________________ (36) न याति कतमा योनि कतमा वा न मुश्चति / संसारी कर्मसम्बन्धादवक्रयकुटीमिव ? // 3 // समस्तलोकाकाशेऽपि नानारूपैः स्वकर्मतः / वालाग्रमपि तन्नास्ति यन्न स्पृष्ट शरीरिमिः // 4 // संसारिणश्चतुभेदाः श्वभ्रितियनमराः / / प्रायेण दुःखबहुलाः कर्म संबन्धबाधिताः // 5 // भावार्थ-१-हे भव्यो / यह घोर संसार, समुद्र की तरह अपार है, और प्राणियों को चौरासी लाख योनियों में भटकानेवाला है। २-इस संसार रूपी नाटकशाला में जीव, किसीवार ब्राह्मण का रूप धरता है और किसीवार चांडाल बनता है। किसीवार सेवक होता है और किसीवार स्वामी का वेष लेता है। किसीवार ब्रह्मा का पार्ट करता है और किसीवार पेट का कीड़ा हो जाता है। ३-संसारी जीव किराये की कोठड़ी की तरह कौनसी योनि में नहीं जाता है ? और कौन कीसीको नहीं छोड़ता है ? अर्थात् जीव को सब योनियों में जाना पड़ता है और सबको वापिस छोड़ना भी पड़ता है। ४-नाना प्रकार के रूप धरकर जीव कर्म के योग से समस्त लोकाकाश में किरा है। बाल बराबर भी स्थान ऐसा नहीं रहा जिस में जीव न गया हो। तात्पर्य कहने का यह है कि, जीव समस्त लोका काश में अनन्तवार जन्म मरण कर चुका है। 5- संसारी नीव चार भागों में