ॥ से भिक्खू वा २ आयरियउवज्झाहिं से सडिं दूइजमाणे अंतरा ले पाडिवहिया उवागच्छिज्जा ते णं परिवहिया से एवं वजा-आउसंतो! समणा के तुम्भे १ कओ वा एह? कहिं वा गच्छिहिह १, जे तत्थ आयरिए वा उवज्झाए वा से भासिज वा वियागरिज वा, आयरिउवझायस्स भासमाणस्स वा वियागरेमाणस्स वा नो अंतरा भासं करिज्जा, तओ संजयामेव अहाराईणिए पा गामाणुगाम दूइन्जिजा २॥ से भिक्खू वा २ अहाराइणियं गामाणुगाम दूइज्बमाणे नो राईणियस्स हत्येण हत्थं
Page #340
--------------------------------------------------------------------------
________________
भोआचा राङ्गवृत्तिः
(शीलाङ्का.)
। ७८२ ॥
जाव अणासायमाणे तओ संजयामेव अहाराइणियं गामाणुगामं दूइज्जिज्जा ३ । से भिक्खू वा २ अहाराइणिअं गामाणुगामं दूइजमाणे अंतरा से पाडिवहिया उवागचिज्जा, ते पाडिपहिया एवं वइज्जा आउसंतो ! समणा ! के तुग्भे ९, जे तत्थ सव्वराइणिए से भासिज्ज वा वागरिज्ज वा, राइणियस्स भासमाणस्स वा विद्यागरेमाणस्स वा ना अंतरा भासं भासिज्जा, तओ संजयामेव अहाराइणियाए गामाणुगामं दूह जिज्जा ४ ॥ सू० १२८॥ स भिक्षुराचार्यादिभिः सह गच्छंस्तावन्मात्रायां भूमौ स्थितो गच्छेद् यथा हस्तादिसंस्पर्शो न भवतीति ॥ तथास भिक्षुराचार्यादिभिः सार्द्धं गच्छन् प्रातिपथिकेन पृष्टः सन् आचार्यादीनतिक्रम्य नोत्तरं दद्यात्, नाप्याचार्यादौ जम्पत्यन्तरा भाषां कुर्यात्, गच्छंश्च संयत एवं युगमात्रया दृष्टया यथारत्नाधिकं गच्छेदिति तात्पर्यार्थः ॥ एवमुत्तरसूत्रद्वयमप्याचार्योपाध्यायैरिवापरेणापि रत्नाधिकेन साधुना सह गच्छता हस्तादिसङ्घट्टोऽन्तरभाषा च वर्जनीयेति द्रष्टव्यमिति । किञ्च
सेभिक्खू वा २ गामाणुगामं दृइजमाणे अंतरा से पाडिवहिया उवागच्छिज्जा, ते णं पाडिपहिया एवं वहजा आउसंतो समणा ! अवियाई' इत्तो पडिव हे पासह, तंजहामस्सं वा गोणं वा महिसं वा पसु वा पक्खि वा सिरीसिवं वा जलयरं वा से आइक्वह दंसेह, तं नो आइक्खिजा नो दंसिज़ा, नो तस्स तं परिग्नं परिजाणिज्जा, तुसि
श्रतस्कं० २ चूलिका १ ईर्या० ३ उद्देशकः ३
।। ७८२ ॥
Page #341
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ ७८३ ॥
܀܀܀
णीए उवेहिज्जा, जाणं वा नो जाणंति वइज्जा, तओ संजयामेव गामाणुगामं दृइजिजा १। से भिक्खू वा २ गामाणुगामं दृइजमाणे अंतरा से पाडिपहिया उवागच्छेजा, ते णं पाडिपहिया एवं वहज्जा - आउसंतो समणा ! अवियाई इत्तो पडिवहे पासह उदगपसूयाणि कंदाणि वा मूलाणि वा तथा पत्ता पुष्फा फला, पोया हरिया उदगं वा संनिहियं अगणिवा संनिवित्तं से आइक्वह जाव दूइज्जिज्जा २ ॥ से भिक्खू वा २ गामाणुगामं दूइजमाणे अंतरा से पाडिपहिया उवागच्छेला ते णं पाडिपहिया एवं वइज्जा आउसंतो समणा ! अवियाई इत्तो पडिव हे पासह जवसाणि वा जाव से णं वा विरूवरूवं संनिवि से आइक्खह जाव दूइज्जिज्जा ३ ॥ से भिक्खु वा २ गामाणुगामं दूइजमाणे अंतरा पाडिपहिया जाव आउसंतो समणा ! केवइए इत्तो गामे वा जाव रायहाणि वा से आइक्वह जाव दूइजिज्जा ४ ।। से भिक्खू वा २ गामा गामं दृइजमाणे अंतरा से पाडिपहिया एवं वइज्जा आउसंतो समणा ! केवइए इत्तो गामस्स नगरस्स वा जाव रायहाणीए वा मग्गे से आइक्खह, तहेव जाव दूइज्जिज्जा५ ।। सू० १३९ ॥
'से' तस्य भिक्षोगच्छतः प्रातिपथिकः कश्चित्संमुखीन एतद्न यात्, तद्यथा - आयुष्मन् ! श्रमण ! अपिच किं भवता
܀܀܀܀܀
܀܀܀܀܀܀܀܀
॥ ७८३ ॥
Page #342
--------------------------------------------------------------------------
________________
बीजाचा
राजवृत्तिः (शोलाबा.)
चूलिका.. ईर्या०३ उद्देशका ३
॥७८४॥
पथ्यागच्छता कश्चिन्मनुष्यादिरुपलब्धः १, तं चैवं पृच्छन्तं तूष्णीमावेनोपेक्षेत, यदिवा जानमपि नाहं जानामीत्येवं वदेदिति ॥ अपि च-स भितु मान्तरं गच्छन् केनचित्संमुखीनेन. प्रातिपथिकेन पृष्टः सन् उदकमसूतं कन्दमूलादि नैवा. चक्षीत, जानवषि नैवं जानामीति वा ब यादिति ॥ एवं यवससेनादिसूत्रमपि नेयमिति ॥ तथा कियहरे ग्रामादिप्रश्नसूत्रमपि नेयमिति ॥ एवं कियान पन्था १ इत्येतदपिति ॥ किश्च
से भिक्खू वा २ गामाणुगामं दूइज्जमाणे अंतरा से गोणं वियालं पडिवहे पेहाए जाव चित्तचिल्लर्ड वियालं पडिपहे पहाए नो तेसिं भोओ उम्मग्गेणं गच्छिन्ना नो मग्गाओ उम्मग्ग संकमिज्जा नो गहणं वा वणं वा दुग्गं वा अणपतिसिजा नो रुवंग्वंसि दरुहिना नो महइमहालयंसि उदयंसि कायं विउसिजा नो वार्ड वा सरणं वा सेणं वा सत्थ वा कंखिजा अप्पुस्सुए जाव समाहोए तओ संजयामेव गामाणगाम दहजिजा १॥ से भिक्ख वा २ गामाणगामं दइजमाणे अंतरा से विहं सिया, सेज पुण विहं जाणिला इमंसि खलु विहंसि पहवे आमोसगा उवगरणपडियाए संपिंडिया गच्छिज्जा, नो तेसिं भीओ उम्मग्गेण गच्छिजा जाव समाहोए तओ संजयामेव गामाणगामं
दूइज्जेजा २ ॥ सू० १३०॥ स भिक्षुामान्तरं गच्छन् यद्यन्तराले 'गां' वृषभं 'व्यालं' दर्पितं प्रतिपथे पश्येत् , तथा सिंह व्याघ्र यावचित्रक
I७८४
Page #343
--------------------------------------------------------------------------
________________
तदपत्यं वा व्यालं रं दृष्टा च तद्भयानवोन्मार्गेण गच्छेद , न च गहनादिकमनुप्रविशेख, नापि वृक्षादिकमारोहेत, .७८५॥
न चोदकं प्रविशेत , नापि शरणमभिकाक्षेत्, अपि स्वल्पोत्सुकोऽविमनस्क: संयत एव गच्छेत, एतच गच्छनिर्गते. विधेयं, गच्छान्तर्गतास्तु व्यालादिकं परिहरन्त्यपीति ॥ किश्च-'से तस्य मिक्षोमान्तराले गच्छतः 'विहति अटवी
प्रायो दीर्घा वा भवेत. तत्र च 'आमोषकाः' स्तेनाः 'उपकरणप्रतिज्ञया' उपकरणार्थिनः समागच्छेयुः, न तद्भयाHदुन्मार्गगमनादि कुर्णदिति ॥ ..
से भिक्खू वा २ गामाणुगामं दूइज्जमाणे अंतरा से आमोसगा संपिडिया गच्छिज्जा, ते णं आमोसगा एवं वइजा-ओउसंतो समणा ! आहर एयं वत्थं वा पायं वा कंबलं वा पायपुच्छणं वा देहि निविश्ववाहि, तं नो विजा निक्विविजा, नो वंदिय २ जाइजा, नो अंजलिं कटु जाइज्जा, नो कलणपडियाए जाइजा, धम्मियाए जायणाए जाइज्जा, तुसिणीयभावेण वा उवेहिज्जा । तेणं आमोसगा सयं करणिज्जतिकट्ट अक्कोसंति वा जाव उद्दविंति व वत्थं वा ४ अच्छिदिन वा जाव परिद्वविज वा, तं नो गामसंसारियं कुज्जा, नो रायसंसारियं कुजा, नो परं उवसंकमित्तु बूया -आउसंतो! गाहावई एए खलु आमोसगा उवगरणपडियाए सयंकरणिज्जतिकटु अक्कोसंति वा जाव परिद्ववंति वा एयप्पगारं मणं वा वायं वा नो पुरओ कट्टु विहरिजा, अप्पुस्सुए
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
॥ ७८५॥
Page #344
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रुतस्कं.२
राजचिः
चूलिका० । भाषा०४ उद्देशक ?
जाव समाहीए तओ संजयामेव गामाणुगामं दूइजिज्जा २ । एवं खलु तस्स भिक्खुस्स भीआचा
भिक्खुणीए वा सामग्गियं जं सव्वढेहिं समिए सया जइजासि तिबेमि ॥ सू० १३१ ॥
॥३-१-३-३ ॥२-१-३॥ (बीलाझा.)
___ समिक्षामान्तरे गच्छन् यदि स्तेनैरुपकरणं याच्येत तत्तेषां न समर्पयेत् , बलाद्गृह्णता भूमौ निक्षिपेत् , न .७८६ ॥ च चौरगृहीतमुपकरणं वन्दित्वा दीनं वा वदित्वा पुनर्याचेत, अपि तु धर्मकथनपूर्वकं गच्छान्तर्गतो याचेत
तूष्णीमावेन वोपेक्षेत, ते पुनः स्तेनाः स्वकरणीयमितिकृत्वैतत्कुयुः, तद्यथा-आक्रोशन्ति वाचा ताडयन्ति दण्डेन यावज्जीविताच्याजयन्ति, वस्त्रादिकं वाऽऽच्छिद्यावत्तत्रैव 'प्रतिष्ठापयेयुः' त्यजेयुः, तच्च तेषामेवं चेष्टितं न ग्रामे 'संसारणीयं कथनीयं, नापि गजकुलादी, नापि परं-गृहस्थमुपसंक्रम्य चौरचेष्टितं कथयेत् , नाप्येवंप्रकारं मनो वाचं वा सङ्कल्प्यान्यत्र गच्छेदिति, एतत्तस्य भिक्षोः सामग्रथमिति ॥२-१-३-३ ॥ तृतीयमध्ययनं समाप्तम् ॥ १-१-३ ॥
॥ अथ चतुथे-भाषाजाताध्ययने प्रथमोद्द शकः ।। a उक्तं तृतीयमध्ययनं, साम्प्रतं चतुर्थमारम्यते अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तराध्ययने पिण्डविशुद्धय(वसत्य)र्थ
गमनविधिरुक्तः, तत्र च गतेन पधि वा यादृग्भूतं वाच्यं न वाच्य वा, अनेन च सम्बन्धेनायातस्य भाषाजाताध्ययनस्य चत्वार्यनुयोगद्वाराणि भवन्ति, तत्र नामनिष्पन्ने निक्षेपे द्विपदं नाम-तस्य निक्षेपनियुक्त्यनुगमे भाषाजातशब्दयो
॥ ७८६॥
Page #345
--------------------------------------------------------------------------
________________
निक्षेपार्थ नियुक्तिकृदाहजह वक्कं तह भासा जाए छक्कं च होइ नायव्वं । उप्पत्तीए १ तह पजवं २ तरे ३जायगहणं ४ य॥३१॥ ___ यथा वाक्यशुद्धयध्ययने वाक्यस्य निक्षेपः कृतस्तथा भाषाया अपि कर्तव्यः, जातशब्दस्य तु पटकनिक्षेपोऽयं ज्ञातव्योनाम १ स्थापना २ द्रव्य ३ क्षेत्र ४ काल ५ भाव ६ रूपः, तत्र नामस्थापने क्षुण्णे, द्रव्यजातं तु आगमतो नोआगमतः, व्यतिरिक्तं नियुक्तिकारो गाथापश्चाद्वैन दर्शयति-तच्चतुर्विधम, उत्पत्तिजातं १ पर्यवजातम् २ अन्तरजातं ३ ग्रहणजातं ४, तत्रोत्पत्तिजातं, नाम यानि द्रव्याणि भाषावर्गणान्तःपातीनि काययोगगृहीतानि वाग्योगेन निसष्टानि भाषात्वेनोत्पद्यन्ते तदुत्पत्तिजातं, यद्रव्यं भाषात्वेनोत्पन्नमित्यर्थः१, पर्यवजातं तैरेव वाग्निसृष्टभाषाद्रव्यैर्यानि विश्रेणिस्थानि भाषावर्गणान्तर्गतानि निसृष्टद्रव्यपराघातेन भाषापर्यायत्वेनोत्पद्यन्ते तानि द्रव्याणि पर्यवजातमित्युच्यते २, यानि त्वन्तराले समश्रेण्यामेव निसृष्टद्रव्यमिश्रितानि भाषापरिणामं भजन्ते तान्यन्तरजातमित्युच्यते ३, यानि पुनद्रव्याणि निसष्टसमश्रेणिविश्रेणिस्थानि भाषात्वेन परिणतानि कर्णशष्कुलीविवरप्रविष्टानि गृह्यन्ते तानि चानन्तप्रदेशिकानि द्रव्यतः क्षेत्रतोऽसङ्ख्येयप्रदेशावगाढानि कालत एकद्विच्यादियावदसङ्ख्येयसमयस्थितिकानि भावतो वर्णगन्धरसस्पर्शवन्ति तानि चैवंभूतानि ग्रहणजातमित्युच्यते ४ । उक्तं द्रव्यजातं, क्षेत्रादिजातं तु स्पष्टत्वानियुक्तिकारेण नोक्तं, तच्चैवंभूत-यस्मिन् केत्रे भाषाजातं व्यावय॑ते यावन्मानं वा क्षेत्र स्पृशति तत्क्षेत्रजातम् , एवं कालजातमपि, भावजातं तु तान्येवोत्पत्तिपयवान्तरग्रहणद्रव्याणि श्रोतरि यदा शब्दोऽयमिति बुद्धिमुत्पादयन्तीति । इह त्वधिकारो द्रव्य
॥७८७॥
Page #346
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शीलाका.)
॥७८८॥
भाषाजातेन, द्रव्यस्य प्राधान्यविवक्षया, द्रव्यस्य तु विशिष्टावस्था भाव इतिकृत्वा भावभाषाजातेनाप्यधिकार इति ॥ उद्देशार्थाधिकारार्थमाह
श्रुत..
चूलिका सव्वेऽवि य वयणविसोहिकारगा तहवि अस्थि उ विसेसो । वयणविभत्ती पढमे उप्पत्ती वजणा बीए ॥३१४ ।।
भाषा. ३ यद्यपि द्वावप्युदेशको वचनविशुद्धिकारको तथाऽप्यस्ति विशेषः, स चाय-प्रथमोद्देशके वचनस्य विभक्तिः वचन
उद्देशक ३ विभक्तिः-एकवचनादिषोडशविधवचनविभागः, तथैवंभूतं भाषणीयं नैवंभृतमिति व्यावयेते, द्वितीयोद्देशक तूत्पत्तिःक्रोधाद्युत्पत्तिर्यथा न भवति तथा भाषितव्यम् ॥ साम्प्रतं सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीय, तच्चेदम्
से भिक्खू वा २ इमाई वयायाराइ सुच्चा निसम्म इमाई अणायाराई अणारियपुव्वाई जाणिजा-जे कोहा वा वायं विउंजंति जे माणा वा वायं विउंजंति जे मायाए वा वायं विउंजंति जे लोभा वा वायं विउंजति जाणओ वा फरुसं वयंति अजाणओ वा फरसं वयंति सम्वं चेयं सावज्जं वजिजा विवेगमायाए, धुवं चेयं जाणिज्जा अधुवं चेयं जाणिज्जा असणं वा ४ लभिय नो लभिय भुञ्जिय नो भुञ्जिय, अदुवा आगओ अदुआ नो आगओ, अदुवा एइ अदुवा नो एइ, अदुवा एहिइ अदुवा नो एहिइ, इत्यवि आगए इत्यवि नो आगए, इत्थवि एइ इत्थवि नो एति, इत्थवि एहिति इत्थवि नो एहिति ॥ अणवीइ निहाभासी समियाए संजए भासं भासिंजा, तंजहा-गवयणं?
CCU
Page #347
--------------------------------------------------------------------------
________________
.७८818
दुवयणं २ पाहवयणं ३ इत्थिवयणं ४ पुरिसवयणं ५ नपुंसगवयणं ६ अझत्थवयणं ७ उवणीयवयणं ८ अवणीयवयणं ९ उवणीयअवणोयवयणं १० अवणीय उवणीयवयणं १ तीयवयणं १२ पडुप्पन्नवयणं १३ अणागयवयणं १४ पच्चक्खवयणं १५ परुक्खव. यणं १६, से एगवयणं वहस्सामीति एगवयणं वइजा जाव परुक्खवयणं वहस्सामीति परक्खवयणं वइजा, इत्थी वेस पुरिसो वेस नपुसगं वेस एयं वा चेयं अन्नं वा चेयं अणवीइ निट्ठाभासी समियाए संजए भासं भासिन्जा, इच्चेयाइ' आययणाई उवातिकम्म २॥ अह भिक्खू जाणिज्जा चत्तारि भासजायाई', तंजहा-सचमेगं पढमं भासज्जायं १ बीयं मोसं २ तईयं सच्चामोसं ३ जं नेव सच्च नेव मोसं नव सच्चामोसं असचमोसं नाम तं चउत्थं भासजायं ४ ॥ ३ । से बेमि जे अईया जे य पडुप्पन्ना जे अणागया अरहंता भगवंतो सव्वे ते एयाणि चेव चत्तारि भासजायाई भासिंसु वा भासंति वा भासिस्संति वा पन्नविंसु वा पण्णव्वंति वा पण्णविस्संति वा ४। सव्वाइ चणं एयाई अचित्ताणि षण्णमंताणि गंधमंताणि रसमंताणि फासमंताणि चओवचइ
याई विप्परिणामधम्माई भवंतीति अक्खायाइ'५॥॥ सू० १३२॥ स भावभिक्षुः 'इमान्' इत्यन्तःकरणनिष्पन्नान, इदमः प्रत्यक्षासन्नवाचित्वात्समनन्तरं वक्ष्यमाणान् वाच्याचारा
॥ ७८४.
Page #348
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रत.
श्रीआचाराङ्गवृत्तिः शीलाका.)
भाषा०४ उद्देशका.
॥७९
॥
वागाचाराः-वाग्व्यापारास्तान् श्रुत्वा, तथा 'निशम्य' ज्ञात्वा भाषासमित्या भाषां भाषेतोत्तरेण सम्बन्ध इति । तत्र यादृगभूता भाषा न भाषितव्येति तत्तावदर्शयति-इमान्' वक्ष्यमाणान् 'अनाचारान्' साधूनामभाषणयोग्यान पूर्वसाधुभिरनाचीर्णपूर्वान् साधुर्जानीयात् , तद्यथा-ये केचन क्रोधाद्वाचं '
विजन्ति' विविधं व्यापारयन्ति-भाषन्ते यथा चौरस्त्वं दासस्त्वमित्यादि तथा मानेन भाषन्ते यथोत्तमजातिरह हीनस्त्वमित्यादि तथा मायया यथा-ग्लानोऽहमपरसन्देशक वा सावद्यकं केनचिदुपायेन कथयित्वा मिथ्यादुष्कृतं करोति सहसा ममैतदायातमिति तथा लोभेनाहमनेनोक्तेनातः किश्चिल्लप्स्य इति तथा कस्यचिद्दोषं जानानास्तद्दोषोद्घट्टनेन परुष वदन्ति अजानाना वा, सर्व चैतक्रोधादिवचनं सहावद्येन-पापेन गयेण वा वर्तत इति सावधं तद्वर्जयेत् विवेकमादाय, विवेकिना भूत्वा सावद्यं वचनं वर्जनीयमित्यर्थः, तथा केनचित्सार्द्ध साधुना जन्पता नैव सावधारणं वचो वक्तव्यं यथा 'ध्रवमेतत् निश्चितं वृष्ट्यादिक भविष्यतीत्येवं जानीयाद् अध्रुवं वा जानीयादिति । तथा कश्चित्साधु भिक्षार्थ प्रविष्टं ज्ञातिकुलं वा गतं चिरयन्तमुद्दिश्यापरे साधव एवं ब्रवीरन् यथा-भुज्महे वयं स तत्राशनादिकं लब्ध्व समागमिष्यति, यदिवा ध्रियते तदर्थ किश्चित् नैवासौ तस्मान्लब्धलाभः समागमिष्यति, एवं तत्रैव भुक्त्वाऽभुक्त्वा वा समागमिष्यतीति सावधारणं न वक्तव्यम् , अथ चैवंभृतां सावधारणां वाचं न ब्र याद् यथाऽऽगतः कश्चिद्राजादिनों वा समागतः तथाऽऽगच्छति न वा समागच्छति एवं समागमिष्यति न वेति, एवमत्र पत्तनमठादावपि भूतादिकालत्रय योज्य, यमर्थ सम्यग न जानीयाचदेवमेवैतदिति न यादिति भावार्थः, सामान्येन सर्वत्रगः साधोरयमुपदेशो, यथा-'अनुविचिन्त्य' विचार्य
॥७९
॥
Page #349
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥७॥१॥
सम्यग्निश्चिन्यातिशयेन श्रुतोपदेशेन वा प्रयोजने सति 'निष्टाभाषी' सावधारणभाषी सन् 'समित्या' भाषासमित्या 'समतया वा' रागद्वेषाकरणलक्षणया षोडशवचन विधिज्ञो भाषा भाषेत । यादृग्भृता च भाषा भाषितव्या तां षोडशवचनविधिगतां दर्शयति-तद्यथेत्ययमुपप्रदर्शनार्थः, एकवचन वृक्षः १, द्विवचनं वृक्षौ २, बहुवचनं वृक्षा इति ३ ॥ स्त्रीवचनं वीणा कन्या इत्यादि ४, पुवचनं घटः पट इत्यादि ५, नपुंसकवचनं पीठं देवकुलमित्यादि ६, अध्यात्म- 2 वचनम , आत्मन्यधि अध्यात्म-हृदयगतं तत्परिहारेणान्यद्भणिष्यतस्तदेव सहसा पतितम् ७, 'उपनोतवचनं' प्रशंसावचनं यथा रूपवती स्त्री ८, तद्विपर्ययेणापनीतवचनं यथेयं रूपहीनेति है, 'उपनीतापनीतवचनं' कश्चिद् गुणः प्रशस्यः कश्चिन्निन्यो, यथा-रूपवतीयं स्त्री किन्त्वसद्वृत्तेति १०, 'अपनीतोपनीतवचनम्' अरूपवती स्त्री किन्तु सवृत्तेति ११, 'अतीतवचनं' कृतवान् १२ 'वर्तमानवचनं' करोति १३, 'अनागतवचनं' करिष्यति १४ 'प्रत्यक्षवचनम्' एष देवदत्तः १५, 'परोक्षवचनं स देवदत्तः १६, इत्येतानि षोडश वचनानि, अमीषां च स भिक्षुरेकार्थविवक्षायामेकवचनमेव जयाद् यावत्परोक्षवचनविवक्षायां परोक्षवचनमेव ब्र यादिति । तथा स्च्यादिके दृष्टे सति स्येवैषा पुरुषो वा नपुसकं वा, एवमेवैतदन्यद्वैतत् , एवम् 'अनुविचिन्त्य' निश्चित्य निष्ठाभाषी सन् समित्या समतया संयत एव भाषा भाषेत, तथा 'इत्येतानि' पूर्वोक्तानि भाषागतानि वक्ष्यमाणानि वा 'आयतनानि दोषस्थानानि 'उपातिक्रम्य' अतिलङ्घन्य भाषा माषेत । अथ स भिक्षुर्जानीयात् 'चत्वारि भाषाजातानि' चतस्रो भाषा: तद्यथा-सत्यमेकं प्रथम भाषाजातं यथार्थम्-अवितथं, तद्यथा-गौगौरेवाश्वोऽश्व एवेति १, एतद्विपरीता तु मृषा द्वितीया,
Page #350
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रुतस्कं०१
भीआचाराजवृत्तिः (घीलावा.)
चूलिका. भाषा०४ उदेशकार
यथा गौरवोऽश्वो गौरिति २, तृतीया भाण सत्यामृषेति, यत्र किश्चित्सत्यं किञ्चिन्मृषेति, यथाऽश्वेन यान्तं देवदत्तमुष्टेण यातीत्यभिदधाति ३, चतुर्थी तु भाषा योच्यमाना न सत्या नापि मृषा नाषि सत्यामृषा आमन्त्रणाज्ञापनादिका साऽत्रासत्याऽमृषेति ४॥ स्वमनीषिकापरिहारार्थमाह-सोऽहं यदेतद्ब्रवीमि तत्सर्वेरेव तीर्थ कृद्भिरतीतानागतवर्तमानैर्भाषितं भाष्यते माषिष्यते च, अपि चैतानि सर्वाण्यप्येतानि भाषाद्रव्याण्यचित्तानि वर्णगन्धरसस्पर्शवन्ति चयोपचयिकानि विविधपरिणामधर्माणि भवन्तीति, एवमाख्यातं तीर्थकृद्भिरिति, अत्र च वर्णादिमत्त्वाविष्करणेन शब्दस्य मृतत्वमावेदितं, न ह्यमूर्तस्याकाशादेवर्णादयः संभवन्ति तथा चयोपचयधर्माणीत्यनेन तु शब्दस्यानित्यत्वमाविष्कृत, विचित्रपरिणामत्वाच्छब्दद्रव्याणामिति ॥ साम्प्रतं शब्दस्य कृतकवाविष्करणायाह
से भिक्खू वा २ से जं पुण जाणिज्जा पुव्वि भासा अभासा भासिज्जमाणी भासा भासा, भासासमयवीइकताच णं भासिया भासा अभासा १॥ से भिक्खू वा २ । से जं पुण जाणिज्जा जा य भासा सच्चा । जाय भासा मोसा २ जा य भासा सच्चा- "" मोसा ३ जा य भासा असञ्चाऽमोसा ४, तहप्पगारं भासं सावज्ज सकिरियं कक्कसं कडुयं निट्ठरं फरुसं अण्हयकरिं छेयणकरिं भेयणकरिं परियावणकरिं उद्दवणकरिं भूओवघाइयं अभिकंख नो भासिन्जा २॥ से मिक्खू वा भिक्खुणी वा से जं पुण जाणिज्जा. जा य भासा सच्चा सुहमा जा य भासा असामोसा तहप्पगारं भासं असावज्जं
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
॥ ७९२॥
Page #351
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥७६३ ॥
जाव अभूओवघाइयं अभिकंख भासं भासिज्जा ३॥ सु. ११३॥ स भिक्षुरेवंभूतं शब्दं जानीयात् , तद्यथा-भाषाद्रव्यवर्गणानां वागयोगनिस्सरणात 'पूर्व प्रागभाषा 'भाष्यमाणैव' वागयोगेन. निसृज्यमानैव भाषा, भाषाद्रव्याणि भाषा भवति, तदनेन ताल्चोष्ठादिव्यागारेण प्रागसतः शब्दस्य निष्पादनात्स्फुटमेव कृतकत्वमावेदितं, मृत्पिण्ड--दण्डचक्रादिनेव घटस्येति, सा वोच्चरितप्रध्वंसिन्वाच्छाना भाषणोत्तरकालमप्यभाषेव, यथा कपालावस्थायां घटोऽघट इति, तदनेन प्रागभावप्रध्वंसामागे शब्दस्यावेदिताविति ॥ इदानीं चतमणां भाषाणामभाषणीयामाह--स भिक्षुर्गा पुनरेवं जानीयात, तद्यथा--सत्यां १ मृषा २ सत्यामृषाम् ३ असत्यामृषा ४, तत्र मृषा सत्यामषा च साधूनां तावन्न वाच्या, सत्यापि या कर्कशादिगुणोपेता सा न वाच्या, तां च दर्शयति-सहावद्येन वर्त्तत इति सावद्या तां सत्यामपि न भाषेत, तथा सह क्रियया--अनर्थदण्डप्रवृत्तिलक्षणया वर्त्तत इति सक्रिया तामिति तथा 'कर्कशां' दर्पिताक्षरां तथा 'कटुकां' चित्तोद्वेगकारिणी तथा 'निष्ठुरां' हक्काप्रधानां 'परुषां' मर्मोद्घाटनपराम् 'अण्हयकरिन्ति कर्माश्रवकरीम् , एवं छेदनभेदनकरी यावदपद्रावणकरीमित्येवमादिकां 'भूतोपघातिनी प्राण्युपतापकारिणीम् 'अभिकाक्षय' मनसा पर्यालोच्य सत्यामपि न भाषेतेति ॥ भाषणीयां त्वाह--स भिक्षुर्यां पुनरेवं जानीयात् , तद्यथा-या च भाषा सत्या 'सूक्ष्मे ति कुशाग्रीयया बुद्धया पर्यालोच्यमाना मषाऽपि सत्या भवति यथा सत्यपि मगदर्शने लुब्धकादेरपलाप इति, उक्तञ्च–'अलिअंन भासिअन्वं अत्थि हु सच्चपि जं न वत्तव्वं ।
१ अलीकं न भाषितव्यं अस्त्येव सत्यमपि यन्न वक्तव्यम् । सत्यमपि भवत्यलीकं यत् परपीडाकरं वचनम् ॥ १ ॥
॥७३॥
Page #352
--------------------------------------------------------------------------
________________
भीआचाराजवृत्तिः (शौलाङ्का.)
श्रुत.. चूलिका.. ई०४ उद्देशकः १
१७६४॥
सच्चपि होइ अलिअंजं परपोडाकरं वयणं ॥१॥" या चासत्यामृषा--आमन्त्रण्याज्ञापनादिका ता तथाप्रकारी भाषामसावद्यामकियां यावदभूतोपघातिनी मनसा पूर्वम् 'अभिकाक्ष्य' पर्यालोच्य सर्वदा साधुर्भाषां भाषेतेति ॥ किञ्च
से भिक्खू वा २ पुमं आमंतेमाणे आमंतिए वा अपडिसुणेमाणे नो एवं वइबाहोलित्ति वा गोलित्ति वा वसुलेत्ति वा कुपक्खेत्ति वा घडदासित्ति वा साणत्ति वा तेणित्ति वा चारिएत्ति वा माईत्ति वा मुसावाइत्ति वा, एयाई तुम ते जणगा वा, एअप्पगारं भासं सावज्जं सकिरियं जाव भूओवघाइयं अभिकख नो भासिज्जा ॥ से भिक्खु वा २ पुमं आमंतेमाणे आमंतिए वा अप्पडिसुणेमाणे एवं वहजा-अनुगे इ वा आउसोत्ति वा आउसंतारोत्ति वा सावगेत्ति वा उवासगेत्ति वा धम्मिएत्ति वा धम्मपिएत्ति वा, एयप्पगारं भासं असावज्ज जाव अभिकंख भासिजा २॥ से भिक्खू वा ६ इत्थि आमंतेमाणे आमंतिए य अप्पडिसुणेमाणी नो एवं बइन्जा-होलोइ वा गोलीति वा इत्थीगमेणं नेयनं ३ ॥ से भिक्खू वा २ इत्थि आमंतेमाणे आमंनिए य अप्पडिसुणेमाणो एव वइज्जा-आउसोत्ति वा भइणित्ति वा भोईति वा भगवईति वा साविगेति वा उवासिएत्ति वा धम्मिएत्ति वा धम्मप्पिएत्ति वा, एगप्पगारं भासं असावज्जं जाव अभिकंख भासिज्जा ४॥ सू० १३४ ॥
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
॥ ७६४॥
Page #353
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥७९५
स भिक्षुः पुमांसमामन्त्रयन्नामन्त्रितं वाऽशृण्वन्तं नैवं भाषेत, तद्यथा--होल इति वा गोल इति वा, एतौ च देशान्तरेऽवज्ञासंसूचकौ, तथा 'वसुले'त्ति वृषलः 'कुपक्षः' कुत्सितान्वयः घटदास इति वा श्वेति वा स्तेन इति वा चारिक इति वा मायीति वा मषावादीति वा, इत्येतानि--अनन्तरोक्तानि त्वमसि तव जनको वा-मातापितरावेतानीति, एवंप्रकारां भाषां यावत्र भाषेतेति ॥ एतद्विपर्ययेण च भाषितव्यमाह -स. भिक्षुः पुमासमामन्त्रयन्नामन्त्रितं वाऽशृण्वन्तमेवं ब्र याद् यथाऽमुक इति वां आयुष्मन्निति वा आयुष्मन्त इति वा तथा श्रावक धर्मप्रिय इति, एवमादिका भाषां भाषेतेति ॥ एवं स्त्रियमधिकृत्य सूत्रद्वयमपि प्रतिषेधविधिभ्यां नेयमिति ॥ पुनरप्यमाषणीयामाह
से भिक्खू वा २ नो एवं वइजा--नभोदेवित्ति वा गज देवित्ति वा विज्जुदेवित्ति वा पवुट्ठदेवित्ति वा निवुडदेवित्तए वा पहउ वा वासं मा वा पडउ, निप्फजउ वा सस्संमा वा निष्फजउ, विभाउ वा रयणो मा वा विभाउ, उदेउ वा सूरिए मा वा उदेउ, सो वा राया जयउ वा मा जयउ, नो एयप्पगारं भासं भासिज्जा १॥ पन्नवं से भिक्ख वा २ अंतलिक्खेत्ति वा गुज्झाणचरिएत्ति वा संमुच्छिए वा निवइए वा पओ वइजा वुट्ठवलाहगेत्ति वा २। एयं खलु तस्स भिक्खुस्स भिक्खुणोए वा सामग्गियं जं
सव्वदे॒हिं समिए सहिए सया जइज्जासि तिबेमि ३॥ सू० १३५ ॥ भाषाध्ययनस्य .प्रथमः ॥२-१-४-१॥
Page #354
--------------------------------------------------------------------------
________________
भोआचा राङ्गवृचि: (शीलाङ्का.)
७९६ ॥
܀܀܀
*********
समिक्षुरेवंभूतामसंयतभाषां न वदेत्, तद्यथा-- नभोदेव इति वा गर्जति देव इति वा तथा विद्युद्देवः प्रदृष्टो देवः निवृष्टो देवः, एवं पततु वर्षामा वा निष्पद्यतां शस्यं मेति वा, विभातु रजनी मेति वा, उदेतु सूर्यो मा वा, जयत्वसौ राजा मा वेति, एवंप्रकारां देवादिकां भाषां न भाषते || कारणजाते तु प्रज्ञावान् संयतभाषयाऽन्तरिक्षमित्यादिकया भाषेत, एतत्तस्य भिक्षोः सामग्र्यमिति । चतुर्थस्य प्रथमोद्देशकः समाप्तः ।। २-१-४-१ ॥
॥ अथ चतुर्थ - भाषाजाताध्ययने द्वितीय उद्देशकः ।।
उक्तः प्रथमोदेशकः, साम्प्रतं द्वितीयः समारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्ध: - -इहानन्तरोद्देशके वाच्यावाच्यवाक्यविशेषोऽभिहितः, तदिहापि स एव विशेषभूतोऽभिधीयते इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्यो देशकस्यादिसूत्रम— सेभिक्खु वा २ जहा वेगईयाइ रुवाई पासिज्जा तहावि ताह नो एवं वइज्जा, तंजा - गंडी गंडीति वा कुट्टी कुट्ठीति वा जाव महुमेहुणीति वा हत्थच्छिन्नं हत्थ - च्छिन्नेति वा एवं पायच्त्रेित्ति वा नकछिण्णेइ वा कण्णछिन्नेह वा उछिन्नेति वा, जेयावने तपगारा एयपगाराहिं भासाहिं बुझ्या २ कुप्पंति माणवा ते यावि तहप्पगाराहिं भासाहिं अभिकख नो भासिज्जा १ ॥ से भिक्खू वा २ जहा वेगइयाइ रूवाइ' पासिज्जा तहावि ताई एवं वइज्जा, तंजहा – ओयंसी ओयंसित्ति वा तेयंसो
श्रतस्कं० २
चूलिका १
भाषा० ४
| उद्देशका २
।। ७९६ ।
Page #355
--------------------------------------------------------------------------
________________
.७६७।
तेयंसीति वा जसंसी जसंसीइ वा वच्चंसो वच्चंसोइ वा अभिरूयंसी २ पडिल वंसी २ पासाइयं २ दरिसणिज्ज परिसणीयत्ति वा, जे यावन्ने तहप्पगारा तहप्पगाराहिं भासाहिं बडया २ नो कुप्पंति माणवा तेयावि तहप्पगारा एयपगाराहिं भासाहिं अभिकख भासिज्जा २॥ से भिक्खू वा २ जहा वेगइयाई रूवाईपासिन्जा, तंजहावप्पाणि वा जाव गिहाणि वा, तहावि ताईनो एवं वइजा, तंजहा-सुक्कडे इ वा सुट्टकडे इ वा साहुकडे इ वा कल्लाणे इ वा करणिज्जे इ वा, एयप्पगार भासं सावज्जं जाव नो भासिज्जा ३॥ से भिक्ख वा २ जहा वेगईयाई रुवाई पासिज्जा, तंजहावप्पाणि वा जाव गिहाणि वा तहावि ताई एवं वइजा, तंजहा-आरंभकडे इ वा सावजकडे इवा पयत्तकडे इ वा पासाइयं पासाहए.वा दरिसणीयं दरसणीयंति वा अभिरूवं अभिरूवंति वा पडिरूवं पडिरूवंति वा एयप्पगारं भास असावज्जं जाव
भासिज्जा ४ ॥ सू० १३६॥ .. .. स भिक्षुर्यद्यपि 'एगइयाइ'न्ति कानिचिद्रूपाणि गण्डीपदकुष्ठयादीनि पश्येत् तथाप्येतानि स्वनामग्राहं तद्विशेषणविशिष्टानि नोच्चारयेदिति, तद्यथेत्युदाहरणोपप्रदर्शनार्थः, 'गण्डो' गण्डमस्यास्तीति गण्डी यदिवोच्छ्रनगुल्फपादः स गण्डीत्येवं न व्याहर्त्तव्यः, तथा कुष्ठयपि न कुष्ठीति व्याहर्त्तव्यः, एवमपरच्याधिविशिष्टो न व्याहर्त्तव्यो यावन्मधुमेहीति
M
॥ ७६७.
