________________ (543) इहोपपत्तिर्ममकेनकर्मणा कुत प्रयातव्यमितो भवादिति / विचारणा यस्य न जायते हृदि, कथं स धर्मप्रवणो भविष्यति // भावार्थ-किन कर्मों के कारण मैं यहाँ उत्पन्न हुआ हूँ ? इस भव को छोड़ कर मुझ को कहाँ जाना है ! ऐसे प्रश्न जिस मनुष्य के हृदय में नहीं उठते है, वह किस तरह धर्म में तत्पर हो सकता है ? इसी लिए विशेष पुरुष धर्म के योग्य गिने गये है। अट्ठाईसवाँ गुण / कृतज्ञः-अर्थात् परकृत उपकार को सदा ध्यान में रखना, मार्गानुसारी का अठ्ठाइसवाँ गुण है। संसार में ऐसे कृतज्ञ पुरुष ही कम होते हैं। कहा है किः विद्वांसः शतशः स्फुरन्ति भुवने सन्त्येव भूमिभृतो, वृत्ति वैनयिकी च बिभ्रति कति प्रीणन्ति वाग्भिः परे / दृश्यन्ते सुकृतक्रियासु कुशला दाताऽपि कोऽपि क्वचित् कल्पोर्वीरुहवद्वने न सुलमः प्रायः कृतज्ञो जनः // भावार्थ--संसार में सैकड़ों विद्वान् है; विनयवान् और दूसरों को मधुर भाषण से प्रसन्न करनेवाले राजा भी अनेक है और पुण्यकृति कुशल, कल्पवृक्ष के समान दाता भी कई है; परन्तु कृतज्ञ मनुष्यों का मिलना अतीव कठिन है। जो कृतज्ञ होते है वेही धर्मकार्य कर निस्तार पा सकते है। कृतघ्नों का कहीं निस्तार नहीं होता है।