________________ (549 ) दोनों बातों का समाधान हो जाता है। धर्मप्राप्ति के पहिले मनुष्य स्वभावसे ही मर्यादावृत्ति रखनेवाला होता है / धर्म प्राप्ति के बाद भी मर्यादापूर्वक ही विषयादि का सेवन करना बताया गया है / मनुस्मृति के तीसरे अध्याय में भी लिखा है कि: ऋतुकालाभिगामी स्वात्स्वदारनिरतः सदा / पर्वर्ज व्रजेचैनां तद्वतो रतिकाम्यया // 45 // भावार्थ-ऋतुकाल बीतने पर स्त्रीके पास जानेवाला, सदा अपनी ही स्त्री में संतोष रखनेवाला और अमावस्या, एकादशी छोड़कर विषय की वांछा करनेवाला सद्गृहस्थ कहलाता है। इससे विपरीत चलनेवाला ब्रह्महत्या का पाप करनेवाला और निरंतर सूतकी समझा जाता है। संसार में मनुष्य को शूरवीर बनने की बहुत ज्यादह आवश्यकता है। मनुष्य जब व्यावहारिक कार्य भी शुरवीरता के विना नहीं कर सकते हैं तब वे धर्म कार्य तो कर ही कैसे सकते हैं ? मगर यहाँ शुरवीर का लक्षण बता देना आवश्यकीय है। नीतिकारों का कथन है कि-'शतेषु जायते शूरः / यानी सौ मनुष्यों में शूरवीर एक ही होता है / मगर शूरवीर होता कौन है ? इसका उत्तर वही नीतिकार देते हैं-' इन्द्रियाणां जये शूरः' अर्थात् जो इन्द्रियों को जीतता है वही सच्चा शूर होता है / शूरवीरता दिखाकर मनुष्य जबतक, इन्द्रियों को वश में नहीं करता है, जबतक वह अपनी इन्द्रियों