Page #356
--------------------------------------------------------------------------
________________
चा
राङ्गवृचिः
(झीलाङ्का.)
। ७९८ ॥
****
मधुवर्णमुत्रावर प्रभावीति, अत्र च घृताध्ययने व्याधिविशेषाः प्रतिपादितास्तदपेक्षया सूत्रे यावदित्युक्तम्, एवं छिन्नहस्तपादनासिका कर्णोष्ठादयः, तथाऽन्ये च तथाप्रकाराः काणकुण्टादयः तद्विशेषणविशिष्टाभिर्वाग्भिरुक्ता उक्ताः कुप्यन्ति मानवास्तांस्तथाप्रकाररांस्तथाप्रकाराभिर्वाग्भिरभिकाङ्क्षय नो भाषेतेति ॥ यथा च भाषेत तथाSS - स गण्डीपदादिव्याधिग्रस्तं पश्येत्तथाऽपि तस्य यः कश्चिद्विशिष्टो गुण ओजस्तेज इत्यादिकस्तमुद्दिश्य सति कारणे वदेदिति, | केशव कृष्णश्वशुक्लदन्तगुणोद्घट्टनवद्गुणग्राही भवेदित्यर्थ । तथा स भिक्षुर्यद्यप्येतानि रूपाणि पश्येत्तद्यथा - 'वप्राः ' प्रकाश यावद्गृहाणि तथाऽप्येतानि नैवं वदेत्, तद्यथा - सुकृतमेतत् सुष्ठु कृतमेतत् साधु - शोभनं कल्याणमेतत्, कर्त्तव्यमेवैतदेवंविधं भवद्विधानामिति, एवंप्रकारामन्यामपि भाषामधिकरणानुमोदनात् नो भाषेतेति ॥ पुनर्भाषणीयामाह - भिक्षुर्वप्रादिक दृष्ट्वाऽपि तदुद्देशेन न किश्चिद् त्र यात्, प्रयोजने सत्येवं संयतभाषया ब्रूयात्, तद्यथा--महारम्भकृतमेतत् सावद्यकृतमेतत् तथा प्रयत्नकृतमेतत् एवं प्रसादनीयदर्शनायादिकां भाषामसावद्यां भाषेतेति ।
सेभिक्खू वा २ असणं वा ४ उचक्खडियं पेहाए तहाविहं नो एवं वइज्जा, तंजहा
कडे वाकडे इ वा साहुकडे इ वा कल्लाणे इ वा करणिज्जे ह वा, एयप्पगारं भासं सावज्जं जाव नो भासिज्जा १ ॥ से भिक्खू वा २ असणं वा ४ उचक्खडियं पेहाय एवं वइज्जा, तंजहा- आरंभकडेत्ति वा सावज्जकडेति वा पयत्तकडे इ वा भयं मदेति वा ऊस ऊस इ वा रसियं २ मणुन्नं २ एयप्पगारं भासं असावज्जं जाव
श्रुतस्कं० २ चूलिका १
भाषा० ४ उद्देशका २
।। ७९८ ।।
Page #357
--------------------------------------------------------------------------
________________
भासिन्जा २॥ सू. १३७ ॥ एवमशनादिमतप्रतिषेधविधिस्त्रद्वयमपि नेयमिति, नवरम् 'ऊसढ'न्ति उच्छित वर्णगन्धाधुपेतमिति ॥ पुनरमाषणीयामाह किच
से भिक्ख वा भिक्खूणो वा मणुरसंवा गोणं वा. महिसं वा मिगं वा पसुवा पक्खि वा सरीसिवं वा जलचर वा सेतं परिवूढकायं पेहाए नो एवं वइजा-थले इ वा पमेहले इवा व इवा वझे इ वा पाइमेइ वा, एयप्पगारं भासं सावज्ज जाव नो भासिज्जा?॥ से भिक्खू वा भिक्खुणी वा मणुस्सं वा जाव जलयर वा सेत्तं परिवूहकार्य पेहाए एवं बइज्जा-परिवूढकाएत्ति वा उवचियकाएत्ति धा थिरसंघयणेत्ति वा चियमंससोणिएत्ति वा बहुपडिपुन्नई दिइएत्ति वा, एयप्पगारं भासं असावज्जं जाव भासिन्जा २॥ से भिक्खू वा २ विख्वरूवाओ गाओ पेहाए नो एवं वइजा, तंजहा-गाओ दुज्झाओत्ति 'वा दम्मेत्ति वा गोरहत्ति वा वाहिमत्ति वा रहजोग्गत्ति वा, एयप्पगारं भासं सावज्ज 'जाव नो भासिज्जा३॥ से भिक्ख वा २ विरूवरूवाओ गाओ पेहाए एवं वइज्जा, तंजहा-जुवंगवित्ति वा घेणत्ति वा रसवइत्ति वा हस्से इ वा महल्ले ह वा महव्वए इवा संवहणित्ति चा, एअप्पगारंभासं असावज्ज जाव अभिकंख भासिज्जा ४॥ से
७६६.
Page #358
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीआचा राजवृत्तिः (शीलाङ्का.)
श्रुतस्कं०२ चूलिका ? भाषा०४ उद्देशकः २
४८..॥
भिक्ख वा २ तहेव गंतमुजाणाई पव्वयाई वणाणि वा रुक्खा महल्ले पेहाए नो एवं वहज्जा, तंजहा-पासायजोग्गाति वा तोरणजोग्गाइ वा गिहजोग्गाइ वा फलिहजोग्गाइ वा अग्गलजोग्गाइ वा नावाजोग्गाइ वा उदगजोग्गाइ वा दोणजोग्गाइ वा पीढचंग बेरनंगलकुलियजंतलट्ठीनाभि(लि)गंडीआसणजोग्गाइ वा सयणजाणउवस्सयजोग्गाई वा, एयप्पगारं भासं सावज्जं जाव नो भासिन्जा ५॥ से भिक्ख वा २ तहेव गंतुमुज्जागाई पध्वयाणि वणाणि य रुक्खा महल्लपेहाए एवं वइज्जा, तंजहा--जाइमता इवा दीहवहा इवा महालया इ वा पयायसालाइ वा विडिमसाला इ वा पासाइया इवा जाव पडिरूवाति वा एयप्पगारं भासं असावज्जं जाव अभिकख भासिजा ॥ से भिक्ख वा २ बहुसंभूया वणफला पेहाए तहावि ते नो एवं वडजा, तंजहा-पक्का इवा पायखजा इ वा वेलोइया इ वा टाला इ वा वेहिया इवा, एयप्पगारं भासं सावज्ज जाव नो भासिज्जा ७॥ से भिक्ख वा २ बहुसंभूया वणफला, अंबा पेहाए एवं वइजा, तंजहा-असंथडा इवा बहुनिवटिमफलाइ वा बहुसंभूया इवा भूयरुचित्ति बा, एयप्पगारं भासं असावळजाव भासिज्जा८॥से भिक्ख वा २ पहसंभूया ओसही पेहाए तहावि ताओ न एवं वइज्जा, तंजहा-पक्का इ वा नीलीया इ वा छवीइया ।
Page #359
--------------------------------------------------------------------------
________________
.८.१॥
वा लाइमा इ वा भन्जिमा इ वा बहुखंजा इ वा, एयप्पगारं भासं सावज' जाव नो भासिज्जा ९॥ से भिक्खू वा २ बहुसंभूयाओ ओसहीओ पेहाए तहावि एवं वइला, तंजहा-रूढाइ वा बहुसंभया इ वा थिरा इ वा ऊसदाइ वा गम्भिया इ वा पसूयाइ
वा ससारा इवा, एयप्पगारं भासं असावज्जं जाव भासिज्जा १० ॥ सू० १३८॥ स भिक्षुर्गादिकं 'परिवृद्धकाय' पुष्ट कार्य प्रेक्ष्य नैत्द्वदेव , तद्यथा-स्थूलोऽयं प्रमेदुरोऽयं तथा वृत्तस्तथा वध्यो वहनयोग्यो वा, एवं पचनयोग्यो देवता(दत्ता)देः पातनयोग्यो वेति, एवमादिकामन्यामप्येवंप्रकारां सावद्या भाषा नो भाषे- 8 तेति ॥ भाषणविधिमाह-स भिक्षुर्गवादिकं परिवृद्धकार्य प्रेक्ष्यैवं वदेत , तद्यथा-परिवृद्धकायोऽयमित्यादि सुगममिति ॥ तथा-स भिक्षः 'विरूपरूपाः' नानाप्रकारा गाः समीक्ष्य नैतद्वदेत , तद्यथा-दोहनयोग्या एता गावो दोहनकालो वा वर्तते तथा 'दम्यः' दमनयोग्योऽयं 'गोरहक' कन्होटका, एवं वाहनयोग्यो स्थयोग्यो वेति, एवंप्रकारां सावधां भाषा नो भाषेतेति ॥ सति कारणे भाषणविधिमाह-स भिक्ष नाप्रकारा गाः प्रेक्ष्य प्रयोजने सत्येवं ब्र यात , तद्यथा'जुवंगवे'त्ति युवाऽयं गौः धेनुरिति वा रसवतीति वा, (ह्रस्वः महान् महाव्ययो वा) एवं संवहन इति, एवंप्रकारामसावद्या भाषां भाषेतेति ॥ किश्व--स भिक्षरुद्यानादिकं गत्वा महतो वृक्षान् प्रेक्ष्य नैवं वदेव, तद्यथा-प्रासादादियोग्या अमी वृक्षा इति, एवमादिकां सावद्या भाषां नो भाषेतेति ॥ यत्तु वदेत्तदाह-स भिक्षुस्तथैवोद्यानादिकं गत्वैवं वदेव,
' तद्यथा-'जातिमन्तः सुजातय इति, एवमादिकां भाषामसावद्या संयत एव भाषेतेति ॥ किश्च-स भिक्षर्बहुसंभूतानि
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
८०१॥
Page #360
--------------------------------------------------------------------------
________________
भीआचा राङ्गवृत्तिः
(बीलाङ्का.)
॥ ८०२ ॥
वृक्ष फलानि प्रेक्ष्य नैवं वदेत्, तद्यथा- एतानि फलानि पक्वानि' पाकप्राप्तानि तथा 'पाकखाद्यानि ' बद्धास्थीनि गर्त्ताप्रक्षेपकोद्रवपलालादिना विषच्य भक्षणयोग्यानीति, तथा 'वेलोचितानि' पाकातिशयतो ग्रहणकालोचितानि, अतः परं कालं न विषहन्तीत्यर्थः, 'टालानि' अनववद्धास्थीनि कोमलास्थीनीति यदुक्तं भवति, तथा 'द्वैधिकानि' इति पेशीसम्पादनेन द्वैधीभावकरणयोग्यानि वेति एवमादिकां भाषां फलगतां सावद्यां नो भाषेत ॥ यदभिधानीयं तदाह-स | भिक्षु सम्भूतफलानाम्रान् प्रेक्ष्यैवं वदेत्, तद्यथा--' असमर्था:' अतिपरेण न शक्नुवन्ति फलानि धारयितुमित्यर्थः, एतेन पक्कार्थ उक्तः, तथा 'बहुनिर्वर्त्तितफला:' बहूनि निर्वर्त्तितानि फलानि येषु ते तथा, एतेन पाकखाद्यार्थ उक्तः, तथा 'बहुसम्भूता:' बहूनि संभूतानि पाकातिशयतो ग्रहणकालोचितानि फलानि येषु ते तथा, अनेन वेलोचितार्थ उक्तः, तथा 'भूतरूपाः' इति वा भूतानि रूपाण्यनवबद्धास्थीनि कोमलफलरूपाणि येषु ते तथा, अनेन टालाद्यर्थ उपलक्षितः, एवंभूता एते आम्राः, आम्रग्रहणं प्रधानोपलक्षणम्, एवंभूतामनवद्य भाषां भाषेतेति । किञ्च स भिक्षुर्वहुसम्भूता ओषधीर्वीक्ष्य तथाऽप्येता नैतद्वदेत्, तद्यथा - पक्का नीला आर्द्राः छविमत्यः 'लाइमाः' लाजायोग्या रोपणयोग्य वा, तथा 'भजिमाओ ति पचनयोग्या भञ्जनयोग्या वा 'बहुखज्जा' बहुभक्ष्याः पृथुककरणयोग्या वेति, एवंप्रकारां सावद्यां भाषां नो भाषेत । यथा च भाषेत तदाह- समिक्षर्वहुसंभूता ओषधीः प्रेक्ष्येतद् न यात्, तद्यथारूढा इत्यादिकामसावद्य भाषां भाषेत ॥ किञ्च —
से भिक्खू वा २ तहपगाराई सद्दाहं सुणिज्जा तहावि एयाई नो एवं वइज्जा, तंजहा
8888
श्रुतस्कं० २ चूलिका ० १
भाषा० ५
उद्देशकः ?
॥ ८०२ ॥
Page #361
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ ८०३ ॥
*४४
*
सुसदेति वा दुसद्देत्ति वा एयप्यगारं भासं सावज्ज' नो भासिज्जा ? | से भिक्खू वा २ तावित एवं षइजा, तंजहा - सुसद्द सुसद्दिन्ति वा दुसहं दुसद्दित्तिवा, एगप्पगारं असावज' जाव भासिज्जा, एवं रूवाह किण्हेत्ति वा ५ गंधाई सुरभिगंधित्ति वा २ रसाइ तित्ताणि वा ५ फासाह कक्खडाणि वा ८, २ ॥ सू० १३९ ।।
समिक्षुर्यद्यप्येतान् शब्दान् शृणुयात् तथाऽपि नैवं वदेत्, तद्यथा - शोभनः शब्दोऽशोभनो वा माङ्गलिकोऽमाङ्गलिको वा, इत्ययं न व्याहर्त्तव्यः ॥ विपरीतं स्वाह - यथाऽवस्थितशब्दप्रज्ञापनाविषये एतद्वदेत्, तद्यथा - 'सुसद्द' ति शोभनशब्दं शोभनमेव ब्रूयाद्, अशोभनं स्वशोभनमिति । एवं रूपादिसूत्रमपि नेयम् ॥ विश्व
सेभिक्खू वा २ वंता कोहं च माणं च मायं च लोभं च अणुवीह निट्ठाभासी निसम्मभासी अतुरियभासो विवेगभासी समियाए संजए भासं भासिज्जा ५ ॥ एवं खलु तस्स भिक्खुस्स भिक्खुणीए वा जाव सया जह जासि त्तिबेमि ॥ २-१-४-२ ॥ भाषाऽध्ययनं चतुर्थम् ॥ २-१-४ ॥
स भिक्षुः क्रोधादिकं वान्वेवंभूतो भवेत्, तद्यथा - अनुविचिन्त्य निष्ठाभाषी निशम्यभाषी अत्वरितभाषी विवेकभाषी भाषा समित्युपेतो भाषा भाषेत, एतत्तस्य भिक्षोः सामग्र्यमिति ॥ चतुर्थमध्ययनं भाषाजाताख्यं समाप्तमिति २-१-४ ॥
wegliggeret.
॥ ८०३ ॥
Page #362
--------------------------------------------------------------------------
________________
भीआचाराजवृत्तिः (सीलाका. 1८०४॥
॥ अथ पञ्चम-वस्त्रैषणाऽध्ययने प्रथम उद्देशकः ॥
श्रुतस्क०२ चतुर्थाध्ययनानन्तरं पश्चममारभ्यते, अस्य चायममिसम्बन्धः-दहानन्तराध्ययने भाषासमितिः प्रतिपादिता, तदनन्तर
चूलिका मेषणासमितिर्भवतीति सा वस्त्रगता प्रतिपाद्यते, इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्याध्ययनस्य चत्वार्यनु
वस्त्रेष०५ क्रमादीनि भवन्ति, तत्रोपक्रमान्तर्गतोऽध्ययनार्थाधिकारो वस्त्रैषणा प्रतिपाद्येति, उद्देशार्थाधिकारदर्शनार्थं तु नियुक्ति
उद्देशक कार आह
पढमे गहणं बीए धरणं पगयं तु दव्ववत्थेणं । एमेव होइ पायं भावे पायं तु गुणधारी॥१५॥ प्रथमे उद्देशके वस्त्रग्रहणविधिः प्रतिपादितः, द्वितीये तु धरणविधिरिति ॥ नामनिष्पन्ने तु निक्षेपे वस्त्रपणेति, तत्र
नामादिश्चतुर्विधो निक्षेपः, तत्रापि नामस्थापने क्षण्णे, द्रव्यवस्त्रं त्रिधा, तद्यथा-रकेन्द्रियनिष्पन्न कार्यासिकादि विकलेन्द्रियनिष्पनं चीनांशुकादि, पवेन्द्रियनिष्यन्नं कम्बलरत्नादि, भाववस्त्रं त्वष्टादशशीलाङ्गसहस्राणीति, इह तु द्रव्य. वस्त्रेणाधिकारः, तदाह नियुक्तिकार:-'पगयं तु दव्ववत्थेणं'ति । वस्त्रस्येव पात्रस्यापि निक्षेप इति मन्यमानोऽत्रेव पात्रस्यापि निक्षेपातिनिर्देशं नियुक्तिकारो गाथापश्चाद्धेनाह-'एवमेव' इति वस्त्रयत्पात्रस्यापि चतुर्विधो निक्षेपः, तत्र द्रव्यपात्रमेकेन्द्रियादिनिष्पन्न, भावपात्रं साधुरेव गुणधारीति ॥ साम्प्रतं सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयं,
ME.४॥ तच्चेदम्
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
Page #363
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥८०५॥
सेभिक्ख वा २ अभिकखिजा वत्थं एसित्तए, से जं पुण वत्थं जाणिवा.तंजहाजंगिय वा भंगिय वा साणियं वा पोत्तगं वा खोमियं वा तूलकडं वा, तहप्पगारं वत्थं वा जे निग्गंथे तरुणे जुगवं बलवं अप्पायंके थिरसंघयणे से एगं वत्थं धारिजा नो पीयं, जा निग्गंथी सा चत्तारिसंघाडीओ धारिजा, एगं दुहत्थ वित्थारं दो तिहत्थविधाराओ एग चउहत्यवित्थारं, तहप्पगारेहिं वत्थेहिं असंधिजमाणेहिं. अहं पच्छा
एगमेगं संसिविजा ॥ सू० १४१॥ स भिक्षुरभिकाङ्क्षद्वस्त्रमन्वेष्टु तत्र यत्पुनरेवंभूतं वस्त्रं जानीयात् , तद्यथा-'जंगिय'ति जङ्गमोष्टाद्यर्णानिष्पन्न तथा भंगियंति नानामङ्गिकविकलेन्द्रियलालानिष्पन्नं, तथा 'साणय'ति सणवल्कलनिष्पन्न 'पोत्तगं'ति ताडयादिपत्रमहातनिष्पन्न 'खोमियंति कासिकं 'तूलकडं'ति' अर्कादितूलनिष्पन्नम्, एवं तथाप्रकारमन्यदपि वस्त्र धारयेदित्यत्तरेण सम्बन्धः । येन साधुना यावन्ति धारणीयानि तदर्शयति-तत्र यस्तरुणो निर्ग्रन्थ:--साधुयौवने वर्त्तते 'बलवान समर्थः 'अल्पात:' अरोगी 'स्थिरसंहननः' दृढकायो दृढधृतिश्च, स एवंभूतः साधुरेक 'वस्त्र' प्रावरणं त्वत्राणा धारयेत नो द्वितीयमिति, यदपरमाचार्यादिकृते विभर्ति तस्य स्वयं परिभोगं न कुरुते, य: पुनर्बालो दलो दोवा यावदल्पसंहननः स यथासमाधि द्वयादिकमपि धारयेदिति, जिनकल्पिकस्तु यथाप्रतिज्ञमेव धारयेत् न तत्रापवादोऽस्ति । या पुनर्निग्रेन्थी सा चतस्रः संघाटिका धारयेत, तद्यथा-एका द्विहस्तपरिमाणां या प्रतिश्रये तिष्ठन्ती प्रावणोतिर
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
Page #364
--------------------------------------------------------------------------
________________
त्रिहस्तपरिमाणे, तत्रैकामुज्ज्वला भिक्षाकाले प्रावृणोति, अपरां बहिभूमिगमनावसर इति, तथाऽपरां चतुर्हस्तविस्तर समवसरणादौ सर्वशरीरप्रच्छादिका प्रावृणोति, तस्याश्च यथाकृताया अलाभे अथ पश्चादेकमेकेन सार्दू सीव्येदिति ॥
श्रीआचारावृत्तिः शीलाका.)
श्रुत० २, 8 चूलिका र
वस्त्रै०५ उद्देशकः १.
से भिक्खू वा २ परं अडजोयणमेराए वत्थपडियाए नो अभिसंधारिज गमणाए।सू०१४२॥ स भिक्षुर्ववार्थम योजनात्परतो गमनाय मनो न विदध्यादिति ॥
से भिक्खु वा से जं पुणवत्थं जाणिजा अस्सिपडियाए एग साहम्मियं समुदिस्स पाणाई जहा पिंडेसणाए भाणियव्वं ॥ एवं बहवे साहम्मिया एगं साहम्मिणिं
बहवे साहम्मिणीओ बहवे समणमाहण तहेव पुरिसंतरकडा जहा पिंडेसणाए २॥सू०१४३॥ सूत्रद्वयमाधाकर्मिकोद्देशेन पिण्डेषणावन्नेयमिति ॥ साम्प्रतमुत्तरगुणानधिकृत्याह
से भिक्खू वा २ से जं पुण पत्थं जाणिज्जा असंजए भिक्खुपडियाए कोयं वा धोयं वा रत्तं वा घट्ट वा मह वा संपधूमियं वा तहप्पणारं वयं अपुरिसंतरकडं जाव नो पडि.
ग्गाहिज्जा १। अह पुण एवं जाणिज्जा पुरिसंतरकडं जाव पडिगाहिज्जा २॥ सू०१४४॥ 'साधुप्रतिज्ञया' साधुमुद्दिश्य गृहस्थेन क्रीतधौतादिकं वस्त्रमपुरुषान्तरकृतं न प्रतिगृह्णीयात्, पुरुषान्तरस्वीकृतं तु गृह्णीयादिति पिण्डार्थः॥ अपि च
Page #365
--------------------------------------------------------------------------
________________
०७॥
से भिक्खू वा २ से जाइपुण वत्थाई जाणिज्जा विरूवरूवाई महद्धणमुल्लाई,तंजहाआईणगाणि वा सहिणाणि वा सहिणकल्लाणाणि वा आयाणि वा कायाणि वा खोमियाणि वा दुगुल्लाणि वा पट्टाणि वा मलयाणि वा पन्नुनाणि वा अंसुयाणि वा चीणंसुयाणि वा देसरागाणि वा अमिलाणि वा गजफलाणि वा फालियाणि वा कोयवाणि वा कंबलगाणि वा पावराण वा, अन्नयराणि वा तहप्पगाराई वत्थाई महद्धणमुल्लाई लाभे संते नो पडिगाहिजा १ ॥ से भिक्खू वा २ आइण्णपाउरणाणि वत्थाणि जाणिज्जा; तंजहा-उद्दाणि वा पेसाणि वा पेसलाणि वा किण्हमिगाईणगाणि वा नीलमिगाईणगाणि वा गोरमिगाईणगाणि वा कणगाणि वा कणगकंताणि वा कणगपट्टाणि वा कणगखइयाणि वा कणगफुसियाणि वा वग्याणि वा विवग्घाणि वा [विगाणि वा ] आभरणाणि वा आभरणविचित्ताणि घा, अन्नयराणि तहप्पगाराणि
आईणपाउरणाणि वत्थाणि लाभे संते नो पडिग्गाहिज्जा ॥ सू०१४५॥ 'स भिक्षुर्यानि पुनमहाधनमूल्यानि जानीयात् , तद्यथा-'आजिनानि'मूषकादिचमनिष्पन्नानि श्लक्ष्णानि-सूक्ष्माणि च तानि वर्णच्छव्यादिभिश्च कल्याणानि--शोभनानि वा सूक्ष्मकल्याणानि, 'आयाणि त्ति क्वचिद्देशविशेषेऽजाः सूक्ष्मरोमवत्यो भवन्ति तत्पश्मनिष्पन्नानि आजकानि भवन्ति, तथा क्वचिद्देशे इन्द्रनीलवर्णः कर्पासो भवति तेन निष्पनानि
॥
८.७..
Page #366
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रुतस्कं०३
चूलिका..
वस्त्र.५ | उद्देशकर
कायकानि, 'क्षौमिक' सामान्यकापोसिक 'दुकूलं' गौडविषयविशिष्टकासिकं पट्टसूत्रनिष्पन्नानि पट्टानि 'मलयानि' भीआचा
मलयजसूत्रोत्पन्नानि 'पन्नन्नति वफलतन्तुनिष्पन्नम् अंशुकचीनांशुकादीनि नानादेशेषु प्रसिद्धाभिधानानि, तानि च राजवृत्तिः
महार्घमूल्यानीतिकृत्वा ऐहिकामुष्मिकापायल्यालामे सति न प्रतिगृह्णीयादिति ॥ स भिक्षुर्यानि पुनरेवंभूतानि अजिनधीलाझा.)
निष्पनानि 'प्रावरणीयानि' वस्त्राणि जानीयात, तद्यथा-'उद्दाणि वत्ति उद्रा:-सिन्धुविषये मत्स्यास्तत्सूक्ष्मचर्म.८०८॥ निष्पन्नानि उद्राणि 'पेसाणि'त्ति सिन्धुविषय एव सूक्ष्मचर्मणः पशवस्तच्चर्मनिष्पन्नानीति पेसलाणि'त्ति तच्चम
सूक्ष्मपक्ष्मनिष्पन्नानि कृष्णनीलगौरमृगाजिनानि-प्रतीतानि 'कनकानि च' इति कनकरसच्छुरितानि, तथा कनकस्येव कान्तिर्येषां तानि कनककान्तीनि तथा कृतकनकरसपट्टानि कनकपट्टानि एवं 'कनकखचितानि' कनकरसस्तबकाश्चि.
तानि कनकस्पृष्टानि तथा व्याघ्रचर्माणि एवं 'वग्याणि'त्ति व्याघ्रचर्मविचित्रितानि 'आभरणानि' आभरणप्रधानानि * 'आभरणविचित्राणि' गिरिविडकादिविभूषितानि अन्यानि वा तथाप्रकाराण्यजिनप्रावरणानि लामे सति न प्रतिगृह्णीयादिति ॥ साम्प्रतं वस्त्रग्रहणाभिग्रहविशेषमधिकृत्याह
इच्चेइयाई आयतणाई उवाइकम्म अह भिक्खू जाणिज्जा 'चरहिं पडिमाहिं वत्थं एसित्तए, तत्थ खलु इमा पढमा पडिमा,-से भिक्खू वा २ उद्देसिय वत्थं जाइजा, तंजहा-जंगियं वा जाव तुलकर्ड वा, तहप्पगारं वत्थं सयं वा णं जाइज्जा, परो वाणं देजा, फासुयं एसणियं लाभे संते पडिग्गाहिज्जा, पढमा पडिमा १। अहावरा दुच्चा
O COC#
Page #367
--------------------------------------------------------------------------
________________
.८.९॥
पडिमा-से भिवखु वा २ पेहाए वस्थं जाइज्जा गाहावई वा जाव कम्मकरी वा से पुच्चामेव आलोइजा-आउसोत्ति वा १ दाहिसि मे इत्तो अन्नयरं वत्थं, तहप्पगारं वत्थं सयं वा णं जाइजा परो वा से देजा, फासुयं एसणीयं लाभे संते पडिग्गाहिलादुच्चा पडिमा २। अहावरा तच्चा पडिमा-से भिक्ख वा २. पुण वत्थं जाणिज्जा तंजहा-अंतरिज वा उत्तरिज्जं वा तहप्पगारं वत्थं सयं वा णं जाइजा जाव पडि. गाहिज्जा, तच्चा पडिमा ३ । अहावरा चउत्था पडिमा-से भिक्ख वा २ उजिझयधम्मिय वत्थं जाइज्जा जं चऽन्ने बहवे समणमाहणअतिहिकिवणवणोमगा नावखंति तहप्पगारं उझियधम्मियं वत्थं सयं वा णं जाइजा परो वा से देजा, फासुयं जाव पजिग्गाहिज्जा, चउत्था पडिमा ४ ॥ इच्चेयाणं चउण्हं पडिमाणं जहा पिंडेसणाए १ ॥ सिया णं एताए एसणाए एसमाणं परो वइन्जा-आउसंतो समणा! इज्जाहि तुम मासेण वा दसराएण वा पंचराएण वा सुते सुततरे वा तो ते वयं अन्नयर वत्थ दाहामो, एयप्पगारं निग्रोसं सुच्चा निसम्म से पुवामेव आलोइज्जा-आउसोत्ति वा! भइणित्ति वा ! नो खलु मे कप्पइ एयप्पगारं संगारं पडिसुणित्तए, अभिकखसि मे दाउंइयाणिमेव दलयाहि, से वं वयंतं परो वइज्जा-आउसंतो समणा! अण
1८.९॥
Page #368
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीआचारावृत्तिः
(शीलाका.)
श्रुतस्कं०२ चूलिका
वस्त्र. ५ alउद्देशकः १
॥८१०॥
गच्छाहि, तो ते वयं अन्नयरं वत्थं दाहामो, से पुवामेव आलोइजा-आउसोत्ति ! वा २ नो खलु मे कप्पइ संगारवयणे पडिसुणित्तए, अभिकखसि मे दाउं इयाणिमेव दलयाहि, से सेवं वयंतं परो या वइन्जा-आउसोत्ति वा भइणित्ति वा ! आहरेय वत्थ समणस्स दाहामो, अवियाई वयं पच्छावि अप्पणी सयट्ठाए पाणाइ ४ समारंभ समुद्दिस्स जाव चेहस्सामो, एयप्पगारं निग्धोसं सुचा निसम्म तहप्पगारं वत्थं अफासु जाव नो पहिग्गाहिज्जा २ ॥ सिआ णं परो नेता वइजा-आउसोत्ति ! वार आहर एयं वत्थं सिणाणे वा ४ जाव आघंसित्ता वा पघंसित्ता वा समणस्स णं दाहामो, एयप्पगारं निग्धोसं सुच्चा निसम्म से पुवामेव आलोइज्जा आउसोत्ति वा भइणित्ति वा! मा एयं तुमं वत्थं सिणाणेण वा जाव पघंसाहि . अभिकंखसि मे दातु-आउसोत्ति वा एमेच दलयाहि, से सेवं वयतस्स परो सिणाणेण वा पघंसित्ता दलइज्जा, तहप्पगारं वत्थं अफासुयं नो पविग्गाहिज्जा ३ ॥ से परो नेता वइज्जाआउसोत्ति वा भइणित्ति वा! आहर एयं वरथं सीओवगवियडेण वा २ उच्छोलेत्ता वा पहोलेत्ता वा समणस्स णं दाहामो, एयप्पगारं निग्रोसं, तहेव नवरं मा एयं तुम वत्थं सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलेहि वा पहोलेहि वा, अभि.
all१० ।
Page #369
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥
११॥
कखसि मे दातु, सेसं तहेव जाव नो पडिगाहिज्जा ४॥ से णं परो नेत्ता वइजा, आउ. सोत्ति वा भइणित्ति वा ! आहरेयं वत्थं कंदाणि वा जाव हरियाणि वा विसोहित्ता समणस्स णं दाहामो, एयप्पगारं निग्घोसं तहेव, नवरं मा एयाणि तुमं कंदाणि वा जाव विसोहेहि, नो खलु मे कप्पइ एयप्पगारे वत्थे पडिग्गाहित्तए, से सेवं वयंतस्स परो जाव विसोहित्ता दलहज्जा, तहप्पगारं वत्थं अंफासु जाव नो पडिगाहिज्जा ५॥ सिया से परो नेता वत्थं निसिरिजा, से पुवामेव आलोइज्जा आउसोत्ति वा भइणित्ति वा! तुम चेव णं संतियं वत्थं अंतोअंतेणं पडिलेहिजिस्सामि, केवली बूया आयाणमेयं, वत्यंतेण बड़े सिया कुडले वा गुणे वा हिरण्णं वा सुवण्णे वा मणी वा जाव रयणावली वा पाणे वा बीए वा हरिए वा, अह भिक्खणं पुवोवइट्ठा जाव जं
पुवामेव वत्पं अंतोअंतेण पडिलहिज्जा ६॥ सू० १४६॥ 'इत्येतानि' पूर्वोक्तानि वक्ष्यमाणानि वाऽऽयतनान्यतिक्रम्याथ भिक्षुश्चतसृभिः 'प्रतिमाभिः' वक्ष्यमाणैरभिग्रहविशेषैर्वस्त्रमन्वेष्टं जानीयात् , तद्यथा-'उद्दिष्टं' प्राक् सङ्कल्पितं वस्त्रं याचिष्ये, प्रथमा प्रतिमा १, तथा 'प्रेक्षित' दृष्ट सद वस्त्रं याचिष्ये नापरमिति द्वितीया २, तथा अन्तरपरिभोगेन उत्तरीयपरिभोगेन वा शय्यातरेण परिभक्तप्रायं वस्त्रं ग्रहीष्यामीति तृतीया ३, तथा तदेवोत्सृष्टधार्मिकं वस्त्रं ग्रहीष्यामीति चतुर्थी प्रतिमेति ४ सूत्रचतुष्टयसमुदायार्थः ।
Page #370
--------------------------------------------------------------------------
________________
भीआचाराङ्गवृत्तिः
(शीलाङ्का.)
॥ ८१२ ॥
आसां चतसृणां प्रतिमानां शेष विधिः पिण्डेषणावन्नेय इति ॥ किश्च - 'स्यात् ' कदाचित् 'णम्' इति वाक्यालङ्कारे 'एतया' अनन्तरोक्तया वस्त्रेषणया वस्त्रमन्वेषयन्तं साधु परो वदेद्, यथा-आयुष्मन् ! श्रमण ! त्वं मासादौ गते समागच्छ ततोऽहं वस्त्रादिकं दास्यामि इत्येवं तस्य न शृणुयात् शेषं सुगमं यावदिदानीमेव ददस्वेति, एवं वदन्तं साधु परो याद, यथा- अनुगच्छ तावत्पुनः स्तोकवेलायां समागताय दास्यामि इत्येतदपि न प्रतिशृणुयाद्, बदेच्चेदानीमेव ददस्वेति, तदेवं पुनरपि वदन्तं साधु' 'परी' गृहस्थो नेताऽपरं भगिन्यादिकमाहूय वदेद् यथाऽऽनयैतद् वस्त्रं येन श्रमणाय दीयते, वयं पुनरात्मार्थं भूतोपमर्देनापरं करिष्याम इति एतत्प्रकारं वस्त्रं पश्चात्कर्मभयान्लामे सति न प्रतिगृह्णीयादिति ॥ तथा स्यात्पर एवं वदेद्, यथा-स्नानादिना सुगन्धिद्रव्येणा घर्षणादिकां क्रियां कृत्वा दास्यामि, तदेतन्निशम्य प्रतिषेधं विदध्यात् अथ प्रतिषिद्धोऽप्येवं कुर्यात्, ततो न प्रतिगृह्णीयादिति ॥ एवमुदकादिना धावनादिसूत्रमपि ॥ स परो वदेद्याचितः सन् यथा कन्दादीनि वस्त्रादपनीय दास्यामीति, अत्रापि पूर्ववन्निषेधादिकश्चर्च इति ॥ किश्च - स्यात्परो याचितः सन् कदाचिद्वस्त्रं 'निसृजेत्' दद्यात् तं च ददमानमेवं ब्रूयाद्, यथा-त्वदीयमेवाहं वस्त्रमन्तोपान्तेन प्रत्युपेक्षिष्ये, नैवाप्रत्युपेक्षितं गृह्णीयाद्, यतः केवली ब्रूयात्कर्मोपादानमेतत् किमिति ?, यतस्तत्र किञ्चित्कुण्डलादिकमाभरणजातं बद्धं भवेत्, सचित्तं वा किंचिद् भवेद्, अतः साधूनां पूर्वोपदिष्टमेतत्प्रतिज्ञादिकं यद्वस्त्रं प्रत्युपेक्ष्य गृह्णीयादिति ॥ किश्च - सेभिक्खू वा २ से जं पुण वत्थं जाणिजा, सअंडं जाव ससंताणं तहप्पगारं वत्थं
.
