________________ (32) से अप्रतिबद्ध हो अपने शत्रु और मित्र को समान दृष्टि से देखते हुए, भूमि पर विचरण करते हैं। विचरण इस प्रकार होता है प्रभु प्रथम तो निर्मम '-ममत्व-मेरापन का त्याग-हो कर विचरते हैं / दूसरे अकिंचन-द्रव्यादि परिग्रह रहित हो कर विचरण करते हैं। फिर काँसी के पात्र की भाँति स्नेहरहित हो कर विचरते हैं / यानि जिस भाँति काँसी के बर्तन . पानी से नहीं खरड़ाते हैं उसी भाँति भगवान् भी किसी पदार्थ से नहीं खरड़ाते हैं-लिप्त नहीं होते हैं। भगवान् जीव के समान अप्रतिहत गति वाले, गगन के समान निराधार, शारद सलिल के समान-स्वच्छ हृदय वाले कमल के समान निर्लेप, कछुवे के समान गुप्तेन्द्रिय; सिंह के समान निर्मीक, मारंड पक्षी के समान अप्रमादी, कुंजर-हाथी के समान शौंडीर्यवान् , वृषभ के समान बलवान्-यानि जिस भाँति वृषभबैल-मार वहन करने की-ढोने की शक्ति रखता है, वैसे ही भगवान् भी स्वीकृत पंच महाव्रत का भार वहन करने की शक्ति रखते हैं / मेरु के समान अडिग; सागर के समान गंभीर-जैसे समुद्र में कुछ भी गिरे परन्तु वह अपने स्वभाव को नहीं छोडता है, उसी भाँति प्रभु भी हर्ष-विषाद के कारण मिलने पर भी अविकृत स्वभाव वाले रहते हैं। फिर प्रमु चंद्र के समान शान्त,