________________ ( 135 ) में राक्षस के समान है; व्यसन रूपी लता की जड़ है और सारे अर्थों का बाधक है। जैसे जैसे मनुष्य को लाभ होता जाता है वैसे ही वैसे . उस का लोम भी बढ़ता जाता है / इसीलिए बड़े लोग कह गये हैं कि:-' लामालोमः प्रवर्धते / लोभ किसी जगह पर भी जाकर नहीं थमता है। धनहीनः शतमेकं सहस्रं धनवानपि / सहस्राधिपतिर्लक्ष कोटि लक्षेश्वरोऽपि च // 1 // कोटीश्वरो नरेन्द्रत्वं नरेन्द्रश्चक्रवर्तिताम् / चक्रवर्ती च देवत्वं देवोऽपीन्द्रत्वमिच्छति // 2 // भावार्थ-निर्धन मनुष्य प्रथम सौ रुपये की इच्छा करता है; सौ रुपये मिलने पर उसको हजार की च ह होती है; सहस्राधिपति को लक्षाधिपति होने की इच्छा होती है और लक्षाधिप को कोट्याधिप बनने की / करोडपति मांडलिक बनना चहाता है मांडलिक चक्रवर्ती होने की कामना करता है; चक्रवर्ती देवता बनना चाहता है और देवता इन्द्र बनने की इच्छा करते है। मगर इन्द्र होजाने पर लोभ शान्त नहीं होता है। उत्तराध्ययनसूत्र के अंदर लिखा है कि इच्छा आकाश के समान है। जैसे आकाश का कोई अन्त नहीं है वैसे ही इच्छा का भी कोई.