श्रुत• २ चूलिका० १ वस्त्रै०५
उद्दे शका १
॥ ८१२ ॥
Page #371
--------------------------------------------------------------------------
________________
अफासुयं जाव नो पडिगाहिजा १॥ से भिक्ख वा २ से जं पुण वत्थं जाणिजा, अप्पं जाव संताणगं अनलं अथिरं अधुवं अधारणिज रोइज्जतं न रुच्चइ तह अफासुयं जाव नो परिगाहिज्जा २ ॥ से भिक्ख वा २ से जं पुण वत्थं जाणिज्जा, अप्पंडं जाव संताणगं अलं थिरं धुवं धारणिज्जं रोइज्जंतं रुच्चा, तहप्पगारं वत्थं फासयं जाव पडिगाहिजा ३ ॥ से भिक्खू वा २ नो नवए मे पत्थेत्तिक१ नो बहुदेसिएण सिणाणेण वा जोव पघंसिजा ४ ॥ से भिक्खू वा २ नो नवए में वत्थेत्तिकह नो बहुदेसिएण सीओदगषियडेण वा २ जाव पहोइन्जा ५॥ से भिक्खू वा २ दुभिगंधे मे वस्थित्तिकह नो बहुदेसिएण सिणाणण तहेव बहदेसिएण सीओदगवियडेण वा
उसिणोदगवियडेण वा आलावओ६॥ सू० १४७ ॥ स भिक्षुर्यत्पुनः साण्डादिकं वस्त्रं जानीयात् तन्न प्रतिगृह्णीयादिति ॥ स भिक्षुर्यत्पुनरेवं भूतं वस्त्रं जानीयात, तद्यथाअल्पाण्डं यावदल्पसन्तानकं किन्तु 'अनलम्' अभीष्टकार्यासमर्थ हीनादीत्वात् , तथा 'अस्थिर' जीर्णम् 'अध्रवं स्वल्पकालानुज्ञापनात , तथा 'अधारणीयम्' अप्रशस्तप्रदेशखञ्जनादिकलङ्काङ्कितत्वात् , तथा चोक्तम-चत्तारि
१ चत्वारौ दैविका भागा द्वौ च भागौ च मानुजौ । आसुरौ च द्वौ भागौ मध्ये वस्त्रस्य राक्षसौ ॥ १।। दैविकेषूत्तमो लाभो मानुष्ययोश्च मध्यमः . आसुरयोश्च ग्लानत्वं मरणं जानीहि राक्षसे ॥ २॥
८१३॥
Page #372
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रत..
बीवाचाराजपत्तिः (सीलाका.)
देविया भागा, दो य भागा य माणुसा। आसुरा य दुवे भागा, मज्झे वत्थस्स रक्खसो ॥१॥ देविएसुत्तमो लाभो, माणसेसु अ मजिझमो। आसुरेसु अ गेलनं, मरणं जाण रक्खसे ॥२॥ स्थापना चेयम् ॥1 किश्च-"लक्षणहीणो उवही उवहणई नाणदंसणचरितं" इत्यादि, तदेवंभूतमप्रायोग्य 'रोच्यमानं' प्रशस्य
चूलिका.. मानं दीयमानमपि ग दात्रा न रोचते, साधवे न कन्पत इत्यर्थः ।। एतेषां चानलादीनां चतुर्णां पदाना षोडश भङ्गा
| वस्त्रष०५
उद्देशका १ भवन्ति, तत्राद्याः पश्चदशाशुद्धाः, शुद्धस्त्वेकः षोडशस्तमधिकृत्य सूत्रमाह-स भिक्षुर्यत्पुनरेवंभूतं वस्त्रं चतुष्पदविशुद्धं जानीयात्तच्च लाभे सति गृह्णीयादिति पिण्डार्थः ॥ किञ्च-स मितुः 'नवम्' अभिनवं वस्त्रं मम नास्तीतिकृत्वा ततः 'बहुदेश्येन' ईषद्व हुना 'स्नानादिकेन' सुगन्धिद्रव्येणाघृष्य प्रघृष्य वा नो शोभनत्वमापादयेदिति ॥ तथा स भिक्षुः 'नवम्' अभिनवं वस्त्रं मम नास्तीतिकृत्वा ततस्तस्यैव 'नो' नैव शीतोदकेन बहुदेश्येन धावनादि कुर्यादिति ॥ अपि चस भिक्षुर्यद्यपि मलोपचितत्वाद्दुर्गन्धि वस्त्रं स्यात् तथाऽपि तदपनयनाथ सुगन्धिद्रव्योदकादिना नो धावनादि कुर्याद् गच्छनिर्गतः, तदन्तर्गतस्तु यतनया प्रासुकोदकादिना लोकोपघातसंसक्तिभयात् मलापनयनं कुर्यादपीति ॥ धौतस्य प्रतापनविधिमधिकृत्याह
से भिक्खू वा २ अभिकखिल वत्थं आयावित्तए वा पयावित्तए वा, तहप्पगारं वत्थं
नो अणंतरहियाए पुढवीए जाव संताणए आयाविज वा पयाविज वा ॥ से १ लक्षणहोन उपधिरुपहन्ति ज्ञानदर्शनचारित्राणि ।
Page #373
--------------------------------------------------------------------------
________________
.८१५॥
भिक्ख वा २ अभिकंखिजा वां आयावित्तए वा पयावित्तए वा तहप्पगारंवत्थं धूणसिवा गिहेलगंसि वा उसुयालंसि वा कामजलंसि वा अन्नयरे तहप्पगारे अंतलिक्खजाए दुबड़े दुन्निक्वित्ते अणिकंपे चलाचले नो आयाविज वा नो पयाविज वा २ ॥ से भिक्ख वा २ अभिकग्वेज्जा आयावित्तए वा २ तहप्पगारं वत्थं कुलियंसि वा भित्तंसि वा सिलसि वा लेलसि वा अन्नयरे वा तहप्पगारे अंतलिकखजाएं जाव नो आयाविज वा पयाविज वा३ । से भिक्ख वा २ वत्वं अभिकखेजा आयावित्त ए वा पयावित्तए वातहप्पगारंवत्वं खंसिवा मंचंसि वा मालंसि वा पासायंसि वा हम्मियतलंसि वा अन्नयरे वा तहप्पगारे अंतलिक्खजाए जाव नो आयाविज वा पयाविज वा ४॥ से भिक्ख वा २ तमायाए एगतमवक्कमिज्जा २ अहे झामथंडिल्लसि वा जाव अन्नयरंसि वा तहप्पगारंसि थउिल्लंसि पडिलेहिय २ पमजिय २ तओ संजयामेव वस्थ आयाविज वा पयाविज वा ५॥ एयं खल तस्स जाव सया जइज्जासि त्ति बेमि ॥ सू० १४८ ॥ वत्थेसणस्स
पढमो उद्देसो समत्तो ।। २-१-५-१।। स भिक्षुरव्यवहितायां भूमौ वस्त्रं नातापयेदिति ॥ किञ्च-स भिक्षुर्यद्यभिकाङ्क्षेद्वस्त्रमातापयितु ततः स्थूणादौ चलाचले स्थूणादिवस्त्रपतनभयानातापयेत् , तत्र गिहेलुका-उम्बरः 'उसूयालं' उदूखलं 'कामजलं' स्नानपीठमिति ॥
1८१५॥
Page #374
--------------------------------------------------------------------------
________________
भीआचारावृत्तिः सीलावा.) .८१६ ॥
श्रुतस्कं०२ चूलिका.. वस्त्रै०५ उदेशका २
स भिक्षुभित्तिशिलादौ पतनादिभयावस्त्रं नातापयेदिति ॥ स भिक्षः स्कन्धमञ्चकप्रासादादावन्तरिक्षजाते वस्त्रं पतनादिभयादेव नातापयेदिति ॥ यथा चातापयेत्तथा चाह-स भिक्षुस्तद्वस्त्रमादाय स्थण्डिलादि प्रत्युपेक्ष्य चक्षुषा प्रमृज्य च रजोहरणादिना तत आतापनादिकं कुर्यादिति, एतत्तस्य भिक्षोः सामग्र्यमिति ॥ पञ्चमस्य प्रथमोद्देशकः समाप्तः ॥२-१-५-१॥
॥ अथ पञ्चम-वस्त्रैषणाध्ययने द्वितीय उद्देशकः ॥ उक्तः प्रथमोद्देशकः, साम्प्रतं द्वितीयः समारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्ध:-इहानन्तरोद्देशके वस्त्रग्रहणविधिरभिहितस्तदनन्तरं धरणविधिरभिधीयते, इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्योद्देशकस्यादिसूत्रम्
से भिक्ख वा २ अहेसणिज्जाई वत्थाई जाइजा अहापरिग्गहियाई वत्थाई घारिजा नो धोइज्जा नो रएजा नो धोयरत्ताई वत्थाई धारिजा अपलिउ'चमाणो गामंतरेसु, ओमचेलिए, एयं खलु वत्थधारिस्स सामग्गियं १॥ से भिक्ख वा २ गाहावइकुलं पविसिउकामे सव्वं चीवरमायाए गाहावइकुलं निक्खमिज वा पविसिज वा, एवं बहिय विहारभूमि वा वियारभूमि वा गामाणगामं वा दुइजिजा२, अह पुण एवं जाणिज्जा तिव्वदेसियं वा वासं वासमाणं पेहाए जहा पिंडेसणाए नवरं सव्वं चीवरमायाए ३ ॥ सू० १४९॥
॥
१६॥
Page #375
--------------------------------------------------------------------------
________________
.८१७॥
स मिक्षः 'यथैषणीयानि' अपरिकर्माणि वस्त्राणि याचेत यथोपरिगृहीतानि च धारयेत् , न तत्र किञ्चित्कुर्यादिति । दर्शयति, तद्यथा-नं तद्वस्त्रं गृहीतं सत् प्रक्षालयेत् नापि रञ्जयेत् तथा नापि बाकुशिकतया धौतरक्तानि धारयेत् , तथाभृतानि न गृह्णीयादित्यर्थः, तथाभृताधौतारक्तवस्त्रधारी, च ग्रामान्तरे गच्छन् 'अपलि उंचमाणे'त्ति अगोपयन् सुखेनैव । गच्छेद् , यतोऽसौ-'अवमचेलिक.' असारवस्त्रधारी, इत्येतत्तस्य भिक्षोर्वस्त्रधारिणः 'सामग्र्यं' सम्पूर्णो भिक्षुभावः यदेवंभूतवस्त्र धारणमिति, एतच्च सूत्रं जिनकल्पिको द्देशेन द्रष्टव्यं, वस्त्रधारित्वविशेषणाद् गच्छान्तर्गतेऽपि चाविरुद्ध| मिति । किञ्च-से इत्यादि पिण्डेषणावन्नेयं, नवरै अत्र सर्वमुपधिम् , अत्र तु सर्व चीवरमादायेति विशेषः ॥ इदानीमा प्रातिहारिकोपहतवस्त्रविधिमधिकृत्याह
से एगइओ मुहुत्तगं २ पाडिहारियं वत्थ जाइजा जाव एगाहेण वा दुयाहेण वा तियाहेण वा चउयाहेण वा पंचाहेण वा विप्पर्वसिय ३ उवागच्छिज्जा, नो तह वत्थं अप्पणो गिहिज्जा नो अन्नमन्नस्स दिजा, नो पामिच्चं कुज्जा, नो वत्येण वत्थपरिणाम करिजा, नो परं उवसंकमित्ता एवं वइजा-आउसंतो समणा ! अभिकखसि वयं धारित्तए वा परिहरित्तए वा, थिरं वा संतं नो पलिच्छिदिय २ परिहविजा, तहप्पगारं वत्थं ससंधियं वत्वं तस्स चेव निसिरिजा नो णं साइजिज्जा १। से एगइओ एयप्पगार
M८१७॥ निग्धोसं सुचा-निसम्म जे भयंतारो तहप्पगारणि वस्थाणि ससंधियाणि मुहत्तगं २
Page #376
--------------------------------------------------------------------------
________________
भीआचागावृत्तिः श्रीलावा.) .८१८॥
श्रुतस्कं.. | चूलिका..
वस्त्रै उद्देशकः २
जाव एगाहेण वा ५ विप्पवसिय २ उवागच्छंति, तहप्पगाराणि वत्थाणि नो अप्पणा गिण्हंति नो अन्नमन्नस्स दलयंति तं चेव जाव नो साइज्जंति, बहुवयणेण भाणियवं, से हंता अहमवि मुटुसगं पाडिहारियं वत्थं जाइत्ता जाव एगाहेण वा ५ विप्पवसिय २ उवागच्छिस्सामि, अवियाई एयं ममेव सिया, माइहाणं संफासे नो
एवं करिजा ॥ सू० १५०॥ स कश्चित्साधुरपरं साधु मुहूर्तादिकालोद्देशेन प्रातिहारिक वस्त्रं याचेत, याचित्वा चैकाक्येव ग्रामान्तरादौ गतः, तत्र चासावेकाहं यावत्पञ्चाहं वोषित्वाऽऽगतः, तस्य काकित्वात्स्वपतो वस्त्रमुपहतं, तच्च तथाविधं वस्त्रं तस्य समर्पयतोऽपि वस्त्रस्वामी न गृह्णीयात, नापि गृहीत्वाऽन्यस्मै दद्यात, नाप्युच्छिन्नं दद्याद्, यथा--गृहाणेदं, त्वं पुनः कतिमिरहोभिर्ममान्यद्दद्याः, नापि तदैव वस्त्रेण परिवर्तयेत् , न चापरं साधुमुपसंक्रम्यैतद्वदेत् , तद्यथा-आयुष्मन् ! श्रमण ! 'अभिकाक्षसि' इच्छस्येवंभृतं वस्त्रं धारयितु परिभोक्तु चेति , यदि पुनरेकाकी कश्चिद्गच्छेत्तस्य तदुपहतं वस्त्रं समपयेत् न स्थिरं-दृढं सत् 'परिच्छिद्य परिच्छिद्य' खण्डशः २ कृत्वा 'परिष्ठापयेत्' त्यजेत् , तथाप्रकारं वस्त्रं 'ससंधिय'न्ति उपहतं स्वतो वस्त्रस्वामी 'नास्वादयेत्' न परिभुञ्जीत, अपि तु तस्यैवोपहन्तुः समर्पयेत् , अन्यस्य वैकाकिनो गन्तुः समर्पयेदिति । एवं बहुवचनेनापि नेयमिति ॥ किच-स' भितुः 'एक:' कश्चिदेवं साध्वाचारमवगम्य ततोऽहमपि प्रातिहारिक वस्त्रं मुहूर्त्तादिकालमुद्दिश्य याचित्वाऽन्यत्रैकाहादिना वासेनोपहनिष्यामि, ततस्तद्वस्त्रं
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
१८॥
Page #377
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ ८१९॥
ममैव भविष्यतीत्येवं मातृस्थानं संस्पृशेत , न चैतत्कुर्यादिति ॥ तथा
से भिक्खू वा २ नो वण्णमंताई वन्थाई विवण्णाई' करिना विवण्णाईन वण्णमंताइ करिजा, अन्नं वा वत्वं लभिस्सामित्तिक नो अन्नमन्नस्स दिवा, नो पामिच्च कुज्जा, नो वत्येण वत्थपरिणामं कुजा, नो परं उवसंकमित्तु एवं वदेजा-आउसंतो समणा ! समभिकखसि मे वत्वं धारित्तए वा परिहरित्तए वा, थिरं वा संतं नो पलिच्छिदिय २ परिहविजा, जहा मेयं वत्थं पावगं परो माइ, परं च णं अदत्त हारी पडिपहे पेहाए तस्स वत्थस्स नियाणाय नो तेसिं भीओ उम्मग्गेणं गच्छिज्जा, जाव अप्पुस्सुए, तओ संजयामेव गामाणगामं दुइलिजा १॥ से भिक्ख वा २ गामाणगामं दूइज्जमाणे अंतरा से विहं सिया, से जं पुण विहं जाणिज्जा इमंसि खल विहंसि बहवे आमोसगा वत्थपडियाए संपिंडिया गच्छेजा, णो तेसिं भोओ उम्मग्गेणं गच्छेजा जाव गोमाणगाम दूइज्जेजा २॥ से भिक्ख वा २ गामाणगामं दूइजमाणे अंतरा से आमोसगा पडियागच्छेना, ते णं आमोसगा एवं वदेजा-आउसंतो समणा ! आहरे यं वत्थं देहि णिक्खिवाहि जहा रियाए णाणतं वत्थपडियाए ३। एयं खल जाव सया जइज्जासि त्तिवेमि ४ ॥ सू० १५१ ॥ वत्थेसणा समत्ता ॥२-१-५-२॥
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
Page #378
--------------------------------------------------------------------------
________________
भीआचाराङ्गवृत्तिः (शीलाङ्का.)
॥ ८२० ॥
स भिक्षुर्वर्णयन्ति वस्त्राणि चौरादिमयानो विगतवर्णानि कुर्यात्, उत्सर्गतस्तादृशानि न ग्राह्याण्येव, गृहीतानां च परिकर्म न विधेयमिति तात्पर्यार्थः, तथा विवर्णानि न शोभनवर्णानि कुर्यादित्यादि सुगममिति ॥ नवरं 'विहं'ति अटवीप्रायः पन्थाः । तथा तस्य भिक्षोः पथि यदि 'आमोषकाः' चौरा वस्त्रग्रहणप्रतिज्ञया समागच्छेयुरित्यादि पूर्वोक्तं यावदेतत्तस्य भिझोः सामग्र्यमिति । पञ्चममध्ययनं समाप्तम् ॥ २-१-५॥
॥ अथ षष्ठ पापणाध्ययने प्रथम उद्देदेशकः ॥
पञ्चमाध्ययनानन्तरं षष्ठमारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः - इह प्रथमेऽध्ययने पिण्डविधिरुक्तः, स च वसतावागमोक्तेन विधिना भोक्तव्य इति द्वितीये वसतिविधिरभिहितः, तदन्वेषणार्थं च तृतीये ईर्यासमितिः प्रतिपादिता, पिण्डाद्यर्थं प्रवृत्तेन कथं भाषितव्यमिति चतुर्थे भाषासमितिरुक्ता, स च पटलकै विना न ग्राह्य इति तदर्थ पञ्चमे वस्त्रपणां प्रतिपादिता, तदधुना पात्रेणापि विना पिण्डो न ग्राह्य तस्यनेन सम्बन्धेन पात्रैषणाऽध्ययन मायातम् अस्य च चत्वार्यनुयोगद्वाराणि भवन्ति तत्र नामनिष्पन्ने निक्षेपे पात्रेणाऽध्ययनम् अस्य च निक्षेपोऽर्थाधिकारश्चानन्तराध्ययन एव लाघवार्थं नियुक्तिकृताऽभिहितः, साम्प्रतं सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयं तच्चेम्
श्रत
चूलिका १ पात्रैष० ६
उद्दे शका १
॥ ८२० ॥
Page #379
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥८२१ ॥
से भिक्ख वा २ अभिकंखिजा पायं एसित्तए, से जं पुण पादं जाणिना, तंजहाअलाउयपायं वा दारुपायं वा मट्टियापायं वा, तहप्पगारं पायं जे निग्गंथे तरुणे जाव थिरसंघयणे से एगं पायं धारिजा तो विइयं । ॥ से भिक्खू वा २ परं अद्धजोयणमेराए पायपडियाए नो अभिसंधारिजा गमणाए २॥ से भिक्खू वा २ से जं पुण पायं धारिजा अस्सि पडियाए एमं साहम्मियं समुद्दिस्स पाणाई' ४ जहा पिंडेसणाए चत्तारि आलावगा, पंचमे षहवे समणमाहण पगणिय २ नहेव ३ ॥ से भिक्खू वा २ अस्संजए भिक्खुपउियाए षहवे समणमाहण वत्थेसणाऽऽलावओ४॥ से भिक्खू वा २ से जाइपुण पायाइ जाणिज्जा विरूवरूवाई महधणमुल्लाई', तंजहा-अयपायाणि वा तउपायाणि वा तंबपायाणि वा सीसगपायाणि वा हिरण्मपायाणि वा सुवपणपायाणि वा रीरिअपायाणि वा हारपुडपायाणि वा मणिकायकंसपायाणि वा संख. सिंगपायाणि वा दंतपायाणि वा चेलपायाणि वा सेलपायाणि वा चम्मपायाणि वा अन्नयराई वा तहप्पगाराई विरूवख्वाई' महडणमुल्लाई पायाई' अफासुयाई जाय नो पडिगाहिज्जा ५॥ से भिक्खू वा २ से जाइपुण पायाई विरूवरूवाई महणबंधणाई, तंजहा-अयबंधणाणि वा जाव चम्मबंधणाणि वा, अन्नयराई तहप्पगाराई
Page #380
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री आचा यज्ञवृति:
(छीलाङ्का.)
॥ ८२२ ॥
**********************************
महडणबंधणाई' अफासुयाई जाव नो पडिगाहिजा ६ ॥ इच्चेयाइ आयतणाई' वाइकम्म अह भिक्खू जाणिजा चउहिं पडिमाहिं पायं एसित्तए तत्थ खलु पढमा पश्चिमा-से भिक्खू वा २ उद्दिसिय २ पायं जाएज्जा, तंज़हा - अलाउयपायं वा ३ तहप्पगारं पायं सयं वा णं जाइज्जा जाव पडिगाहिज्जा, पढमा पडिमा १ । अहावरा दोचा पडिमा - से भिक्खू वा २ पेहाए पायं जाइज्जा, तंजहा - गाहावड वा जाव कम्मकरीं वा से पुव्वामेव आलोइजा, आउसोत्ति वा भणित्ति वा । दाहिसि मे इत्तो अन्नयरं पादं, तंजहा - लाउयपायं वा ३, तहप्पगारं पायं सयं वा जाव परिगाहिज्जा दुच्चा पडिमा २ । अहावरा तथा पडिमा से भिक्खु वा २ से जं पुण पाय जाणिजा संगइयं वा वेजइयंतियं वा तहप्पगारं पायं सयं वा जाव पडिगाहिजा, तचा पडिमा ३ | अहावरा चउत्था पडिमा - से भिक्खू वा २ उज्झियधम्मियं जाएजा जावन्ने बहवे समणा जाव नावकस्वंति तहप्पगारं पायं सयं वा जाएबा जाव पडिगा. हिजा, चरथा पडिमा ४ । इच्चेइयाणं चउण्हं परिमाणं अन्नंपरं पडिमं जहा पिंडेसणाए ७ ॥ से एयाए एसणाए एसमाणं पासित्ता परो वइज्जा, आउसंतो समणा ! एज्जासि तुमंमासेण वा जहा वत्थेसणाए, से णं परो नेता वदेजा - आउसोत्ति वा भणित्ति वा !
म
****
श्रुतस्कं० २ चूलिका १ पात्रेष०६ उद्देशकः १
॥ २२ ॥
Page #381
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥८२३॥
आहारेयं पायं तिल्लेण वा घयेण वा नवनीएण वा वसाए वा अभंगित्ता वा तहेव सिणाणावि तहेव सीओदगाई कंदाइ तहेव ८॥ से णं परो नेत्ता वदेजा-आउसंतो समणा! मुहत्तगं २ जाव अच्छाहि ताव अम्हे असणं वा उपकरेंसुवा उवक्खसुवा, तो ते षयं आउसोत्ति वा भइणित्ति वा! सपाणं सभोयणं पडिग्गहं दाहामो, तुच्छए पडिग्गहे दिन्ने समणस्स नो सुट्ट साहु भवइ, से पुवामेव आलोइजा--आउसोत्ति वा भइणित्ति वा! नो खलु मे कप्पड आहाकम्मिए असणे वा ४ भुत्तए वा पायए वा, मा उवकरेहि मा उवक्खडेहि, अभिकखसि मे दाउ' एमेव दलयाहि से सेव वयतस्स परो असणं वा ४ उवकरिता उवक्खडित्ता सपाणं सभोयणं पडिग्गहगं दलहज्जा तहप्पगारं पडिग्गहग अफासुर्य जाव नो पडिगाहिज्जा ९॥ सिया से परो उवणित्ता पडिग्गहगं निसिरिजा, से पुत्वामेव आलोइज्जा-आउसोत्ति वा भइणित्ति वा ! तुम चेव णं संतिय पडिग्गहगं अंतोअंतणं पडिलेहिस्सामि १०॥ केवली बूया-आयाणमेयं, अंतो पडि. ग्गहगंसि पाणाणि वाषीयाणि वा हरियाणि वा अह भिक्खणं पुव्वोवइहा एस पतिण्णा जं पुव्वामेव पडिग्गहगं अंतोअंतेणं पडिलेहिजा-सअंडाइं सव्वे आलावगा भाणि. यव्वा जहा वत्थेसणाए, नाणत्तं तिल्लेण वा घयेण वा नवणीएण वा वसाए वा
॥८२३ ॥
Page #382
--------------------------------------------------------------------------
________________
पात्रेष०६
सिणाणादि जाव अन्नयरंसि वा तहप्पगारंसि थंडिलसि पडिहिय २ पमलिय २ श्रीपाचा
श्रुतस्क०२ राजवृत्तिः तओ संजयामेव आमजिजा ११। एवं खल जाव सया जएजासि तिमि
चूलिका शीलाका.)
॥ सू० १५२ ॥२-१-६-१॥ | स भिक्षुरभिकाक्षेत पात्रमन्वेष्टु, तत्पुनरेवं जानीयात् , तद्यथा-अलाबुकादिकं तत्र च यः स्थिरसंहननायुपेतः स
उद्देश्यका १ ८२४॥ 1 एकमेव पात्रं विभृयात् न द्वितीयं, स च जिनकल्पिकादिः, इतरस्तु मात्रक्सद्वितीयं पात्रं धारयेत् , तत्र सङ्घाटके ।
सत्येकस्मिन् भक्तं द्वितीये पात्रे पानक, मात्र त्याचार्यादिप्रायोग्यकृतेऽशुद्धस्य वेति ।। 'से भिक्ख' इत्यादीनि 8 सूत्राणि सुगमानि यावन्महाघमृन्यानि पात्राणि लामे सत्यप्रासुकानि न प्रतिगृह्णीयादिति, नवरं 'हारपुडपाय'त्ति लोहपात्रमिति ।। एवमयोबन्धनादिसूत्रमपि सुगम । तथा प्रतिमाचतुष्टयसूत्राण्यपि वस्औषणावन्नेयानीति, नवरं तृतीयप्रतिमायां 'संगइयंति दातुः स्वाङ्गिक-परिभुक्तप्राय 'वेजयंनियंति द्विचनेषु पागेषु पर्यायेणोपभुज्यमानं पात्रं याचेत ।। 'एतया' अनन्तरोक्तया पात्रैषणया पात्रमन्विषन्तं साधु प्रेक्ष्य परो ब्र याद् भगिन्यादिकं यथा-तैलादिनाऽभ्यज्य साधवे ददस्वेत्यादि सुगममिति ॥ तथा-स नेता तं साधुमेवं ब्र याद् , यथा-रिक्त पात्रं दातुन वर्तत इति मुहूर्तक | तिष्ठ त्वं यावदशमादिकं कृत्वा पात्रकं भृत्वा ददामीत्येवं कुर्वन्तं निषेधयेत , निषिद्धोऽपि यदि कुर्यात्ततः पात्रं न गृहीयादिति ॥ यथा दीयमानं गृह्णीयात्तथाऽऽह-तेन दात्रा दीयमानं पात्रमन्तोपान्तेन प्रत्युपेक्षेवेत्यादि वस्त्रवन्नेयमिति,
॥२४ । एतत्तस्य भिक्षोः सामग्र्यमिति ।। षष्ठस्याध्ययनस्य प्रथमोद्देशकः परिसमाप्तः ॥२-१-६-१॥
Page #383
--------------------------------------------------------------------------
________________
.८२५॥
॥ अथ षष्ठपात्रैषणाध्ययने द्वितीय उद्देशकः ।। उद्देशकाभिसम्बन्धोऽयम्-दहानन्तरात्रे पात्रनिरीक्षणमभिहितमिहापि तच्छेषमभिधीयते इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्थास्योद्देशकस्येदमादिसूत्रम्
से भिक्खु वा २ गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए पविढे समाणे पुवामेव पेहाए पडि. ग्गहगं अवहट्ट पाणे पमजिय रयं तओ संजयामेव गाहापाइकुल पिंडवायपडियाए निक्खमिज वा पविसिज्ज वा, केवली बूया आयाणमेयं ! अंतो पडिग्गहगंसि पाणे वा बीए वा हरिए वा परियाव जिजा। अह भिक्खूणं पुखोवइहा एसपतिण्णा जं पुवामेव पेहाए पडिग्गहं अवहद्द पाणे पमल्जिय रयं तओ संजयामेव गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए निक्खमिव वा २, २॥ सू० १५३ ॥ स भिक्षुगृहपतिकुलं पिण्डपातप्रतिज्ञया प्रविशन् पूर्वमेव भृशं प्रत्युपेक्ष्य पतद्ग्रह, तत्र च यदि प्राणिनः पश्येत्तत|स्तान 'आहृत्य' निष्कृष्य त्यक्त्वेत्यर्थः, तथा प्रमृज्य च रजस्ततः संयत एव गृहपतिकुलं प्रविशेद्वा निष्कामेद्वा इत्येषोऽपि पात्रविधिरेव, यतोऽत्रापि पूर्व पात्रं सम्यक् प्रत्युपेक्ष्य प्रमृज्य च पिण्डो ग्राह्य इति पात्रगतैव चिन्तेति, किमिति पात्र प्रत्युपेक्ष्य पिण्डो ग्राह्य इति ?, अप्रत्युपेक्षिते तु कर्मबन्धो भवतीत्याह-केवली व याद् यथा कर्मोपादानमेतत् , यथा
॥८२५.
Page #384
--------------------------------------------------------------------------
________________
भीआचासावृत्तिः शीलाका.)
चूलिका पात्रेष०६ उशका २
॥८२६ ॥
च कर्मोपादानं तथा दर्शयति–'अन्तः' मध्ये पतद्ग्रहकस्व प्राणिनो-दीन्द्रियादयः, तथा बीजानि रजो वा 'पर्यापद्येरन्' भवेयुः, तथाभूते च पात्रे पिण्डं गृह्णतः कर्मोपादानं भवतीत्यर्थः, अथ साधूनां पूर्वोपदिष्टमेतत्प्रतिज्ञादिकं यत्पूर्वमेव पात्रप्रत्युपेक्षणं कृत्वा तद्गतप्राणिनो रजश्चापनीय गृहपतिकुले प्रवेशो निष्क्रमणं वा कार्यमिति ।। किञ्च
से भिक्खू वा २ जाव समाणे सिया से परो आहह अंतो पडिग्गहगंसि सीओदगं परिभाइत्तानीहह दलइज्जा, तहप्पगारंपडिग्गहगं परहत्थं सि वा परपायंसि वा अफासुयं जाव नो पडिगाहिजा. से य आहच्च पडिग्गहिए सिया खिप्पामेव उदगंसि साहरिजा, से पडिग्गहमायाए पाणं परिविजा, ससिणिडाए वा भूमीए नियमिजा १॥ से भिक्खू वा २ उदउल्लं वा ससिणिडं वा पडिग्गहं नो आमजिज वा जाव पयाविज्ज वा, अह पुणेवं जाणेजा विगओदए मे पडिग्गहए छिन्नसिणेहे तहप्पगारं पडिग्गहं तओ संजयामेव आमन्जिज वा जाव पयाविज वा २ ॥ से भिक्खू वा २ गाहावईकुलं पविसिउकामे पडिग्गहमायाए गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए पविसिज वा निक्खमिज वा, एवं बहिया वियारभूमी विहारभूमी वा गामाणगामं दूहजिज्जा, तिव्वदेसीयाए जहा बियाए वत्थेस्णाए नवरं इत्य पडिग्गहे ३ । एयं खलु तस्स भिक्खुस्स भिक्खणीए वा सामग्गियं जं सव्वहिं सहिए सया जएजासि तिबेमि ४॥ सू०१५४॥
܀܀܀܀܀܀܀܀
॥ ८२६ ।
Page #385
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ ८२७ ॥
܀܀܀
पाएसणा समत्ता ॥ २-१-६-२ ॥
समिक्षुर्गृहपतिकुलं पिण्डपातप्रतिज्ञया प्रविष्टः सन् पानकं याचेत, तस्य च स्यात् - कदाचित्स परो गृहस्थोऽना भोगेन प्रत्यनीकतया वा तथाऽऽनुकम्पया विमर्षतया वा गृहान्तः - मध्य एवापरस्मिन् पतन्दहे स्वकीये भाजने आहत्य शीतोदकं 'परिभाज्य' विभागीकृत्य 'णीहद्दु'ति निःसार्य दद्यात् स - साधुस्तथाप्रकारं शीतोदकं परहस्तगतं परपात्रगतं वाऽप्रासुकमिति मत्त्रा न प्रतिगृह्णीयात्, तद्यद्यकामेन विमनस्केन वा प्रतिगृहीतं स्यात् ततः चिप्रमेव तस्यैव दातुरुदकभाजने प्रक्षिपेत्, अनिच्छतः कूपादौ समानजातीयोदके प्रतिष्ठापन विधिना प्रतिष्ठापनं कुर्यात्, तदभावेऽन्यत्र वा छायागर्त्तादौ प्रक्षिपेत्, सति चान्यस्मिन् भाजने तत् सभाजनमेव निरुपरोधिनि स्थाने मुञ्चेदिति । तथा स मिचुरुदकार्द्रादेः पतग्रहस्या (स्य प्र) मार्जनादि न कुर्यादीषच्छुकस्य तु कुर्यादिती पिण्डार्थः ॥ किञ्च स भिक्षुः क्वचिद् गृहपतिकुलादौ गच्छन् सपतद्रह एव गच्छेदित्यादि सुगमं यावदेतत्तस्य भिक्षोः सामग्र्यमिति ॥ षष्ठमध्ययनं समाप्तम् ॥ २-१-६ ॥
wedhiigeser
॥ अथ सप्तमे अवग्रहप्रतिमाध्ययने प्रथम उद्द ेशकः ॥
उक्तं पठमध्ययनमधुना सप्तममारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः - पिण्डशय्या वस्त्रपात्रादयोऽवग्रहमाश्रित्य भवन्तीत्यतोऽसावेव कतिविधो भवतीत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्याध्ययनस्य चत्वार्यनुयोगद्वाराणि भवन्ति, तत्रोपक्रमान्तर्गतोऽर्थाधिकारोऽयं यथा साधुना विशुद्धोऽवग्रहो ग्राह्य इति नामनिष्पन्ने तु निक्षेपेऽवग्रहप्रतिमेति नाम, तत्रावग्रहस्य
॥ ८२७ ॥
Page #386
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीआचाराङ्गवृत्तिः शीलाङ्का.)
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
श्रुतः २ चूलिका र अवग्र०७ उद्देशकः १.
॥८
॥
नामस्थापने तुण्णत्वादनादृत्य द्रव्यादिचतुर्विधं निक्षेपं दयितुकामो नियुक्तिकार आह
दव्वे खित्ते काले भावेऽवि य उग्गहो चउडा उ ।
देविंद रायउग्गह२ गिहवइ ३ सागरिय ४ साहम्मी ॥३१६॥ द्रव्यावग्रहः क्षेत्रावग्रहः कालावग्रहो भावावग्रहश्चेत्येवं चतुर्विधोऽवग्रहः, यदिवा सामान्येन पञ्चविधोऽवग्रहः, तद्यथा-देवेन्द्रस्य लोकमध्यवर्तिरुचकदक्षिणार्द्धमवग्रहः १, राज्ञश्चक्रवर्त्यादेर्भरतादिक्षेत्रं २, गृहपतेाममहत्तरादेामपाटकादिकमवग्रहः ३, तथा सागारिकस्य-शय्यातरस्य धवशालादिकं ४, साधर्मिका:-साधवो ये मासकल्पेन तत्रावस्थितास्तेषां वसत्यादिश्वग्रहः सपादं योजनमिति ५, तेदेवं पश्चविधोऽवग्रहः, वसत्यादिपरिग्रहं च कुर्वता सर्वेऽप्ये ते | यथाऽवसरमनुज्ञाप्या इति ॥ साम्प्रतं द्रव्याघवग्रहप्रतिपादनायाहदव्वुग्गहोउ तिविहो सचित्ताचित्तमीसओ चेव । खित्तग्गहोऽवि तिविहो दुविहो कालग्गहो होइ॥३१७॥
द्रव्यावग्रहस्त्रिविधः, शिष्यादेः सचित्तो रजोहरणादेरचित्तः शिष्यरजोहग्णादेमिश्रः, क्षेत्रावग्रहोऽपि सचित्तादित्रिविध एव, यदिवा ग्रामनगरारण्यभेदादिति, कालावग्रहस्तु ऋतुबद्धवर्षाकालभेदाद्विधेति ॥ भावावग्रहप्रतिपादनार्थमाहमइउग्गहो य गहणुग्गलो य भावुग्गहो दुहा होइ । इंदिय नोइंदिय अत्यवंजणे उग्गहो दसहा ॥३१८॥
भावावग्रहो द्वेधा, तद्यथा-मत्यवग्रहो ग्रहणावग्रहश्च, तत्र मत्यवग्रहो द्विधा-अर्थावग्रहो व्यञ्जनावग्रहश्च, तत्रार्थावग्रह इन्द्रियनोइन्द्रियमेदात् पोढा, व्यञ्जनावग्रहस्तु चतुरिन्द्रियमनोवश्चतुर्धा, स एष सर्वोऽपि मतिभावावग्रहो दशधेति ॥
܀܀܀
॥८२८॥
܀܀܀܀܀܀܀
Page #387
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ ८२९ ॥
ग्रहणाग्रहार्थमाह
गहणुग्गहम्मि अपरिग्गहस्स समणस्स गहणपरिणामो कह पाडिहारियाऽ पाडिहारिए होइ १ जइयव्वं ॥ ३१९ ॥ अपरिग्रहस्य साघोर्यदा पिण्डवसतिवस्त्रपात्र ग्रहण परिणामो भवति तदा स ग्रहणभावावग्रहो भवति, तस्मिंश्च सति 'कथं ' केन प्रकारेण मम ' व सत्यादिकं प्रातिहारिकमप्रातिहारिकं वा भवेदित्येवं यतितव्यमिति, प्रागुक्तश्च देवेन्द्राद्यवग्रहः पञ्चविधोऽप्यस्मिन् ग्रहणावग्रहे द्रष्टव्य इति ॥ गतो नामनिष्पन्नो निक्षेपः, साम्प्रतं सूत्रानुगमे सूत्रमुच्चारणीयं तच्चेदम्समणे भविस्सामि अणगारे अकिंचणे अपुत्ते अपसू परवन्तभोई पावं कम्मं नो करिस्सामिन्ति समुट्ठाए सव्वं भंते! अदिन्नादाणं पञ्चकखामि, से अणुपविसित्ता गामं वा जाव रायहाणि वा नेव सयं अदिन्नं गिहिजा नवऽन्नेहिं अदिन्नं गिण्हाविजा अदिनं गिण्हतेच अन्ने न समणुजाणिज्जा १ । जेहिवि सद्धिं संपव्वइए तेसिपि जाइ छत्तगं वा जाव चम्मठेपणगं वा तेसिं पुव्वामेव उग्गहं अणणुन्नविय अपविलेहिय २ अपमजिय २ नो उग्गहिजा वा परिगिव्हिज्ज वा तेसिं पुवामेव उग्गहं जाइजा अन्नविय पडिलेहिय पमज्जिय तभो संजयामेव उग्गिहिज्ज वा परिगिव्हिज वा २ ॥ सू० १५५ ॥
श्राम्यतीति भ्रमणः - तपस्वी यतोऽहन्त एवंभूतो भविष्यामीति दर्शयति – 'अनगारः' अगा - वृक्षास्तैर्निष्पनमगारं
܀܀܀܀
***
॥ ८३९ ॥
Page #388
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रुतस्कं०२ चूलिका०१ अवग्र०७ उद्देशकः १
तन्न विद्यत इत्यनगारः, त्यक्तगृहपाश इत्यर्थः, तथा 'अकिञ्चन: न विद्यते किमप्यस्येत्यकिश्चनो, निष्परिग्रह इत्यर्थः भीआचा
तथा 'अपुत्रः स्वजमबन्धुरहितो, निर्मम इत्यर्थः, एवम् 'अपश' द्विपदचतुष्पदादिरहितः, यत एवमतः परदत्तभोजी राजवृत्तिः
सन् पापं कर्म करिष्यामीत्येवं समुत्थायैतत्प्रतिज्ञो भवामीति दर्शयति-यथा सर्व भदन्त ! अदत्तादानं प्रत्याख्यामि, दन्तशीलाका.)
