________________ ( 274 ) . शास्त्रों में यह बात विस्तार के साथ नहीं बताई गई है। वास्तव में देखा जाय तो जब तक जीव और अजीव का ज्ञान नहीं होता है, तब तक कोई जीवदया का हिमायती नहीं हो सकता है / क्योंकि जब तक कारणशुद्धि का ज्ञान नहीं होता तब तक कार्य की शुद्धि होना अति कठिन है। सबसे पहिले तो सूक्ष्मदृष्टि के साथ यह विचार करना चाहिए कि जगत में जीव कितने प्रकार के हैं ? केवल स्थूल दृष्टि से चौरासी लाख जीव कैसे होते हैं ? इसका विस्तार वेदों में नहीं है / थोड़ा बहुत पुराणों में है। ___ हमारी ऐसी मान्यता है कि, पुराणों के अंदर जीवों का जो थोड़ा बहुत भेद बताया गया है वह जैनशास्त्रानुसार है / उनमें जो असंभव बाते हैं वे मनःकल्पित होंगी। आजकल वेदानुयायी लोगों की श्रद्धा पुराणों से हटती जाती है / इसका कारण पुराणों के कर्ताओं का अप्रामाणिक होना जान पड़ता है। तीर्थकर महाराज का उपदेश, निर्विकारी, परस्पर अविरुद्ध और आत्मश्रेय कर्ता है / उसमें बताया गया है कि, कर्म कितनी तरहके हैं ! कर्म आस्मा के साथ कैसे संबंध करते हैं ! और कैसी कृति करने से उन कर्मों का नाश होता है ? जैनशास्त्र उन्हीं वीतराग प्रभु के उपदेशों का संकलन है। मगर अफसोस है कि, वर्तमानकाल में जीव इन्द्रिय सुख में लंपट बन, थोड़े से कठिन आचरणों को देख घबरा जाते हैं। वे सोचने लगते हैं