शोधनमात्रमपि परकीयमदत्तं गृह्णामीत्यर्थः, तदनेन विशेषणकदम्बकेनापरेषां शाक्यसरजस्कादीनां सम्यक्रमणत्वं .८३०॥ | निराकृतं भवति, स चैवैभृतोऽकिश्चनः श्रमणोऽनुप्रविश्य ग्रामं वा यावद्राजधानी वा नैव स्वयमदत्तं गृह्णीयात् नेवा
परेण ग्राहयेत नाप्यपरं गृह्णन्तं समनुजानीयात, यैर्वा साधुभिः सह सम्यक् प्रवजितस्तिष्ठति वा तेषामपि सम्बन्ध्युप. करणमननुज्ञाप्य न गृह्णीयादिति दर्शयति, तद्यथा-छत्रकमिति 'छद अपवारणे' छादयतीति छत्रं-वर्षाकन्पादि, यदिवा
कारणिका क्वचित्कोङ्कणदेशादावतिवृष्टिसम्भवाच्छनकमपि गृह्णीयाद् यावच्चमच्छेदनकमप्यननुज्ञाप्याप्रत्युपेक्ष्य च नाव8 गृह्णीयात् सकृत् प्रगृह्णीयादनेकशः । तेषां च सम्बन्धि यथा गृह्णीयात्तथा दर्शयति-पूर्वमेव ताननुज्ञाप्य प्रत्युपेक्ष्य चक्षुषा प्रमृज्य रजोहरणादिना सकृदनेकशो वा गृह्णीयादिति ॥ किश्च
से भिक्खू वा २ आगंतारेसु वा ४ अणुवीइ उग्गहं जाइजा, जे तत्थ ईसरे जे तत्थ समहिए ते उग्गहं अणुन्नविजा-कामं खलु आउसो! अहालंदं अहापरित्रायं
वसामो जाव आउसो! जाव आउसंतस्स उग्गहे जाव साहम्मिया एइताव उग्गहं. .. उग्गिहिस्सामो, तेण परं विहरिस्सामो १॥ से कि पुण तत्थोग्गहंसि एवोग्गहियंसि
॥
३०॥
Page #389
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥८३१॥
जे तत्थ साहम्मिया संभोइया समन्ना उवागच्छिजा जे तेण सयमेसित्तए असणे वा ४ तेण ते साहम्मिया ३ उवनिमंतिजा, नो चेव णं परवडियोए ओगिझिय २
उवनिमंतिजा २ ॥ सू० १५६ ॥ स भिमरागसागारादौ प्रविश्यानुविचिन्त्य च-पर्यालोच्य यतिविहारयोग्य क्षेत्रं ततोऽवग्रहं बसत्यादिकं याचेत. यश्च याच्यस्तं दर्शयति-यस्तत्र 'ईश्वर' गृहस्वामी तथा यस्तत्र 'समधिष्ठाता' गृहपतिना निक्षिप्तभरः कृतस्तानवग्रहक्षेत्रावग्रहम् 'अनुज्ञापयेत' यावेत, कथमिति दर्शयति-'काममिति तवेच्छया 'खल' इति वाक्यालङ्कारे आयुष्मन् । गृहपते ! 'अहालंद मिति यावन्मात्रं कालं भवाननुजानीते 'अहापरिन्नाय'ति यावन्मानं क्षेत्रमनुजानीषे तावन्मानं कालं तावन्मानं च क्षेत्रमाश्रित्य वयं वसाम इति यावत् , इहायुष्मन् ! यावन्मानं कालमिहायुष्मतोऽवग्रहो यावन्तश्च साधर्मिका:-साधवः समागमिष्यन्ति एतावन्मात्रमवग्रहिण्यामस्तत ऊर्ध्व विहरिष्याम इति ॥ अवगृहीते चावग्रहे सत्युत्तरकालविधिमाह-तदेवमवगृहीतेऽवग्रहे स साधुः किं पुनः कुर्यादिति दर्शयति-येत्र केचन प्राघूर्णकाः 'साधर्मिकाः' साधवः 'साम्भोगिकाः' एकसामाचारीप्रविष्टाः 'समनोज्ञाः' उद्युक्तविहारिणः उपागच्छेयुः' अतिथयो भवेयुः, ते चैवंभूता ये तेनैव साधुना परलोकार्थिना स्वयमेषितव्याः, ते च स्वयमेवागता भवेयुः, तांश्चाशनादिना स्वयमाहृतेन स साधुरुपनिमन्त्रयेद् , यथा-गृहीत यूयमेतन्मयाऽऽनीतमशनादिक क्रियतां ममानुग्रह इत्येवमुपनिमन्त्रयेत, न चैव 'परवखियाए'ति परानीतं यदशनादि तभृशम् 'अवगृह्य' आश्रित्य नोपनिमन्त्रयेत् , किं तर्हि , स्वयमेवानीतेन
.
U
Page #390
--------------------------------------------------------------------------
________________
भीत्राचारावृत्तिः सीलावा.) .८३२॥
श्रुतम्क.. चूलिका.? अवग्र. ७ उदेशका १
। ओमिजिवात करा
निमन्त्रयेदिति ॥ तथा
से आगंतारेसु वा ४ जाव से किं पुण तत्थोग्गहंसि एवोग्गहियंसि जे तत्थ साहम्मिआ अन्नसंभोहमा समणन्ना उवागच्छिन्ना जे तेण सयमेसित्तए पोढे वा फलए वा सिज्जा वा संथारए वा तेण ते साहम्मिए अन्नसंभोइए समणुन्ने उवनिमंतिजा नो चेवण परवडियाए ओगिज्झिय उवनिमंतिजा ॥ से आगंतारेसु वा ४ जाव से कि पुण तत्थुग्गहसि एवोग्गहियंसि जे तत्थ गाहावईण वा गाहावहपुत्ताण वा सूई वा पिप्पलए वा कण्णसोहणए वा नहच्छेयणए वा तं अण्पणा एगस्स अट्ठाए पाडिहारियं जाइत्ता नो अन्नमन्नम्स दिज वा अणुपइज वा, सयंकरणिज्जतिकडु, से तमायाए तत्थ गतिजा २ पुव्वामेव उत्ताणए हत्थे कटु भूमाए वा ठवित्ता इम खल २ त्ति
आलोइज्जा, नो चेव णं सयं पाणिणा परपाणिंसि पञ्चप्पिणिज्जा २॥ सू० १५७॥ पूर्वसूत्रवत्सर्व, नवरमसाम्भोगिकान् पीठफलादिनोपनिमन्त्रयेद् , यतस्तेषां तदेव पीठकादिसंभोग्यं नाशनादीनि ॥ किश्च-तस्मिन्नवग्रहे गृहीते यस्तत्र गृहपत्यादिको भवेत् तस्य सम्बन्धि सूच्यादिकं यदि कार्याथमेकमात्मानमुद्दिश्य गृहीयात् तदपरेषां साधूनां न समर्पयेत् , कृतकार्यश्च प्रतीपं गृहस्थस्यैवानेन सूत्रोक्तेन विधिना समर्पयेदिति ॥ अपि च
से भिक्ख वा २ से जं पुण उग्गहं जाणिज्जा अणंतरहियाए पुढवीए जाव संताणए
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
३२॥
Page #391
--------------------------------------------------------------------------
________________
तहप्पगारं उग्गहं नो उगिहिज वा पगिहिज्ज वा ॥ से भिक्खू वा २ से जं पुण उग्गहं जाणिजा थूणंसिवा ४ तहप्पगारे अंतलिक्खजाए दुब्बडेजाव नो उगिहिज वा २.२॥ से भिक्ख वा २ से जं पुण उग्गहं जाणिज्जा कुलियंसिवा ४ जाव नो उगिहिज्ज वा २,३॥ से भिक्खू वा २ से जं पुण उग्गहं जाणिज्जा खधंसि वा ४ अन्नयरे वा नहप्पगारे जाव नो उग्गहं उगिहिज्ज वा २, ४ ॥ से भिक्ख वा २ से जं पुण उग्गहं जाणिज्जा ससागारियं सागणियं सउदयं सइत्थि सखुइपसुभत्तपाणं नो पन्नस्स निक्खमणपवेसे जाव धम्माणुओगचिंताए. सेवं नच्चा तहप्पगारे उवस्सए ससागारिए जाव सखुडगसुभत्तपाणे नो उवग्गह उगिहिज्ज वा २,५॥ से भिक्ख वा २ से जं पुण उग्गहं जाणिज्जा गाहावइकुलस्स मज्झमझेणं गंतु पंथे पडिबड वा नो पन्नस्स जाव सेव नच्चा तहप्पगारे उवस्सए नो उग्गहं उगिहिज्ज वा २, ६ ॥ से भिक्खू वा २ से जं पुण उन्गहं जाणिज्जा इह खल गाहावई वा जाव कम्मकरीओ वा अन्नमन्नं अक्कोसंति वा तहेव तिल्लादि सिणाणादि सीओदगवियडादि निगिणाइ वा जहा सिजाए आलावगा, नवरं उग्गहवत्तव्यया ७॥ से भिक्ख वा २ से जं पुण उग्गहं जाणिजा आइन्नसंलिक्खे नो पन्नस्स जाव चिंताए तहप्पगारे उवस्सए नो उग्गहं उगिहिज्ज वा २, ८ ॥ एवं
Page #392
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीआचाराङ्गवृत्तिः शीलाङ्का.)
॥८३४॥
खलु जाव सया जएज्जासित्ति ९॥ सू०१५८॥ उग्गहपतिमाए पढमो उद्देसो ॥२-१-७.१॥ यत्पुनः सचित्त पृथिवीसम्बन्धमवग्रहं जानीयात्तन्न गृह्णीयादिति ॥ तथा-अन्तरिक्षजानमप्यवग्रह न गृह्णीयादित्यादि शय्यावन्नेयं यावदुद्देशकसमाप्तिः, नवरमवग्रहाभिलाप इति ॥ सप्तमस्य प्रथमोद्देशकः समाप्तः ॥ २-१-७-१॥
चूलिका
अवग्र०२ ॥ अथ सप्तमे अवग्रहाध्ययने द्वितीय उद्देशकः ॥
उद्देशकः २ उक्तः प्रथमोद्देशकः, अधुना द्वितीयः समारभ्यते, अस्य चायममिसम्बन्धः-पूर्वोदेशकेऽवग्रहः प्रतिपादितस्तदिहापि । तच्छेषप्रतिपादनायोद्देशकः, तस्य चादिसूत्रम् -
से आगतारेसु वा ४ अणुवीइ उग्गहं जाइज्जा, जे तत्थ ईसरे जे तत्थ समाहिट्ठाए ते. उग्गहं अणन्नविजा कॉम खल आउसो! अहॉलंदं अहापरिन्नायं वसामो जाव आउँसों! जाव आउसंतस्स उग्गहे जाव साहम्मिआ एताव उगह उग्गि हिस्सामो, तेण परं विहरिस्सामो १ से कि पुण तत्थ उग्गहंसिं एवोग्गहियंसि जे तत्थ समणाण वा माहणाण वा दंडए वा छत्तए वा जाव चम्मछेदणए वात मो अंतोहिंतो बाहिं नीणिज्जा बहियाओ वा नो अंतो पविसिज्जा, सुत्तं वा नो पडिबाहिन्जा, नो तेसिं किंचिवि अप्प
त्तियं पडिणीयं करिजा २ ॥ सू० १५९ ।। स भिक्षुरागन्तागासदावपरब्राह्मणाधुपभोगसामान्ये कारणिकः सन्नीश्वरादिकं पूर्वप्रक्रमेणावग्रह याचेत, तस्मिश्चाव
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
R
८३४॥
Page #393
--------------------------------------------------------------------------
________________
.८३५॥
गृहीतेऽवग्रहे यत्तत्र श्रमण ब्राह्मणादीनां छत्राद्युपकरणजातं भवेत्तन्नैवाभ्यन्तरतो बहिनिष्क्रामयेत् नापि ततोऽभ्यन्तरं प्रवेशयेत् नापि ब्राह्मणादिकं सुप्त प्रतिबोधयेत् न च तेषाम् 'अप्पत्तियंति मनर्स: पीडां कुर्यात् तथा 'प्रत्यनीकतां' प्रतिकूलता न विदध्यादिति ॥
से मिक्खू वा २ अभिकंखिजा अंबवणं उवागच्छित्तए जे तत्थं ईसरे जे तत्थ समाहिट्ठाए ते उग्गहं अणुजाणाविजा-कामं खलु जाव विहरिस्सामो, से किं पुण तत्थोग्गहंसि एवोग्गहियंसि ? अह भिक्खू इच्छिज्जा-अंबं भुत्तए वा से जं पुण अंचं जाणिज्जा सअंडं ससंताणं तहप्पगारं अंबं अफासुयं जाव नो पडिग्गाहिज्जा १॥ से मिक्खु वा से ज पुण अंबं जाणिज्जा-अप्पडं अप्पसंताणगं अतिरिच्छछिन्नं अव्वोच्छिन्नं अफासुय जावं नो पडिगाहिज्जा २॥ से भिक्खू वा २ से जं पुण अंब जाणिज्जा अप्पंडं वा जाव संताणगं तिरिच्छछिन्नं वुच्छिन्नं फासुयं पडिग्भाहिन्जा ३॥ से भिक्खू वा २ अभिकंखिजा अंबभित्तगं वा अंबपेसियं वा अंबचोयगं वा अंबसालगं वा अंबडालगं वा भुत्तए वा पायए वा, से जं पुण जाणिजा अंबभित्तगं वा ५ सअंडं ५ अफासुयं जाव नो पडिग्गाहिजा ४ ॥ से भिक्खू वा २ से जं पुण जाणिज्जा अंबं वा अंबभित्तगं वा अप्पंडं जाव संताणगं अतिरिच्छछिन्नं अव्वोच्छिन्नं अफासुयं जाव
॥८३५.
Page #394
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री आचा राङ्गवृतिः (शीलाङ्का.)
॥ ८३६ ॥
नो पडिग्गाहिजा ५ ॥ से भिक्खू वा २ से जं पुण जाणिजा अंबडालगं वा अप्पंड ५ तिरिच्छच्छिन्नं वच्छिन्नं फासूयं जाव पडिग्गाहिजा ६ ।। से भिक्खू वा २ अभि कंखिज्जा उच्व उवागच्छित्तए, जे तत्थ ईसरे जाव उग्गहंसि एवोग्गहियंसि ? अह भिक्खू इच्छा--उच्छु भुतए वा पायए वा, से जं उच्छु' जाणिला - सअंड जाव नो पडिग्गाहिज्जा ७ || अतिरिच्छछिन्नं तहेव, तिरिच्छच्छिन्नेऽवि तहेव ८ ॥ सेभिक्खू वा २ अभिकखिजा अंनरुच्छुयं वा उच्छुगंडियं वा उच्छुचोयगं वा उच्छुसालगं वा उच्छुडालगं वा भुत्तए वा पायए वा ९ ॥ से जं पुण जाणिल्ला - अंतरुच्यं वा जाव डालगं वा सअंडं जाव नो पडिग्गाहिज्जा १० ॥ से भिक्खू व २ से जं पुण जाणिजा-अंतरुच्छ्रय वा जाव डालगं वा अप्पंडं वा जाव पडिग्गाहिज्जा, अतिरिच्छच्छिन्नं तहेव तिरिच्छछिन्नं तहेव पडिग्गाहिज्जा ११ ।। से भिक्खू वा २ अभिकंखिज्जा ल्हसणंवणं उवागच्छित्तए, तहेव तिन्निवि आलावगा नवरं लहसुणं १२ ॥ सेभिक्खू वा २ अभिकंखिज्जा ल्हसुणं वा ल्हसुणकंदं वा ल्हसुण चोयगं वा ल्हसुणनालगं वा भुतए वा २ से जं पुण जाणिजा लसुणं वा जाव लसुणबीयं वा सड जाव नो पडिग्गाहिज्जा १३ ।। एवं अतिरिच्छच्छिन्नेऽवि. तिरिच्छछिन्ने जाव पडि
श्रुतस्कं० २ चूलिका १
अत्रग्र० ७ उद्देशका २
॥ ८३६ ।
Page #395
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ ६३७ ॥
************
गाहा १४ ॥ सू० १६० ॥
स भिक्षुः कदाचिदाश्रवनेऽवग्रहमीश्वरादिकं याचेत तत्रस्थश्च सति कारणे आम्र भोक्तुमिच्छेत्, तच्चा साण्ड ससन्तानकमप्राकमिति च मत्वा न प्रतिगृह्णीयादिति ॥ किञ्च स भिक्षुर्यत्पुनराम्रमल्याण्डमल्पसन्तानकं वा जानीयात् किन्तु 'अतिरचीनच्छन्नं' तिरवीनमपाटितं तथा 'अव्यवच्छिन्नम्' अखण्डितं यावदप्रासुकं न प्रतिगृह्णीयादिति ॥ तथा-स भिक्षुरल्याण्डमल्पसन्तानकं तिरश्वीनच्छिन्नं तथा व्यवच्छिन्तं यावत्प्रासुकं कारणे सति गृह्णीयादिति ॥ एवमात्रावयवसम्बन्धि सूत्रत्रयमपि नेयमिति, नवरम् - 'अंषभित्तयं'ति आम्रार्द्धम् 'अंबपेसी' आम्रफाली 'अंबचोयगं' ति आम्रछल्ली सालगं-रसं 'डालगं'ति आम्रश्लक्ष्णखण्डानीति ॥ एवभिक्षुसूत्रत्रयमप्याश्रमूत्रवन्नेयमिति, नवरम् ' अंतरुच्यंति पर्वमध्यमिति ॥ एवं लशुनसूत्रत्रयमपि नेयमिति, आम्रादिसूत्राणामवकाशो निशीथपोडशोद्देशका दवगन्तव्य इति ॥ साम्प्रतमवग्रहाभिग्रह विशेषानधिकृत्याह -
से भिक्खू वा २ आगंतारेसु वा ४ जावोग्गहियंसि जे तत्थ गाहावईण वा गाहाबइताण वा इच्याई' आयतणाई उचाइकम्म अह भिक्खू जाणिजा, इमाहिं सत्तहिं डिमाहिं उग्गहं उग्गिहित्तए, तत्थ खलु इमा पढमा पडिमा - से आगंतारेसु वा ४ अणुवीह उग्गहं जाइज्जा जाव विहरिस्सामो पढमा पडिमा १ । अहावरा दोच्चा पडिमा जस्स णं भिक्खुस्स एवं मवई - अहं च खलु अन्नेसिं भिक्खूणं अट्ठाए उग्गहं
॥ ८३७ ॥
Page #396
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रुत..
भीआचाराजवृत्तिः (शीलाका.)
चूलिका. १ अवग्र०७ उद्देशकः २
०८३८॥
उग्गिहिस्सामि, अण्णेसिं भिक्खणं उग्गहे उग्गहिए उवल्लिसामि, दुचा पडिमा । अहावरा तच्चा पडिमा-जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवइ--अह च खलु अन्नेसिं भिक्खूणं अट्ठाए उग्गहं उग्गिहिस्सामि, अन्नेसिंच उग्गहे उग्गहिए नो उवल्लिस्सामि, तच्चा पडिमा ३। अहावरा चउत्था पडिमा-जस्स णं भिक्खुस्स एवं भव -अहं च खलु अन्नेसिं भिक्खूणं अट्ठाए उग्गहं नो उग्गिहिस्सामि, अन्नसिं च उग्गहे उग्गहिए उवल्लिस्सामि, चउत्था पडिमा ४ । अहावरा पंचमा पडिमा-जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवइ.-अहं च खल अप्पणो अट्ठाए उग्गहं च उगिहिस्सामि, नो दुण्हं नो तिण्हं नो चउण्हं नो पंचण्ह, पंचमा पडिमा ५। अहावरा छट्ठा पडिमा--जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवह- जस्स एव उग्गहे उवल्लिइजा जे तत्थ अहासमन्नागए तंजहा--इकडे वा जाव पलाले तस्स लाभे संवसिज्जा, तस्स अलाभे उक्कुडुओ वा नेसजिओ वा विहरिजा छदा पडिमा ६। अहावरा सत्तमा पडिमा-जे भिक्खू वा २ अहासंथडमेव उग्गहं जाइज्जा, तंजहा-पुढविसिलं वा कहसिलं वा अहासंथडमेव तस्स लाभे संते संवसिज्जा, तस्स अलाभे उक्कुडुओ वा नेसजिओ वा विहरिजा, सत्तमा पडिमा ७। इच्चेयासिं सत्तण्हं पडिमाणं अन्नयरं जहा पिडेसणाए ॥ सू० १६१॥ :
८३८॥
Page #397
--------------------------------------------------------------------------
________________
1८३४॥
स मिक्षरागन्तागारादाववग्रहे गृहीते ये तत्र गृहपत्यादयस्तेषां सम्बन्धीन्यायतनानि पूर्वप्रतिपादितान्यतिक्रम्यैतानि च वक्ष्यमाणानि कर्मोपादानानि च परिहृत्यावग्रहमवग्रहीतु जानीयात, अथ मिक्षा सप्तभिः प्रतिमाभिरभिग्रहविरोषेरवग्रह गृह्णीयात , तत्रेयं प्रथमा प्रतिमा, तद्यथा-स भिक्षुरागन्तारादौ पूर्वमेम विचिन्त्येवंभूतः प्रतिश्रयो मया ग्राह्यो नान्यथा| भूत इति प्रथमा। तथाऽन्यस्य च भिक्षोरेवंभूतोऽभिग्रहो भवति, तद्यथा-अहं च खल्वन्येषां साधूनां कृतेऽवग्रह 'गृहीष्यामि' याचिये, अन्येषां वाऽवग्रहे गृहीते सति 'उपालयिष्ये'वत्स्यामीति द्वितीया । प्रथमा प्रतिमा सामान्येन, इयं तु गच्छान्तगतानां साधूनां साम्भोगिकानामसांभोगिकानां चोद्युक्तविहारिणां, यतस्तेऽन्योऽन्यार्थ याचन्त इति । तृतीया त्वियम्-अन्यार्थमवग्रहं याचिष्येऽन्यावगृहीते तु न स्थास्यामीति, एषा वाहालन्दिकानां, यतस्ते सूत्रार्थविशेषमाचार्यादभिकाङ्क्षन्त आचार्याथ याचन्ते । चतुर्थी पुनरहमन्येषां कृतेऽवग्रहं न याचिध्ये अन्यावगृहीते च वत्स्यामीति, इयं तु गच्छ एवाभ्युद्यतविहारिणां जिनकल्पाद्यर्थ परिकर्म कुर्वताम् । अथापरा पञ्चमी-अहमात्मकृतेऽवग्रहमवग्रहीप्यामि न चापरेषां द्वित्रिचतुष्पश्चानामिति, इयं तु जिनकल्पिकस्य । अथापरा षष्ठी-यदीयमवग्रहं ग्रहीष्यामि तदीयमेवोत्कटादिसंस्तारकं ग्रहीष्यामि, इतरथोत्कुटुको वा निषण्णः उपविष्टो वा रजनी गमिष्यामीत्येषा जिनकल्पिकादेरिति । अथापरा सप्तमी-एव पूर्वोक्ता, नवरं यथासंस्तृतमेव शिलादिकं ग्रहीष्यामि नेतरदिति, शेषमात्मोत्कर्षवर्जनादि पिण्डैषणावन्नेयमिति ॥ किञ्च__सुयं मे आउसंतेणं भगवया एवमक्खायं-इह खलु थेरेहिं भगवंतेहिं पंचविहे उग्गहे
.x.४४४४
Page #398
--------------------------------------------------------------------------
________________
भीआचाराजवृत्तिः (चीलावा.)
पन्नत्ते, तंजहा-देविंदउग्गहे १ रायउग्गहे २ गाहावहउग्गहे ३ सागारियउग्गहे ४ साहम्मियउग्गहे ५, १। एवं खलु तस्स भिक्खुस्स भिक्खुणोए वा सामग्गियं जं सव्वडेहिं सहिए सया जएजासि त्तिमि २ ॥ सू० १६२ ॥
॥ उग्गहपडिमा सम्मत्ता अध्ययनं समाप्तं सप्तमम् ॥ २-१-७-२॥
श्रुतस्क.. चूलिका-१ अपग्र०७ उद्देशकः २
.८४० ॥
श्रतं मयाऽऽयुष्मता भगवतेवमाख्यातम्-इह खलु स्थविरभगवद्भिः पञ्चविधोऽवग्रहो व्याख्यातः, तद्यथा-देवेन्द्रावग्रह इत्यादि सुखोन्नेयं यावदुद्देशकसमाप्तिरिति ॥ २-१-७-२॥ अवग्रदप्रतिमाख्यं सप्तममध्ययनं समाप्तं ॥ २-१-७॥ तत्समाप्तौ प्रथमाऽऽचाराङ्गचूला समाप्ता ॥२-१॥
Page #399
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ ८४.१ ॥
॥ अथ सप्तसप्तिकाख्या द्वितीया चूला ॥
॥ अथ प्रथमस्थानाध्ययनम् । उक्तं सप्तममध्ययनं, तदुक्तौ च प्रथमचूलाऽभिहिता, इदानी द्वितीया समारम्यते, अस्याश्चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरचूडायां वसत्यवग्रहः प्रतिपादितः, तत्र च कीदृशे स्थाने कायोत्सर्गस्वाध्यायोच्चारप्रश्रवणादि विधेयमित्येतत्प्रतिपादनाय द्वितीयचूडा, सा च सप्ताध्ययनात्मिकेति नियुक्तिकदर्शयितुमाह
सत्तिकगाणि इकस्सरगाणि पुव्व भणियं तहिं ठाणं । उहाणे पगयं निसोहियाए तहिं छक्कं ॥३२०॥ ___ 'सप्तककान्येकसराणीति सप्ताध्ययनान्युद्देशकरहितानि भवन्तीत्यर्थः, तत्रापि 'पूर्व प्रथम स्थानाख्यमध्ययनमभिहितमित्यतस्तद्वयाख्यायते इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्याध्ययनस्य चत्वार्यनुयोगद्वाराणि भवन्ति, तत्रोपक्रमान्तर्गतोऽर्थाधिकारोऽयम्-किंभूतं साधुना स्थानमाधयितव्यमिति, नामनिष्पन्ने तु निक्षेपे स्थानमिति नाम, तस्य च नामादिश्चतर्धा निक्षेपः, तत्रेह द्रव्यमाश्रित्यो स्थानेनाधिकारः, तदाह नियुक्तिकार:-ऊद्धवस्थाने 'प्रकृत' प्रस्ताव इति, द्वितीय-: मध्ययनं निशीथिका, तस्याश्च षट्को निक्षेपः, तं च स्वस्थान एव करिष्यामीति । साम्प्रतं सत्रमुच्चारणीयं, तच्चेदम
से भिक्खु वा २ अभिकरखेजा ठाणं ठाइत्तए, से अणपविसिज्जा गाम वा जाव रायहाणिं वा, से जं पुण ठाणं जाणिज्जा-सअंडं जाव समकडासंताणयंत तहप्पगारं
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
॥८४१॥
Page #400
--------------------------------------------------------------------------
________________
भीआचाराजवृत्तिः (शीलाका.)
.८४२॥
ठाणं अफासुयं अणेसणिज्जं लाभे संते नो पडिग्गाहिज्जा, एवं सिजागमेण नेयव्वं जाव उदयपसूयाईति ॥ इच्चेयाई आयतणाहउवाइकम्म २ अह भिक्खू इच्छिज्जा
श्रुतस्कं०१ चउहि पडिमाहिं ठाणं ठाइत्तए, तत्थिमा पढमा पडिमा-अचित्तं खल उवसजिजा
चूलिका०२ अवलंबिजा कारण विप्परिकम्माइ(म्मिजा) सवियारं ठाणं ठाइस्सामि पढमा पडिमा ।
स्थाना०२ अहावरा दुच्चा पडिमा-अचित्तं खलु उवसज्जेजा अवलंविजा काएण विप्परिकम्माई नो सवियारं ठाणं ठाइस्सामि दुचा पडिमा। अहावरा तच्चा पडिमा-अचित्तं खल उवसज्जेजा अवलंबिज्जा नो काएण विपरिकम्माई नो सवियारं ठाणं ठाइस्सामित्ति तच्चा पडिमा। अहावरा चउत्था पडिमा-अचित्तं खलु उवसज्जेजा नो अवलंबिता काएण नो परकम्माई नो सवियारं ठाणं ठाइस्सामित्ति वोसहकाए बोसहकेसमंसुलो. मनहे संनिरुद्धं वा ठाणं ठाइस्सामित्ति चउत्था पडिमा, इच्चेयासिं चउण्हं पडिमाणं जाव पग्गहियतरायं विहरिजा, नो किंचिवि वइजा २ । एयं खलु तस्स भिक्खुस्स
जाव जइज्जासि त्तिबेमि ३॥ सू० १६३ ॥ ठाणासत्तिक्कयं सम्मत्तं ॥ २-२-१-८॥ 'स' पूर्वोक्तो भिक्षुर्यदा स्थानमभिकाङ्क्षत् स्थातु तदा सोऽनुप्रविशेद्ग्रामादिकम् , अनुप्रविश्य च स्थानमूर्व
an८४२॥ स्थानाद्यर्थमन्वेषयेत, तच्च साण्डं यावत्ससन्तानकमासुकमिति लामे सति न प्रतिगृह्णीयादिति, इत्येवमन्यान्यपि
Page #401
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूत्राणि शय्यावद्रष्टव्यानि यावदुदकप्रमूतानि कन्दादीनि यदि भवेयुस्तत्तथाभूतं स्थानं न प्रतिगृह्णीयादिति ॥ साम्प्रतं प्रतिमोद्देशेनाह-इत्येतानि' पूर्वोक्तानि वक्ष्यमाणानि वा 'आयतनानि' कर्मोपादानानि 'उपातिक्रम्य २' अतिलच्याथ भिक्षः स्थान स्थातुमिच्छेत् 'चतसृभिः प्रतिमाभिः' अभिग्रहविशेः करणभूतैः, तांश्च यथाक्रममाह, तत्रेयं प्रथमा प्रतिमा-कस्यचिद्भिक्षोरेवंभृतोऽभिग्रहो भवति, यथाऽहमचित्तं स्थानमुपाश्रयिष्यामि, तथा किञ्चिदचित्त कुडयादिकमवलम्बिष्ये कायेन, तथा 'विपरिक्रमिष्यामि' परिस्पन्दं करिष्यामि, हस्तपादाद्याकुञ्चनादि करिष्यामीत्यर्थः, तथा तत्रैव सविचारं स्तोकपादादिविहरणरूपं स्थानं स्थास्यामि' समाश्रयिष्यामि, प्रथमा प्रतिमा । द्वितीयायां त्वाकुञ्चनप्रसारणादिक्रियामवलम्बनं च करिष्ये न पादविहरणमिति । तृतीयायां त्वाकुञ्चनप्रसारणमेव नावलम्बनपादविहरणे इति । चतुर्थ्यां पुनस्त्रयमपि न विधत्ते, स चैवंभूतो भवति-व्युत्सृष्टः-त्यक्तः परिमितं कालं कायो येन स तथा, तथा व्युत्सृष्टं केशश्मथलोमनखं येन स तथा, एवंभूतश्च सम्यग्निरुद्धं स्थानं स्थास्यामीत्येवं प्रतिज्ञाय कायोत्सर्गव्यवस्थितो मेरुवनिष्प्रकम्पस्तिष्ठेत , यद्यपि कश्चित्केशाद्यत्पाटयेत्तथाऽपि स्थानाम चलेदिति, आशा चान्यतमा प्रतिमा प्रतिपद्य नापरमप्रतिपन्नप्रतिम साधुमपवदेन्नात्मोत्कर्ष कुर्यान्न किञ्चिदेवंजातीयं वदेदिति ॥ प्रथमः सप्तेककः समाप्तः ॥२-२-१॥ .
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
॥८४३॥
Page #402
--------------------------------------------------------------------------
________________
भीआचाराङ्गवृत्तिः
(शोलाङ्का.)
॥ ८४४ ॥
॥ अथ द्वितीयनिषीथिकाध्ययनम् ॥
प्रथमानन्तरं द्वितीयः सप्तैककः, सम्बन्धश्चास्य- इहानन्तराध्ययने स्थानं प्रतिपादितं तच्च किंभूतं स्वाध्याययोग्यं ?, तस्यां च स्वाध्यायभूमौ यद्विधेयं यच्च न विधेयमित्यनेन सम्बन्धेन निपीथिकाऽध्ययनमायातम् अस्य च चत्वार्यनुयोगद्वाराणि भवन्ति, तत्र नामनिष्पन्ने निक्षेपे निषीथिकेति नाम, अस्य च नामस्थापनाद्रव्य क्षेत्रकालभावैः पविघो निक्षेपः, नामस्थापनेपूर्ववत् द्रव्यनिषीथं नोआगमतो ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तं यद्द्द्रव्यं प्रच्छन्नं, क्षेत्रनिषीर्थं तु ब्रह्मलोक रिष्ठविमान पार्श्ववत्तिन्यः कृष्णराजयो यस्मिन् वा क्षेत्रे तद्वयाख्यायते, कालनिपीर्थं कृष्णरजन्यो यत्र वा काले निषीथं व्याख्यायत इति, भावनिषीयं नोआगमत इदमेवाध्ययनम् आगमैकदेशत्वात्, गतो नामनिष्पन्नो निक्षेपः, साम्प्रतं सूत्रानुगमे सूत्रमुच्चारणीयं तच्चेदम्
,
Mays
से भिक्खू वा २ अभिकंखिज्जा निसीहियं फासूयं गमणाए से पुण निसीहियं जाणिजा - सअंडं सपाणं जाव मक्कडासंताणयं तपगारं निसीहियं अफासुर्य लाभे संते नो चेइस्सामि १ ॥ से भिक्खू वा २ अभिकंखेजा निसोहियं गमणाए, से पुण निसीहियं जाणिज्जा - अप्पपाणं अप्पबीयं जाव संताणयं तहपगारं निसोहियं फासूयं चेहस्सामि, एवं सिजागमेणं नेयव्वं जाव उदयप्पसूयाइ २ ॥ जे तस्थ दुबग्गा
****
*****
श्रुत • २ चूलिका २ निषि० २
॥ ८४४ ॥
Page #403
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥८५५॥
तिवग्गा चउवग्गा पंचवग्गा वा अभिसंधारिंति मिसीहियं गमणाए ते नो अन्नमन्नस्स कायं आलिंगिज वा घुविज वा दंतेहिं वा नहेहिं वा अच्छिदिज वा बुच्छिदिज वा ३।
1८४५॥ एयं खलु तस्स भिक्खुस्स भिक्खुणोए वा सामग्गियं ज सव्व?हिं सहिए समिए सया
जएजा, सेयमिण मन्निजासि त्तिबेमि ४ ॥ सू०१६४॥ निसीहियासत्तिक्कयं ॥ २-२.२.९॥ स भावभिक्षयदि वसतेरुपहताया अन्यत्र निपीथिका-स्वाध्यायभूमि गन्तुमभिकाशेत , तां च यदि साण्डां यावतससन्तानका जानीयात्ततोऽप्रासुकत्वान्न परिगृह्णीयादिति ॥ किञ्च-स भिक्षुरल्पाण्डादिकां गृह्णीयादिति ॥ एवमन्यान्यपि सूत्राणि शय्यावन्नेयानि यावद् यत्रोदकप्रसूतानि कन्दादीनि स्युस्तां न प्रतिगृह्णीयादिति ॥ तत्र गतानां विधिमधिकृत्याह-ये तत्र साधवो निषीथिकाभूमौ द्वित्राद्या गच्छेयुस्ते नान्योऽन्यस्य 'कार्य' शरीरमालिङ्गयेयुः-पर गात्रसंस्पर्श न कुयु रित्यर्थः, नापि च वधम्' अनेकप्रकारं यथा मोहोदयो भवति तथा विलिङ्गेयुरिति, तथा कन्दप्रधाना वक्त्रसंयोगादिकाः क्रिया न कुयु रिति, एतत्तस्य भिक्षोः सामग्र्यं यदसौ 'सर्वार्थ:' अशेषप्रयोजनैरामुष्मिकैः ।। 'सहितः समन्वितः तथा 'समितः पञ्चभिः समितिभिः 'सदा' यावदायुस्तावत्संयमानुष्ठाने यतेत, एतदेव च श्रेय इत्येव मन्येतेति ब्रवीमीति पूर्ववत ।। निषीथिकाऽध्ययन द्वितीयमादितो नवमं समाप्तमिति ।।३-२-२॥
Page #404
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीआचा राजवृत्तिः (सीलाका.)
श्रतस्कं०२ | चूलिका २
उच्चार
॥ अथ तृतीयं उच्चारप्रश्रवणाध्ययनम् ॥ .. साम्प्रतं तृतीयः सप्तककः समारभ्यते, अस्य चायममिसम्बन्धः-इहानन्तरे निषिथिका प्रतिपादिता, तत्र च कथम्भतायां भूमावुचारादि विधेयमिति अस्य च नामनिष्पन्ने निक्षेपे उच्चारप्रश्रवण इति नाम, तदस्य निरुक्त्यर्थे नियुक्तिकृदाह
उच्चवइ सरीराओ उच्चारो पसवइत्ति पासवणं । तं कह आयरमाणस्स होइ सोही न अइयारो॥३२॥ शरीरादुत्-प्रावन्येन च्याते-अपयाति चरतीति वा उच्चार:-विष्ठा, तथा प्रकऍण श्रवतीति प्रश्रवणम-एकिका, तच्च कथमाचरतः साधोः शुद्धिर्भवति नातिचार इति ? ॥ उत्तरगाथया दर्शयितुमाह
मुणिणा छक्कायदयावरेण सुत्तभणियंमि ओगासे । उच्चारविउस्सग्गो कायव्वो अप्पमत्तेणं ॥३२२॥ 'साधुना' षड्जीवकायरक्षणोद्युक्तेन वक्ष्यमाणसूत्रोक्ते स्थण्डिले उच्चारप्रश्रवणे विधेये अप्रमत्तेनेति ॥ नियुक्तयनुगमानन्तरं सूत्रानुगमे सूत्रं, तच्चेदम्
से भिक्खू वा उच्चारपासवणकिरियाए उब्बाहिन्जमाणे सयस्स पायपुंछणस्स असईए तओ पच्छा साहम्मियं जाइजा१॥ से भिव खू वा २ से जं पुण थंडिल्लं जाणिजासअंडं सपाणं जाव मक्कासंताण य, तहप्पगारंसि थंडिलंसि नो उच्चारपासवणं वोसिरिजा २ ॥ से भिक्ख वा २ से जं पुण थंडिल्लं जाणिज्जा-अप्पपाणं जाव संताणयं
Page #405
--------------------------------------------------------------------------
________________
I5YON
तहप्पगारंसि थंडिल्लंसि उच्चारपासवणं चोसिरिजा ॥ से भिक्ख वा २ से जं थंडिल्लं जाणिज्जा-अस्सिपडियाए एगं साहम्मियं समुद्दिस्स वा अस्सिपडियाए पहवे साहम्मिया समुद्दिस्स अस्सि पडियाए एगं साहम्मिणिं समुद्दिम्स अस्सिपडियाए बहवे साहम्मिणीओ समुद्दिस्स अस्सिपडियाए बहवे समणमाहणवणीमगा पगणिय २ समुद्दिस्स पाणाई ४ जाव उद्देसियं चेएइ, तहप्पंगारं थंडिल्लं पुरिसंतरकडं जाव बहियानीहडं वा अनीहडं वा अन्नयरंसि वा तहप्पगारंसि थंडिल्लंसि उचारपासवणं नो वोसिरिज्जा ४ ॥ से भिक्ख वा २ से जं थंडिल्लं जाणिज्जा-बहवे समणमाहण किवण वणीमग अतिही-समुहिस्स पाणाई भूयाई जीवाई सत्ताई जाव उद्देसियं चेएइ, तहप्पगारं थंडिल्लं पुरिसंतरगडं ज व पहिया अनोहडं अन्नयरंसि वा तहप्पगारंसि थंडिल्लंसि ना उच्चारपासवणं वोसिरिज्जा, अह पुण एवं जाणिज्जा-अपुरिसंतरगडं जाव बहिया नीहडं अन्नयरंसि वा तहप्पगारंसि थंडिल्लंसि उच्चारपासवणं वोसिरिजा ५॥ से भिक्ख वा २ से जं पुण थडिलं जाणिजा-अस्सिपडियाए कयं वा कारियं वा पामिच्चियं वा छन्नं वा घटुं वा मटुं वा लित्तं वा संमढ वा संपधूवियं वा अन्नयरंसि वा तहप्पगारंसि थंडिलंसि नो उच्चारपासवणं वोसिरिजा ६ ॥ से भिक्ख
॥८४७॥
Page #406
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीआनागङ्गवृत्तिः शीलाङ्का.)
॥ ४८ ॥
चा २ से जं पुण थंडिलं जाणेजा, इह खलु गाहावई वा गाहावइ पुत्ता वा कंदाणि वा जाव हरियाणि वा अंतराओ वा बाहिं नोहरंति बहियाओं वा अंतो साहरंति अन्नरस वा तह पगारंसि थंडिलंसि नो उच्चारपासवर्ण वोसिरिजा ७ ॥ सेभिक्खू घा २ से जं पुण थंडिलं जाणेज्जा - खंधंसि वा पोटंसि वा मंचंसि वा मालंसि वा अहंसि वा पासायंसि वा अन्नयरंसि वा तहप्पगारंसि थंडिलंसि नो उच्चारपासवर्ण वोसिरिजा ८ ॥ से भिक्ख वा २ से जं पुण थंडिलं जाणिजा - अनंतरहियाए पुढवीए सिणिडा पुढवीए ससरक्खाए पुढवीए महियाए मक्कडाए चित्तमंताए सिलाए चित्तमंताए लेलुयाए कोलावासंसि वा दारुयंसि वा जीव पट्टियंसि वा जाव मक्कडासंताणयंसि अन्नयरंसि तहप्पगारंसि थंडिलंसि नो उच्चारपासवर्ण वोसिरिज्जा ९ ।। सू० १६५ ॥ समिक्षुः कदाचिदुच्चारप्रश्रवण कर्त्तव्यतयोत् प्राबल्येन बाध्यमानः स्वकीय पादपुञ्छन समाध्यादावुच्चारादिकं कुर्यात्, स्वकीयस्य त्वभावेऽन्यं 'साधर्मिक' साधु याचेत पूर्व प्रत्युपेक्षितं पादपुच्छनकस माध्यादिकमिति, तदनेनैतत्प्रतिपादितं भवति-वेगधारणं न कर्त्तव्यमिति । अपि च-स भिक्षुरुच्चारप्रभवणाशङ्कायां पूर्वमेव स्थण्डिलं गच्छेत्, तस्मिथ साण्डादिकेऽप्रासुकत्वादुच्चारादिं न कुर्यादिति । किञ्च - अल्पाण्डादिके तु प्रासुके कार्यमिति । तथा स भिक्षुर्यत्पुनरेवंभूतं स्थण्डिलं जानीयात्, तद्यथा - एक बहून् वा साधर्मिकान् समुद्दिश्य तत्प्रतिज्ञया कदाचित्कश्चित्स्थण्डिलं कुर्यात् तथा श्रम
श्रुत० २ चूलिका २
उच्चार
प्रश्रवणा
३- (१०)
॥ ८४ ॥
Page #407
--------------------------------------------------------------------------
________________
राणादीन् प्रगणय्य वा कुर्यात्, तच्चैवंभूतं पुरुषान्तरस्वीकृतमस्वीकृतं वा मूलगुणदुष्टमुद्देशिकं स्थण्डिलमाश्रित्योच्चारादि . 1८४९॥R
न कुर्यादिति ॥ किश्च-समिक्षर्यावन्तिके स्थण्डिले पुरुषान्तरस्वीकृते उच्चारादि न कुर्यात्, पुरुषान्तरस्वीकृते तु कुर्यादिति ॥ अपि च-समिक्षुः साधुमुद्दिश्य क्रीतादावुत्तरगुणाशुद्धे स्थण्डिले उच्चारादि न कुर्यादिति ॥ किञ्च-समिक्ष पत्यादिना कन्दादिके स्थण्डिलानिष्काश्यमाने तत्र वा निक्षिप्यमाणे नोच्चारादि कुर्यादिति ॥ तया-स भिक्षुः स्कन्धादौ
स्थण्डिले नोच्चारादि कुर्यादिति ॥ किञ्च-स भिक्षुर्यत्पुनरेवंभूतं स्थण्डिलं जानीयात्, तद्यथा-बनन्तरितार्या सचित्तायां 2 पृथिव्यां तत्रोच्चारादि न कुर्यात्, शेषं सुगम, नवरं 'कोलावासंति घुणावासम् ॥ अपि च
से भिक्खू वा २ से जं पुण थंडिलं जाणजा-इह खल गाहावई वा गाहावइपुत्ता वा कंदाणि वा जाव बीयाणि वा परिसाडिसु वा परिसाडिति वा परिसाडिस्संति वा अन्नयरंसि तहप्पगारंसि नो उच्चारपासवणं वो सिरिज्जा १॥ से भिक्खू वा २ से जं पुण थंडिलं जाणेज्जा-इह खल गाहावई वा गाहावापुत्ता वा सालीणि वा वीहीणि वा मुगाणि वा मासाणि वाकुलत्थाणि वा जवाणि वा जवजवाणि वा पहरिंसु वा पहरिति वा पइरिस्संति वा अन्नयरंसि वा तहप्पगारंसि थंडिलंसिनो उच्चारपासवर्ण घोसिरिजा २॥ से भिक्ख वा २ से जं पुण थंडिलं जाणेजा-आमोयाणि वा घसाणि वा भिलयाणि वा विज्जुलयाणि वा खाणयाणि वा कडयाणि वा पगडाणि वा दरीणि वा
॥
४१॥
Page #408
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीआचाराङ्गवृत्तिः लीलावा.)
श्रुत०२ चूलिका २ उच्चारप्रश्रवणा
॥८५०॥
पदुग्गाणि वा समाणि वा २ अन्नयरंसि तहप्पगारंसि थडिलंसि नो उच्चारपासवणं वोसिरिजा ३॥ से भिक्ख वा २ से जं पुण थंडिलं जाणिज्जा-माणसरंधणाणि वा महिसकरणाणि वा वसहकरणाणि वा अस्सकरणाणि वा कुक्कुडकरणाणि वा मक्कडकरणाणि वा ह(ग)यकरणाणि वा लावयकरणाणि वा बट्टयकरणाणि वा तित्तिरकरणाणि वा कवीयकरणाणि वा कविंजलकरणाणि वा अन्नयरंसि वा तहप्पगारंसि थंडिलसि नो उच्चारपासवणं वोसिरिज्जा ४॥ से भिक्खू वा २ स ज पुण थंडिलं जाणेजा-वेहाणसहाणेसु वा गिडपठाणेसु वा तरुपडणट्ठाणेसु वा मेरुपडणठाणेसु वा विसभक्खणयठाणेसु वा अगणिपडणट्ठाणेसु वा अन्नयरंसि वा तहप्प. गारंसि थंडिलंसि नो उच्चारपासवणं चोसिरिजो ५॥ से भिक्ख वा २ से ज पुण थंडिलं जाणेजा-आरामाणि वा उजाणाणि वा वणाणि वा वणसंडाणि वा देवकुलाणि वा सभाणि वा पवाणि:वा अन्नयरंसि वा तहप्पगारंसि थंडिलंलि नो उच्चारपासवणं वोसिरिजा ६॥ से भिक्खू वा २ से जे पुण जाणिज्जा-अद्यालयाणि वा चरियाणि वा दाराणि वा गोपुराणि वा अन्नयरंसि वा तहप्पगारंसि थंडिलंसि नो उच्चारपासवणं वोसिरिज्जा ७॥ से भिक्ख वा २ से जं पुण थंडिलं जाणेजा-तिगाणि वा चउक्काणि
॥८५०॥
Page #409
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ ८५१ ॥
********
***
वा चच्चराणि वा चउम्मुहाणि वा अन्नयरंसि वा तहप्पगारंसि थंडिलंसि नो उच्चारपासवर्ण वोसिरिज्जा ८ ॥ से भिक्खू वा २ से जं पुण थंडिलं जाणेज्जा - इ' गालवाहेसु स्वारवाहेसु वा मडयदाहेसु वा मडयथुभियासु वा मडयवेइएस वा अन्नयरंसि वा तह पगारंसि थंडिलंसि नो उच्चारपासवणं वोसिरिजा ९ ॥ से भिक्खू वा २ से जं पुण थंडिलं जाणेज्जा - नइयायतणसु वा पंकाययणेसु वा ओघाषयणेसु वा सेयणवहंसि वा अन्नयरंसि वा तहप्पगारंसि थंडिलंसि नो उच्चारपासवणं वोसिरिजा १० ॥ से भिक्खू वा २ से जं पुण थंडिलं जाणेज्जा-नवियासु वा मट्टियखाणिआसु नवियासु गोलिया वा गवाणीसु वा खाणोसु वा अन्नयरंसि वा तहप्पगारंसि थंडिलंसि नो उच्चारपासवर्ण वोसिरिजा ११ ।। से जं पुण थंडिलं जाणेजा - डागवचंसि वा सागवच्च ि वा मूलगवच्चसि वा हृत्थंकरवच्चंसि वा अन्नयरंसि वा तहृपगारंसि थंडिलंसि नो उच्चार पासवर्ण वोसिरिजा १२ ॥ से भिक्खू वा २ से जं पुण थंडिलं जाणेज्जा असणवर्णसि वा सणवणसि वा घायइवणंसि वा केयइवणंसि वा अंबवणंसि वा असोगवणंसि वा नागवर्णसि वा पुन्नागवणंसि वा चुल्लगवणंसि वा अन्नयरेसु तहपगारे पत्तोवेरसु वा पुष्फोवेएस वा फलोवेएसु वा बीआवेएसु वा हरिओवेएसु वा नो उच्चारपासवर्ण
***********************************
। ८५१ ॥
Page #410
--------------------------------------------------------------------------
________________
वोसिरिजा ॥ सू० १६६ ।।
स भिक्षुर्यत्पुनरेवंभूतं स्थण्डिलं जानीयात् तद्यथा यत्र गृहपत्यादयः कन्दबीजादिपरिक्षेपणादिकाः क्रियाः कालत्रयवनिः कुर्युस्तत्रैहिकामुष्मिकापायभयादुच्चारादि न कुर्यादिति ॥ तथा-यत्र च गृहपत्यादयः शान्यादीन्युप्तवन्तो वपन्ति वस्यन्ति वा तत्राप्युच्चारादि न विदध्यादिति ॥ किञ्च - भिक्षुर्यत्पुनरेवंभूतं स्थण्डिलं जानीयात्, तद्यथा - 'आमोकानि' ● ८५२ ।। कचवरपुञ्जाः 'घसाः' वृहत्यो भूमिराजय : 'भिलुगाणि' श्लक्ष्णभूमिराजयः 'विज्जलं' पिच्छलं 'स्थाणुः प्रतीतः 'कडवाणि' इक्षुजो नलकादिदण्डकाः 'प्रगर्त्ताः' महागर्त्ताः 'दरी' प्रतीता 'प्रदुर्गाणि' कुडयप्राकारादीनि एतानि च समानि वा विषमाणि वा भवेयुस्तदेतेष्वात्मसंयम विराधनासम्भवान्नोच्चारादि कुर्यादिति । किञ्च - स भिक्षुर्यत्पुनरेवंभूतं स्थण्डिलं जानीयात्, तद्यथा - 'मानुषरन्धनानि' चुल्न्यादीनि तथा महिष्यादीनुद्दिश्य यत्र किञ्चित्क्रियते ते वा यत्र स्थाप्यन्ते तत्र लोकविरुद्धप्रवचनोपघातादिमयान्नोच्चारादि कुर्यादिति ॥ तथा-स भिक्षुः 'वेहान सस्थानानि' मानुषोल्लवनस्थानानि 'गृधपृष्ठस्थानानि यत्र मुमूर्षवो गृध्रादिभक्षणार्थं रुधिरादिदिग्धदेहा निपत्यास ते 'तरुपतनस्थानानि ' यत्र मुव एवानशनेन तरुवत्पतितास्तिष्ठन्ति तरुभ्यो वा यत्र पतन्ति, एवं मेरुपतनस्थानान्यपि, मेरुश्च - पर्वतोऽभिधी - यत इति, एवं विषभक्षणाग्निप्रवेशस्थानादिषु नोच्चारादि कुर्यादिति ॥ अपि च-आरामदेवकुलादौ नोच्चारादि विदध्यादिति ॥ तथा - प्राकारसम्बन्धिन्यट्टालादौ नोच्चारादि कुर्यादिति ॥ किञ्च त्रिकचतुष्कचत्वरादौ च नोच्चारादि व्युत्सृजेदिति ॥ किञ्च स भिक्षुरङ्गारदाहस्थान श्मशानादौ नोच्चारादि विदध्यादिति ॥ अपि च-- ' नद्यायतनानि' यत्र तीर्थस्थानेषु
भीआचा राङ्गवृत्तिः (शीलाङ्का.)
******
श्रुतस्कं० २ चूलिका • २
उच्चार
प्रश्रवणा
४- (१०)
॥ ८५२ ॥
Page #411
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ ८५३॥
लोकाः पुण्याथ स्नानादि कुर्वन्ति 'पडायतनानि' यत्र पङ्किलप्रदेशे लोका धर्मार्थ लोटनादिक्रिया कुर्वन्ति 'ओघायत. नानि' यानि प्रवाहत एव पूज्यस्थानानि तडागजलप्रवेशोषमार्गो वा 'संचनपथे वा', नीकादौ नोच्चारादि विधेयमिति ।। तथा-समिक्षरभिनवासु मृत्खनिषु, तथा नवासु गोप्रहेन्यासु 'गवादमीषु' सामान्येन वा गवादनीषु खनीषु वा नोच्चारादि विदध्यादिति । किञ्च-'डाग'त्ति डालप्रधानं शाक पत्रप्रधानं तु शाकमेव तद्वति स्थाने, तथा मूलकादिवति च नोच्चारादि कर्यादिति ॥ तथा-प्रशनो-बीयकस्तद्वनादौ च नोच्चारादि कुर्यादिति, तथा पत्रपुष्पफलाद्यपेतेष्विति ॥ कथं चोच्चारादि कुर्यादिति दशर्यति
से भिक्खू वा २ सयपाययं वा परपाययं वा गहाय लेतमायाए एगंतमवक्कमे अणा. वायंसि असंलोयंसि अप्पपाणंसि जाव मक्कडासंताणयंसि अहारामंसि वा उवस्सयंसि तओ संजयामेव उच्चारपासवर्ण वासिरिजा, से तमायाए एगतमवक्कमे अणावाहसि जाव संताणयंसि अहारामंसि वा झामथंडिल्लंसि वा अन्नयरंसि वा तहप्पगारंसि थंडिल्लंसि अचित्तंसि तओ संजयामेव उच्चारपासवणं वोसिरिजा, एयं खल तस्स जाव सया जइज्जासि त्तिबेमि ॥ सू० १६७॥
॥ उच्चारपासवणसत्तिकओ सम्मत्तो॥२-२-३(१०) ॥ स भिक्षः स्वकीयं परकीयं वा 'पात्रक' समाधिस्थानं गृहीत्वा स्थण्डिलं वाऽनापातमसंलोकं गत्वोच्चारं प्रस्रवणं वा कुर्यात् प्रतिष्ठापयेदिति, शेषमध्ययनसमाप्तिं यावत्पूर्ववदिति ॥ तृतीयं सप्तकाध्ययनमादितो दशमं समाप्तम् ॥ २-२-३ ॥
॥८५३ ॥
Page #412
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीआचारामवृत्तिः (शीलाका.)
॥८५४।।
॥ अथ चतुर्थशब्दाध्ययनम् ॥
श्रुतस्क०२ तृतीयानन्तरं चतुर्थः सप्तककः समारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहाद्ये स्थान द्वितीये स्वाध्यायभूमिस्तृतीये
चूलिका.. उच्चारादिविधिः प्रतिपादितः, तेषु च वर्तमानो यद्यनुकुलप्रतिकूलशब्दान् शृणुयात्तेष्वरक्तद्विष्टेन भाव्यम्, इत्यनेन
उच्चारसम्बन्धेनायातस्यास्य नामनिष्पन्ने निक्षेपे शब्दसप्तकक इति नाम, अस्य च नामस्थापने अनादृत्य द्रव्यनिक्षेपं दर्शयितु
प्रश्रवणा० नियुक्तिकृद्गाथापश्चा?नाह -
४-११) दव्वं संठाणाई भावो वनकसिणं सभावो य । दव्वं सद्दपरिणयं भावो उ गुणा य कित्ती य ॥३२३॥ . द्रव्यं नोआगमतो व्यतिरिक्त शब्दत्वेन यानि भाषाद्रव्याणि परिणतानि तानीह गृह्यन्ते, भावशब्दस्त्वागमतः शब्दे उपयुक्तः, नोआगमतस्तु गुणा-अहिंसादिलक्षणा यतोऽसौ हिंसाऽनृतादिवितिलक्षणगुणैः श्लाध्यते, कीर्तिश्च यथा भगवत एव चतुस्त्रिंशदतिशयाधुपेतस्य सातिशयरूपसंपत्समन्वितस्येत्यर्हन्निति लोके ख्यातिरिति, नियुक्त्यनुगमादनन्तरं सूत्रानुगमे | सूत्रं, तच्चे दम्
से भिक्खु वा जाव मुइंगसद्दाणि वा नंदोसद्दाणि वा झल्लरीसहाणि वा अन्नयराणि वा तहप्पगाराणि वा विरूवरूवाइ सद्दाई वितताई कन्नसोयणपडियाए नो अभिसंधा. रिजा गमणाए १॥ से भिक्खू वो २ अहावेगइयाई सद्दाई' सुणेइ, तंजहा-वीणा
८५४
Page #413
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥८५५॥
सहाणि वा विपंचीसद्दाणि वा बद्धो(पिप्पी)सगसद्दाणि वा तूणयसहाणि वा पणव(वणय) सद्दाणि वा तुंबवीणियसहाणि वा ढंकुणसहाई अन्नयराई तहप्पगाराई विरूवरूवाई सहाई तताई कण्णसोयपडियाए नो अभिसंधारिजा गमणाए ॥ से भिक्खू वा २ अहावेगइयाई सद्दाइ सुणेह, तंजहा-तालसद्दाणि वा कंसतालसद्दाणि वा लत्तियसहाणि वा गोधियसहाणि वा किरिकिरियासदाणि वा अन्नयराणि वा तहप्पगाराणि वा विरूवरुवाइ घण(ताल)सद्दाणि करणसोयपडियाए णो अभिसंधारेजा गमणाए ३॥ से भिक्खू वा २ अहावेगइयाई सदाई सुणेह, तंजहा-संखसद्दाणि वा वेणसद्दाणि वा पंससहाणि वा खरमुहिसद्दाणि वा पिरिपिरियासद्दाणि वा अन्नयराणि वा तहप्पगाराई विख्वरुवाईसहाई झसिराई कन्नसोयपडियाए णो अभिसंधारंजा गमणाए ४॥
॥ सू० १६८॥ 'स' पूर्वाधिकृतो भिक्षयदि विततततधनशुषिररूपांश्चतुर्विधानातोघशब्दान् शृणुयात् , ततस्तच्छवणप्रतिज्ञया 'नाभिसन्धारयेद्गमनाय न तदाकर्णनाय गमनं कुर्यादित्यथैः, तत्र विततं-मृदङ्गनन्दीझल्लर्यादि, ततं-वीणाविपञ्चीबद्धीसकादितन्त्रीवाद्यं, वीणादीनां च मेदस्त्रन्त्रीसङ्ख्यातोऽवसेयः, घनं तु-हस्ततालकंसालादि प्रतीतमेव नवरं लत्तिकाकंशिका गोहिका-भाण्डानां कक्षाहस्तगतातोद्यविशेषः 'किरिकिरिया' तेषामेव वंशादिकम्बिकातोद्यं, शुषिरं तु शङ्क
| ॥
५५॥
Page #414
--------------------------------------------------------------------------
________________
भीआचाराजवृत्तिः (शोलाका.)
श्रुतः . चुलिका २
सप्तकका.
॥८५६॥
वेवादीनि प्रतीतान्येव, नवरं खरमुही-तोडाडिका 'पिरिपिरियत्ति कोलियकपुटावनद्धा वंशादिनलिका, इत्येष सूत्रचतुष्टयसमुदायार्थः ॥ किश्च
से भिक्खू वा २ अहावेगइयाई सद्दाइ सुणेह, तंजहा-वप्पाणि वा फलिहाणि वा जाव सराणि वा सागराणि वा सरसरपंतियाणि वा अन्नयराइ वा तहप्पगाराई विरूवरूवाइ सदाइ कण्णसोयपडियाए नो अभिसंधारिजा गमणाए ?॥ से भिक्खू वा २ अहावेगइयाइ' सद्दाइ सुणह, तंजहा-कच्छाणि वा णमाणि वा गहणाणि वा वणाणिवा वण दुग्गाणि वा पव्वयाणि वा पव्वयदुग्गाणिवा अन्नयराई वा तहप्पगाराई विरूवरूवाइसहाई कण्णसोयपडियाए नो अभिसंधारिजा गमगाए २॥ से भिक्खू वा २ अहावेगइयाई सद्दाई सुणेइ, तंजहा-गामाणि वा नगराणि वा निगमाणि वा रायहाणाणि वा आसमपट्टणसंनिवेसाणि वा अन्नयराइ वा तहप्पगाराई विरूवरूवाई सद्दाई कण्णसोयपडियाए नो अभिसंधारिजा गमणाए ३ ।। से भिक्खू वा २ अहा. वेगइयाई सद्दाई सुणेइ, तंजहा-आरामाणि वा उजाणाणि वा वणाणि वा वणसंडाणि वा देवकुलाणि वा स्भाणि वा पवाणि वा अन्नयराइ वा तहप्पगाराइ' विरूवरूवाई सद्दाई कण्णसोयपडियाए नो अभिसंधारिजा गमणाए ४ ॥ से भिक्ख
यहाणालियाईसहायपडियायदुग्गाणि
Page #415
--------------------------------------------------------------------------
________________
1८५७॥
वा २ अहावेगइयाई महाईसुणेइ, तंजहा–अट्टाणि वा अद्यालयाणि वा नरियाणि वा दाराणि वा गोपुर,णि वा अन्न यराईवा तहप्पगाराइ विरूवरूवाई सद्दाई कण्णसोयपडियाए नो अभिसंधारित्रा गमणाए ५॥ से भिक्ख वा २ अहावेगइमाई सहाइ सुणेइ, तंजहा–तियाणि ग चउक्काणि वा चच्चराणि वा, चउम्मुहाणि वा अन्न. यराइ वा तहप्पगाराविरूवरूवाइ सहाई कण्णसोयपडिया नो अभिसंधारिजा गमणाए ॥ से भिक्ख वा २ अहावेगइयाई सद्दाइ सुणेई', तंजहा-महिसकरण हाणाणि वा वसभकरणट्ठाणाणि वा अस्सकरणट्ठाणाणि वा.हस्थिकरणट्ठाणाणि वा जाव कविंजलकरणट्ठाणाणि वा अन्नयराई वा तहप्पगाराई विरूवरूवाई सद्दाई कण्णसोय पडियाए नो अभिसधारिजा गमणाए ७॥से भिक्ख वा २ अहावेगइयाई सहाई सुणइ, तजहा-महिसजुडाणि वा जाव कविंजलजुडाणि वा अन्नयराई वा तहप्प गाराई विरूवम्वाइ सहाई कण्णसोयपडियाए नो अभिसंधारिजा गमणाए ८ ॥ से भिवाव वा २ अहावेगइयाई सद्दाई सुणेइ, तंजहा-पुवजूहियठाणाणि वा हय जूहियठाणाणि वा गयजूदियठाणाणि वा अन्नयराई वा तहप्पगाराई विरूवरुवाई सहाई कण्णसोयपडियाए नो अभिसंधारिजा.गमणाए ॥ सू०१३९॥
॥८५७॥
Page #416
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शीलाका.)
तस्कं.२ चूलिका.. शब्द सप्तै
॥८५८ ॥
स भिक्षुरथ कदाचिदेकतरान् कांश्चित शब्दान् शृणुयात , तद्यथा-'वप्पाणि वेति वप्रः-केदारस्तटादिर्वा, तद्वर्णकाः शब्दा वप्रा एवोक्ताः, वप्रादिषु वा श्रव्यगेयादयो ये शब्दास्तच्छ्वणप्रतिज्ञया वप्रादीन गच्छेदित्ये सर्वत्रायोज्यम् । अपि च-यावन्महिषयुद्धानीति षडपि सूत्राणि सुबोध्यानि ॥ किञ्च-म भिक्षुयुथमिति-द्वन्द्वं वध्वगदिकं तत्स्थानं वेदिकादि, तत्र श्रव्यगेयादिशब्दश्रवणप्रतिज्ञया न गच्छन् , वधूवरवर्णनं वा यत्र क्रियते तत्र न गच्छेदिति, एवं हयगजयथादिस्थानानि द्रष्टव्यानीति ॥ तथा
से भिक्खू वा २ जाव सुणेइ, तंजहा-अक्खाइयठाणाणि वा माणुम्माणियहाणाणि वा महताऽऽहयनगोयवाईयतंतीतलतालतुडियपडुप्पवाइयहाणाणि वा अन्नयराइ' तहप्प. गाराह सहाईनो अभिसंधारेजा गमणाए १॥ से भिक्खू वा २ जाव सुणा, तंजहाकलहाणि वा डिंबाणि धा डमराणि वा दोरजाणि वा वेरजाणि वा विरुद्धरजाणि वा अन्नयराइ तहप्पगाराइ सहाई नो अभिसंधारेजा गमणाए २॥ से भिक्खू वा २ जाव सुणेइ खुडियं दारियं परिभुत्तमंडियं अलंकियं निवुझमाणि पहाए पगं वा पुरिसं वहाए नीणिज्जमाणं पेहाए अन्नयराणि वा तहपगाराणि वा नो अभिसंवारेजा गम. णाए ३ ॥ से भिक्खू वा २ अन्नयराई विरूवरूवाई महासवाइ' एवं जाणेज्जा, तंजहाबहुसगडाणि वा बहुरहाणि वा बहुमिलक्खणि वा बहुपचंताणि वा अन्नयराइतहप्प
Page #417
--------------------------------------------------------------------------
________________
200.00
.८५१॥
400000........300:
0
गाराइविरूवरूवाइ महासंवाई कन्नसोयपडियाए नो अभिसंधारित्रा गमणाए ४ ॥ से भिवखु वा अन्नयराइविरूवरूवा महुस्सवाइएवं जाणिना, तंजहा-इत्थीणि वा पुरिमाणि वा थेराणि वा डहराणि वा मज्झिमाणि वा आभरणविभूसियाणि वा गायंताणि वा वायंताणि वा नचंताणि वा हसंताणि वा रमंताणि वा मोहंताणि वा विपुलं असणं पाणं स्वाइमं साइमं परिभुजंताणि वा परिभायंताणि वा विल्लड्डिय. माणाणि वा विगोवयमाणाणि वा अन्नयराई तहप्पगाराई विरूवरूवाइ महुस्सवाइ कन्नसोयपछियाए नो अभिसंधारेजा गमणाए ५॥ से भिक्खू वा २ नो इहलाइएहिं सद्देहिं नो परलोइएहिं सद्दहिं नो सुएहिं सद्देहिं नो असुएहिं सद्देहिं नो दिहिं सद्दहिं नो अदिहिं सद्देहिं नो कनेहि सद्देहिं सजिजा ना गिज्झिज्जा नो मुज्झिज्जा नो अज्झोववजिजा॥ एवं स्खल तस्स जाव जएज्जासि त्तिवेमि ७ ॥ सू० १७०॥
। सहसत्तिकओ॥-२-४-(११)॥ स भिक्षुः 'आख्यायिकास्थानानि' कथानकस्थानानि, तथा 'मानोन्मानस्थानानि' मान-प्रस्थकादिः उन्मानंनाराचादि, यदिवा मानोन्मानमित्यश्वादीनां वेगादिपरीक्षा तत्स्थानानि तद्वर्णनस्थानानि वा, तथा महान्ति च तानि आहननृत्यगीतादिवतन्त्रीतलतालत्रुटितप्रत्युत्पन्नानि च षां स्थानानि-समास्तर्णनानि वा श्रवणप्रतिज्ञया नाभि
06.04
८५९॥
Page #418
--------------------------------------------------------------------------
________________
सन्धारयेद्गमनायेति ॥ किश्च-कलहादिवर्णनं तत्स्थानं वा श्रवणप्रतिज्ञया न गच्छेदिति ॥ अपि च-स मिनुः क्षुल्लिका श्रीआचा. 'द्वारिकां' डिक्करिकां मण्डितालङकृतां बहुपरिवृतां 'णिवुझमाणिति अश्वादिना नीयमाना, तथैकं पुरुषं वधाय
E श्रुतस्कं० २ रावृत्तिः नीयमानं प्रेक्ष्याहमत्र किश्चिच्छो ज्यामीति श्रवणार्थ तत्र न गच्छेदिति ॥ म भिक्षुर्यान्येवं जानीयात् , महान्त्येतान्याश्रव
चूलिका.. (शीलाङ्का.) स्थानानि-पापोपादानस्थानानि वर्तन्ते, तद्यथा-बहुशकटानि बहुरथानि बहुम्लेच्छानि बहुप्रात्यन्तिकानि, इत्येवं
शब्द सप्तै० ॥८६ ॥ प्रकाणि स्थानानि श्रवणप्रतिज्ञया नाभिसन्धाग्येद् गन्तुमिति ॥ किश्च-स भिक्षुर्महोत्सवस्थानानि यान्येवं भूतानि
जानीयात् , तद्यथा-स्त्रीपुरुषस्थविरबालमध्यवयांस्येतानि भूषितानि गायानादिकाः क्रिया यत्र कुर्वन्ति तानि स्थानानि 8 श्रवणेच्छया न गच्छेदिति ॥ इदानीं सर्वोपसंहारार्थमाह-सः 'भिक्षः ऐहिकामुष्मिकापायभीरुः 'नो' नैव 'ऐहलोकिक'
मनुष्यादिकृतैः 'पारलोकिकः' पारापतादिकृतैहिकामुष्मिकै शब्दः, तथा श्रुतैरश्रुतैर्वा, तथा साक्षादुपलब्धैरनुपलब्धर्वा 'न सङग कुर्यात्' न गगं गच्छेत् न गाद्धर्य प्रतिपद्युत न तेषु मुद्यत नाध्युपपन्नो भवेत् , एतत्तस्य भिक्षोः।
सामग्र्यं, शे पूर्ववत् , इह च सर्वत्रायं दोषः-अजितेन्द्रियत्वं स्वाध्यायादिहानी रागद्वेषसम्भव इति, एवमन्येऽपि दोषा। । एहिकामुष्मिकागयभृताः स्वधिया समालोच्या इति ॥ चतुर्थसप्तककाध्ययनमादित एकादशं समाप्तम् ॥.२-२-४-(११) ॥
--
--
॥
६
॥
Page #419
--------------------------------------------------------------------------
________________
.८६१
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀.
॥ अथ पञ्चमरूपाध्ययनम् ॥ अथ पश्चम रूपसप्ककमध्ययनम् । चतुर्थसप्तककानन्तरं पञ्चमं समारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-महानन्तरं । श्रवणेन्द्रियमाश्रित्य रागद्वेषोत्पत्तिर्निषिद्धा तदिहापि चक्षुरिन्द्रियमाश्रित्य निषिध्यते, इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्याध्ययनस्य नामनिष्पन्ने निक्षेपे रूपसप्तैकक इति नाम, तत्र रूपम्य चतुर्धा निक्षेपः नामस्थापने अनादृत्य द्रव्यमावनिक्षेपार्थ नियुक्तिकद् गाथाऽर्द्धमाह
दव्वं संठाणाई भावो वन्न कसिणं सभावो य । दध्वं सहपरिणयं भावो उ गुणा य कित्ती य ॥३२४॥
तत्र द्रव्यं नोआगमतो व्यतिरिक्तं पश्च संस्थानानि परिमण्डलादीनि, भावरूपं द्विधा-वर्णतः स्वभावतच, तत्र वर्णतः कृत्स्नाः पश्चापि वर्णाः, स्वभावरूपं त्वन्तर्गतक्रोधादिवशाग़ मङ्गललाटनयनारोपणनिष्ठावागादिकम् , एतद्विपरीतं प्रसन्न स्येति, उक्तञ्च-रुहस्स खरा विट्ठी उप्पलधवला पसन्नचित्तस्स । दुहियस्स ओमिलायइ गंतुमणस्सु. स्सुआ होइ॥१॥" सूत्रानुगमे सूत्रं, तच्चेदम् -
से भिक्खू वा २ अहावेगइयाई रुवाई पासइ, तंजहा-गंथिमाणि वा वेहिमाणि वा
पूरिमाणि वा संघाइमाणि वा कट्ठकम्माणि वा पोत्थकम्माणि वा चित्तकम्माणि मणि. १ रुष्टस्य खरा दृष्टिः उत्पलधवला प्रसन्नचित्तस्य । दुःखितस्यावम्लायति गन्तुमनस उत्सुका भवति ।।१।।
Page #420
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीआचाराजवृत्तिः (चीलाका.)
श्रतस्कं. २ चूलिका २ रूपसप्त
८१२॥
कम्माणि वा दंतकम्माणि(मालकम्माणि)वा पत्त छिन्नकम्माणि वा विविहाणि वा वेढिमाई' अन्नयराई तहप्पगाराइ' विरूवरूवाई चक्खुदंसणपडियाए नो अभिसंघारिजा गमणाए, एवं नायव्वं जहा सहपविमा सव्वा वाइत्तवजा रूवपडिमावि ॥ सू० १७१ ॥
॥पञ्चमं सत्तिक्कयं ॥ २-२-५-(१२) ॥ स भावमिक्षुः क्वचित् पर्यटनथैकानि- कानिचिनानाविधानि रूपाणि पश्यति, तद्यथा-'ग्रथितानि' ग्रथितपुष्पादिनिर्वतितस्वस्तिकादीनि 'वेष्टिमानि' वस्त्रादिनिचितपुत्तलिकादीनि 'पूरिमाणि'त्ति यान्यन्तः पूरणेन पुरुषाद्याकृतीनि भवन्ति 'संघातिमानि' चोलकादीनि 'काष्ठकर्माणि' रथादीनि 'पुस्त कर्माणि' ले यकर्माणि 'चित्रकर्माणि' प्रतीतानि 'मणिकर्माणि' विचित्रमणिनिष्पादितस्वस्तिकादीनि, तथा 'दन्तकर्माणि' दन्तपुतलिकादीनि, तथा पत्रच्छेद्यकर्माणि, इत्येवमादीनि विरूपरूपाणि चक्षुदर्शनप्रतिज्ञया नाभिसन्धाग्येद्गमनाय, एतानि द्रष्टुंगमने मनोऽपि न विदध्यादित्यर्थः । एवं शब्दसप्तैककसूत्राणि चतुर्विधातोद्यरहितानि सर्वाण्यपीहायोज्यानि केवलं रूपप्रतिज्ञयेत्येवमभिलापो योज्या, दोषाश्चात्र प्राग्वत्समा-8 योज्या इति ॥ पश्चमं सप्तककाध्ययनमादितो द्वादशं समाप्तमिति ॥ २-२-५-(१२)।
॥
६२ ।
Page #421
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ ६६३ ॥
॥ अथ षष्ठ परक्रियाध्ययनम् ॥
अथ षष्ठं परक्रियाभिधं सप्तैककमध्ययनम् । साम्प्रतं पश्चमानन्तरं षष्ठः सप्तैककः समारभ्यते, अस्य चायममिसम्बन्धः - अनन्तरं रागद्वेषोत्पत्तिनिमित्तप्रतिषेधोऽभिहितः, तदिहापि स एवान्येन प्रकारेणाभिधीयते इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्य नामनिष्पन्ने निक्षेपे परक्रियेत्यादानपदेन नाम, तत्र परशब्दस्य षड्विधं निक्षेपं दर्शयितुं नियुक्तिकारो गाथाऽर्द्धमाह
कं परइकिक्कं त ? न २ माएस ३ कम ४ बहु ५ पहाणे ६ ।
षट्कं 'पर' इति परशब्दविषये नामादिः षड्विधो निक्षेपः, तत्र नामस्थापने क्षुण्णे, द्रव्यादिपरमेकैकं षड्विधं भवतीति दर्शयति, तद्यथा - तत्परम् १ अन्यपरम् २ आदेशपरं ३ क्रमपरं ४ बहुपरं ४ प्रधानपर 8 मिति, तत्र द्रव्यपरं तावत्तद्रूपतयैव वर्त्तमानं - परमन्यत्तत्परं यथा परमाणोः परः परमाणुः १, अन्यपरं स्वन्यरूपतया परमन्यद्, यथा एकाकाद्धलुककादि, एव दूधलुक देवाणुक ज्यणुकादि २, 'आदेशपरम' आदिश्यते - आज्ञाप्यत इत्यादेशः - यः कस्यचिक्रियायां नियोज्यते कर्मकरादिः स चासौ परचादेशपर इति ३, क्रमपरं तु द्रव्यादि चतुर्द्धा तत्र द्रव्यतः क्रमपरमेकप्रदेशिकद्रव्याद् द्विपदेशिकद्रव्यम्, एवं द्वयणुकात्र्यणुकमित्यादि क्षेत्रत एकप्रदेशावगाढाद् द्विप्रदेशावगाढमित्यादि, कालत एकसमयस्थितिकाद् द्विसमयस्थितिकमित्यादि, भावतः क्रमपरमेकगुण कृष्णा द्विगुण कृष्णमित्यादि ४,
॥ ८६३ ॥
Page #422
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रुतस्कं०२ चूलिका २ परक्रि० ६.
बहुपरं बहुत्वेन परं बहुपरं यद्यस्मादबहु तद्बहुपरं, तद्यथा-"जीवा पुग्गल समया दव्य पएसा य पज्जवा श्रीआचा राजवृत्तिः
चेव । थोवाणंताणता विसेसअहिया दुवेऽणता ॥१॥" तत्र जीवाः स्तोकाः तेभ्यः पुद्गला अनन्तगुणा (घीलासा.)
इत्यादि ५, प्रधानपरंतु प्रधानत्वेन परः, द्विपदानां तीर्थकरः चतुष्पदानां सिंहादिः अपदानामजुनसुवर्णपनसादिः ६,
एवं क्षेत्रकालभावपराण्यपि तत्परादिषड्विधत्वेन क्षेत्रादिप्रधान्यतया पूर्ववत्स्वधिया योज्यानीति, सामान्येन तु जम्बू"८६४॥ar द्वीपक्षेत्रात्पुष्करादिकं क्षेत्रं परं, कालपरं तु प्रावृटकालाच्छरत्कालः, भावपरमौदयिकादौपशमिकादिः ॥ साम्प्रतं सूत्रानुगमे
सूत्रमुच्चारणीयं, तच्चेदम्
परकिरियं अज्झत्यियं संसेसियं नो तं सायए नो तं नियमे, सिया से परो पाए आमजिज वा पमजिज वा नो तं सायए नातं नियमे १। से सिया परो पायाइ' संवाहिज्ज वा पलिमद्दिज वा नो तं सायए नो तं नियमे २ । से सिया परो पायाइ कुसिज्ज वा रइज्ज वा नो तं सायए नो तं नियमे ३। से सिया परा पायाई तिल्लेण वा घएण वा वसाए वा मक्खिन वा अभिगिज वा नो तं सायए २,४ । से सिया परो पायाइलद्धेण वा कक्केण वा चुन्नेण वा वण्णेण वा उल्लोबिज्ज वा उव्वलित वा नो तं सयाए २,५। से सिया परी पायाई सीओदगवियडेण वा २ उच्छोलिन वा पहोलिज्ज वा नो तं सायए २,६। से सिया परो पायाई अन्नयरेण विलेवणजाएण
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
या सोभोदगविपडेण वा २ जल्लोलित वा
॥
६
॥
Page #423
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥८६५॥
आलिंपिज्ज वा विलिंपिज वा नीतं सायए २,७। से सिया परो पायाई अन्नयरेण धूवणजाएण धूविज वा पधूविज वा नो तं सायए. २, ८ । से सिया परी पायाओ आणयं वा कंटयं धानोहरिज वा विसोहिज वा नो तं सायए २,९। से सिया परो पायाओ पूर्व वा सोणियं वा नोहरिज वा विसोहिज्ज वा नो तं सायए २, १० । से सिया परो कार्य आमज्जेज वा पमजिज वा नो तं सायए मोतं नियमे ११। से सिया परो कायं लोण वा संवाहिज्ज वा पलिमदिज्ज वा नो तं सायए २, १२ । से सिया परो कार्य तिल्लेण वा घरण वा वसाए वा मक्खिन वा अनगिन्ज वा नो तं सायए २, १३ । से सिया परो कायं लद्धेण वा कक्केण वा चुपणेण वा वण्णेण वा उल्लोढिन्ज वा उज्वलिज वा नो तं सायए २,१४। से सिया परो कार्य सीओदगविय. डेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलिन वा पधोविज वा नो तं सायए २, १५ । से सिया परो कार्य अन्नयरेण विलेवणजाएण आलिंपिज वा विलिपिज वा नो तं सायए २, १३ । से सिया परो कायं अन्नयरेण धूवणजाएण धूविज वा पधूविज वा नो तं सायए २, १७ । से सिया परो कायंसि वणं आमजिज वा पमजिज वा नो तं सायए २,१८ । से सिया परो कायंसि वणं संवाहिन्न वा पलिमदिन वा नोतं
। ८६
Page #424
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीआचाराङ्गवृत्तिः (शीलाङ्का.) ॥८६६ ॥
श्रतस्क०२ चूलिका.२ परिक्र.
सायए। से सिया परो कायंसि वणं तिल्लेण वा घएण वा वसाए वा मक्खिन वा अम्भंगिज वा नो तं सायए २, १९। से सिया परो कायंसि वणं लडेण वा ४ उल्लोहिज वा उव्वलेज वा नो तं सायए ०,२०। से सिया परो कायंसि वणं सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलिज्ज वा पधोविज वा नो तं सायए २, २१ । से सिया परो कायंसि वणं वा गंडं वा अरई वा पुलयं वा भगंदलं वा अन्नयरेणं सत्थजाएणं अच्छिदिज्ज वा विच्छिदिज वा नो तं सायए २, २२ । से सिया परो अन्नयरेण सत्थजाएण आञ्छिदित्ता वा विच्छिदित्ता वा पूयं वा सोणियं वा नीहरिज वा विसोहिज वा नो तं सायए २, २३ । से सिया परो कायंसि गंडं वा अरहवा पुलइयं वा भगंदलं वा आमजिज वा पमजिज वा नो तं सायए २, २४ । से सिया परो कार्यसि गंडं वा ४ संवाहिज वा पलिमहिज वा नो तं सायए २, २५ । सिया से परो कायंसि गंडं वा ४ तिल्लेण वा ३ मक्खिन वा अभंगिन्ज वा नो तं यसाए २, २६ । से सिया परो कार्यसि गंडं वालुद्धण वा ४ उल्लोदिज वा उव्वलिज वा नो तं सायए २, २७ । से सिया परो कायंसि गंडवा ४ सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलिज्ज वा पधोविन्न वा नो तं सायए २, २८ । से सिया परो कायंसि गंडं वा ४
Page #425
--------------------------------------------------------------------------
________________
11८६७॥
अन्नयरेणं सत्थजाएणं अच्छिदिल वा विच्छिदिल वा अन्नयरेणं सत्थजाएणं अच्छिदित्ता वा विच्छिदित्ता वा पूयं वा सोणियं वा नीहरिज वा विसोहिज्ज वा नो तं सायए २, २९ । से सिया परो कायंसि सेयं वा जल्लं वा नीहरिज वा विसोहिन्ज वा नो तं सायए २, ३० । से सिया परी अच्छिमलं वा कण्णमलं वा दंतमलं वा नहमलं वा नोहरिज वा विसोहिज वा नो तं सायए २, ३२। से सिया परो दोहाई वालाई दोहाइवा रोमाई दीहाई भमुहाई दोहाइ कक्वरोमाई दाहाई वस्थिरोमाइ' कप्पिज वा संठविज वा नो तं सायए २, ३२ । से सिया परो सोसाओ लिक्खं वा जूयं वा नीहरिज वा विसोहिज वा नो तं सायए २, ३३ । से सिया परो अंकसि वा पलियंकंसिवा तुयहावित्ता पायाई आमजिज वा पमजिज्ज वा नो तं सायए २,एवं हिहिमो गमो पायाइ भाणियव्वो ३४ । से सिया परो अंकंसिवा पलियंकसि वो तुयहावित्ता हारं वा अडहारं वा उरत्थं वा गेय वा मउडं वा पालंबं वा सुवन्नसुतं वा आविहिज्ज वा पिणहिज वा नो तं सायए २, ३५। से सिया परो आरामंसि वा उजाणंसि वा नीहरित्ता वा पविसित्ता वा पायाई आमन्जिन वा पमजिज वा नो तं सायए २, ३६ । एवं नेयव्चा अन्नमन्नकिरियावि ३७ ॥ सू. १७२॥
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
॥८६७ ॥
Page #426
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीआचारावृत्तिः शीलाका.)
चूलिका २ परक्रि०६
॥८६८॥
पर-आत्मनो व्यतिरिक्तोऽन्यस्तस्य क्रिया-चेष्टा कायव्यापारूपा ता पक्रियाम् 'आध्यात्मिकोम' आत्मनि क्रिय माणां, पुनरपि विशिनष्टि—'सांश्लेषिकी' कर्मसंश्लेषजननीं 'नो' नैव 'आस्वादयेत्' अभिलषेत्, मनसा न तत्राभिलाषं कुर्यादित्यर्थः, तथा न त परक्रिया नियमयेत्' कारयेद्वाचा, नापि कायेनेति । तां च पक्रियां विशेषतो दर्शयति'से' तस्य साधोर्निष्प्रतिकर्मशरीरस्य सः 'पर' अन्यो धर्मश्रद्धया पादौ ग्जोऽवगुण्ठिनौ आमृज्यात कर्पटादिना, वाशब्दस्तूत्तरपक्षापेक्षः, तन्नास्वादयेनापि नियमयेदिति, एवं स साधुस्तं परं पादौ संबाधयन्तं मर्दयन्तं वा स्पर्शयन्तंरञ्जयन्तं, तथा तैलादिना म्रनयन्तमभ्यञ्जयन्तं वा तथा लोधादिना उद्वर्त्तनादि कुर्वन्तं, तथा शीतोदकादिना उच्छोलनादि कुर्वाणं, तथाऽन्यतरेण सुगन्धिद्रव्येणालिम्पन्त तथा विशिष्टधूपेन धूपयन्तं, तथा पादात्कण्टकादिकमुद्धरन्तम्, एवं शोणितादिकं निस्सारयन्तं 'नास्वादयेत्' मनसा नामिलषेत नापि नियमयेत-कारयेद्वाचा कायेनेति ॥ शेषाणि कायव्रणगतादीनि आरामप्रवेशनिष्क्रमणप्रमार्जनसूत्रं यावदुत्तानार्थानि ॥ एवममुमेवार्थमुत्तरसप्तककेऽपि तुल्यत्वात्सङ्क्षेपरुचिः सूत्रकारोऽतिदिशति- 'एवम्' इति याः पूर्वोक्ताः क्रिया-रजाप्रमार्जनादिकास्ताः 'अन्योऽन्य' परस्परतः साधुना कृतप्रतिक्रियया न विधेया इत्येवं नेतन्योऽन्योऽन्यक्रियासप्त कक इति ।। किश्च
से सिया परो सुद्धणं वहवलेण वा तेइच्छं आउट्टे, से सिया परो असुद्धेणं वइबलणं तेइच्छं आउट्टे से सिया परो गिलाणस्स सचित्ताणि वा कंदाणि वा मूलाणि वा तयाणि वा हरियाणि वा खणित्तु कड्डित्त वा कट्ठावित्तु वा तेइच्छं आउटाविज नो तं
Page #427
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥८६६
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
साइए २, २। कडवेयणा पाणभूयजीवसता वेगणं वेइंति ३। एयं खल तस्स भिक्खुस्स भिक्खुणोए वा सामग्गियं जं सवढेहिं सहिए समिए सया जए सेयमिणं
मनिजासि ४ । तिमि ॥ सू० १७३ ॥ छट्ठओ सत्तिक्कओ ॥ २-1-1-(१३) ॥ . से तस्य साधोः स पर शुद्धनाशुद्धेन वा 'वाग्यलेन' मन्त्रादिसामर्थेन 'चिकित्सा' व्याध्युपशमम् ‘आउद्दे'त्ति कत्त ममिलषेत । तथा स परो ग्लानस्य साधोश्चिकित्सार्थ सचित्तानि कन्दमूलादीनि 'ग्वनित्वा' ममाकृष्य स्वतोऽन्येन वा खानयित्वा चिकित्सां कत्तु ममिलषेत् तच्च नास्वादयेत्' नामिलषेन्मनसा, एतच्च भावयेत्-इह पूर्वकतकर्मफलेश्वरा जीवाः कर्मविपाककृतकटुकवेदनाः कृत्वा परेषां शारीग्मानमा वेदनाः स्वतः प्राणिभूतजीवसत्तास्तत्कर्मविपाका वेदनामनुभवन्तीति, उक्तञ्च-"पुनरपि सहनीयो दुःखपाकस्तवायं, न खलु भवति नाशः कर्मणां सञ्चिता
।। इति सहगणयित्वा यद्यदायाति सम्यक, सदसदिति विवेकोऽन्यत्र भूयः कुतस्ते ? ॥१॥" शेषमुक्तार्थ यावदध्ययनपरिसमाप्तिरिति । षष्ठमादितस्त्रयोदशं सप्तककाध्ययनं समाप्तम् ॥ २-२-६- १३) ॥
६४॥
Page #428
--------------------------------------------------------------------------
________________
मीआचा
राङ्गवृत्तिः
(शीलाङ्का.)
॥ ८७० ॥
॥ अथ सप्तमं अन्योन्यक्रियाध्ययनम् ॥
अथ सप्तममन्योऽन्यक्रियाभिधमध्ययनम् । षष्ठानन्तरं सप्तमोऽस्य चायमभिसम्बन्धः - इहानन्तराध्ययने सामान्येन परक्रिया निषिद्धा, इह तु गच्छनिर्गतोद्देशेनान्योऽन्यक्रिया निषिध्यते इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्याध्ययनस्य नामनिष्पन्ने निक्षेपे अन्योऽन्यक्रियेति नाम, तत्रान्यस्य निदोषार्थ नियुक्तिकृद् गाथापश्चार्द्धमाह -
अन्ने छक्कं तं पुण तदन्नमाएसओ चेव ॥ ३२५ ॥
अन्यस्य नामादिषड्विधो निक्षेपः, तत्र नामस्थापने क्षुण्णे, द्रव्यान्यस्त्रिधा - तदन्यद् अन्यान्यद् आदेशान्यच्चेति द्रव्यपवन्नेयमिति ॥ अत्र परक्रियायामन्योऽन्य क्रियायां च गुच्छान्तर्गतैर्यतना कर्त्तव्येति, गच्छनिर्गतानां स्वेतया न प्रयोजनमिति दर्शयितु नियुक्ति दाह
**
जयमाणस्स परो जं करेह जयणाए तत्थ अहिगारो । निष्पडिकम्मस्स उ अन्नमन्नकरणं अजुन्तं तु ॥ ३२६ ॥ सत्तिक्काणं निज्जुत्ती सम्मत्ता ॥ जयमाणस्सेत्यादि पातनिकयैव भावितार्था । साम्प्रतं सूत्रं तच्चेदम् -
1.
से भिक्खू वो २ अन्नंमन्नकिरियं अज्झत्थियं संसेइयं नो तं सायए २, १ ॥ से अन्नमन्नं पाए आमज्जिज्ज वा पेमज्जिज्ज वा नो तं सायए २, सेसं तं चैव २ ॥ एयं खलु जाव : जज्जासि तिबेमि ३ ॥ सू० १७४ ॥ सप्तमम् ॥ २-२ - ७ - (१४)(२३) ॥
श्रुत• २ चूलिका • २ अन्यो० ७
॥ ८७० ॥
Page #429
--------------------------------------------------------------------------
________________
८७१
__ अन्योऽन्यस्य-परस्परस्य क्रिया-पादादिप्रमार्जनादिकां सर्वा पूर्वोक्ता. क्रियाव्यतिहारविशेषितामाध्यात्मिकी सांश्लेषिकी नास्वादयेदित्यादि पूर्ववन्नेयं यावदध्ययनसमाप्तिरिति ॥ सप्तममादितश्चतुर्दशं, सप्तककाध्ययनं समाप्त, द्वितीया च समाप्ता चूलिका ।। २-२-७-(१४)॥
... ॥ अथ भावनाख्या तृतीया चूलिका ॥ उक्ता द्वितीया चूला, तदनन्तरं तृतीया ममारभ्यते, अस्याश्चायममिसम्बन्धः-इहादितः प्रभृति येन श्रीवर्धमानस्वामिनेदमर्थतोऽभिहितं तम्योपकारित्वात्तद्वक्तव्यता प्रतिपादयितु तथा पश्चमहाव्रतोपेनेन साधुना पिण्डशय्यादिक ग्राह्यमतस्तेषां महाव्रतानां परिपालनार्थ भावना प्रतिपाद्या इत्यनेन सम्बन्धेनायातेयं धूडेति, अस्थानत्वायनुयोगद्वाराणिa भवन्ति, तत्रोपक्रमान्तर्गतोऽयमर्थाधिकारः, तद्यथा-अप्रशस्त भावनापरित्यागेन प्रशस्ता भावना भावयितव्या इति, नामनिष्पन्ने निक्षेपे भावनेति नाम, तस्याश्च नामादि चतुर्विधो निक्षेपः तत्र नामस्थापने क्षुण्णत्वादनादृत्य द्रव्यादिनिक्षेपार्थ नियुक्तिकृदाहदव्वं गंधंगतिलाइएसु सीउण्हविसहणाईसु । भावंमि होइ दुविहा पसत्य तह अप्पसत्था य ॥ ३२७ ॥
तत्र 'द्रव्य'मिति द्रव्यभावना नोआगमतो व्यतिरिक्ता गन्धाङ्ग:-जातिकुसुमादिभिव्यस्तिलादिषु द्रव्येषु या वासना सा द्रव्यभावनेति, तथा शीतेन मावितः शीतसहिष्णुरुष्णेन वा उष्ण सहिष्णुर्भवतीति, आदिग्रहणाद्वथायामक्षुण्णदेहो
८७१॥
Page #430
--------------------------------------------------------------------------
________________
चूलिका.३ भावना
(चौलाका
व्यायामसहिष्णुरित्याद्यन्येनापि द्रव्येण द्रव्यस्य या भावना सा द्रव्यभावनेति, भावे तु-भावविषया प्रशस्ताऽप्रशस्तभेदेन बीआचा
द्विरूपा भावनेति ।। तत्राप्रशस्त-भावभावनामधिकृत्याह- . बङ्गतिः
पाणिवह मुसावाए अदत्तमेहणपरिग्गहे चंच । कोहे माणे माया लोभे य हवंति अपसत्था ॥ ३२८॥
प्राणिवधायकार्येषु प्रथमं प्रवर्त्तमानः साशङ्कः प्रवर्तते पश्चात्पौनः पुन्यकरणतया निशङ्कः प्रवर्त्तते, तदुक्तम्- "करो.८७२॥ त्यादौ तावत्सघणहृदयः किञ्चिदशुभं, द्वितीयं सापेक्षो विमृशति च कार्य च कुरुते । तृतीयं निःशको विगतघणम
न्यत्प्रकुरुते, नतः पापाभ्यासात्सननमशुभेषु प्ररमते ॥ १॥" ॥ प्रशस्तभावनामाह-- दंसणनाणचरिते तववेरग्गे यहोइ उपसत्था।जा य जहा ता य तहा लकवण बुच्छ सलक्षणओ ॥३२९॥
दर्शनज्ञानचारित्रतपोवैराग्यादिषु या यथा च प्रशस्तभावना भवति तो प्रत्येकं लक्षणतो वक्ष्य इति ॥ दर्शनभावनार्थमाहतित्थगराण भगवओ पवयणपावयणिअहसइड्रीणं । अभिगमणनमणदरिसणकित्तणसंपूअणाथुणणा॥३३॥
तीर्थकृता भगवता प्रवचनस्य-द्वादशाङ्गस्य गणिपिटकस्य, तथा प्रावचनिनाम्-आचार्यादीनां युगप्रधानाना, तथाऽतिशयिनामृद्धिमता-केवलिमनःपर्यायावधिमच्चतुर्दशपूर्व विदा तथाऽऽमोषध्यादिप्राप्तऋद्धीनां यदभिगमनं गत्वा च दर्शनं तथा गुणोत्कीर्तनं संपूजनं गन्धादिना स्तोत्रैः स्तवनमित्यादिका दर्शनभावना, अनया हि दर्शनभावनयाऽनवरतं ।
भाव्यमानया दर्शनशुद्धिर्भवतीति ॥ किञ्चB जम्माभिसेयनिक्खमणचरणनाणुप्पया य निव्वाणे । दियलोअभवणमंदरनंदोसरभोमनगरेसु ॥३१॥
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
Page #431
--------------------------------------------------------------------------
________________
अट्ठावयमुजिते गयग्गपयए य धम्मचक्के य । पासरहावत्तमगं चमरुप्पायं च वंदामि ॥ ३३२ ॥
तीर्थकृतां जन्मभूमिषु तथा निष्क्रमणचरणज्ञानोत्पत्तिनिर्वाणभूमिषु तथा देवलोकभवनेषु मन्दरेषु तथा नन्दीश्वरद्वीपादौ मोमेषु च-पातालभवनेषु यानि शाश्वतानि चैत्यानि तानि वन्देऽहमिति द्वितीयगाथायामन्ते क्रियेति, एवमष्टापदे, तथा श्रीमदुज्जयन्तगिरी 'गजानपदे' दशार्णकूटवर्तिनि तथा तक्षशिलायां धर्मचक्रे तथा अहिच्छत्रायां पार्श्वनाथस्य धरणेन्द्रमहिमास्थाने, एवं रथावतें पर्वते वैरस्वामिना यत्र पादपोपगमनं कृतं यत्र च श्रीमवर्द्धमानमाश्रित्य चमरेन्द्रणोत्पतनं कृतम्, एतेषु च स्थानेषु यथासम्मवभिगमनवन्दनपूजनोत्कीर्तनादिकाः क्रियाः कुर्वतो दर्शनशुद्धिभवतीति ॥ किश्च -
गणियं निमित्त जुत्ती संदिट्ठी अवितहं इमं नाणं । इय एगंतमुवगया गुणपञ्चाया इमे अत्था ॥३३३॥ गुणमाहप्पं इसिनामकित्तणं सुरनरिंदपूया य । पोराणचेइयाणि य इय एसा दंसणे होइ ॥ ३३४॥
प्रवचनविदाममी गुणप्रत्ययिका अर्था भवन्ति, तद्यथा-गणितविषये-बीजगणितादौ परंपारमुपगतोऽयं, तथाऽष्टाङ्गस्य निमित्तस्य पारगोऽयं, तथा दृष्टिपातोक्ता नानाविधा युक्ती:-द्रव्यसंयोगान् हेतून्वा वेत्ति, तथा सम्यग्-अविपरोता दृष्टि:-दर्शनमस्य त्रिदशैरपि चालयितुमशक्या तथाऽवितथमस्येदं ज्ञानं यथैवायमाह तत्तथैवेत्येवं प्रावचनिकस्याचार्यादेः प्रशंसां कुर्वतो दर्शनविशुद्धिर्भवतीति, एवमन्यदपि गुणमाहात्म्यमाचार्यादेव॑र्णयतः तथा पूर्वमहर्षीणां च नामोकीर्तनं कुर्वतः तेषामेव च सुरनरेन्द्रपूजादिकं कथयतः तथा चिरन्तनचैत्यानि पूजयतः इत्येवमादिकां क्रियां कुर्वतस्त
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
| ॥७३॥
Page #432
--------------------------------------------------------------------------
________________
भीमानागङ्गवृत्तिः शीलाका.
श्रुत०२ चूलिका भावनाभ्य०
द्वामनावासितस्य दर्शनविशुद्धिर्भवतीत्येषा प्रशस्ता दर्शनविषया भावनेति ॥ ज्ञानभावनामधिकृत्याह- . तत्तं जीवाजीवा नायव्वा जाणणा इहं दिहा । इह कजकरणकारगसिद्धी इह बंधमुक्खो य॥ ३३५॥ बडो य बंधहेऊ बंधणबंधप्फलं सुकहियं तु । संसारपवंचोऽवि य इहयं कहिओ जिणवरेहिं ॥ ३३६॥ नाणं भविस्सई एवमाइया वायणाइयाओ य । सज्झाए आउत्तो गुरुकुलवासो य इय नाणे॥ ३३७॥
तत्र ज्ञानस्य भावना ज्ञानभावना-एवंभृतं मौनीन्द्रं ज्ञानं प्रवचनं यथाऽवस्थिताशेषपदार्थाविर्भावमित्येवंरूपेति, अनया च प्रधानमोक्षाङ्गं सम्यक्त्वमाधिगमिकमाविर्भवति, यतस्तत्त्वार्थ श्रद्धानं सम्यग्दर्शनं, तत्त्वं च जीवाजीवादयो नव पदार्थाः, ते च तत्वज्ञानार्थिना सम्यग् ज्ञातव्याः , तत्परिज्ञानमि हैव-आर्हते प्रवचने दृष्टम-उपलब्धमिति, तथेहैव-आर्हते प्रवचने कार्य-परमार्थरूपं मोक्षास्यं तथा करणं-क्रियासिद्धो प्रकृष्टोपकारकं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि, कारकः-साधुः सम्यग्दर्शनाद्यनुष्ठाता, क्रियासिद्धिश्च-इहैव मोक्षावाप्तिलक्षणा, तामेव दर्शयति-बन्धः-कर्मबन्धनं तस्मान्मोक्ष:- कर्मविचटनलक्षणः, असावपी हैव, नान्यत्र शाक्यादिकप्रबचने भवति, इत्येवं ज्ञानं भावयतो ज्ञानभावना भवतीति । तथा 'बद्धः अष्टप्रकारकर्मपुद्गलैः प्रतिप्रदेशमषष्टब्धो जीवः, तथा 'बन्धहेतवः' मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाययोगाः तथा बन्धनम्अष्टप्रकारकर्मवर्गणारूपं तत्फलं-चतुर्गतिसंसारपर्यटनसातासाताद्यनुभव नरूपमिति, एतत्सर्वमत्रैव सुकथितम् , अन्यद्वा यत्किश्चित्सुभाषितं तदिहैव प्रवचनेऽभिहितमिति ज्ञानभावना, तथा विचित्रसंसारप्रपञ्चोऽत्रैव जिनेन्द्रः कथित इति ॥ तथा ज्ञानं मम विशिष्टतरं भविष्यतीति ज्ञानभावना विधेया, ज्ञानमभ्यसनीयमित्यर्थः, आदिग्रहणादेकाग्रचित्ततादयो
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
॥८७४।
Page #433
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ ८७५॥
गुणा भवन्तीति, तथैतदपि ज्ञाने भावनीयं, यथा-"जं अन्नाणी कम्मं खई" इत्यादि, तथै भिश्च कारणे नमभ्यसनीयं. तद्यथा-ज्ञानसङग्रहार्थ निर्जरार्थम् अव्यवच्छित्त्यर्थं स्वाध्यायार्थमित्यादि, तथा ज्ञान भावनया नित्यं गुरुकुल वासो भवति, तथा चोक्तम्-'णाणस्स होइ भागी थिरयरओ दंसणे चरित्ते य । धन्ना आवकहाए गुरुकुलवासं न मुश्चन्ति ॥१॥", इत्यादिका ज्ञानविषपा भावना भवतीति ॥ चारित्रभावनामधिकृन्याह
साहमहिंसाधम्मो सच्चमदत्तविरई य बंभं च । साहु परिंग्गहविरई साहु तवो बारसंगो य ॥३३८॥ वेरग्गमप्पमाओ एगत्ता(ग्गे) भावणा य एरिसगं । इय चरणमणगयाओ भणिया इत्तो तवो वुच्छं ॥३३॥
साधु-शोभनोऽहिंसादिलक्षणो धर्म इति प्रथमवतभावना, तथा सत्यमस्मिन्नेवाहते प्रवचने साधु-शोमनं नान्यत्रेति द्वितीयव्रतस्य, तथाऽदत्तविरतिश्चात्रैव साध्वीति तृतीयस्य, एवं ब्रह्मचर्यमप्यत्रैव नवगुप्तिगुप्तं धार्यत इति, तथा परिग्रहविरतिश्चेहैव साध्वीति, एवं द्वादशाङ्ग तप इहैव शोभनं नान्यत्रेति ॥ तथा वैराग्यभावना-सांसारिकसुखजुगुप्सारूपा, एवमप्रमादभावना-मद्यादिप्रमादानां कर्मबन्धोपादानरूपाणामनासेवन रूपा, तथैकाग्रभावना-२एको मे सासओ अप्पा, णाणदंसणसंजुओ। सेसा मे बहिरा भावा, सव्वे संजोगलक्खणा ॥१॥" इत्यादिका भावनाः ( इति प्रकृष्टमषित्वाङ्ग ) 'चरणमुपगता चरणाश्रिताः, इत ऊब तपोभावना 'वक्ष्ये' अभिधास्य इति ॥
१ ज्ञानस्य भवति भागी स्थिरतरो दर्शने चारित्रे च । धन्या यावत्कथं गुरुकुलवासं न मुञ्चन्ति ॥ १॥ २ एको मे शाश्वत आत्मा ज्ञानदर्शनसंयुतः । शेषा मे बाह्या भावाः सर्वे संयोगलक्षणाः ॥ १॥
.८७५॥
Page #434
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री आचा गङ्गवृत्तिः (11.)
८७६ ॥
******
किह मे हविज्जऽवंझो दिवसो ? किं वा पहू तवं काउ' ? । को इह दव्वे जोगो खित्ते काले समयभावे? ॥३४०॥ 'कथं ' केन निर्विक्रेत्यादिना तपता मम दिवसोऽवन्ध्यो भवेत् १ कतरद्वा तपोऽहं विधातु' 'प्रभुः ' शक्तः ९, तच्च कतरतपः कम्मिन् द्रव्यादौ मम निर्वहति १ इति भावनीयं तत्र द्रव्ये उत्सर्गतो वल्लचणकादित्रे क्षेत्रे स्निग्धरूक्षादौ काले शितोष्णादौ भावेऽग्लानोऽहमेवंभूतं तपः कमलम्, इत्येवं द्रव्यादिकं पर्यालोच्य यथाशक्ति तपो विधेयं "शक्तितत्यागतपसी' ( तवार्थे अ० ६ सू० २३ दर्शन० ) इति वचनादिति ॥ विश्व
उच्छाहपाटणा इति (एव) तवे संजमे य संघयणे । वेरग्गेऽणिच्चाई होइ चरिते इहं पगयं ॥ ३४१ ॥ तथाऽनशनादिके तपस्यनिगूहितबलवीर्येणोत्साहः कर्त्तव्यः, गृहीतस्य च प्रतिपालनं कर्त्तव्यमिति, उक्तञ्च - ""तित्थयसे च उनाणी सुरमहिओ सिज्झिअन्वयधुवम्मि । अणिमूहिअबलविरिओ सव्वत्थामेसु उज्जमह ॥ १ ॥ । किं पुण अवसेसेहिं दुक्खक्खयकारणा सुविहिएहिं । होइ न उज्जमिअव्वं सपञ्चवार्यमि माणुस्से ! ।।२।।” इत्येवं तपसि भावना विधेया । एवं 'संयमे' इन्द्रियनोइन्द्रियनिग्रहरूपे, तथा 'संहनने' वज्रर्षभादिके तपोनिर्वाहनासमर्थे भावना विधेयेति, वैराग्यभावना त्वनित्यत्वादिभावनारूपा, तदुक्तम्- "भावयितव्यमनित्यत्व १ मशरणत्वं २ तथैकता ३ Sara ४ । अशुचित्वं ५ संसारः ६ कर्माश्रव ७ संवर ८ विधिश्च ।। १ ।।
१ तीर्थकरश्चतुर्ज्ञानी सुरमहितो ध्रुवे सेधितव्ये । अनिगूहितबलवीर्यः सर्वस्थाम्नोद्यच्छति ।। १ ।। किं पुनरवशेषदु :खक्षयकारणात् सुविहितैः । भवति नोद्यमितव्यं सप्रत्यपाये मानुष्ये ।। २ ।।
श्रुतस्कं० २ चूलिका २
भावनाध्य०
।। ७६ ।
Page #435
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥८७७॥
निर्जरण : लोकविस्तर १० धर्मस्वाख्याततत्त्वचिन्ता च ११ । बोधेः सुदूर्ल भत्वं च १२ भावना बादश विशुद्धाः ॥ २॥" इत्यादिका अनेकप्रकारा भावना भवन्तीति, इह पुनश्चारित्रे प्रकृत-चरित्रभावनयेहाधिकार इति ॥ नियुक्त्यनुगमानन्तरं सूत्रमुच्चारणीयं, तच्चेदम्
तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावारे पंचहत्युत्तरे यावि हुत्था, तंजहाहत्यत्तराई'चुए चइता गम्भं वक्कते, हत्थुत्तराहिं गन्भाओ गन्मं साहरिए, हत्थुतराहिं जाए, हत्थुत्तराहिं सव्वओ सव्वत्ताए मुंडे भवित्ता' अगाराओ अणगारियं पव्वइए हत्थुत्तराहिं कसिणे पडिपुन्ने अव्वाधाए निरापरणे अणंते अणुत्तरे केवलवरनाणदसणे समुप्पन्ने, साइणा भगवं परिनिव्वुए ॥ सू. १७५॥ समणे मगवं महावीरे इमाए ओसप्पिणीए सुसमसुसमाए समाए वीइक्कंताए सुसमाए समाए वीइक्वंताए सुसमदुस्ममाए समाए वीइक्कंताए दूसमसुसमाए समाए बहु विइवताए पचहत्तरीए पासेहि मासेहिं य अद्वनवमेहि सेसेहिं जे से गिम्हाणं चउन्थे मासे अट्ठमे पक्खे आसादसुद्धे तस्स णं आसाढसुद्धम्स छट्ठीपरखेणं हत्थुत्तराहि मक्खत्तेणं जोगमुवागएणं महाविजयसिद्धत्थपुप्फुत्तरवरपुडरीयदिस सोवत्थियवद्धमाणाओ महाविमाणाम्रो वीसं सागरोवमाई आउयं पालइत्ता आउक्खएणं ठिइक्खएणं भवक्खएणं चुए चाचा इह खलु जंबुद्दीवे णं दीवे मारहे वासे दाहिणडूमरहे दाहिणमाहणकुंडपुर
܀܀ܝܠ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
८७७॥
Page #436
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीआचाराजवृत्तिः हीलावा.)
श्रतस्क०३ चूलिका २ भावनाध्या
८७८॥
संनिवेसंमि उममदत्तस्स माहणम्स कोडालसगोत्तस्स देवाणंदाए माहणीए जालंधरस्स गुत्ताए सीहुम्भवभूएणं अप्पाणेणं कृच्छिसि गम्भं वकते । । समणे भगवं महावीरे तिन्नाणोवगए यावि हुत्था, चइस्सामित्ति जाणइ चुएमित्ति जाणइ चयमाणे न याणेइ, सुहुमे णं से काले पन्नत्ते २ । तओं णं समणे भगवं महावीरे हियाणुकपएणं देवेणं जीयमेयंतिकटु जे से वासाणं तच्चे मासे पंचमे पक्खे आसोयबहुले तस्सणं आसोयबलस्स तेरसीपक्खेणं इत्युत्तराहिं नक्खत्तेणे जोगमुवागरणं बासीहिं राइदिएहिं वदवकतेहिं तेसीइमस्स राइंदियम्स परियाए वट्टमाणे दाहिणमाहणकुंडपुरसंनिवेसाओ उत्तरखत्तियकुडपुरसंनिवेसंसि नायाणं खत्तियाणं सिद्धत्थस्स खत्तियरस कासवगुत्तम्स तिसलाए खत्तियाणीए वासिट्ठमगुत्ताए असुभाणं पुग्गलाणं अवहारं करित्ता सुभाणं पुग्गलाणं पक्खेवं करित्ता कुच्छिसि गम्भं साइरइ, जेवि य से तिसलाए खत्तियाणीए कुच्छिसि गम्भे तंपि य दाहिणमाहणकुंडपुरसंनिवेसंसि उसमदत्तस्स माहणस्स कोडालस्स गोत्तस्स देवानंदाए माहणीए जालंधरायणगुत्ताए कुच्छिसि गम्भं साहरह'३। समणे भगवं महावीरे तिम्राणोवगए यावि होत्थासाहरिज्जिस्सामित्ति जाणइ साहरिज्जमाणे न याणइ साहरिएमित्ति जाणइ समणाउसो ! ४ । तेणं कालेणं तेणं समएणं दिसलाए खत्तियाणीए अहऽनया कयाई नवण्हं मांसाणं बहुपडिपुत्राणं अद्धट्ठमाणराईदियाणं वीइक्कंताणं जे से गिम्हाणं पढमे मासे दुच्चे पक्खे चित्त सुद्धे तस्स णं चित्तसुद्धस्स
lan७८॥
Page #437
--------------------------------------------------------------------------
________________
८७६
तेरसीपक्खेणं इत्युत्तराई नक्खतेणं जोगोवगएणं समणं मगवं महावीरं अरोग्गा अरोग्ग पसूया ।। जण्णं राई तिसलाखत्तियाणी समणं भगवं महावीरं अरोया अरोयं पस्या तण्णं राइं भवणवइवाणमंतरजोइसियविमाणवासिदेवेहिं देवीहि य उवयंतेहिं उप्पयंतेहि य एगे महं दिब्वे देवुज्जोए देवसभिवाए देवकहकहए उप्पिजलगभूए यावि हुत्था ६ । जण्णं रयणि तिसलाखत्तियाणी समणं भगवं महावीरं अरोया अरोयं पसूया तण्णं रयणिं वहवे देवा य देवीओ य एगं महं अमयवासंच' गंधवासं च २ चुन्नवासं च ३ पुप्फवासं च ४ हिरनवासं च ५ रयणवासं च ६ वासिंसु ७ । जण्णं स्यणि तिसलाखत्तियाणी समणं भगवं महावीरं अरोया अगेयं पश्या तण्णं रयणिं भवणवइवाणमंतरबोइसियविमाणवासिणो देवा य देवीओ य समणस्स भगवओ महावीरस्स मूहकम्माई तित्थयराभिसेयं च करिसु८ । जओ णं पभिइ भगवं महावीरे तिसलाए खत्तियाणीए कुच्छिसि गम्भं आगए तओ णं पभिइ तं कुलं विपुलेणं हिरन्नेणं सुवन्नेणं धणेणं धन्नेणं माणिक्केणं मुत्तिएणं संखसिलप्पवालेणं अईव २ परिवह। तओ णं समणस्स भगवओ महावीरस्स अम्मापियरो एय?' जाणित्ता निव्वत्तदसाहसि वुक्तसि सुइभूयंसि विपुलं असणपाणखाइमसाइमं उवक्खडाविति २ ता मित्तनाइसयणसंबंधिवग्गं उवनिमंतंति मित्तनाइयसयणसंबंधिवग्गं उवनिमंतित्ता बहवे समणमाहणकिवणवणीमगाहिं भिच्छुडगपंडरगाईण विच्छड्डंति विग्गोविंति विस्साणिति दायारेसु दाणं पज्जमाईति
॥८७६॥
Page #438
--------------------------------------------------------------------------
________________
भीआचाराङ्गवृत्तिः शीलाङ्का.)
॥ ८८० ॥
*
विच्छति विग्गवित्ता विस्साणित्ता दायारेसु णं दायं पज्जभाइत्ता मित्तनाइयसयण संबंधि भुखाविंति मित्तनाइयसयण संबंधिवगं भुञ्जावित्ता मित्तनाइयसयण संबंधिवग्गेण इममेयारूवं नामधिज्जं कारविति - जओ णं पहि इमे कुमारे तिसलाए खत्तियाणीए कुच्छिसि गन्भे आहए तणं भिड़ इमं कुलं विपुलेणं हिरन्नेणं सुवण्णेणं घणेणं घण्णणं माणिकरेणं मोत्तिएणं संखसिलपवलेणं अतीव २ परिवडूड, ता होउ णं कुमारे वद्वमाणे १० । तओ णं समणे भगवं महावीरे पंचधाइपरिबुडे, तंजहा — खीरधाईए १ मज्जणधाईए २ मंडणधाईए ३ खेलावणधाइए ४ अंकधाइए ५, अंकाओ अंक साहरिज्जमाणे रम्मे मणिकुट्टिमतले गिरिकंदरसमुल्लीणेविव चंपयवायवे अहyyar संवर ११ । तओ णं समणे भगवं महावीरे विन्नायपरिणय ( मित्ते) विणियत्तबालमावे अप्पर सुयाई उनलाई मालुम्मगाई पंचलक्खणाई कामभोगाई सहपरिसरस रूवगंधा परियारेमाणे एवं चणं विहर १२ ।। सू० १७३ ॥
समणे भगवं महावीरे कासवगुत्ते तस्स णं इमे तिन्नि नामधिज्जा एवमाहिज्जैति, तंजहा— अम्पपिउसंति वद्धमाणे १ सहसमुह समणे २ भीमं भयभेवं उरालं अवेलयं परीसह - सहत्तिकट्टु देवेहिं से नाम कयं समणे भगवं महावीर ३, १ । समणम्स णं भगवओ महावीरस्स पिया कासवगुत्तेणं तस्म णं तिनि नामधिज्जा एवमाहिज्जंति, तंजहा- सिद्धत्थे वा सिज्जंसे इ वा जससे इ वा २ । समणस्स
܀܀܀܀܀܀
श्रुत चूलिका २ भावनाध्य०
||
Page #439
--------------------------------------------------------------------------
________________
१
णं भगवओ महावीरस्स अम्मा वासिद्धस्सगुत्ता तीसे णं तिन्नि नामधिज्जा एवमाहिज्जंति, तंजहातिसला इ वा विदेहदिन्ना इ वा पियकारिणी इ वा ३। समणस्स णं भगवओ महावीरस्स पित्तिाए सपासे कासवगत्तेणं ४। समणस्स णं भगवओ महावीरस्स जि? भाया नंदिवद्धणे कासवगुत्तेणं ५। समणस्सणं भगवओ महावीरस्स जेट्ठा भइणी सुदंसणा कासवगुत्तेणं । समणस्स णे भगवओ महावीग्स्स भज्जा जसोया कोडिन्नागुत्तेणं ७ । समणस्स में भगवओ महावीरस्स धूया कासवगोत्तेणं तीसे णं दो नामधिज्जा एवमाहिज्जंति, तंजहा-अणुज्जा इ वा पियदंसणा इ वा । समणस्स णं भगवओ महावीरस्स नई कोसिया गुत्तेणं, तीसे गं दो नामधिज्जा एवमाहिज्जंति, तंजहासेसवई इ वा जसवई इ वा ॥ मू० १७७॥ समणस्स णं भगवओ महावीरस्स अम्मापियरो पासावच्चिज्जा समणोवासगा यावि हुत्था, तेणं बहूई वासाई समणोवासगपरियागं पालइत्ता छण्हं जीवनिकायाणं सारक्खणनिमित्तं आलोइत्ता निंदित्ता गरिहित्ता पडिकमित्ता अहारिहं उत्तरगुणपायच्छित्ताई पडिवज्जित्ता कुससंथारगं दुरूहित्ता भत्तं पञ्चक्खायंति २ अपच्छिमाए मारणंतियाए सरीरसंलेहणाए झुसियसरीरा कालमासे कालं किया तं सरीरं विप्पजहित्ता अच्चुए कप्पे देवत्ताए उववन्ना, तओणं आउक्खएणं भवक्खएणं ठितिक्खएणं चुए चहत्ता महाविदेहे वासे चरमेणं उस्सासेणं सिज्झिस्संति बुज्झिस्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति
८८१॥
Page #440
--------------------------------------------------------------------------
________________
भीआचाराङ्गवृत्तिः शीलाङ्का.):
श्रुत.. चूलिका २ भावनाध्यक
॥८८२॥
सव्व दुक्खाणमंतं करिस्संति ॥ सू० १७८ ॥ तेणं कालेणं २ समणे भगवं महावीरे नाए नायपुत्ते नायकुलनिव्वत्ते विदेहे विदेहदिन्ने विदेहजच्चे विदेहसूमाले तीसं वासाई विदेहंसित्तिकटु अगारमझे वसित्ता अम्मापिऊहिं कालगएहिं देवलोगमणुपत्तेहिं समत्तपइन्ने चिच्चा हिरन्नं चिच्चा सुवन्नं चिच्चा बलं चिच्चा पाहणं चिच्चा धणकणगग्यणसंतसारसावइज्जं विच्छडित्ता विग्गोवित्ता विस्साणित्ता दायारेसु णं दाइत्ता परिभाइत्ता संवच्छरं दलइत्ता जे से हेमंताणं पढमे मासे पढमे पक्खे मग्गसिरबहुले तस्स णं मग्गसिरबहुलस्स दसमीपवखेणं हत्थुत्तराहिं नवखत्तएणं जोगोगएणं अमिनिक्खमणाभिपाए यावि हुत्था ।। संवच्छरेण होहिई अभिनिक्खमणं तु जिणवरिंदस्स । तो अत्थसंपयाणं पवत्तई पुबसूराओ ॥२॥ एगा हिरन्नकोडी अट्ठेव अणणगा सयसहस्सा। सूरोदयमाईयं दिज्जा जा पायरासुत्ति ॥२॥ तिन्नेव य कोडिसया अट्ठासीई च हुंति कोडीओ। असिई च सयसहस्सा एवं संवच्छरे दिन्नं ॥३॥ वेसमणकुण्डधारी देवा लोगंतिया महिडीया। बोहिति य तित्थयरं पन्नरससु कम्मभूमिसु ॥४॥ बंभंमि कप्पमी बोद्धव्वा कण्हराइणो मज्झ। लोगंतिया विमाणा अट्ठासु वत्था असंखिज्जा ॥४॥ एए देवनिकाया भगवं बोहिंति जिणवरं वीरं । सव्वजगज्जीवहियं अरिहं । तित्थं पवत्तेहि ॥६॥२॥ तो णं समणस्स भगवओ महावीरस्स अभिनिक्खमणामिप्पायं जाणित्ता भवणवईवाणमंतरजोइसिय
८८२॥
Page #441
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ ८८३ ॥
****
************
विमाणवासिणो देवाय देवीओ य सएहिं २ रूवेहिं सएहिं २ नेवत्थेहिं सएहिं २ चिधेहिं सब्बिडीए सव्वजुईए सव्वबलसमुदणं सयाई २ जाणविमाणाई दुरूहंति सयाई २ जाणविमाणाहं दुरूहिचा अहाचायराई पुग्गलाई परिसाति २ अहासुहमाई पुग्गलाई परियाईति २ उड्ढं उप्पयंति उडूढं उप्पइत्ता ताए उकिट्ठाए सिग्धाए चवलाए तुरियाए दिव्वाए देवगईए अहे णं ओवयमाणा २ तिरिएणं असंखिज्जाईं दीवसमुद्दाइ वीइकममाणा २ जेणेव जंबुद्दीवे दीवे तेणेव उवागच्छति २ जेणेव उत्तरखत्तियकुडपुग्संनिवेसे तेणेव उवागच्छति २ जेणेव उत्तरखत्तियकुडपुर संनिवेसस्त उत्तरपुरच्छिमे दिमीभाए तेणेव शत्ति वेगेण ओवइया ३ । तओ णं सक्के देविंदे देवराया सणियं २ जाणविमाणं पडवेति सनियं २ जाणविमाणं पटुवेत्ता सणियं २ जाणविमाणाओ पच्चोरुहद्द २ सणियं २ एगंतमवक्कम एगंतमवकमित्ता महया वेडव्विएणं समुग्धारणं समोहणइ २ एगं महं नाणामणिकणगरणभत्तिचित्तं सुचारु कंतरूवं देवच्छंदर्यं विउव्वर ४ । तस्स णं देवच्छंदयस्स बहुमज्झदेसभाए एगं महं सपायपीटं नाणामणिकण यरयणमत्तिचित्तं सुभं चारुकंतरूवं सीहासणं विउब्वर २ जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ २ समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ २ समणं भगवं महावीरं बंदर नमसइ २ समर्ण भगवं महावीरं गहाय जेणेव देवच्छंदए तेणेच उवागच्छ सणियं २ पुरस्थाभिमुहं सीहासणे निसीयावेइ सणियं २ निसीयावित्ता सयपागसहस्सपागेहिं
****************
● ८८३ ॥
Page #442
--------------------------------------------------------------------------
________________
भीआचाराङ्गवृत्तिः
(शीलाङ्का.)
॥ ८८४ ॥
तिन्लेहिं अभंगे गंधकासाईएहिं उनोलेइ २ सुद्धोदएण मज्जावेइ २ जस्स णं मुलं सयसहस्सेणं तिपडोलतित्तिएण साहिएणं सीतेण गोसीसरत्तचंदणेणं अणुलिप २ ईसि निस्सासव। यवोज्भं वरनयरपट्टणुग्यं कुसलनरपर्ससियं अस्सलाला पेलवं छेयारियकणगखइयंत कम्मं हंसलक्खणं पट्टजुयलं नियंसावेह २ हारं अर्द्धहारं उरत्थं नेवत्थं एमावलिं पालंबसुत्तं पट्टमउडरयणमालाउ आविधावेह आविधावित्ता थिमवेढिमपूरिम संघाइमेणं मल्लेणं कप्परुक्खमिव समलंकरेइ २ त्ता दुच्चपि महया वेडव्वियसमुग्धारणं समोहण २ एगं महं चंदप्यहं सिबियं सहस्सवाहणियं विउव्वति, तंजहा -- ईहा मिग-उसम - तुरग-नरमकर- विहग वानर- कुञ्जर- रुरु- सरभ- चमर सद्द्दल-सीह वणलय- मत्तिचित्तल प-- विज्जाहर मिहुणजुयलजंतजो जुत्तं अच्चीसहस्समा लिणीयं सुनिरूवियं मिसिमिसित रूवगसहस्सकलियं ईसि मिसमाणं भिभिसमाणं चक्खुनोयणले मुत्ताहलमुत्ताजालंतरोवियं तवणीय पवर-लंबूस- पलंवंतमुत्तदामं हारद्धहारभूसणसमोणयं अहियपिच्छणिज्जं पउमलयभत्तिचित्रं असोगलय भत्तिचित्तं कुंदलयभत्तिचित्तं नाणालयभत्ति विरइयं सुभं चारुकंतरूवं नाणामणि- पंचवन्न घंटापडायपडिमंडियग्गसिहरं पासाईयं दरिसणिज्जं सुरूवं ५ ।
सीया उवणीया जिणवरस्स जरमरणविप्पमुकस्स । ओसत्तमन्लदामा जलथलयदिव्यकुसुमेहिं ॥ १ ॥ सिबियाह मज्झयारे दिव्वं वररयणरूव चिचइयं । सीहासणं महरिहूं सपायपीठं जिणवरस्स ॥ २ ॥
श्रुत• २ चूलिका० ३ भावना०
॥ ८८४ ॥
Page #443
--------------------------------------------------------------------------
________________
८८५
आलइयमालमउडो भासुरबुंदी वराभरणधारी । खोमियवत्थनियस्थो जस्स य मुलं सयसहस्सं ॥३॥ छठेण उ भत्तेणं अज्झवसाणेण सुदरेण जिणो। लेसाहिं विसुज्झतो आरुहई उत्तमं सीयं ॥ ४ ॥ सीहासणे निविट्ठो सकीसाणा य दोहि पासेहिं । वीयंति चामराहि मणिरयण विचित्तदंडाहिं ॥५॥ पुब्धि उक्खित्ता माणुसेहिं साहटु रोमकुवेहिं । पच्छा वहति देवा सुरअसुग गरुलनागिंदा ॥ ६ ॥ पुरओ सुरा वहंती असुरा पुण दाहिणमि पासंमि । अवरे वहति गरुला नागा पुण उत्तरे पासे ॥ ७॥ वणसंडं व कुसुमियं पउमसरो वा जहा सरयकाले । सोहह कुसुमभरेणं इय गगणयलं सुरगणेहिं ॥८॥ सिद्धत्थवणं व जहा कणयारवर्ण व चंपयवणं वा । सोहा कुसुमभरेणं इय गगणयलं सुरगणेहिं ॥ ९॥ वरपडहमेरि-झलरि-संखसयसहस्सिएहिं तूगेहिं । गयणयले धरणियले तूरनिनाओ परमरम्मो ॥१०॥ ततविततं घणझुसिरं आउज्जं चउब्विहं बहुविहीयं । वाइंति तत्थ देवा बहहिं आनट्टगसहिं ॥११॥६॥
तेणं कालेणं तेणं समएणं जे से हेमंताणं पढमे मासे पढमे पक्खे मग्गसिरबहुले तस्स णं मग्गसिरबहुलस्स दसमीपक्खेणं सुव्वएणं दिवसेणं विजएणं मुहुत्तेणं हत्युत्तरानक्खत्तेणं जोगोवगएणं पाईणगामिणीए छायाए वियत्ताए बिइयाए पोरिसीए छठेणं भत्तेणं अपाणएणं एगसाडगमायाए चंदप्पभाए सिबियाए सहस्सवाहिणियाएं सदेवमणुयासुराए परिसाए समणिज्जमाणे उत्तरखत्तियकुडपुरसंनिवेसस्स मज्झमज्मेणं निगच्छइ २ जेणेव नायसंडे उज्जाणे तेणेव उवागच्छइ २ ईसिं रयणिप्पमाणं
Page #444
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीआचा राङ्गवृतिः
(शीलाङ्का.)
८८६ ॥
88
**************
अच्छोप्पेणं भूमिभाएणं सणियं २ चंदप्पभं सिबियं सहस्ववाहिणि ठवेह २ सणियं २ चंदप्पभाओ सीयाओ सहस्वाहिणीओ पच्चोयरह २ सणियं २ पुरस्थाभिमुहे सीहासणे निसीयइ आभरणालंकारं ओमुअ ७ । तओ णं वेसमणे देवे भत्तुब्वायपडिओ भगवओ महावीरस्स हंसलक्खणेणं पडेणं आमरणालंकारं परिच्छ ८ तओ णं समणे भगवं महावीरे दाहिणेणं दाहिणं वामेणं वामं पंचमुट्ठियं लोयं करे ९ । तओ णं सक्के देविंदे देवराया समणस्स भगवओ महावीरस्स जन्नवाय पडिए वहरामण थालेण केसाई पडिच्छ २ अणुजाणेसि भंतेत्तिकट्टु खीरोयसागरं साहरइ १० । तओ णं समणे जाव लोयं करिता सिद्धाणं नमुकारं करेइ २ सव्वं मे अकरणिज्जं पात्रकम्मति कट्टु सामाइयं चरितं पडिवज्जइ २ देवपरिसं च मणुयपरिसं च आलिक्खचित्तभृयमित्र ठवेह ११ । दिoat मसोसो तुरियनिनाओ य सक्कवयणेणं । खिप्पामेव निलुको जाहे पडिवजह चरितं ॥ १ ॥ पडिवज्जित्तु चरितं अहोनिसं सव्वपाणभूयहियं । साहट्ट्टु लोमपुलया सव्वे देवा निसामिति ॥ २॥ १२॥ तओ जं समणस्स भगवओ महावीरस्स सामाइयं खओवसमियं चरितं पडिवन्नस्स मणपज्जवनाणे नाना समुन्ने अड्डाइज्जेहिं दीवेहिं दोहि य समुद्देहिं सन्नीणं पंचिदियाणं पज्जत्ताणं वियत्तमोगाई भावाई जाणेइ १३ । तब र्ण समणे मगवं महावीरे पन्चइए समाणे मित्तनाई' सयण संबंधिविग्गं पडिविसज्जेह, २ इमं एयारूवं अभिग्गहं अभिगिण्हह-- बारस वासाई वोसट्टकाए
श्रतस्कं० २
चूलिका ३
भावनाध्य०
11 228 11
Page #445
--------------------------------------------------------------------------
________________
चियत्तदेहे जे केइ उवसग्गा समुप्पज्जंति, तंजहा--दिब्बा वा माणुस्सा वा तेरिच्छिया वा, ते सव्वे उवसग्गे समुप्पन्ने समाणे सम्मं सहिस्सामि खमिस्सामि अहिबासहस्सामि १४ । तओणं समणे भगवं महावीरे इमं एयारूवं. अभिग्गहं अमिगिण्हित्ता वोसिट्टचत्तदेहे दिवसे मुहुत्तसेसे कुम्मारगामं समणुपत्ते १५ । तओ गं समणे भगवं महावीरे वोसिद्वचत्तदेहे अणुत्तरेणं आलएणं अणुत्तरेणं विहारेणं एवं संजमेणं पग्गहेणं संवरेणं तरेणं बंभचेरवासेणं खंतीए मुत्तीए समिईए गुत्तीए तुट्ठीए ठाणेणं कमेणं सुचरियफलनिव्वाणमुत्तिमग्गेणं अप्पाणं भावेमाणे विहरद, एवं वा विहरमाणस्स जे के उवसग्गा समुप्पज्जंति-दिव्वा वा माणुस्सा वा तिरिच्छिया वा, ते सम्वे उवमग्गे समुप्पन्ने समाणे अणाठले अम्बहिए अद्दीणमाणसे तिविहमणवयणकायगुत्ते सम्म सहइ खमइ तितिक्खइ अहिया. सेइ १६ । तओ ण समणस्स भगवओ महावीरस्स एएणं विहारेणं विहरमाणस्स वारस वासा वीइ. कंता तेरसमस्स य वासस्स परियाए वट्टमाणस्स जे से गिम्हाणं दुच्चे मासे चउत्थे पक्खे वइसाहसुद्धे तस्स गं वेसाहसुद्धस्स दसमीपक्खेणं सुब्बएणं दिवसेणं विजएणं मुहुत्तेणं हत्युत्तराहिं नक्खत्तेणं जोगोवगएणं पाईणगामिणीए छायाए वियत्ताए पोरिसीए जंभियगामस्स नगरस्स बहिया नईए उज्जुवालियाए उत्तरकूले मामागस्स गाहावइस्स कट्टकरणंसि उड्ढंजाण अहोसिरस्स झाणकोट्ठोवगयस्स वेयावत्तस्स चेइयस्स उत्तरपुच्छिमे दिसीमागे सालरुक्खस्स असामंते उक्कुडुयस्स गोदोहियाए
८८७॥
Page #446
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीआचा राङ्गवृत्तिः (शीलाङ्का.)
॥ ८८८ ॥
आयाणा आयावेमाणस्स छट्ठेणं भत्तेणं अपाणएणं सुक्कज्झाणंतरियाए वट्टमाणस्स निव्वाणे कसि पडिपुन्ने अव्वाह निरावरणे अणंते अणुत्तरे केवलवरना णदंसणे समुपपन्ने १७ । से भगवं अहं जिणे जाणए केवली सव्वन्नू सव्वभावदरिसी सदेवमणुयासुरस्त लोगस्स पज्जाए जाणइ, तंजा - आगई गई ठिङ् चयणं उववायं भूतं पीयं कडं पडिसेवियं आविकम्मं रहोकम्मं लवियं कहियं मणोमाणसियं सव्वलोए सव्वजीवाणं सव्वभावाई' जाणमाणे पासमाणे एवं च णं विहरड १८ | जण्णं दिवसं समणस्स भगवओ महावीरस्स निव्वाणे कसिणे जाव समुत्पन्ने तण्णं दिवसं भव वाणमंतर - जोइसिय विमाणवासिदेवेहि य देवीहि य उवयंतेहिं जाव उपिजलगन्भूए यावि हुत्था १६ । तओ णं समणे भगवं महावीरे उप्पन्नत्ररनाणदंसणधरे अध्याणं च लोगं च अभिसमिक्ख go देवा धम्ममाइक्खर २० । ततो पच्छा मणुस्साणं, तओ णं समणे भगवं महावीरे उत्पन्ननाणदंसणधरे गोयमाईणं समणाणं पंच महव्वयाई सभावणाई छज्जीवनिकाया अतिक्खति भासह परूवेई, तं - पुढविकाए जाव तसकाए २१ । पढमं भंते ! महव्वयं पच्चक्खामि सव्वं पाणाइवायं से सुहुमं वा बायरं वा तसं वा थावरं वा नेव सयं पाणाइवायं करिज्जा ३ जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं मणसा वयसा कायसा तरस भंते ! पडिकमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि २२ । तस्सिमाओ पंचभावणाओ भवति, तत्थिमा पढमा भावणा
श्रत कं० २ चूलिका• ३
भावना०
॥ ८८८ ॥
Page #447
--------------------------------------------------------------------------
________________
128॥
तेणं कालण'मित्यादि 'तेन कालेन' इति दुषमसुषमादिना 'तेन समयेन' इति विवक्षितेन विशिष्टेन कालेन सतोत्पत्यादिकमभूदिति सम्बन्धः, तत्र 'पंचहत्थुत्तरे यावि हुत्था' इत्येवमादिना 'अरोग्गा अरोग्गं पसूयत्ति है इत्येवमन्तेन ग्रन्थेन भगवतः श्रीवर्द्धमानस्वामिनो विमानच्यवनं ब्राह्मणीगर्भाधानं ततः शक्रादेशास्त्रिशलागर्भसंहरण
मुत्पत्तिश्चाभिहिता, 'तत्थ पंचहत्थुत्तरेहिं होत्थ'त्ति हस्त उत्तरो यासामुत्तरफाल्गुनीनां ता हस्तोत्तराः, ताश्च पञ्चसु स्थानेषु-गर्भाधानसंहरणजन्मदीक्षाज्ञानोत्पत्तिरूपेषु संवृत्ता अतः पञ्चहस्तोत्तरो भगवानभूदिति, 'चवमाणे ण जाणइत्ति आन्तमु हर्तिकत्वाच्छास्थोपयोगस्य च्यवनकालस्य च सूक्ष्मत्वादिति, तथा 'जण्णं रथणि(णी) अरोया अरोयं पसूयन्तीत्येवमादिना 'उप्पन्ननाणदंसणधरे गोयमाईणं समणाणं निग्गंथाणं पञ्च महव्वयाई सभावणाई छज्जीवनिकायाई' आइक्खई'त्येवमन्तेन ग्रन्थेन भगवतो वीरवर्द्धमानस्वामिनो जातकर्माभिषेकसंवर्द्धनदीक्षाकेवलज्ञानोत्पत्तयोऽमिहिताः, प्रकटार्थ च सर्वमपि सूत्रं, साम्प्रतमुत्पन्नज्ञानेन भगवता पश्चानां महावतानां प्राणातिपातविरमणादीनां प्रत्येकं याः पञ्च पश्च भावनाः प्ररूपितास्ता व्याख्यायन्ते, तत्र प्रथममहाव्रतभावनाः, पञ्च तत्र प्रथमां तावदाह
इरियासमिए से निग्गंथे नो अणइरियासमिएत्ति, केवली बूया-अणइरियासमिए से निग्गंथे पाणाई भूयाई जीवाई सत्ताई' अभिहणिज्ज वा वत्तिज्ज वा परियाविज्ज वा लेसिज्ज वा उद्दविज्ज वा, इरियासमिए से निग्गंथे नो इरियाअसमिइत्ति पढमा भावणा १। अहावरा दुच्चा भावणा-मणं परियाणइ से निग्गथे, जे य मणे पावए सावज्जे सकिरिए अण्हयकरे छेयकरे भेयकरे अहिगरणिए .
Page #448
--------------------------------------------------------------------------
________________
बीआचाराजवृत्तिः (शोलाका.)
श्रुतस्क. २ चूलिका ३ भावनाध्य.
पाउसिए पारियाविए पाणाइवाइए भूओवघाइए, तहप्पगारं मणं नो पारिज्जा गमणाए, मणं परिजाणइ से निग्गंथे, जे य मणे अपावएत्ति दुच्चा मावणा २। अहावरा तच्चा भावणा-वई परिवाणइ से निग्गंथे, जा य बई पाविया सावज्जा सकिरिया जाव भूओवघाइया तहप्पगारं वई नो उच्चारिजा, जे वइं परिजाणइ से निग्गंथे, जाव वइ अपावियत्ति तच्चा भावणा ३ । अहावरा चउत्था भावणाआयाणभंड मत्तनिक्खेवणासमिए से निग्गंथे, नो अणायाणभंडमत्तनिक्खेवणासमिए, केवली बृयाआयाणभंडमत्तनिक्खेवणाअसमिए से निग्गंथे पाणाई भ्याई जीवाई सत्ताई अभिहणिज्जा वा जाव उद्दविज्ज वा, तम्हा आयाणभंडमत्तनिक्खेवणासमिए से निग्गंथे, नो आयाणभंडमत्तनिक्खेवणाअसमिएत्ति चउत्था भावणा ४ । अहावरा पंचमा भावणा-आलोइयपाणभोयणमोइ से निग्गंथे, नो अणालोइयपाणभोयणभोई. केवली बूया-अणालोईयपाण भोयणभोई से निगंथे पाणाणि वा ४ अभिहणिज्ज वा जाव उद्दविज्ज वा, तम्हा आलोइयपाणभोयण मोई से निग्गंथे नो अणालोइयपाणभोयणभोइत्ति पंचमा भावणा ५। एयावता महव्वए सम्मं कारण फासिए पालिए तीरिए किट्टिए अवट्ठिए आणाए आराहिए यावि भवइ, पढमे भंते ! महव्वर पाणाइवायाओ वेरमणं २३ ॥ अहावरं दुच्चं महव्वयं पच्चक्खामि, सव्वं मुसावार्य वइदोसं, से कोहा वा लोहा वा भया वा हासा वा नेव सयं मुसं मासिज्जा नेवन्नेणं मुसं भासाविज्जा अन्नपि मुसं मासंतं न समणुमनिज्जा तिविहं तिविहेणं
|| ८६.॥
Page #449
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ ८६१ ॥
܀܀܀܀܀܀܀܀
मणसा वयसा कायसा, तस्स भंते ! पडिक्कमामि जाव वोसिरामि २४ ॥ तस्माओ पंच भावणाओ भवंति - तत्थिमा पढमा भावणा- अणुवीहमासी से निग्गंथे नो अणणुवीहमासी, केवली बूया -अणणुबीमासी से निग्गंथे समावज्जिज्ज मोर्स वयणाए, अणुवीहमासी से निग्गंथे नो अणरणुवीहभासिचि पढमा भावणा १ । अहावरा दुच्चा भावणा- कोहं परियाणइ से निग्गंथे नो कोहणे सिया, केवली बुया - कोहप्पत्ते कोहत्तं समावइज्जा मोसं वयणाए, कोहं परियाणा से निग्गंथे न य कोहणे सियति दुच्चा भावणा २ । अहावरा तच्चा भावणा-लोभं परियाणइ से निग्गंथे नो अ लोभणए सिया, केवली बूया - लोभपत्ते लोभी समावइज्जा मोसं वयणाए, लोभं परियाणा से निग्गंथे नो य लोभणए सियत्ति तच्चा भावणा ३ । अहावरा चउत्था भावणा-मयं परिजाणह से निग्गंथे नो भयभीरुए सिया, केवली वूया -भयपत्ते भीरू समावइज्जा मोसं वयणाए, भयं परिजाणइ से निग्गंथे नो भयitor सिया चउत्था भावणा ४ । अहावरा पंचमा भावणा-दासं परियाणइ से निग्गंथे नो य दासाए सिया, केवली वूया -हासपत्ते हासी समावइज्जा मोसं वयणाए, हासे परियाणइ से निग्थे नो हासणए सियति पंचमी भावणा ५। एतावता दोच्चे महत्वए सम्मं काएण फासिए जाव आणाए, आराहिए यानि भवइ दुच्चे भंते । महव्वए २४ ॥ अहावरं तच्चं भंते ! महव्वयं पच्चक्खामि सव्वं अदिन्नादाणं, से गामे वा नगरे वा रन्ने वा अप्पं वा बहुं वा अणु वा धूलं वा चित्तमंतं वा
܀܀܀܀܀
॥ ६१ ॥
Page #450
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रुत..
भीआचापनवृत्तिः (शीलावा.)
चूलिका०३ भावना
.८६२॥
अचित्तमंतं वा नेव सयं अदिन्नं गिहिज्जा नेवन्नेहि अदिन्नं गिहाविज्जा अदिन्नं अन्नपि गिण्हतं न समणुजाणिज्जा जावज्जीवाए जाव वोसिरामि २५॥ तस्सिमाओ पंच भावणाओ भवंति, तत्थिमा पढमा भावणा-अणुवीइ मिउग्गहं जाई से निग्गंथे नो अणणुवीइमिउग्गहं जाई से निग्गंथे, केवली व्या-अणणुवीइ मिउग्गहं जाई निग्गंथे अदिन्नं गिण्हेज्जा, अणुवीइ मिउग्गहं जाई से निग्गंथे नो अणणुवीइ मिउग्गहं जाइत्ति पढमा भावणा १। अहावरा दुच्चा भावणा-अणुनविय पाणभोयणभोई से निग्गंथे नो अणणुभवित्र पाण भोयणभोई, केवली बूया-अणणुन्नविय पाणभोयण भोई से निग्गंथे अदिन्नं भुजिज्जा, तम्हा अणुन्नविय पाणभोयण भोई से निग्गंथे नो अणणुन्नविय पाणभोयणभोईत्ति दुच्चा भावणा २ । अहावरा तच्चा भावणा-निग्गंथेणं उग्गहंसि उग्गहियंसि एतावताव उग्गहणसीलए सिया, केवली व्या-निग्गंथेणं उग्गहंसि अणग्गहियंसि एतावता अणग्गहणसीले अदिन्नं ओगिव्हिज्जा, निग्गंथेणं उग्गहं उग्गहियंसि एतावताव उग्गहणसीलएत्ति तच्चा भावणा३ । अहावरा चउत्था भावणा-निग्गंथेणं उग्गहंसि उग्गहियंसि अभिक्खणं २ उग्गहणसीलए सिया, केवली ब्या-निग्गंथेणं उग्गहसि उ अभिक्खणं २ अणग्गहणसीले अदिन्नं गिहिज्जा, निग्गंथे उग्गहंसि उग्गहियंसि अभिक्खणं २ उग्गहणसीलएत्ति चउत्था भावणा ४ । अहावरा पंचमा भावणाअणुवीह मिउग्गहनाइ से निग्गंथे साहम्मिएसु, नो अणणुवीई मिउरगहजाई, केवली बूया-अणणुवीइ
an८६२॥
Page #451
--------------------------------------------------------------------------
________________
1८९३॥
मिउग्गहजाई से निग्गंथे साहम्मिएसु अदिन्नं उगिहिज्जा अणुवीइमिउग्गहजाई से निग्गंथे साहम्मिएसु नो अणणवीइमिउग्गहजाती इइ पंचमा भावणा ५। एतावया तच्चे महव्वए सम्म कारण फासिए बाव आणाए आराहए यावि भवइ, तच्चं भंते ! महव्वयं २६ । अहावरं च उत्थं महव्वयं पच्चक्खामि सव्वं मेहुणं, से दिव्वं वा माणुस्सं वा तिरिक्खजोणियं वा नेव सयं मेहुणं गच्छेज्जा तं चेवं अदिन्नादाणवत्तचया भाणियव्वा जाव वोसिरामि २७॥ तस्सिमाओ पंच भावणाओ भवंति, तथिमा पढमा भावणा-नो निग्गथे अभिक्खणं २ इत्थीणं कहं कहित्तए सिया, केवली व्यानिग्गंथे णं अभिक्खणं २ इत्यीणं कहं कहेमाणे संतिभेया संतिविभंगा संतिकेवलीपन्नताओ धम्मात्री मंसिज्जा, नो निग्गंथे णं अभिक्खणं २ इत्थीणं कहं कहित्तए सियत्ति पढमा भावणा १। अहावरा दुरुचा भावणा-नो निग्गंथे इत्थीणं मणोहराई २ इंदियाई आलोइत्तए निज्झाइत्तए सिया, केवली व्या-निग्गंथे णं इत्थीणं मणोहराई २ इंदियाई आलोएमाणे निझाएमाणे संतिभेया संतिविभंगा जाव धम्माओ मंसिज्जा, नो निग्गंथे इत्थीणं मणोहराई २ इंदियाई आलोइत्तए निझाइत्तए सियत्ति दुच्चा भावणा २ । अहावरा तच्चा भावणा-नो निग्गथे इत्थीणं पुव्वरयाई पुव्वकीलियाई सुमरित्तए सिया, केवली बूया-निग्गंथे णं इत्थीणं पुन्वरयाई पुवकीलियाई सरमाणे संतिमेया जाव भंसिज्जा, नो निग्गंथे इत्थीणं प्रवरयाई पुव्वकीलियाई सरित्तए सित्ति तच्चा भावणा ३ । अहा
॥८९३॥
Page #452
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीआचा राङ्गवृत्तिः (शीलाङ्का.)
॥ ८६४ ॥
बराच उत्था भावणा - नाइमत्तपाणभोयणभोई से निग्गंथे न पणीयरसभोयणभोई से निरगंथे, केवली बूया - अइमत्तपाणभोयणभोई से निग्गंथे पणियरसमोयण भोई संतिमेया जाव भंसिज्जा, नाहमत्तपाणभोयण भोई से निग्गंथे नो पणीयरसभोयणभोइत्ति चउत्था भावणा ४। अहावरा पंचमा भावणानो निम्गंथे इत्थी सुपंडगसंसत्ता सयणासणाई सेवित्तए सिया, केवली बूया-निम्गंथे णं इत्थीपसुपंड संसत्ताई सयणासणाई सेवेमाणे संतिभेया जाव भंसिज्जा, नो निग्गंथे इत्थीपसुपंड गसंसत्ताई सयणासणाई सेवित्तए सियत्ति पंचमा भावणा ५ । एतावया चउत्थे महव्वए सम्मं कारण फासिए जाव आराहिए यावि भवइ, चउत्थं भंते ! महव्वयं २८ । अहावरं पंचमं भंते ! महव्वयं सव्वं परिग्गहं पच्चक्खामि से अप्पं वा बहु वा अणु वा धूलं वा चित्तमंतमचित्तं वा नेव सयं परिग्गहं गिहिज्जा नेवन्नेहिं परिग्गहं गिण्हाविज्जा अन्नंपि परिग्गहं गिण्हतं न समगुजाणिज्जा जाव वोसिरामि २६ । तस्सिमाओ पंच भावणाओ भवति, तत्थिमा पदमा भावणा-सोयओ णं जीवे [मन] मणुन्नाई साईं सुणेइ मणुन्नामगुन्नेर्हि सद्देहिं नो सज्जिज्जा नो रज्जिज्जा नो गिज्भेज्जा नो मुज्झि (च्छे ) ज्जानो अज्झोववज्जिज्जा नो विणिषाय मावज्जेज्जा, केवली बूया - निग्गंथे णं मन्नान्नेहिं सहिं सज्जमाणे रज्जमाणे जाव विणिघायमावज्जमाणे संतिभेया संतिविभंगा संतिकेवलिपन्नत्ताओ धम्माओ भंसिज्जा, -न सक्का न सोउ सद्दा, सोतविसयमागया । रागदोसा उ जे
श्रुतकं० २ चूलिका • ३
भावनाध्य०
॥ ८६४ ॥
Page #453
--------------------------------------------------------------------------
________________
H६५ ॥
तत्थ, ते भिक्खू परिवज्जए ॥ १ ॥ सोयओ जीवे मणुनामणुनाई सद्दाई सुणे, पढमा भावणा १ । अहावरा दुच्चा भावणा - चक्खूओ जीवो मणुन्नामणुनाई रुवाई पास मणुना मणुन्नेहिं रूवेहिं सज्जमा जात्र विणिधायमावज्जमाणे संतिभेया जाव भंसिज्जा, न सका रूवमद्दट्टु, चक्खुविसय-' मागयं । रागदोसा उ जे तत्थ, ते भिक्खू परिवज्जए ॥ १ ॥ चक्खुओ जीवो मरणुन्नामना रूबाई पासह, दुच्चा भावणा २ । अहावरा तच्चा भावणो- घाणओ जीवे मरणुन्नामगुन्नाई गंधाई
art मन्नान्नेहिं गंधेहिं नो सज्जिज्जा नो रज्जिज्जा जाव नो विणिधाय मावज्जिज्जा, केवली वूया - मणुन्नामणुन्नेहिं गंधेहिं सज्ज़माणे जाव विणिधायमावज्जमाणं संतिभेया जांव मंसिज्जा, न सका गंधमग्घाउं, नासाविसयमा गयं । रागदोसा उ जे तत्थ, ते भिक्खू परिवज्जए ॥ १ ॥ घाणओ जीवो मरणुन्ना मरणुन्नाई गंधाई अग्घायत्ति तच्चा भावणा ३। अहावरा चउत्था भावणा - जिन्भाओ जीवो मणुन्नामणुन्नाहं रसाई अस्साएइ, मणुन्नामगुन्नेहिं रसेहिं नो सज्जिज्जा, जानो विणिघ(यमा वज्जिज्जा, केवलो बूया-निग्गंथे णं मन्तामणुन्नेहिं रसेहिं सज्जमाणे जांब विणिधाय मावज्जमाणे संतिभेया जाव भंसिज्जा, ―न सक्का रसमस्साउं, जीहाविसयमागयं । रागहोता उ जे तत्थ, ते भिक्खू पग्विज्जए ॥ १ ॥ जीहाओ जीवो मणुन्नामगुन्नाई रसाई, अग्साएइति चउत्या भावणा ४ । अहावरा पंचमा भावणा - फासओ जीवो मणुन्नामगुन्नाई फासाई पडि संवे
॥ ८६५ ॥
Page #454
--------------------------------------------------------------------------
________________
भीआचाराङ्गवृत्तिः (शीलाङ्का.) ॥ ८६६ ॥
श्रुतस्क०२ चूलिका•३ भावना०
मणुनामणुन्नेहिं फासेहिं नो सज्जिज्जा जाव नो विणिघायमावज्जिज्जा, केवली व्या-निग्गंथे णं मणुन्नामणुन्नेहिं फासेहिं सज्जमाणे जाव विणिघायमावज्जमाणे संतिभेया संतिविभंगा संतिकेवलीपन्नत्ताओ धम्माओ मंसिज्जा, न सका फासमवेएउं, फासविसयमागयं । रागद्दोसा उ जे तत्थ, ते भिक्खू परिवज्जए ॥१॥ फासओ जीवो मणुन्नामणुन्नाई फासाई पडिसंवेएति, पंचमा भावणा ५। एतावता पंचमे महन्वते सम्म अवट्ठिए आणाए आराहिए यावि भवइ, पंचमं भंते ! महव्वयं ३० ॥ इच्चेएहिं पंचमहब्बएहिं पणवीसाहि य भावणाहिं संपन्ने अणगारे अहासुयं अहाकप्पं अहामगंसम्म कारण फासित्ता पालित्ता तीरित्ता किट्टित्ता आणाए आगहित्ता याव भवइ ३१॥सू० १७९॥
॥ इति भावनाऽध्ययनम् ॥२-३ ॥ 'इरियासमिए' इत्यादि, ईरणं गमनमीर्या तस्यां समितो-दत्तावधानः पुरतो युगमात्रभुभागन्यस्तदृष्टिगामीत्यर्थः, न त्वसमितो भवेत् , किमिति !, यतः केवली ब्रूयात्कर्मोपादानमेतद्, गमनक्रियायामसमितो हि प्राणिनः 'भभिहन्यात्' पादेन ताडयेत् , तथा 'वर्तयेत्' अन्यत्र पातयेत् , तथा 'परितापयेत्' पीडामुत्पादयेत् , 'अपद्रापयेता' जीविताद्वथपरोपयेदित्यत ईर्यासमितेन भवितव्यमिति प्रथमा भावना, द्वितीयभावनायां तु मनसा दुष्प्रणिहितेन न भाव्यं तदर्शयति-यन्मनः 'पाप' सावधं सक्रियम् 'अण्हयकरं'ति कर्माश्रवकारि, तथा छेदनमेदनकरं अधिकरणकर कलहकर प्रकृष्टदोषं प्रदोषिकं तथा प्राणिनां परितापकारीत्यादि न विधेयमिति, अथापरा तृतीया भावना-दुष्प्रसक्ता
१६॥
Page #455
--------------------------------------------------------------------------
________________
८६७ ॥
***
या वाक् प्राणिनामपकारिणी सा नाभिधातव्येति तात्पर्यार्थः, तथा चतुर्थी भावना - आदानभाण्ड मात्र निक्षेपणा समितिः, तत्र च निर्ग्रन्थेन साधुना समितेन भवितव्यमिति तथाऽपरा पञ्चमी भावना - 'आलोकित' प्रत्युपेक्षितमशनादि भोक्तव्यं, तदकरणे दोषसम्भवादिति इत्येवं पञ्चभिर्भाश्नाभिः प्रथमं व्रतं स्पर्शितं पालितं तीर्णं कीर्त्तितमवस्थितमाज्ञयाssराधितं भवतीति । द्वितीयव्रत भावनामाह, तत्र प्रथमेयम् - अनुविचिन्त्यभाषिणा भवितव्यं तदकरणे दोष सम्भवात्, द्वितीय - भावनायां तु क्रोधः सदा परित्याज्यो, यतः क्रोधान्धो मिथ्याऽपि भाषत इति, तृतीय भावनार्या तु लोभजयः कर्त्तव्यः, तस्यापि मृषावादहेतुत्वादिति हृदयम्, चतुर्थ्यां पुनर्भयं त्याज्यं, पूर्वोक्तादेव हेतोरिति, पश्चमभावनायां तु हास्यमिति, एवं पञ्चभिर्भावनाभिर्यावदाज्ञयाऽऽराधितं भवतीति । तृतीयवते प्रथम भावनैषा - अनुविचिन्त्य शुद्धोऽवग्रहो याचनीय इति द्वितीय भावना त्वाचार्यादीननुज्ञाप्य भोजनादिकं विधेयम्, तृतीया त्वेषा- अवग्रहं गृह्णता निर्ग्रन्थेन साधुना परिमित एवावग्रह ग्राह्म इति, चतुर्थभावनायां तु 'अभीक्ष्णम्' अनवरत मवग्रहपरिमाणं विधेयमिति, पञ्चम्यां स्वनुविचिन्त्य मितमवग्रहं साधर्मिकसम्बन्धिनं गृह्णीयात् इत्येवमाज्ञया तृतीयत्रतमाराधितं भवतीति । चतुर्थव्रते प्रथमे - यम् - स्त्रीणां सम्बन्धिनीं कथं न कुर्यात्, द्वितीयायां तु तदिन्द्रियाणि मनोहारीणि नालोकयेत्, तृतीयायां तु पूर्वक्रीडितादि न स्मरेत्, चतुर्थ्यां नातिमात्रभोजनपानासेवी स्यात् पञ्चम्यां तु श्रीपशुपण्ड कविर हितशय्याऽवस्थानमिति । पञ्चमवप्रथमभावना पुनरेषा - 'श्रोत्रतः' श्रोतमाश्रित्य मनोज्ञान् शब्दान् श्रुत्वा न तत्र गार्यं विदध्यादिति, एवं द्वितीयतृतीयचतुर्थ पञ्चमभावनासु यथाक्रमं रूपरसगन्धस्पर्शेषु गार्यं न कार्यमिति, शेषं सुगमं यावदध्ययनं समाप्तपिति ॥ भावनाख्यं पञ्चमदशमध्ययनं । तृतीया चूडा समाप्तेति ।। २-३-१५ ।।
*******
॥ ६७ ॥
Page #456
--------------------------------------------------------------------------
________________
बीआचारावृत्तिः (शोलाका)
.८४८॥
॥ अथ चतुर्थविमुक्तिचूलिकाध्ययनम् ॥
श्रुतस्क. उक्तं तृतीयचूडात्मक भावनाख्यमध्ययनं, साम्प्रतं चतुर्थचूडारूपं विमुक्त्यध्ययनमारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः- चूलिका.४ इहानन्तरं महाव्रतभावनाः प्रतिपादिताः तदिहाप्यनित्यभावना प्रतिपाद्यते, इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्याध्ययनस्य विमुक्त्य चत्वार्यनुयोगद्वाराणि भवन्ति, तत्रोपक्रमान्तर्गतमर्थाधिकारं दर्शयितु नियुक्तिकृदाहअणिच्चे पव्वए रुप्पे भुयगस्स तहा महासमुद्दे य । एए खल अहिगारा अज्झयणंमी विमुत्तीए ॥३४२॥
अस्याध्ययनस्यानित्यत्वाधिकारः तथा पर्वताधिकारः पुना रूप्याधिकारः तथा भुजगत्वगधिकारः एवं समुद्राधिकारश्च, इत्येते पश्चाधिकारास्तांश्च यथायोग सूत्र एव भणिष्याम इति ॥ नामनिष्पन्ने तु निक्षेपे विमुक्तिरिति नाम, अस्य च नामादिनिक्षेपः उत्तराध्ययनान्तःपातिविमोक्षाध्ययनवदित्यतिदेष्टु नियुक्तिकार आह
जो चेव होइ मुक्खो सा उ विमुत्ति पगयं तु भावेणं । देसविमुक्का साह सम्वविमुक्का भवे सिद्धा॥३४३॥ ___ य एव मोक्षः सैव विमुक्तिः, अस्याश्च मोक्षवनिक्षेप इत्यर्थः, प्रकृतम्-अधिकारो भावविमुक्त्येति, भावविमुक्तिस्तु देशसर्वमेदावेधा, तत्र देशतः साधूनां भवस्थकेवलिपर्यंन्ताना, सर्वविमुक्तास्तु सिद्धा इति, अष्टविधकर्मविघटनादिति ॥ सूत्रानुगमे सूत्रमुच्चारयितव्यं, तच्चेदम्अणिच्चमावासमुविंति जंतुणो, पलोयए सुचमिणं अणत्तरं ।
an28८॥ विउसरे विन्नु अगारबंधणं, अभीरु आरंभपरिग्गहं चए॥१॥
Page #457
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ ६६ ॥
आवसन्त्यस्मिनित्यावासो - मनुष्यादिभत्रस्तच्छरीरं वा तमनित्यमुप- सामीप्येन यान्ति - गच्छन्ति जन्तवः - प्राणिन इति, चतसृष्वपि गतिषु यत्र यत्रोत्पद्यन्ते तत्र तत्रानित्यभावमुपगच्छन्तीत्यर्थः, एतच्च मौनीन्द्रं प्रवचनमनुत्तरं श्रुत्वा ‘प्रलोकयेत्' पर्यालोचयेद्, यथैव प्रवचनेऽनित्यत्वादिकमभिहितं तथैव लक्ष्यते - दृश्यते इत्यर्थः, एतच्च श्रुत्वा प्रलोक्य च विद्वान् 'व्युत्सृजेत्' परित्यजेत् ' अगारबन्धनं' गृहपाशं पुत्रकलत्रधनधान्यादिरूपं किम्भूतः सन् १ इत्याह'अभीरुः' सप्तप्रकारभयरहितः परीषहोपसर्गाप्रधृष्यश्च 'आरम्भ' 'सावद्यमनुष्ठानं परिग्रहं च सवाह्याभ्यन्तरं त्यजेदिति ॥ १ ॥ साम्प्रतं पर्वताधिकारे,—
तहागयं भिक्खुमणंतसंजयं, अणेलिसं विन्नु चरंतमेसणं ।
तुदति वायाहि अभिद्दवं नरा, सरेहिं संगामगयं व कुञ्जरं ॥ २ ॥
तथाभूतं साधुम् - अनित्यत्वादिवासनोपेतं व्युत्सृष्टगृहबन्धनं त्यक्तारम्भपरिग्रहं तथाऽनन्तेष्वे केन्द्रियादिषु सम्यग् यतः संयतस्तम् 'अनीदृशम्' अनन्यसदृशं 'विद्वांसं' जिनागमगृहीतसारम् 'एषणां चरन्तं' परिशुद्धाहारादिना वर्त्तमानं, तमित्थंभूतं भिक्षु ं 'नरा:' मिध्यादृष्टयः पापोपहतात्मानः 'वाग्भिः' असभ्यालापैः 'तुदन्ति' व्यथन्ते, पीडामुत्पादयतीत्यर्थः तथा लोष्ट प्रहारादिभिरभिद्रवन्ति च कथमिति दृष्टान्तमाह - सरैः सङ्ग्रामगतं कुञ्जरमिव ॥ २ ॥ अपि च
Hεill
Page #458
--------------------------------------------------------------------------
________________
अस्क.
भीआचागावृत्तिः (शीलाङ्का.)?
॥ह..॥
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
तहप्पगारेहिं जणेहिं हीलिए, ससहफासा फरसा उईरिया। तितिक्खए नाणि अदुढचेयसा, गिरिव्य वारण न संपवेयए ॥३॥
चूलिका.४ तथाप्रकार: अनार्यप्रायैर्जनः 'होलित: कदर्थितः, कथं, यतस्तैः परुषास्तीत्राः सशब्दाः-साक्रोशाः स्पर्शा:
विमुक्त्य शीतोष्णादिका दुःखोत्पादका उत्-प्राबल्येनेरिता-जनिताः कृता इत्यर्थः, तांश्च स मुनिरेवं हीलितोऽपि 'तितिक्षते' सम्यकसहते, यतोऽसौ 'ज्ञानो' पूर्वकृतकर्मण एवायं विपाकानुभव इत्येवं मन्यमान:, 'अदृष्टचेताः' अकलुषान्तःकरण: सन् 'न तैः संप्रवेपते' न कम्पते गिरिवि वातेनेति ॥ ३ ॥ अधुना रूप्यदृष्टान्तमधिकृत्याह
उवेहमाणे कुसलेहिं संवसे, अकंनदुक्खो तसथावरा दुही।
अलसए सव्वसहे महामुणी, तहा हि से सुस्समणे समाहिए ॥४॥ 'उपेक्षमाणः'परीषहोपसर्गान् सहमान इष्टानिष्टविषयेषु वोपेक्षमाणो-माध्यस्थ्यमवलम्बनः 'कुशल' गीतार्थैः सह संवसेदिति, कथम ?' अकान्तम्-अनभिप्रेतं दुःखम्-असातावेदनीयं तद्विद्यते येषां त्रसस्थावराणा तान् दुःखिनस्त्रसस्थावरान् ‘अलषयन्' अपरितापयन् पिहिताश्रवद्वारा पृथ्वीवत् 'सर्वसहः' परीषहोपसर्ग सहिष्णुः 'महामुनिः' सम्यग्जगत्त्रयस्वभाववेत्ता तथा ह्यसौ सुश्रमण इति समाख्यातः॥४॥ किश्चविऊ नए धम्मपयं अणुत्तरं, विणीयतण्हस्स मुणिस्स झायओ।
an६.०॥ समाहियस्सऽग्गिसिहा व तेयसा, तवो य पन्ना य जसो य वड्डइ ॥५॥
Page #459
--------------------------------------------------------------------------
________________
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
'विद्वान्' कालज्ञः 'मत' प्रणतः प्रहः, किं तत् १-'धर्मपदं' चान्त्यादिकं, किंभूतम् १-'अणुत्तरं' प्रधानमित्यर्थः, तस्य चैवंभृतस्य मुनेविगततृष्णस्य ध्यायतो धर्मध्यानं 'समाहितस्य' उपयुक्तस्याग्निशिखावतेजसा ज्वलतस्तपः प्रज्ञा यशश्च वर्द्धत इति ॥ ५॥ तथा
दिसोदिसंऽणंतजिणेण ताइणा, महव्वया खेमपया पवेइया।
महागुरू निस्सयरा उईरिया, तमेव तेउत्तिविसं पंगासगा ॥ ६॥ __ 'दिशोदिश मिति सर्वास्वप्येकेन्द्रियादिषु भावदिनु 'क्षेमपदानि' रक्षणस्थानानि 'प्रवेदितानि' प्ररूपितानि अनन्तश्चासौ ज्ञानात्मतया नित्यतया वा जिनश्च-रागद्वेषजयनादनन्तजिनस्तेन, किंभूतानि व्रतानि ?-महागुरूणि'
वहत्वात 'निःस्वकराणि' स्वं-कर्मानादिसम्बन्धात्तदपनयनसमर्थानि निःस्वकराणि 'उदीरितानि' आविकृतानि तेजस इव तमोऽपनयनास्त्रिदिशं प्रकाशकानि, यथा तेजस्तमोऽपनीयोर्धाधस्तिर्यक प्रकाशते एवं तान्यपि कर्मतमोऽपनयनहेतुत्वात्रिदिशं प्रकाशकानीति ॥६॥ मूलगुणानन्तरमुत्तरगुणानिधित्सयाऽऽह--
सिएहिं भिक्खू असिए परिव्वए, असन्जमित्थोसु चइज पूयणं ।
अणिस्सिओ लोगमिणं तहा परं. न मिजई कामगुणेहिं पंडिए॥७॥ सिताः-बद्धाः कर्मणा गृहपाशेन रागद्वेषादिनिबन्धनेन वेति गृहस्था अन्यतीर्थिका वा तैः 'असितः अबद्धः-तैः साद्धं
8..॥
Page #460
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीआचा 'राङ्गवृत्तिः (शीलाङ्का.)
॥ ६०२ ।।
सङ्गमकुर्वन् भिक्षुः 'परिव्रजेत्' संयमानुष्ठायी भवेत्, तथा स्त्रीषु 'असजन्' सङ्गमकुर्वन् पूजनं त्यजेत् न सत्काराभिलाषी भवेत्, तथा 'अनिश्रितः' असंबद्धः 'इहलोके' अस्मिन् जन्मनि तथा 'परलोके' स्वर्गादाविति, एवंभूतश्च 'कामगुणैः' मनोज्ञशब्दादिभिः 'न मीयते' न तोन्यते न स्वीक्रियत इतियावत् 'पण्डितः ' कटुविपाककामगुणदर्शीति ॥ ७ ॥
तहा विमुकस्स परिन्नचारिणो, धिईमओ दुक्खखमस्स भिक्खुणो ।
विसुज्झई जंसि मलं पुरेकडं, समीरियं रूप्पमलं व जोइणा ॥ ८ ॥
' तथा ' तेन प्रकारेण मूलोत्तरगुणधारित्वेन विमुक्तो - निसङ्गस्तस्य, तथा परिज्ञानं परिज्ञा- सदसद्विवेकस्तया चरितु शीलमस्येति परिज्ञाचारी - ज्ञानपूर्वं क्रियाकारी तस्य, तथा धृतिः - समाधानं संयमे यस्य स धृतिमांस्तस्य, दुःखम् - असातावेदनीयोदयस्तदुदीर्णं सम्यक् क्षमते-सहते, न वैक्लव्यमुपयाति नापि तदुपशमार्थ वैद्यौषधादि मृगयते, तदेवंभूतस्य भिक्षोः पूर्वोपात्तं कर्म 'विशुध्यति' अपगच्छति, किमिव ? - ' समीरितं' प्रेरितं रूप्यमलमिव 'ज्योतिषा' अग्निनेति ॥ ८ ॥ साम्प्रतं भुजङ्गत्वगधिकारमधिकृत्याह-
सेहु परिन्नासमयंमि वहई, निराससे उवरय मेहुणा चरे । भुयंगमे जुन्नतयं जहा चए, विमुचई से दुहसिज माहणे ॥ ९ ॥
'स' एवंभूतो भिक्षु लोचरगुणधारी पिण्डैषणाध्ययनार्थ करणोद्युक्तः परिज्ञासमये वर्त्तते, तथा 'निराशंसः ' ऐहिका
श्रुतस्कं० २ चूलिका • ४ विमुक्त्य०
॥ ६०२ ॥
Page #461
--------------------------------------------------------------------------
________________
मुष्मिकाशंसारहितः, तथा मैथुनादुपरतः, अस्य चोपलक्षणत्वादपरमहाव्रतधारी च, तदेवंभूतो भिक्षुर्यथा सर्पः कञ्चुकं मुक्त्वा निर्मलीभवति एवं मुनिरपि 'दुःखशय्यातः' नरकादिभवाद्विमुच्यत इति ॥ ९॥ समुद्राधिकारमधिकृत्याह. जमाहु ओहं संलिलं अपारयं, महासमुहं व भुयाहि दुत्तरं ।
अहे य णं परिजाणाहि पंडिए, से हु मुणी अंतकडेत्ति बुच्चई ॥१०॥ ___ 'यं संसारं समुद्रमिव भुजाभ्यां दुस्तरमाहुस्तीर्थकृतो गणधरादयो वा, किम्भूतम् ?-ओषरूपं, तत्र द्रव्यौषः सलिलप्रवेशो भावौध आस्रवद्वाराणि, तथा मिथ्यात्वाद्यपारसलिलम् , इत्यनेनास्य दुस्तरत्वे कारणमुक्तम् , अर्थमं संसारसमुद्रमेवंभूतं ज्ञपरिज्ञया सम्यग् जानीहि प्रत्याख्यानपरिज्ञया तु परिहर 'पण्डितः' सदसद्विवेकज्ञः, स च मुनिरेखंभूतः । कर्मणोऽन्तकृदुच्यते ॥ १०॥ अपिच
जहा हि बडू इह माणवेहिं, जहा य तेसिं तु विमुक्ख आहिए।
अहा तहा बन्धविमुक्ख जे विऊ, सेहु मुणी अंतकडेत्ति वुच्चई ॥११॥ 'यथा' येन प्रकारेण मिथ्यात्वादिना 'बई' कर्म प्रकृतिस्थित्यादिनाऽऽत्मसात्कृतम् 'इह' अस्मिन् संसारे 'मानवैः' मनुष्यैरिति तथा यथा च सम्यग्दर्शनादिना तेषां कर्मणां विमोक्ष आख्यातः इत्येवं याथातथ्येन बन्धविमोक्षयोर्यः सम्यग्वेत्ता स मुनिः कर्मणोऽन्तकृदुच्यते ॥ किश्च
8.३॥
Page #462
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीजाचा राङ्गवृत्तिः
(शीलाङ्का.)
॥ ६०४ ॥
इममि लोए परए य दोसुवि, न विज्जई बघण जस्स किंचिवि ।
से हु निरालंबणमप्पट्ठिए, कलंकली भाव पहं विमुच्चइ ॥ १२ ॥
॥ त्ति बेमि ॥ विमुत्ती सम्मत्ता ॥ २-४ ॥ आचाराङ्गसूत्रं समाप्त ॥ ग्रन्थानं २५५४ ॥ अस्मिन् लोके परत्र च द्वयोरपि लोकयोर्न यस्य बन्धनं किञ्चनास्ति सः 'निरालम्बनः' ऐहिकामुष्प्रिकाशंसारहितः 'अप्रतिष्ठितः' न क्वचित्प्रतिबद्धोऽशरीरी वा स एवंभूतः 'कलंकली भावात्' संसारगर्भादिपर्यटनाद्विमुच्यते ॥ ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥ उक्तोऽनुगमः, साम्प्रतं नयाः, ते च ज्ञानकियानययोरवतरन्ति तत्र ज्ञाननयः प्राह-यथा ज्ञानमेवैहिकामुष्मिकार्थावासये, तदुक्तम् — “ णायम्मि गिहिअव्वे अगिव्हिअध्वमि चेव अत्थंमि । जइअव्वमेव इइ जो उवएसो सो णओ नाम ॥ १ ॥" यतितव्यमिति ज्ञाने यत्नो विधेय इति य उपदेशः स नयो नामेति-स ज्ञाननयो नामेत्यर्थः । क्रियानयग्त्विदमाह - "क्रियैव फलदा पुंसां, न ज्ञानं फलदं मतम् । यतः स्त्रीभक्ष्यभोगज्ञो, न ज्ञानात्सुखितो भवेत् ॥ १ ॥” तथा “ शास्त्राण्यधीत्यापि भवन्ति मूर्खा, यस्तु क्रियावान् पुरुषः स विद्वान् । संचिन्त्यतामौषधमातुरं हि किं ज्ञानमात्रेण करोत्यरोगम् १ । १ ।।" तथा - णायमित्यादि, ज्ञातयोरपि ग्राह्यग्राह्ययोरर्थयोस्तथाऽपि यतितव्यमेवेति क्रियैवाभ्यसनीयेति, इति यो नयः स क्रियानयो नामेति, एवं प्रत्येकमभिधाय परमार्थोऽयं निरूप्यते-- 'ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्ष' इति, तथा चागमः - "रुव्वेसिंपि नयाणं बहु
श्रुतम्कं० २ चूलिका • ४ विमुक्त्य ०
॥ ६०४ ॥
Page #463
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥९०५॥
विहवत्तव्वयं निसामित्ता। तं सन्वनयविसुदं जं चरणगुणडिओ साहू ॥१॥" परणं-क्रिया गुणो-ज्ञानं तद्वान् साधुर्मोक्षसाधनायालमिति तात्पर्यार्थः॥
आचारटीकाकरणे यदाप्तं, पुण्यं मया मोक्षगमैकहेतुः ।
तेनापनीयाशुभराशिमुच्चैराचारमार्गप्रवणोऽस्तु लोकः ॥ १ ॥ ___ अन्त्ये नियुक्तिगाथा:--
आयारस्स भगवओ चउत्थचूलाइ एस निज्जुत्ती। पंचमचूलनिसीहं तस्स य उपरि भणीहामि ॥३४४॥ | सत्तहिं छहिं चउचउहि य पंचहि अट्ठचउहि नायव्वा उद्देसएहिं पढमे सुयखंधे नव य अज्झयणा ॥३४॥ इकारस तिति दोदो दोदो उद्देसएहिं नायव्वा । सत्तयअट्ठयनवमा इकसरा हुंति अज्झयणा ॥ ३४६॥ ।
॥ इतिश्री आचाराङ्गनियुक्तिः ॥ पाहण्णे महसदो परिमाणे चेव होइ नायव्वो। पाहण्णे परिमाणे य छव्विहो होइ निक्खेवो॥१॥ दध्वे खेत्ते काले भावंमि य होति या पहाणा उ । तेसि महासद्दो खलु पाहणेणं तु निप्फनो ॥२॥
R||९०५ दवे खेत्ते काले भावंमि य जे भये महंता उ । तेसु महासहो खलु पमाणओ होति निष्फनो ॥३॥
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
Page #464
--------------------------------------------------------------------------
________________
भीआचा
राङ्गवृत्तिः (शीलाङ्का.)
।। ९०६ ।।
*****
܀܀܀܀܀
दव्वे खेत्ते काले भावपरिण्णा य होइ बोडव्वा । जाणणओववक्स्वणओ य दुविहा पुणेक्केका ॥ ४ ॥ भावपरिण्णा दुविहा मूलगुणे चेष उत्तरगुणे य । मूलगुणे पंचविहा दुविहा पुण उत्तरगुणेसु ॥ ५ ॥ पाहणेण उपायं परिण्णाए य तहय दुविहाए । परिण्णाणेसु पहाणे महापरिण्णा तओ होइ ॥ ६ ॥ देवोणं मणुईणं तिरिक्खजोणीगयाण इत्थोणं । तिविहेण परिचाओ महापरिण्णाए निज्जुत्तो ॥ विवृता नियुक्तिरेषा महापरिज्ञायाः, अविवृता इत्यत्रोपन्यस्ताः ।
७ ॥
॥ इत्याचार्य श्रीशीलाङ्कभूरीन्द्र विरचितायामाचार टीकायां द्वितीयश्रुतस्कन्धः समाप्तः ॥ ।। समाप्तं चाचाराङ्गमिति ॥ ॥ ग्रन्थाग्रम् १२००० ॥
।। इति श्रीमदाचाराङ्गविवरणं श्रीशीलाङ्काचार्योयं समाप्तम् ॥
******
श्रुत०, २ चूलिका 1 विमुक्त्य
॥ ९०६
Page #465
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री- पुष्पामृत जैन ग्रन्थमाला ना प्रकाशनों
प्रन्यांक ग्रन्थ नाम
मूल्य रु. पैसा ग्रन्थांक
१५ सोम भौम कथा तथा तपोमूर्ति पू. प्रा. श्री विजय कर्पू रसूरिजी म. नुं जीवन चरित्र ०-५०
२-५० ०-६०
०.५०
०-५०
०-८०
०-२५
०-२०
०-५५
ग्रन्थांक
ग्रन्थनु नाम
मूल्य रु० पैसा १-५०
१ दीक्षानु ं सुन्दर स्वरूप २ विधियुक्त पौषधविधि
१-३५
१३ स्वाध्याय सुधारस (नूतन सज्झायो ) ०-५० ४ स्तवनामृत संग्रह
१-५०
५ जिनेन्द्र भक्ति भावना ( चोथी प्रवृत्ति) १-२५
६ जय विजय कथानकम्
७ नवस्मरणादि स्तोत्र संग्रह ८ चतुर्विंशतिजिन चैत्यवंदनादि
६ श्री लेखामृत संग्रह भा. १ लो १० सद्गुरुवंदन चैत्यवंदन सामायिकविधि
११ चौद नियम धारवानी बुक
१-००
(त्रीजी प्रवृत्ति ) ० - २०
१-००
१२ लेखामृत संग्रह भा. २ जो १३ अमृत बिन्दु
०-५०
१४ जिनेन्द्र भक्तिसुधा (आवृत्ति चोथी) ४००
१६ संक्षिप्त श्राद्धधर्म प्रथम भाग १७ स्नात्र पूजा अर्थ साथै स्तवनादि १८ श्री लेखामृत संग्रह भा. ३ १९ होलिका व्याख्यान ( चौथो प्रावृत्ति) २० मंगल कलश कथा ( २ जी प्रावृत्ति) २१ प्रभु महावीर देव ( बीजी प्रवृत्ति) २२ नित्यनोंध
२३ बे प्रतिक्रमण सूत्र (त्रीजी प्रावृत्ति) २४ श्री विविध पूजामृत संग्रह २५ महात्मा मत्स्योदर (सचित्र) २६ श्री लेखामृत संग्रह भा. ४
२७
भा. ५
11
33
१६-००
२-००
८-७५
०-७५
ग्रन्थ नाम
२८ श्री लेखामृत संग्रह भा. ६ २६ श्री श्रमृत गहुंली संग्रह ३० भक्तिरस प्याला
·
मूल्य रु. पेसा
०-७५ ०-७५
०-७५
३१ श्री जिनेन्द्र पूजा पीयूष (बीजी प्रावृत्ति ) ०-५० ३२ तिथिचर्चामा सत्यनु' स्पष्टीकरण
०-५०
३३ सामायिक चैत्यवंदनादि सूत्रो
( त्रीजी प्रावृत्ति ) ०-२०
३८ छन्दोमृतरस:
३६ समेतशिखर तीर्थवंदना
३४ महासती सुलसा
८-५०
३५ शास्त्रदर्पण [पर्व प्राराधना अंगे प्रमाणो ] ०-४० ३६ अक्षय तृतीया । सचित्र ]
१-५०
३७ कार्तिक पूर्णिमा महिमा
०-५०
४० नारकी चित्रावली [ चोथी प्रवृत्ति ] ४१ शत्रुञ्जय तीर्थवंदना (बोजी प्रवृत्ति
)
०-३०
०-१६
१६-००
०-२०
Page #466
--------------------------------------------------------------------------
________________ 74 भा. 12 प्रन्यांक ग्रन्थनु नाम मूल्य रु. पैसा ग्रन्थांक ग्रन्थनु नाम मूल्य रु.पंसा ग्रन्थांक ग्रन्थनु नाम मूल्य रु. पैसा 42 भक्तामर सौरभ (महिमा कथानो) 3-50 56 जन्म पत्रिका रजीस्टर . 71 श्री पागम सुधा सिन्धू भा. 5 43 नारकी चित्रावली (हिन्दी) ___ (300 कुडली माटे) 4-00 भा.६ 45-00 44 मनोहर स्वाध्याय सौरभ .57 धनंजय नाममाला भा.७ 75-0. (उत्तराध्ययन मूल) 1-75 -05 58 जिनेन्द्र सगीतमाला 3-50 भा. 25-00 45 महामन्त्र प्रभाव .-80 56 अनेकार्थ संग्रह सटीक भाग १लो 10-00 भा. 46 श्री नमस्कार पद स्तवना 6. जय शंखेश्वरनाथ भा.१० भा.११ 47 वार्ता विहार 61 चैत्री पूर्णिमानो महिमा 35-00 48 सत्कर्म चित्रावली (त्रीजी आवृत्ति) छपाय छे. 62 श्री उपासक दशा (सटीक) भा. 13 35-00 46 कल्पसूत्र पूजा व्याख्यान (सचित्र) 63 श्री अंतकृत् दशा अनुत्तरौपातक दशा भा. 14 25-00 (सटीक) 4.00 52 सिद्धिप्रबंध तथा पर्युषण अष्टाह्निका व्याख्यान 6. नवस्मरण अने गौतमस्वामी साथे 83 पच्चक्खाण समय दर्शन 1-25 (२जी प्रा.) 10-00 रास (प्रत) 2-00 84 देव वंदन माला 3-0 ५०पू. बापजी म. नो खुलासो .20 . 65 श्री सूत्रकृतांग सूत्र मूल 12-50 85 श्री पातञ्जलयोगदर्श (पू.यशो वि.म.टीका) 51 कुलभूषण (सचित्र कथा) 2-00 66 श्री स्थानांग सूत्र मूल 25-80 ___ योग विशिका सटीक भेष्ट 52 लक्ष्मी सरस्वती संवाद 6. श्री समवायांग सूत्र मूल 15-00 86 श्री प्राचाराँग सटीक भाग 1 35-00 53 श्री पाचारांग मूल 6. श्री आगम सुधा सिन्धु भा. 1 '87 भाग 2 40-00 10-00 भा. 2 65-00 छपाय छे-पर्व कथा संग्रह : चौमासी 54 सुनंदा रूपसेन 70 भा. 3 65-00 पर्व कथा, बे प्रतिक्रमण विधि-सहित, 55 पारसमणि-(वार्ता संग्रह) 1-25 71 // भा.४ 7.-00 भनेकार्थ संग्रह सटीक भाग 2 जो. 0-50